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जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो.
सम्मान योगिनियोगीश्वरैर्महामुनि निर्ध्यायते । ध्यानगोचरः क्रियते । कथं नूतः सः । लृप्तकर्म्म निधनः कृतं रचितं कृतं अष्टानां कर्म्मणां निधनं विनाशो येन सः कृतकर्म निधनः॥ सिावस्थां प्राप्त इत्यर्थः॥ १ ॥ इतिपूजायाः प्रस्तावः
जाषा काव्यः - वृत्त उपर प्रमाणें ॥ जो जिनंद पूजें मूलनसों, सुर नैन नि पूजा तिसु होइ ॥ वंदें जाव सहित जो जिनवर, वंदनीक त्रिवन में सोइ ॥ जो जिन सुजस करें जन ताकी महिमा इंड् करें. सुर लोइ ॥ जो. जिनध्यान क रंत बनारसि, ध्यावै मुनि ताके गुन जोइ ॥ १२ ॥
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वे चार लोकें करी गुरुन किनुं द्वार कहे बे. ॥ वंशस्थवृत्तम् ॥ अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्त्तते, प्रव र्त्तयत्यन्यजनं च निःस्टदः ॥ स एव सेव्यः स्वदि तैषिणा गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं क्रमः परम् ॥ १३ ॥
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अन्य
अर्थ : - ( स्वहितै प्रिया के ० ) पोताना हितना वांढक पुरुष (सएव के० ) तेहीज ( गुरुः कें० ) गुरु ( सेव्यः के० ) सेवन करवा योग्य बे. ते केवा गुरु सेववा योग्य, बे ? तो के ( अवद्यमुक्ते के० ) अवद्य जे पाप तेथकी मुके एटले मुकायेला एटले सत्य एवा (पथि के०) मार्गने विषे ( यः के० ) जे गुरु (प्रवर्तते के०) प्रवर्त्ते बे (च के० ) वली ( धन्यजनं के जनने शुद्ध मार्गने विषे ( प्रवर्तयति के० ) प्रवत्तवे बे. वली (निःस्पृहः के० ) परिग्रहादि वांबारहित बता जे गुरु ( स्वयं के० ) पोतें (तरन् के ० ) संसारसमुड् तरा बता ( परं के० ) अन्यने ( तारयितुं के० ) तारवाने (मः के० ) समर्थ होय बे. ये गुरु शब्दनो अर्थ गुंबे ? तो के (गृणाति एटले कहे बे तवने ते गुरु कहियें. अर्थात जे तत्त्वोपदेशक शुद्ध प्ररूपक ते गुरु जावा. ए माटे जे शुद्धप्ररूपक तथा जिनाज्ञाराधक होय, ते गुरु से ववा योग्य बे. परंतु जमाव्यादिक कुगुरु सेववा योग्य नहिं, कुगुरु केवा होय बे ? तो के उत्सूत्रना प्ररूपक, स्वछंद, पोतानी मतियें कल्पित एवा मत करनारा तथा जिनाज्ञाना विराधक घने मायावी होय बे. माटें हे नव्य जीवो ! ए प्रकारें जालीने मनने विषे विवेक लावीने जे गुंड प्ररूपक तथा जिनाज्ञाऽराधक एवा गुरु होय, तेने सेववा. सेवन करनारने० ॥ १३॥ टीकाः - अथ चतु निर्वृत्तर्गुरुन तिहारमाह ॥ श्रवद्यमुक्तेति ॥ खात्महितवां