Book Title: Jain Darshan Atma dravya vivechanam
Author(s): M P Patairiya
Publisher: Prachya Vidya Shodh Academy Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन आत्मद्रयविवेचनम् The Treatment of Soul in Jain Philosophy शिक्षामन्त्रालय-भारतसर्वकारार्थसाहाय्येन प्रकाशितम् (PUBLISHED WITH THE FINANCIAL ASSISTANCE FROM THE MINISTRY OF EDUCATION, GOVT. OF INDIA) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालायाः प्रथमं जैनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम् वाराणसेय संकृत विश्वविद्यालयस्य ( Ph. D. ) विद्यावारिध्युपाधये स्वीकृतः शोधप्रबन्धः डॉ० सुक्ताप्रसादः पटेरिया जैनदर्शन-व्याकरण पुराखेतिहासाचार्यः ( स्वर्णपदकः), साहित्यरत्नम्, विद्यावारिधि: ( Ph.D.) जैनदर्शन विभागाध्यक्षः, श्री महावीरविश्वविद्यापीठम्, शङ्करमार्गः, नई दिल्ली- ६० 1973 प्राच्य विद्या शोध अकादमी, नई दिल्ली-प Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोधग्रन्थमालायाः सम्पादकमण्डलम् - प्रो० राजारामशास्त्री, संसत्सदस्यः, (०. पू० उपकुलपतिः काशविद्यापीठस्य ) अध्यक्ष:, प्राच्यविद्याशोध - अकादम्याः, प्रो० डॉ० सत्यव्रतशास्त्री, अध्यक्ष:, संस्कृतविभागस्य, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली- ७ डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी, प्रवाचकोsध्यक्षश्च शोधविभागस्य, श्री ला० ब० शा० केन्द्रीयसस्कृत विद्यापीठम्, नईदिल्ली - २२ पं० दामोदरशास्त्री, अध्यक्ष, प्राकृत पालिविभागस्य, श्रीमहावीर विश्वविद्यापीठम्, नईदिल्ली-६० प्रकाशक : प्राच्यविद्या शोध-अकादम्या निदेशक:, २६ / १५२, पश्चिमीपटेलनगरम्, नईदिल्ली-८ प्रथम संस्करणम् १६७३ ई० प्रतय. १००० मूल्यम् - Rs © सर्वेऽधिकारा लेखकाधीनाः मुद्रक. ग्रानन्दप्रकाशसिंघल, आनन्दप्रिंटिंग प्रेस, २ / ३४, रूपनगरम् बिल्ली-७ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष धर्मशास्त्र-कर्मकाण्डमर्मज्ञाः श्रौतस्मातकर्मानुष्ठानपरायणा परमपूज्या पितृपादाः पतिश्रीहरनारायणपटरियाः By 407 C AL SA HERE स समर्पणम् यवीयाङ्के क्रीडन् शिशुवयसिजो मातृविरहोअनुभूतो नवाल्पः पितृसुखमपि प्राप्तमतुलम् । तपोमूर्ते विद्वत्प्रवर हरनारायण पितुः, कृतिर्भक्त्याऽऽद्या तत्पदकमलयोरर्यत इयम् ॥ -मुक्ताप्रसादः Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीयम् इह खलु जगत्याग्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वेषां प्राणिना सुखाप्तये दुःखनिवृत्तये च निसर्गत एव प्रवृत्तिश्पते । निरतिशयसुखरूपा निरतिशयदुःखनिवृत्तिरूपा या याऽवस्था सैव मोक्षः । तदकस्थावाप्तिः ससारबीजभूतहेतूनां विनाशानन्तरमेव सम्भवति । तसिद्धिश्चाऽऽत्माऽनात्मविवेकं विना न सुकरेति निश्चचम् । श्रुतिरपि पुत्रं मातेव मुमुक्षुजनान्सन्मार्गे प्रवर्तयितु मोससाधनीभूतमात्मसाक्षात्काराय योजयति-'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निविध्यासितव्यः' (बृहदा० उ० २।४।६) इति । 'तरति शोकमात्मवित्' (छान्दोग्यो. ७।११३) इत्पादिश्रुतिवाक्यरप्यात्मतत्त्वस्य मोक्षोपादेयत्वं जोघुष्यते । लोकेऽपि सर्व. प्राणी प्रत्यगात्मास्तित्वं प्रत्येत्यहमस्मीति । न हि कश्चिदपि नाहमस्मीति विप्रतिपद्यते । तस्मादात्मतत्त्वमसन्दिग्धम् । तथापि धर्म प्रति विप्रतिपत्तयो बहुविधा इति विशेषप्रतिपत्तिरुपपद्यते । अत एव प्रमुखर्भारतीयदर्शनैरात्मतत्त्वस्य मोक्षावाप्तिसाधनभूततया तन्निरूपणं स्व-स्वसिद्धान्तभित्तीराश्रित्य व्यधायि । तथा हि- चतन्यविशिष्टो देह आत्मेति लोकायताः, क्षणभङ्गुरं सन्तन्यमानं विज्ञानमात्मेति बौद्धाः । कर्तृत्त्वादिविशिष्टः परमेश्वराद भिन्नो जीवात्मेति नैयायिका मन्वते । भोक्तं व केवलं, न कर्तेति सांख्या प्रतिजानते । चिद्र पः कर्तृत्त्वादिरहितः परस्मादभिन्नः प्रत्यगात्मेत्योपनिषदा' स्वीकुर्वन्तीत्येतेषु सर्वेषु दर्शनेषु दुराग्रहप्रन्थिनिर्मोचकेनानेकान्तवादेन स्याद्वादसिद्धान्तेन चातिशयं वैशिष्ट्यं समादधता जैनदर्शनेन मोक्षमार्गाङ्गीभूतस्य सम्यग्ज्ञानस्याऽऽत्माऽनात्मविवेकरूपस्य स्वीकृतत्वादन स्मरूपविविधपदा निरूपणपुरस्सरमात्मतत्त्वस्य स्वरूपं प्रत्यपादि-इति जनदर्शनीयात्मतत्त्वनिरूपणप्रसङ्गेन समस्ताहंतदर्शनहार्दमेव प्रकाशयतो 'जनवर्शन मात्मव्यविवेचनम्' इति महच्छोधप्रबन्धस्य भारतीयदर्शनेषु प्रतिपादितात्मसम्बन्धिसिद्धान्तान् यथास्थानं सम्यग्निरूपयतश्च सर्वाङ्गीणत्वमव्याबाधं वरीवति -इति विविधपर्यालोचनानन्तरं प्राच्यविद्याशोधअकादम्यतद्ग्रन्थस्य शोधग्रन्थमालान्तर्गतं प्रकाशन प्राथम्येन स्वीकृतम् । प्रबन्धोऽयं दिल्लीस्थश्रीलालबहादुरशास्त्रिकेन्द्रीयसस्कृतविद्यापीठे जनदर्शनविभागाध्यक्षाणां डॉ० श्रीलालबहादुरशास्त्रिणां निर्देशने प्रस्तुतो वाराणसेय-संस्कृतविश्वविद्यालयस्य 'विद्यावारिधि' (Ph.D.)-उपाधये स्वीकृतश्च डॉ० श्रीमुक्ताप्रसादस्य शोधवचक्षण्यं व्यनक्ति। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थकर भगवतो महावीरस्याऽऽगामि- पञ्चविंशतितम निर्वाणशताब्दी (१९७४ई०)समायोजनप्रसङ्ग एतादृड् महनीयं ग्रन्थ प्राच्यविद्याविशारदानां जनसाधारणस्य च समक्षं प्रस्तुवतामस्माकं तस्मै लोककल्याणक भगवतेऽर्हते श्रद्धाप्रसूनाञ्जलिसमर्पणमिवेति नितरा मोदामहे । माननीयानामनेकेषां विद्वद्वरेण्यानामाशीर्वादैर्वयमतितरा प्रोदसाह्यामहि । किञ्च, भारतप्रशासनस्य शिनमन्त्रिणः, केन्द्रीयसस्कृत मण्डलन्य शिक्षामन्त्रालयाधिकारिणाञ्च बयश्यं कृतज्ञतां प्रकाशयामो यैरस्य ग्रन्थस्य प्रकाशनार्थमर्थानुदानरूप विशिष्ट साहाय्यं प्रादायि । वयं दृढं विश्वमिन यदेतद्ग्रन्यः प्राच्यविद्याविशारदैः समधिकं स्तोष्यते । मानुषमात्रसुलभतया दृष्टिप्रमादाज्जाता मुद्रणसम्बन्धिनी वाऽनवधानता क्षन्तव्या विद्वद्भिः । किञ्च - दोषान्निरस्य गृह, जन्तु गुणमस्य मनीषिण' । पांसूनपास्य मञ्जर्या मकरन्दमिवालय || इति शम् Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बवालय, राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली-४ PRESIDENT'S SECRETARIAT. RASHTRAPATI BHAVAN, NEW DELHI-4 MAS पत्रावली सं०८-एम/७३. जून १६, १९७३. प्रिय महोदय, ___ आपके १३ जून, १९७३ के पत्र से राष्ट्रपति जी को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि प्राज्य-विद्या शोष अकादमी, नई दिल्ली द्वारा शीघ्र ही डा० मुक्ता प्रसाद पटैरिया के शोध-प्रबन्ध “जैन-दर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्" के प्रकाशन तथा प्रस्तुत करने का आयोजन किया जा रहा है । डा० पटैरिया तथा अकादमी के प्रयासों की सफलता हेतु वे अपनी शुभकामनायें भेजते हैं । भवदीय : रे० वे० राघवराव (राष्ट्रपति का अपर निजी सचिव) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत र उपराष्ट्रपति के सचिव नई दिल्ली SECRETARY TO THE VICE-PRESIDENT OF INDIA NEW DELHI जून १५, १९७३ प्रिय महोदय, आपका पत्र दिनाक १३ जून, १९७३ का उप-राष्ट्रपति जी के नाम प्राप्त हुआ, धन्यवाद । उप-राष्ट्रपति जी को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि डा० मुक्ता प्रसाद पटैरिया का शोध प्रबन्ध "जनदर्शन मास्मद्रव्यविवेचनम्" शोध अकादमी की प्रकाशन योजना के अन्तर्गत, शोष-प्रथमाला के प्रथम पुष्प के रूप में प्रकाशित होने जा रहा है। उप-राष्ट्रपति जी आपके इस प्रयास को सफलता के लिये अपनी हार्दिक शुभ कामनायें भेजते हैं। आपका: वि० फडके Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिय पटेरिया जी, विधान परि सभापति परिषड उत्तर तर प्रदेश कानपुर कंम्प १८-६-७३ सप्रेम नमस्कार ! आपके द्वारा प्रेषित पत्र संख्या प्रा० वि० शो० अ० / प्र० /१७-७२-७३ दिनांक १२ जून १६७३ प्राप्त हुआ । एतदर्थं धन्यवाद । यह जानकर हर्ष हुआ कि आपका शोध प्रबन्ध -- " जैनदर्शन आत्मद्रव्य विवेचनम्" शिक्षा मंत्रालय --- भारत सरकार के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हो रहा है । मेरी बधाइयाँ स्वीकार करें । जैन दर्शन भी भारतवर्ष के अन्य दर्शनों की भाँति, अध्यात्म-तत्त्व के प्रति आस्था उत्पन्न करने तथा उस महत्तत्व के मूर्त रूप को प्रस्तुत करने की एक प्रक्रिया है । यदि इस प्रबन्ध में, भारतवर्ष की ज्ञान-गरिमा के अनुकूल, इस तत्त्व विवेचन में परम्परा तथा वैज्ञानिक शोध-सामर्थ्य का समन्वय हुआ हो तो निश्चय ही, एक प्रशंसन प्रयास है । इस दृष्टि से ग्रथ सचमुच उपयोगी प्रमाणित होगा । शुभकामनायें ग्रहण करें । आशा है आप सानंद होगे । भवदीय वीरेन्द्र स्वरूप Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AANT अर्जुन सिंह शिक्षा मंत्री, मध्यप्रदेश भोपाल दिनांक-३० जून, १९७३. प्रिय डा० पटैरिया, मैंने आपके शोध-प्रबंध की संक्षेपिका देखी। मुझे यह देखकर बडी प्रसन्नता हुई कि "जनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्" नामक अपने मूल शोधप्रबध मे जीवन जगत के अत्यन्त अपरिहार्य प्रश्नो के सबंध में प्राचार्यों और मीमासाकारो द्वारा प्रस्तुत व्याख्याओं को आपने बड़ी निपुणता से सरल और सुबोध शैली में प्रस्तुत किया है। भारतीय मनीषियों ने बड़ी गहराई मे जाकर मानव जीवन के चिरंतन प्रश्नो का अनुसंधान किया है और उनके सम्यक् समाधान प्रस्तुत किये हैं। मैं आशा करता हूँ कि अध्येताओ और जिज्ञासुओं को आपका अथ उपयोगी साबित होगा। शुभकामनाओ सहित भवदीय: अर्जुन सिंह Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचालक, अनुसन्धान संस्थान वाराणमय Fac वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी - २ दूरध्वनि - ४०१४ तार — “ तम्" २१-६-१६७३ प्रिय महोदय, आपका १२-६-७३ दिनांकित पत्र प्राप्त हुआ । उसके साथ आपके शोधनिबन्ध की सार पुस्तिका भी संलग्न थी। नई दिल्ली स्थित 'प्राच्य-विद्या शोध अकादमी' अपनी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत केन्द्रीय शासन के शिक्षा मंत्रालय की आर्थिक सहायता से आपका 'जैनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्' नामक शोध-प्रबन्ध प्रकाशित कर स्तुत्य कार्य करने जा रही है ५ यह हर्ष का विषय है कि आपने इस विश्वविद्यालय में जैन दर्शन का विधिवत अध्ययन कर प्रथम श्रेणी मे आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की, उसके अनन्तर इस शोध-प्रबन्ध पर भी इस विश्वविद्यालय ने आपको उपाधि प्रदान की । विश्वविद्यालय को आप जैसे स्नातकों पर गौरव है । अकादमी द्वारा प्रवर्तित इस प्रकाशन योजना की सफलता के लिए मेरी हार्दिक कामना है । भवदीय : भा० प्र० त्रिपाठी 'वागीश शास्त्री', Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TT बन्धुवर डा० पटेरिया जी, DEPARTMENT OF SANSKRIT FACULTY OF ARTS. DELHI UNIVERSITY, DELHI-7 ६ दिनांक ३१-६-७३ सस्नेह नमस्कार आपका १४ जून, १९७३ का पत्र एवं शोध प्रबंध 'जैनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्' का हिन्दी सार प्राप्त कर प्रसन्नता हुई। प्राच्य विद्या शोध अकादमी की शोध-ग्रन्थ-माला के प्रथम पुष्प के रूप मे प्रकाश्यमान इस शोध प्रबन्ध का मैं हार्दिक स्वागत करता हूं और आशा करता हूं कि अकादमी प्राच्य विद्या के अध्ययन एव शोध की दिशा में तुतरां अग्रसर हो कर एतद्विध संस्थाओं मे शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान ग्रहण करेगी। अकादमी की सफलता के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ । शुभेच्छु सत्यव्रत शास्त्री (अध्यक्ष) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RW Dr. J. GANGULY DEPUTY DIRECTOR (ACD) Office of the Director, Rashtriya Sanskrit Sansthan Shastri Bhawan, New Delhi et (No.) Acd/10-1/RSKS/73 fararter (Date) 18-7-73 Dear Dr. Pateria, We are very much pleased to receive your work "Jain-Darshan me atmadravya Vichar". Of the different categories into which the ancient thinkers divided the universe, Atman, a dravyapadartha has exacted serious consideration of scholars. The theistic concept of Atman as a positive entity differs from that of the atheists but in this respect the Jainns differ from the Buddhists. It is therefore a good attempt to make a clear exposition of the connected topics and it is hoped that the complete work would soon be brought to light. Till that is not done, I would request you to make an English version of your dissertation for benefit of the non-Hindi knowing scholarly circle. With heartiest congratulations. Yours sincerely J. GANGULY Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० मणनमिधः केनीयसंस्कृतविद्यापीठ प्राचार्यः तिरुपति २१ जुलाई १९७३ नव-दिल्लीस्थश्रीमहावीरविश्वविद्यापीठस्य जैनदर्शनविभागाध्यक्षेण जैनदर्शनव्याकरण-पुराणेतिहासाचार्य विद्यावारिधिडा श्रीमुक्ताप्रसादपटरियेत्युपाह वेन विलिखितः शोधप्रबन्धो "जैनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्" प्राच्यविद्याशोध-अकादम्या: शोधग्रन्थमालायां प्रकाशित: सम्यगवलोकितो मया। प्राचविद्यानुसन्धासनरण्यामात्मविषयकाहंसिद्धान्तविवेचनविधौ मौलिक्याधुनिक्या च पद्धत्याऽऽश्लिष्टोऽयं प्रबधो भगवतो महावीरस्य २५०० तमे निर्वाणमहोत्सवारम्भे प्राच्यविद्याविशेर्जन विद्याविशारदेश्चापि विशेषतः समारतो भविष्यतीति विश्वसिमि। मणममिक्षः PRAKRIT VIDYA MANDALA L. D. Institute of Indology Near Gujarat University Ahmedabad-9 (India) दिनांक १५-६-७३ स्नेही भाई श्री, प्रणाम, आपका पत्र और थीसिस मिले थे। मैंने ऊपर-ऊपर से आपका थीसिस पढा है । जो कुछ पढ़ा है, उसी से कह सकता हूँ कि आपने आत्मद्रव्य के विषय मे तुलनात्मक दृष्टि से जो विवेचन किया है, वह आपकी तद्विषयक विद्वत्ता को प्रकट करता है। आपकी सशोधन करने की शक्ति इसमे व्यक्त हुई है। अब इतना ही और कहना है कि इसे और बढ़ावे और नये-नये विषयो को लेकर कुछ लिखते रहें। आप-जैसे युवको को अब आगे आकर सशोधन-क्षेत्र में प्रतिष्ठा जमानी चाहिए। आपको इसी में यश और कीर्ति तथा अर्थ-प्राप्ति भी होगी। इस क्षेत्र की उपेक्षा कर केवल अध्ययन में न लगें। प्रसन्न होवें भवदीय बलसुल मालवणियां (निवेशक) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामनरेशमिथः एम० ए०, एल० टी०, साहित्याचार्यः प्रस्तोता ( म० प्रा० ) संस्कृतविश्वविद्यालयः, वाराणसी प्राचार्य: श्रीमहावीर विश्वविद्यापीठप नई, दिल्ली वि० ३०-७-१६७३ दिल्लीस्थस्य श्रीमहावीरविश्वविद्यापीठस्य जैनदर्शन विभागाध्यक्षपदमाजा परियोपालडाक्टर मुक्ताप्रसादेन साध्यवसायं प्रणीतो 'जैनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्' इत्याख्यः शोषप्रबन्ध मयाऽवलोकितः । आत्मविषयक दुरूह विवेचनस्यापि सारल्येन समुपस्थापनम्, दार्शनिकवैभिन्न्यस्य निरूपणमित्यादिवैशिष्ट्यसम्पन्नोऽयं प्रबन्धो दर्शनाध्येतृणामनुसन्धातृणाञ्च महतीमुपकृति विधास्यतीति दृढं विश्वसिमि । af रामनरेशमिभः प्रध्यक्षः, जैनदर्शनविभागस्य, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, ३०-६-१६७३ भारतसर्वकारार्थसाहाय्येन भगवतो महावीरस्य २५०० तमनिर्वाणमहोत्सवप्रसङ्ग प्राच्यविद्याशोधअकादम्या शोधग्रन्थमालान्तर्गतं प्रकाश्यमानो डा० मुक्ताप्रसादस्य 'पटेरिया' इत्युपाह वस्य "जैनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्" इत्याख्यः शोधप्रबन्धो जैनवाङ्मयाधारेणार्ह दार्शनिक सिद्धान्तः परिपुष्ट आधुनिकविश्लेषणपद्धत्या च प्रथित आत्मस्वरूप निरूपयति । शोधप्रबन्धेऽस्मिन् जैनेतरदर्शनीयाऽऽत्म विषयकमान्यतानां समीक्षात्मकविवेचनदिशि जैनीयाऽऽत्मसिद्धान्तानां संशोधिते नूने च परिवेशे प्रस्तुतीकरणम्, विषयप्रतिपादन पृष्ठभूमौ सबलाभियुक्तिभिर्जेन दर्शनस्य नास्तिकत्वनिरासः, प्राचीनत्वसाधकप्रमाणानां समावेशः, द्रव्यव्यवस्थाया वैज्ञानिकदृष्टयनुकूल सामयिकस्वरूपेण प्रतिपादनञ्च कृतेर्वेशिष्ट्यमुपादेयत्वञ्च पुष्णन्ति । विद्वत्परिवारेण समाहतः सन्नयं प्रबन्धो मुक्ताप्रसादं मौक्तिकैः नितरां प्रसीदयत्वित्यभिलषमाणः अमृतलाल : Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AXE डा० लालबहादुरशास्त्री, एम ए., साहित्याचार्य, पी-एच, डी जैनदर्शनविभागः श्रीलालबहादुरशास्त्रीकेन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठम् दिल्ली ३०-६-१९७३ जैनदर्शन-व्याकरण - पुराणेतिहासाचार्य - विद्यावारिधि (Ph. D.)प्रभृत्युपाधीरलकुर्वता डा० मुक्ताप्रसादेन 'पटैरिया' इत्युपाह वेनोपन्यस्तोऽयं महानिबन्धो 'जैनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम्' मया सम्यग्दृष्टिपथमनायि । अनेन यूना विदुषा प्रबन्धान्तर्गतेषु विषयेषु गम्भीरसरणि मवलम्ब्य यद्विवेचन समुपस्थापित तत्सर्व प्रशसाहमिति वक्तु शक्यते मया । जना आत्मद्रव्य केन रूपेणाङ्गीकुर्वन्तीति जैनवाङ्मयस्य समग्रो विषयो हृद्यमनवद्य हृदि निधाय, स्पाद्वाद सम्मुख विधाय, दूर विहाय च सर्वविप्रतिपत्तीः, साङ्गोपाङ्ग सविस्तरं समीचीन सम्यगालोचित । आत्मद्रव्यविवेचनप्रसङ्ग तत्प्रयोजनभूतेषु षड्द्रव्येषु दर्शनान्तरीयद्रव्यातराणामन्तर्भावो भवतीति युक्तिपुरस्सर प्रतिपादितम् । विषयप्रतिपादनात्प्राक् तदाधारभूतो जैनधर्मः कदा समजनीत्यादितत्कालनिर्णयप्रसङ्ग न केवल पुराणस्मृतिभ्य. पर वेदेभ्योऽप्यनेकानि प्रमाणानि समुद्धृत्याय रथैव प्राचीनो यथा ऋग्वेदादय. सन्तीति यदुल्लिखित तदस्य निपुणमतेरन्वेषणश्रमस्य परिचायकमस्ति । नास्तिकास्तिकगवेषणाया जैनधर्म आस्तिक एवेत्यादिप्रभूतैः पुष्टप्रमाण. प्रचोदितमनेन, वेदनिन्दकत्वेन चास्य नास्तिकत्व प्रतिक्षिप्त साधूक्तिभिः । भारतसर्वकारार्थसाहाय्येन प्राच्य-विद्या शोध-अकादम्या प्रकाशनमुपगतः शोधप्रबन्धोऽयं विद्व ज्जनादरास्पदाय डा० मुक्ता सादस्य प्रसादाय च कल यतामिति शुभट्टामयमान. लालबहादुरः शास्त्री Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका २३-५६ सम्पादकीयम् शुभाशंसनानि प्रास्ताविकम् १७:२२ विषयप्रवेशः बर्शनशब्वस्योत्पत्तिव्युत्पत्तिविशेषार्थश्च २५, दर्शनस्योद्भवः २५, दर्शनशब्दस्य व्युत्पत्तिः २६, दर्शनशब्दस्य प्रयोगः २६, दर्शनशब्दस्य साक्षात्कारेऽर्थे विप्रतिपत्तयः २६, तर्के विप्रतिपत्तयः २७, दर्शनम् दृष्टिकोणम्' २७, दर्शनम्-सबलप्रतीतिः २८, दर्शनम्-दिव्यज्योतिः २८, दर्शनस्योद्देश्यम् २८, दर्शनाना परस्पर समन्वय २६, दर्शनाना वैभिन्न्यम् ३० । भारतीयदर्शनानि जनदर्शनञ्च ३०, दर्शनानां सख्यावभिन्न्यम् ३०, दर्शनाना संख्यानिर्णय ३१, दर्शनाना वर्गीकरणम् ३२, आस्तिकनास्तिकविवेचनम् ३२, दार्शनिकः सिद्धान्त. ३३, पतञ्जले सिद्धान्त ३३, स्मृतिसिद्धान्त ३४, वेदनिन्दकत्व नास्तिकत्वम् ३४, वेदेषु पारस्परिक निन्दनम् ३५, उपनिषदा वेदनिन्दकत्वम् ३५, व्यासोऽपि वेदनिन्दक ३५, वेदाना लौकिकत्वम् ३६, नास्तिको वेदनिन्दक ३६, पुराणसम्मत सिद्धान्त ३७, नैनानामीश्वरः ३७, जनाना परमात्मा ३८, ईश्वरशब्दप्रयोग. ३८, ईश्वरशब्दस्यार्थ. ३८, ईश्वरस्यानावश्यकता ३६, जैनदर्शनस्यास्तिकत्वम् ४० । जनदर्शनस्य प्राचीनता ग्रन्थान्तरेषु च तदुल्लेख ४१. जैनदर्शनस्य ख्रिष्टाब्दात्प्राग्वतित्वम् ४१, प्रागीशवीयपञ्चभशताब्दीत प्राचीनत्व जैनदर्शनस्य ४१, श्रमणशब्दस्य जनस्वम् ४४, प्रागीशवीयाष्टमशताब्दीतोऽप्यस्य प्राचीनत्वम् ४५, जनाना प्राचीनतायाः ग्रन्थान्तरेखूल्लेख: ४६,श्रीमद्भागवतादिपुराणेषूल्लेख. ४६, धर्म-काव्यशास्त्रेषूल्लेख. ४७, दिगम्बरसाधूना परमहसानाञ्च सादृश्यम् ४८, भारतीयदर्शनाना वेदमूलकत्वम् ४६, जनानां वेदेषूल्लेखः ५० । सन्दर्भोल्लेखाः ५२-५६ । जनदर्शनस्य संक्षिप्त परिचयः ५८-१०२ जैनदर्शने द्रव्य-व्यवस्था तदीयं महत्वञ्च ५६, द्रव्यस्य लक्षणम् ५६, द्रव्यस्य गुणपर्यायात्मकत्वम् (सामान्यविशेषात्मकत्वम्) ६०, द्रव्यस्य सदसदात्मकत्वम् ६०, द्रव्यस्य एकानेकात्मकत्वम् ६१, द्रव्यस्य भावाभावात्मकत्वम् (अनन्तधर्मास्मकत्वम्) ६१, द्रव्यस्य नित्यानित्यात्मकत्वम् ६४, द्रध्यस्य भेदाभेदात्मकत्वम् ६५, द्रव्यव्यवस्था ६६, द्वे द्रव्ये ६६, पञ्च द्रव्याणि ६६, षड्द्रव्याणि ६६, सप्ततत्त्वानि ६७, द्रव्यव्यवस्थायाः महत्त्वम् ६७, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शने oय-विवेचनम् ६८, पुद्गलः ६८, पुद्गलस्य चत्वारी भेदा: ६६, स्कन्धभेदाः ६६, परमाणु : ६६, रूपिणः पुद्गलाः ७०, शब्दस्य पुद्गलपर्यायत्वम् ७१, शब्दस्य पुद्गलगुणत्वनिरसनम् ७१, धर्मद्रव्यम् ७२, धर्मशब्दस्य द्रव्यवाचकत्वम् ७२, धर्मद्रव्यस्यावश्यकता ७२, धर्मद्रव्यस्य स्वतन्त्रं कल्पनम् ७३, धर्मद्रव्यस्य सहायस्वरूपम् ७३, ईथराख्य आधुनिको गतिमाध्यमः ७३, ईथरधर्मद्रव्ययो साम्यम् ७५, अधर्मद्रव्यम् ७५, अमंद्रव्यस्यापेक्षा ७६, आकाश: ७६, शब्दगुणकमाकाशम् ७६, आकाशजन्यं साहाय्यम् ७७, आकाशस्य विभेदो ७७, नाकाश गतिस्थितिहेतु ७७, काल. ७७, कालस्य स्वतन्त्रद्रव्यत्वम् ७८, कालस्यानन्तत्वम् ७८, कालस्य शाश्वताशाश्वतत्वञ्च ७८, कालस्य वर्तनाक्षेत्रम् ७६, कालस्य क्षेत्रविस्तार ७६, कालस्याधारः ७६, कालस्य भेदा. ७६, कालस्य स्कन्धाद्यभावत्वम् ८०, कालस्यास्तिकायत्वाभाव ८० इतरवर्शनाभिमतद्रव्याणामवान्तर्भावः ८०, चार्वाक बौद्धयोर्द्रव्यविवेचनम् ८०, वैशेषिकाणि द्रव्याणि ८१, मीमासकद्रव्याणि ८२, साख्यद्रव्याणि ८२, अन्येषा द्रव्याणि ८२, एषां जैनद्रव्येष्वन्तर्भावः ८३, वैशेषिका द्रव्यातिरिक्ता षड्पदार्था ८४, गुणादीनामपृथवपदार्थत्वम् ५४, क्रियाया अपृथक्त्वम् ८५, सामान्यस्यापृथक्त्वम् ८५, विशेषस्यापृथक्त्वम् ८५, समवायस्यापृथक्त्वम् ८५, अभावस्यापृथक्त्वम् ८६, अवयवावयविनोरपृथक्त्वम् ८६, द्रव्याद् गुणपर्यायाणामपृथक्त्वम् ८८, गुणस्य द्रव्यत्वखण्डनम् ८६ । स्याद्वादस्तदीयं व्यवस्थानियामकत्वञ्च ०, स्याद्वादस्यार्थ ६०, स्याद्वादस्य परिभाषा ६१, स्याद्वादे सप्तभङ्गा. ६१, स्याद्वादे एवकारप्रयोग ९२, स्याद्वादे स्याच्छब्दप्रयोग ६२, सुस्पष्टत्व सहजगम्यत्वञ्च स्याद्वादस्य २, स्याद्वादस्य त्रिगुणात्मकता ६३, स्याद्वादस्य नयापेक्षत्वम् ६४, नयाना द्वैविध्यम् ६६, नयाना निश्चयव्यवहारत्वम् ६७, स्याद्वादस्य सापेक्षत्वम् ६७, स्याद्वादस्य सशयवादत्वम्, अनिश्चिततावादत्व वा ? ८ । सन्दर्भोल्लेखाः ६६-१०२ । जैनदर्शन श्रात्मद्रव्यम् १०३-११७ आत्मशब्दस्य व्युत्पत्तिस्तल्लक्षणं व्याख्या च १०५, आत्मशब्दस्य व्युत्पत्ति. १०५, जीवस्य लक्षणम् १०६, जीवस्य शुद्धाशुद्धस्वरूपम् १०६, जीवस्य स्वभाव-विभावपरिणमनम् १०६, आत्मनो मूर्त्तामूर्त्तत्वम् १०७, आत्मनोऽलिङ्गग्रहणत्वम् १०८, आत्मनो बन्धत्वम् १०८, आत्मनो भावबन्धः १०८, आत्मनः कर्तृत्वम् १०६, आत्मनश्चेतन कर्मकर्तृत्वम् १०६, आत्मन शुद्धाशुद्ध भावकर्तृत्वम् १०६, आत्मन. कथञ्चिदकर्तृत्वम् ११०, आत्मन: पुद्गलस्कन्धाकर्तृ त्वम् ११०, आत्मनः कर्मवर्गणानामप्यकर्तृत्वमप्रेरकत्वञ्च ११०, आत्मनः कथञ्चिद्भोक्तृत्वम् १११ आत्मनः स्वदेहप्रमाणत्वम् १११, समुद्घाताः ११२, आत्मनो लोकव्यापकत्वम् ११३, देहाद्देहान्तरत्वम् ११३, स्वप्रदेशप्रमाणत्वम् ११४, आत्मनो नित्यानित्यत्वम् ११४, आत्मनः ससारित्व २ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धस्वञ्च ११५, मंसारित्वमात्मनः ११५, सिदत्वमात्मनः ११६, आत्मनस्त्रविष्यम् ११६ । समोल्लेखाः ११७ । मात्मनो बहुत्वम् ११६-१७० आत्मनां संसारिमुक्तत्वम् १२१, संसारिणां वैविध्यम् १२१, संसारिगामन्ये भेदाः १२२, स्थावरभेदाः १२२, त्रसभेदाः १२३, त्रसस्थावराणामिन्द्रियविभाग: १२४, संज्ञिनो जीवाः (समनस्का) १२४, देवानां दिव्यभावाः १२५, देवानामुत्पत्तिस्थानानि १२६, देवानां विभेदा १२६, देवाना सामान्यभेदाः १२६, भवनवासिनो देवाः १२७, भवनवासिनां भवनानि १२८, नागकुमारादीना भवनानि १२८, व्यन्तरदेवाः १३०, किन्नराः १३०, किम्पुरुषाः १३०, महोरगाः १३१, गन्धर्वाः १३१, यक्षाः १३१, राक्षसाः १३२, भूताः १३२, पिशाचा: १३२, ज्यौतिष्कदेवा. १३३, सूर्यः • ३३, चन्द्रः १३४, ग्रहाः १३४, नक्षत्राणि प्रकीर्णकतारकाश्च १३४, वैमानिकदेवाः १३५, कल्लोपपन्नाः कल्पातीताश्च १३५, देवानां लोकान्तिकत्वम् १३६, देवानां स्थितिप्रभावाद्य क्षमा क्रमशः ही ताधिकत्वम् १३६, नारका. १३७, नरकभूनीनामाधारा: १३८, रत्नप्रभायाः विभागः १३८, शर्कराप्रमादीनां वाहुल्यम् १३८, रत्नप्रभादिपृथिवीषु नरकसंख्या १३६, नारकाणामशुभतरत्वम् १४०, लेश्याशुभतरत्वम् १४०, परिणामाशुभतरत्वम् १४१, देहाशुभतरत्वम् १४१, वेदनाऽशुभतरत्वम् १४१, विक्रियाशुभतरत्वम् १४१, नारकाणा परस्पर दु खोत्पादकत्वम् १४२, मानुषा. १४२, मानुषाणा भेदाः १४२, आर्या. १४३, म्लेच्छा १४५, तिर्यञ्च १४६ । आत्मनः पारतन्त्र्यम् १४७, रागः १४७, द्वेष. १४७, मिथ्यात्वम् १४८, आर्तध्यानम् १४८, रौद्रध्यानम् १४८, सकषायत्वम् १४६, क्रोधः १४६, मानम् १५०, माया १५०, लोभः १५० । आत्मनो भवान्तरसंक्रमणम् १५१, भवान्तरप्राप्ति: १५१, सम्मूर्छनम् १५१, गर्भः १५१, उपपादः १५२, गर्भजाः जीवा. १५२, जन्माश्रयाः १५३, योनीनामुत्तरभेदाः १५४, शरीराणि १५४, शरीररचना १५४, शरीरस्वामिनः १५५, शरीराणा सौक्ष्म्यम् १५५, शरीराणामसख्येय गुणत्वम् १५६, शेषयोरनन्तगुणत्वम् १५६, तेजसकार्मणयोरनादिसम्बन्धत्वम् १५६, कार्मणस्योपभोगरहितत्वम् १५७, विग्रहगति. १५७, गतेविध्यम् १५६, गतेरनुश्रेणित्वम् १५६, गतौ समयनिर्धारणम् १५६, विग्रहगतावनाहारकत्वम् १५६ । आत्मकर्मणो. सम्बन्धः १५६, किमिद नाम कर्म ? . ६०, कर्मणां रागाद्युत्पादकत्वम् १६०, अनादिः कर्मपरम्परा १६०, नूनकर्मोत्पत्तिः १६१, आत्मना कर्मणामनादिः सम्बन्धः १६२, आत्मकर्मणोः पृथक्त्वम् १६२ । आत्मज्ञानयोः सम्बन्ध. १६३, आत्मनो शानस्वभावः १६३, आत्मशानयोरेकरवम् १६४, आत्मनो ज्ञानप्रमाणत्वम् १६४, ज्ञानशेययोः परस्परमगमनम् १६५, ज्ञानशेययोः परस्परं गमनम् १६५, आत्मनो शेयत्वं शायकत्वञ्च १६५, आत्मज्ञानयोः कर्तृकरणत्वम् १६६ । सन्दर्भोल्लेखाः १६६-१६९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मनो बन्ध-प्रक्रिया १७१-२०४ बन्धस्तषेतवो मेवाश्च १७३, बन्धस्य लक्षणम् १७३, बन्धहेतवः १७३, मिथ्यादर्शनम् १७४, अविरतिः १७५, प्रमादः १७६, कषायः १७६, योग: १७७, बन्धस्य भेदाः १७७, बन्धस्य चातुर्विध्यम् १७८, चतुर्विधबन्धस्यान्ये प्रमुखाः भेदाः १७६, प्रकृतिबन्धस्य भेदाः १८०, ज्ञानावरणभेदाः १८१, दर्शनावरणीयभेदाः १८१, वेदनीयभेदाः १८३, मोहनीयभेदाः १८३, आयुषो भेदा. १८४, नामकर्मभेदाः १८५, गोत्रभेदाः १८८, अन्तरायभेदाः १८६, स्थितिबन्धस्य भेदाः १६०, अनुभावबधभेदा १६०, प्रदेशबन्धभेदाः १६१ । मिप्यादर्शनादीनां विनाशक्रमः १६२, बन्धहेतूना निरोध. १६२, बन्धहेतूनां विनाशक्रम १६२, चतुर्दशगुणस्थानानि १६३, मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् १९४, सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् १६५, सम्यमिथ्याष्टिगुणस्थानम् १९६, असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् १६६, उपशमसम्यक्त्वम् १६७, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वम् १६७, क्षायिकसम्यक्त्वम् १६७, संयतासंयत (देशविरत)गुणस्थानम १६८, प्रमत्तसयतगुणस्थानम् १६८, अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् १६६, अपूर्वकरण(उपशम-क्षपक)गुणस्थानम् १६६, अनिवृत्तिकरण (बादरसम्प्रदाय)गुणस्थानम् १६६, सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् २००, उपशान्तकषाय(वीतरागछद्मस्थ)गुणस्थानम् २००, क्षीणकषाय(वीतरागछद्मस्थ) गुणस्थानम् २०१, सयोगिकेबलीगुणस्थानम् २०१, अयोगिकेवलीगुणस्थानम् २०२ । सन्दर्भोल्लेखा. २०३-२०४ । मुक्तात्मनां स्वरूपम् २०५-२४८ मोक्षो मोक्षमार्गश्च २०७, मोक्षस्य सद्भाव. २०७, मोक्षस्वरूपम् २०७, मोक्षमार्गः २०८, मोक्षमार्गक्रमा. २०८, न दीपनिर्वाणवदात्मनिर्वाणम् २१०, नापि ज्ञानादिगुणाना सर्वथोच्छेदो मोक्ष २१० । सम्यग्दर्शनम् २११, दर्शनस्योत्पादः २११, सम्यग्दर्शनोत्पत्तिकारणानि २९३, दर्शनस्य सम्यक्त्वम् २१४, सम्यग्दर्शनस्य भेदा. २१४, सम्यक्त्वप्रकृती सम्यग्दर्शने च भेद २१५। सम्यग्ज्ञानम् २१५, मतिज्ञानम् २१६, श्रुत ज्ञानम् २१६, मतिश्रुतयो. परोक्षत्वम् २१६, स्मृतिसज्ञादीनां मतित्वम् २१७, मतिज्ञानस्य भेदाः २१७, अवग्रहः २१८, ईहा २१८, अवाय २१६, धारणा २१६, अवग्रहादीना विषया. २१६, अवग्रहादीनामुत्पत्तिः २२०, अवग्रहादीनामवान्तरभेदा. २२१, श्रुतज्ञानस्य भेदाः २२२, अङ्गप्रविष्टस्य भेदा २२२, मतिश्रुतयो. परोक्षत्वम् २२३, अवधिज्ञानादीना प्रत्यक्षत्वम् २२४, अवधिज्ञानम् २२४, मनःपर्ययज्ञानम् २२६, अवधि मन.पर्ययोविशेष. २२६, ऋजुविपुलमत्योविशेष. २२७, केवलज्ञानम् २२७, मतिश्रुतयोविषय: २८८, अवधिज्ञानस्य विषय २२८, मनःपर्ययस्य विषयः २२८, केवलज्ञानविषयः २२८, ज्ञानानामेककालभावित्वम् २२६ । सम्यनचारित्रम् २३०, सम्यक्चारित्रलक्षणम् २३०, सम्यक्चारित्रभेदा. २३०, सामयिकम् २३१, छेदोपस्थापनम् २३१, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविशुद्धिः २३१, सूक्ष्मसम्परायम् २३२. यमाख्यातम् २३२, गुप्तयः २३२, समितय: २३३, ईर्यासमितिः २३३, भाषासमितिः २३४, एषणासमितिः २३४, आदाननिक्षेपणसमिति: २३४, उत्सर्गसमितिः २३४, चारित्र मोहाभावः २३४ | neeredari मोक्ष: २३६, कर्मक्षयस्यावश्यकत्वम् २३६, सम्यक्चारित्रस्य मोक्षहेतुत्वम् २३७, पुण्यकर्मणामपि हेयत्वम् २३७, कर्मणामसंश्लेष एव क्षय: २३८ कर्मक्षयक्रमः २३८, कैवल्यम् २३६, मोक्ष: २४० | मुक्तात्मनां स्वरूपम् २४०, आत्मगुण साक्षात्कार: २४०, मोक्षस्य पञ्चमगतित्वम् २४१, आत्मनो भेदा: २४१, आत्मकर्मणोः स्वभाव: २४१, परमात्मन: स्वभाव: २४२, आत्मैव परमात्मा २४२ चित्तस्य नैर्मल्यम् २४२, शान्तः शिवश्च २४२, निरञ्जनस्वभावः २४३, वेद: शास्त्रश्चागम्यत्वम् २४३ आत्मनो देहस्थितावपि परमात्मत्वम् २४३, मुक्तात्मनां स्वरूपम् २४४, साधुस्वरूपम् २४४, उपाध्यायाः २४५, आचार्या. २४५, दर्शनाचार: २४५, ज्ञानाचार २४५, चारित्राचारः २४५, तपश्चरणाचार २४६, वीर्याचारः २४६, सिद्धा २४६, अर्हन्तः २४७ | सन्दर्भोल्लेखाः २४७-२४६ । समोक्षणमुपसंहारश्च २४६-२७८ जैनेत रदर्शन दृष्ट्याऽऽत्मद्रव्यस्य समालोचनात्मकं विवेचन २५, चार्वाकदर्शनाऽपेक्षयात्मविवेचनम् २५१, भूतचं नन्यवाद. २५२, देहात्मवाद २५२, आत्ममनोवाद : २५२, इन्द्रियात्मवाद २५३, प्राणात्मवाद २५३, पुत्र एवात्मा २५३, अर्थ एवात्मा २५३, बौद्धदर्शनीयात्मविचारा २५४, वेदेष्वात्मा २५५, ब्राह्मणारण्यकेष्वात्मा २५५, उपनिषत्वात्मा ५६, जीवात्मनः स्वरूपम् २८७, जन्मान्तरव्यवस्था २५७. परमपदप्राप्ति २५७, न्यायदर्शनापेक्षयात्मविवेचनम् २५८, आत्मनो गुणा, २५८, मोक्ष २५९, मोक्षावाप्तिप्रक्रिया २५६, मीमासादर्शनापेक्षयात्मविवेचनम् २५६, मुक्ते स्वरूपम् २६०, मुक्तिप्रक्रिया - ६०, मुक्तजीवस्वरूपम् २६१, साख्यदर्शनापेक्षयात्मविवेचनम् २६२, बद्धपुरुषस्यानेकत्वम् २६२, शस्य बहुत्वे विप्रतिपत्तयः २६३, ज्ञस्य विषयम् २६३, पुरुषस्य बन्ध. २६४, पुरुषम्य बन्धविच्छेद २६४, अद्वैतदर्शनापेक्षयात्मविचार: २६५, चैतन्यस्य स्वरूाद्वैविध्यम् २६५, जीवस्वरूपम् २६५ । आत्मसिद्धान्तानां समालोचनम् २६६, चार्वाकात्मसिद्धान्तसमीक्षा २६६, बौद्धात्मसिद्धान्तसमीक्षा २६७, वैदिकात्मसिद्धान्तविमर्श: २६८, औपनिषत्कात्म सिद्धान्तविमर्शः २६८, नैयायिकात्मसिद्धान्तविमर्श: २६६, मीमासकात्म सिद्धान्तविमर्श २७०, सांख्यपुरुषसिद्धान्तविमर्शः २७१, अद्वैतवेदान्तीयात्मसिद्धान्तविमर्शः २७२, निष्कर्षः २७२ । उपसंहार २७५ | सन्दर्भेल्लेखा. २७७ । सन्दर्भ ग्रन्थसङ्केतानुक्रमणिका ५ २७६-२८४ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकम् सुरभारतीसमुपासकानां शेमुषीमतामत्रभवतां समक्षं शोधप्रबन्धमिमं समुपस्थाप्य समुत्सारितगुरुभार इव सञ्जातोऽस्मि । सम्प्रत्यपि स्मर्यते तद्दिनं, यत्र वाराणसेय संस्कृतविश्वविद्यालयस्य जैनदर्शन प्राध्यापक पदमलङ्कुर्वतां श्रीमताममृतलालर्जनमहानुभावानां समक्ष जैनदर्शनमधिकृत्य शोधकार्यकरणार्थं वचनप्रदानेनाधिगृहीतभारोऽभवम् । द्विषष्ट्युत्तरैकोनविंशतिशततमे ( १९६२ ई०) खिष्ट्रान्दे झांसी मण्डलान्त: मऊरानीपुरस्थश्रीरामकृष्णसंस्कृतविद्यालयादुत्तरमाध्यमिकपरीक्षामुत्तीर्य, वाराणसेम्संस्कृतविश्वविद्यालये मुख्यविषयत्वेन नव्यव्याकरणमुपविषयत्वेन च फलितज्योतिषaftaara शास्त्रिप्रथमवर्षे पिपठिषुरहमेकदा स्वमित्रेण सह विश्वविद्यालयीयजैनदर्शनप्राध्यापक श्रीमदमृतलालजैनसकाशं समागत्य, समुपलब्धानायासस्नेहत्वात् समारब्धसत्सयनैरन्तर्यस्तेषां प्रेरणयोपविषयत्वेन गृहीतफलितज्योतिषस्थाने जैनदर्शनमधिकृत्य, शास्त्रिपरीक्षाञ्च प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्याचार्यकक्षायामपि जैनदर्शन विषयाधिग्रहणाभिलाषी सञ्जातः । तत्र विश्वविद्यालयीय नियमातिक्रमणभिया व्याकरणविषयपरित्यागे प्रदत्तानुकम्पानां व्याकरणविभागाध्यक्षाणां श्रीमुरलीधर मिश्रमहोदयाना, विषयपरिवर्तनविधौ च समुत्तीर्णव्याकरणशास्त्रिपरीक्षस्य मम जैनदर्शनग्रहणाधिकाराभावेऽपि विशेषाधिकारेण प्रदत्ताशिषा तात्कालिकोपकुलपतिपदमलङ्कुर्वतां महामान्यानां श्रीमता सुरतिनारायणमणित्रिपाठि महोदयानाञ्च यदनुकम्पया जैनदर्शनाचार्य परीक्षामपि प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य जैन दर्शनविभागे सर्वतोऽधिकानङ्काश्चावाप्य लब्धस्वर्णपदकः चिरकृतज्ञोऽस्मि । ततश्चानुसन्धित्सुरपि पारिवारिक परिस्थितिवशाद्वाराणसीभगत्वा, मऊ रानीपुरस्थश्रीलक्ष्मणदासदमेले (इण्टर कालेज) उच्चतर माध्यमिक विद्यालये समुपलब्धाध्यापनकार्यभरेण, विश्वविद्यालयीयानुसन्धानसंचालकः श्रीमद्भिर्बलदेवोपाध्यायंरध्यापनेन साकमेवा,नुसन्धातुमनुमतेनापि, देश-काल- वातावरणपरिज्ञानेच्छ्या विद्यापीठीयशोधच्छात्रवृत्तिमुप- लब्धवताध्यापनाद्विरम्याष्टषष्ट्युत्तरं कोनविंशतिशततमखिष्टाब्दीयसितम्बरमासस्य चतुर्दशाद्दिवसात्, भारतराजधानीमनुसन्धानक्षेत्रत्वेनोद्दिश्यास्मिन् विद्यापीठे समागतेन विद्यापीठीयव्याख्यातृणां परमादरणीयाना डा० लालबहादुरशास्त्रिमहोदयानां शास्त्रीये व्यावहारिके च पथिप्रदर्शकत्वे, शोध-स्नातक-परिषदः सचिवत्वेन च विद्यापीठीयविद्ववृन्दानामाशिषम्, कार्यालयाधिकारिणां सुबहसहयोगम्, सहवगणां च हार्दिकीं सहानुभूतिमथ च परमादरणीयानां परिषदः संरक्षकानां निदेशकपदमलङ्कुर्वतां तत्रभवतां n/ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमतां डा० भण्डनमिश्रमहोदयानां विद्यापीठजनकानामिव 'कुमार्गनिवारणसुमार्गसंयोजनात्मकं संरक्षणञ्चाधिगतेन मया सोत्साहं शोधकार्यावधिः समनुष्ठितः । अत्रास्मिन् शोधकार्यकाले समुपलब्धपारिवारिकवातावरणः,प्रमादवादनधिगतापेक्षितसाहित्यसाधनः, अदत्तापेक्षितकालः, विविधैर्विद्वद्भिरसम्बन्धितसम्बन्धश्चापि, यथासमुपलब्धसाहित्येन स्थानीयविद्वदभिश्च स्थापितसम्बन्धोऽहं शोधप्रबन्धममुमत्रभवता समक्षमुपस्थातु सक्षमोऽभवम् ।। सप्ताध्यायात्मकेऽस्मिन् शोधप्रबन्धे मया प्रथमेऽध्याये दर्शनानां सामान्यपरिचये जैनदर्शनस्य प्राचीनत्वसाधिका आस्तिकत्वनास्तिकत्वविमर्शिकाश्च युक्ती: सविशेष समुपस्थाप्य, द्वितीयेऽध्याये-जैनदर्शनस्य सामान्यपरिचयेन द्रव्यव्यवस्थाया आपेक्षिकमहत्वेन साकमेव द्रव्याणां विवेचने धर्मद्रव्यस्यानन्यभूतस्य विशिष्टं विवेचनम्, द्रव्यव्यवस्थायाः विवेचकस्य स्याद्वादस्य, तद्वाचकानां च सप्तभंगानां नयद्वारेण विश्लेषणं विधाय, तृतीयेऽध्याये-शोधप्रबन्धस्यास्य विषयभूतस्यात्मनो सामान्य-विशेषगुणानां विश्लेषणानन्तरमात्मनः संसारिरूपाणामनेकभेदानामपि तदङ्गत्वात् विस्तरभयात् संक्षेपर्णव केवलं नाममात्र निर्दिश्य चतुर्थेऽध्याये परिगणनं विधाय, पंचमेऽध्याये बन्धस्यलक्षणभेदनिर्देशनान्ते, बन्धप्रक्रियायाः हेतुभूतानां मिथ्यादर्शनादीनां बन्धविधिस्तविनाशक्रमश्च चतुर्दशगुणस्थानक्रमरूपेण विश्लेष्य, षष्ठेऽध्याये-मोक्षस्य, तन्मागंभूतानां सम्यग्दनिज्ञानचारित्राणां, तज्जन्यकृत्स्नकर्मविप्रमोक्षं मोक्षं तद्युक्तानां च मुक्तात्मनां स्वरूपं निर्दिश्यान्तिमेऽध्याये जैनेतरदर्शनानामात्मसिद्धान्त. सह समालोचनञ्चापि कृत विद्यते । संस्कृतवाङ्मये सन्ति बहूनि दर्शनानि, परं तेषु भिन्नबुद्ध्यात्मकत्वात् वैभिन्न्य स्पष्टमवलोक्यतेऽतो जैनदर्शनस्याप्यन्येभ्यो भेदः स्वाभाविक एव । तत्र सन्त्यस्यानेके विशेषाः, यैरहमस्मिन् शोधकार्यार्थ प्रेरितस्ते च यथा (१) भारतीयदर्शनेषु येषु नैतिकमुत्तरदायित्वं जीवस्यानपेक्षितमवलोक्यते, तस्य मोक्षे निर्णायकत्वात् जैनरस्य सिद्धान्तस्य प्राधान्य स्वीकृतम् । ईश्वरेणव सृष्टेरुत्पादकत्वस्य, असत: (ब्रह्मणः) सद्रूपस्यास्य जगतः सृष्टेश्च सिद्धान्तानामालोचनस्यात्रायमेवाभिप्रायो विद्यते, यदेते सिद्धान्ताः न तु दुःखेभ्यः, नापि तदुत्पत्तितश्च मोक्षदायका: सन्ति । नैतिकदृष्ट्या ‘पञ्चभूतानां सम्मेलनादेव बुद्धिसम्पन्नं चैतन्यमुत्पद्यते' इति सिद्धान्तोऽयं तथैव निरर्थकः, यथा खल्वेकस्मात् यस्मात्कस्मात् वा बुद्धिसम्पन्नात् (ब्रह्मणः) सृष्टेर्नानात्वस्य कल्पन' निरर्थकम् । आत्मनो निष्क्रियत्वे स्वीकृते सति नैतिकविभेदस्य महत्वमपि न तिष्ठति । १. सूत्रकृताङ्गसूत्रम्-प्रथम-११, ३, ५-६॥ -२. सूत्रकृताङ्गसूत्रम्-प्रथम ११, ७-१०।११-१२ द्वितीय १११६,१७॥ १८ जैनवर्शन आत्म-व्यविवेचन Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतेन करनेन 'यवात्मनोऽनादित्वमनन्तरबचानण्णमेव, तथा च जगतः सर्वाः अपि पटनाः सत्तासमूहाना सम्मिश्रणपृथक्करणपरिणामा एवं' इत्यात्मोपक्रमस्य विनाश एव स्यादत एतदर्षमात्मनो नैतिकमुत्तरदायित्वमपि व्यर्थ स्यात् ।। भाग्यवादिनां चेयं कल्पना-जगतः सर्वा अपि घटनाः प्रकृत्या निर्धारितपूर्वा एव सन्ति' इति नात्र जीवस्य पौरुषार्थ किञ्चिदपि स्थानं स्वीक्रियते । किन्चात्र नैतिकमूल्याङ्कनार्थमिदं स्वीकरणीयमेव स्याद्यत् प्रत्येकमपि जीवः स्वमस्मिन् जगत्युन्नतमपि कत्तं भमोऽथवावनतमपि विधातु समर्थः, यतो ह्यात्मनोऽस्त्यत्र स्वतत्रमस्तित्वम्, यत्स मुक्तावप्याक्षुण्ण्येन स्थापयितु शक्नोति । (२) सामान्येनात्र विद्यमानं सर्वमपि वस्तुजातं स्वरूपस्थितं नित्यमेवेति स्वीक्रियते । तदापि जीवो नित्य एव, तस्य जन्म, परिवर्तनमन्तो वा नास्तीति न स्वीकुर्वन्ति, यतो ह्येषां दृष्ट्या प्रत्येकमपि द्रव्यमुत्पद्यते विनश्यते । यथास्य जगतो न त्वादि प्यन्तस्तथाप्यस्त्यस्तित्वम् । यद्यपि सर्वाण्यपीमानि द्रव्याणि नवीनान् पर्यायान् गृहणन्ति पूर्वकालिकांश्च परित्यजन्ति, तथापि केषाञ्चन् गुणानामुभयत्रविद्यमानतया नूत्नप्राचीनयोरप्येकत्वमुच्यते । एवमत्र तदेव द्रव्यं यस्खलु स्वगुणानां परिवर्तने सत्यपि स्वीयां स्थिति न व्यत्येति । एवमिदमेकं गतिशीलं याथायमीदशी' सत्ता वा द्रव्यम्, या प्रतिक्षणं पतिवर्तिता तिष्ठति । अत्रास्य दर्शनस्य बहवोऽशा सांख्यदर्शनेन साम्यं भजन्ते। इमे द्वे एव प्रकृतेरनाद्यनन्तत्वं स्वीकृत्य जगतः नैरन्तर्ये विश्वस्ते स्तः । अनयोयोद्वैतवादेऽयमेव विशेषः यत्सांख्यास्तावत् जगतः प्राणिनाञ्च विकास प्रकृतिपुरुषयोः सम्पन्नमामनन्ति यदा हि जैना एतस्य विकासस्य हेतुरूपेण केवलां प्रकृतिमेवा'भिदधन्ति । किञ्चात्मनो क्रियाशीलत्वे जनसिद्धान्तस्य साख्यापेक्षया न्यायवैशेषिकाभ्यामधिक साम्य, यतो हि सांख्यास्तु केवल जगतः साक्षिरूपेणव आत्मानं स्वीकुर्वन्ति । अतएवात्मनः कर्तृत्वे, कार्यकरणात्मकत्वे चानयोर्मतभेद एवावलोक्यते । (३) जैनदर्शने प्रकृतिबन्धनान्मुक्तो जीव एव आत्मेति अभिहितः । अर्थात् प्राकृतिकमलविरहिता विशुद्धचेतनवात्मेति । सेयं चेतना सर्वथा बाह्यरूपात् पृथक शुद्धाध्यात्मिकास्पदोन्नताकृतिविहीनं चैतन्यमात्रमेव । पुद्गलश्चाप्यत्र न केवल चेतनारहितः विशुद्धो भौतिकः सन् प्रकृतिरूपो विद्यतेऽपिस्वस्मिन्नपि पूर्वत आत्मना संश्लिष्टत्वादात्मनोऽस्तित्वमस्ति । एवमत्र जीविता सत्ता-आत्मा, प्रकृतिश्चासत्तत्वस्य निषेधात्मिका, जीवश्चोभयोस्संयोगरूपः भौतिक, आध्यात्मिकश्चास्ति। १. सूत्रकृताङ्गसूत्रम्-प्रथम १११,१५॥ द्वि०.१०२२-२४॥ २. पंचास्तिकाय: ६,०,६,११॥ ३. The way to Nirvan P.67 ४. Outlines of Jainism P.77 प्रास्ताविकम Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानामयं दृढ़ो विश्वासः यद्विशुद्ध आत्मा, विशुद्धा प्रकृतिः, उभयोस्संयोगरूपश्च जीवः, एते त्रयोऽपि सत्पदार्था । पुद्गलस्कन्धं च यद्वयं प्रकृतिरूपं पश्यामश्चतन्यस्या. स्त्यत्राप्येकोऽशोऽतोऽत्र जीवाजीवयोः, आत्मनः (चैतन्यस्य) प्रकृतेर्वा न पृथगनुभवः शक्यः, द्वयोरपि परस्परं बन्धं प्रत्येकत्वात् । एवमत्र याथार्थ्येन वेतनाचेतनात्मके एव मूलभूते परस्परविरुद्ध तत्त्वे, तयोश्च जीवे चैतन्यस्यांशः, अजीवे चाचैतन्यस्यांशः प्राधान्येन विद्यते । इमावेवास्य सम्पूर्णजगतः द्वयोविभिन्नावस्थयोः प्रतिनिधिभूती। (४) तथा चात्र जीवश्रेणीनां व्यवस्था आत्मनोऽनात्मनि (आत्मनः प्रकृती) __न्यूनाधिकप्रभावापेक्षिकवास्ति। अस्योदाहरणरूपेण जैनदर्शने-दिव्यजीवावस्थायां (पवित्रात्मसु सिद्धेषु) यत्र न प्रकृते. (अजीवस्य) लेशमात्रोऽपि प्रभावोऽवशिष्टः, आत्मनोऽ नात्मनि सर्वतोऽधिक प्रभावो द्रष्टु शक्यते। निम्नतमावस्थायां च पदार्थान्वितोऽनात्मनोऽत्यधिकः प्रभावोऽवलोक्यते । यदा चात उपरि दृष्टिपातः क्रियते, तत एव वृक्षादिषु, कीटादिषु चात्मनोऽधिकोऽ शः, अनात्मनश्च सूक्ष्मोऽ शोऽवलोक्यते । एवं क्रमश अयमनात्मांशः यदा सर्वथा ह्रासमुपगतोऽवलोक्यते, तदेवात्मनो वास्तविक यथ.थं स्वरूपम् । एवमत्रात्मनो यत्स्वरूपमनात्मत्वेन सयुक्त तदेव जीवपदेनोच्यते, यच्च विशुद्ध मनात्मविरहितं तदेवात्मेति । (५) एवमय जीवश्चतन्ययुक्तः स्वभावत एवास्ति, आत्मनोऽ शप्राधान्यात् । तच्चेदं चैतन्य ज्ञानदर्शनद्वैविध्येनाभिव्यक्तं भवति । अत्र ज्ञान पदार्थाना सूक्ष्मविवरणयुक्तम्, दर्शनञ्च तद्विरहित सामान्यावबोधमात्रमेवार्थात् यत्र वस्तूना विशेषगुणप्रभावाधिक्यमेवास्ति, सूक्ष्मगुणग्रहणाभावात् 'तदेव दर्शन मिति'। अत्र ज्ञानस्य तद्विषयस्य च पारस्परिकः सम्बन्धो भौतिकपदार्थेषु केवल बाह्य एवास्ति, यदा ह्यात्मचेतनाविषयकोऽयमेतद्भिन्नोऽर्थादाभ्यंतरिक एव तिष्ठति । जीवचेतना च सर्वदेव क्रियात्मकत्वात् प्रतिक्षण स्व परपदार्थाश्चापि प्रकाशयन्ती तिष्ठति यथा खलु प्रकाश' स्वपरप्रकाशकस्तथैवेद ज्ञानमपि स्वस्यान्येषामपि अभिव्यक्ति विदधाति । अनेन ज्ञायते यज्जनरत्र न्याय-वैशेषिकयोरयं सिद्धान्तः-यत् 'प्रकाशस्तु केवल स्वव्यतिरिक्तानेव पदार्थान् प्रकाशयति' इति न स्वीकृतः । य कमपि पदार्थमभिजानन्नात्मा स्वकमपि विजानाति । प्रत्येकमपीन्द्रियबोधे, ज्ञानक्रियायां वेदमुपलक्ष्यते'यदहमिदमनेन जानामि' । ज्ञानस्य पदार्थाभिव्यञ्जकत्वादेव स्वभावादिद कथन निरर्थकमेव यच्चतन्य कथमचेतन जडपदार्थ प्रकाशयति ? इति । अत्र ज्ञानज्ञेययो' (प्रमा-प्रमेययो.) सम्बन्धोऽत्यन्तसन्निकृष्टात्मकत्वादविभाज्यात्मक एवास्ति, एव ज्ञानस्य विषयी (प्रमाता), विषयः (प्रमेय),ज्ञानञ्चेति (प्रमा चेति) आत्मचैतन्यस्यैव पक्षभूतास्तिष्ठन्ति । यतो हि, यदि कश्चनापि जीवः ज्ञानविरहितः जैनदर्शन आत्म-व्यविवेचनम् Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीक्रियते, तस्यायमेवाभिप्रायः स्यावत् जीवस्य तदीयं स्वरूपममहत्य, तस्य जीवत्वमेयाः विनाशोऽचीवरेण्याः प्रादुर्भावस्तथा च ज्ञानस्यापि जीवविरहात् निराश्रयात्मकत्वात् विनाशो भवतीति । अतएव जैननिस्यास्मनाविनाभावसम्बन्धः स्वीकृतः । अस्मात्कारणादेव मोक्षेऽप्यात्मा झस्वभावात्केवलमास्मन्येव विचरति । प्रकृतेर्भारो यदास्मना परित्यज्यते, तदा तदभारवियुक्तः सन् स्वभावत ऊर्वयमनात सिद्धानामन्तिकं लोकान्तमधिगच्छति । तदेतन्मोक्षावाप्त्यै यथार्थसत्तायां विश्वासः, संशयभ्रान्तिरहित यथार्थतत्वज्ञानम्, जगत: बाह्यपदार्थेषु रागद्वेषादिभावविरहितं माध्यस्थ्यरूपम् यथार्थाचरणञ्चेति जिनोपदिष्टानि त्रीण्येव रत्नानि समुदितानि मागंभूतानि। जीवस्य नूनकर्मणा निरोधाय सदाचारः (सम्यक्चारित्रम्) आवश्यकः, सम्यग्दर्शनज्ञानयुक्तेऽप्यस्याभावे न जीवेन कथमपि मुक्ति: प्राप्या भवति । यदाच मुमुक्षुणा जीवेन सम्यग्दर्शनज्ञानमधिकृत्य मोक्षावाप्त्य सम्यगाचरणं विधीयते, तत्र क्रमशः सफलत्वमधिगच्छता श्रेण्यारोहण च विधास्यता यदा केवलत्वमुपलभ्यते, तत एव सः सांसारिकबन्धनात्सर्वथा विमुक्तो जायते, किन्तु जैनदर्शनानुसारेण यावत्पूर्वकर्मजन्यमायुष्कर्म न सर्वथा क्षयमधिगच्छति, तावद् देहयुक्त. सन्नत्रैव (जगति) सम्यगाचरणं पुष्टतरं विदधाति । तत्र केवलत्वाधिगतावस्थातः समारभ्य यावत्तेन न निर्वाणमुपलभ्यते, तावत्कालिकी तस्यावस्था मोक्षलाभे सत्यपि, सिद्धान्तिकत्वाभावात् नव स 'सिद्ध' इत्यपि वक्तु शक्यते, नापि च जगति स्थितावपि लब्धमोक्षोऽय 'जीव' इत्यप्यभिधातु शक्यते । अत एवेयमवस्था जैनदर्शने जीवन्मुक्तपदेनाभिहिता, येन ज्ञायते यदय जीवो मोक्षलाभे सत्यपि जगति स्थितः निर्वाण प्रतीक्ष्यमाणस्तिष्ठति । अन्ते च परमात्मत्वमधिगम्य निर्विकारो निरजनः सजायते। प्रबन्धममुमत्रभवता समक्षमुपस्थापयितु सक्षमोऽह श्रीलालबहादुरशास्त्रि:केन्द्रीयसस्कृतविद्यापीठस्य (तदानी) निदेशकपदमलकुर्वता श्रद्धास्पदाना डा० श्रीमण्डनमिश्रमहोदयाना च स्नेहात्सरक्षणाच्च शोधच्छात्रवृत्तित्वं प्राप्तः, जनदर्शनविभागाध्यक्षाणा मान्याना डा०लालबहादुरशास्त्रिमहानुभावानां, सहजोदारप्रकृत्या तत्त्वबोधिन्या बुद्ध्या च मार्गनिर्देशने प्रबन्धप्रारूपविनिश्चयनात् पूर्णताप्राप्तिपर्यन्त साहाय्यमुपगतः, (सम्प्रति) शोधविभागीयप्रवाचकपदमलकुर्वता गुरु-मित्र कल्पानां डा० रुद्रदेवत्रिपाठिमहोदयाना, येभ्यो विविधानि ग्रन्थरत्नानि शोध-विषयसम्बद्धचर्चणफलितानि चावाप्तः, पुराणेतिहासव्याख्यातृणा (स्थानीय)सरक्षककल्पानामाचार्यश्रीरमेशचतुर्वेदाना, राजनीतिविषयव्याख्यातृणामग्रजकल्पानां श्रीसतीशकीलावतमहाशयानां शोधप्रबन्धस्य टङ्कणविधौ सौलभ्य प्राप्तः, विद्यापीठीयपुस्तकालयाध्यक्षाणामन्येषाञ्चाध्यापक-कर्मचारिवृन्दाना येषामत्र सहयोगोधिगतस्तेषां सर्वेषामपि चिरकृतज्ञोऽस्मि । प्रास्ताविकम् Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अपच येषां केषामपि विदुषां ग्रन्थामामत्रोपयोगी विहितः, यैश्च विद्वदिमयन्यालयश्चापि सम्बन्धः संस्थापितः विशेषतस्तु श्रीप्रेमचन्द्रजैन (जैना वाच कं०) महानुभावानां सदाशयतया सदस्यतामनधिगत्यवाप्त-पुस्तकालयविशेषसौविध्यः, सर्वरप्येतेशमुपकृतोऽस्मि । प्रबन्धस्यास्य प्रकाशनार्थमाथिकसहयोगस्वीकारकान संस्कृतानुरामिणः सदाशयान् भारतसर्वकारस्य शिक्षामत्रालयाधिकारिणः, शोधग्रन्थमालान्तर्गतं प्रकाशनव्यवस्थापकान् 'प्राच्य विद्या-शोध-अकादमी' अध्यक्षान् सदाशयान् प्रो. राजारामशास्त्रिमहाशयान्, मुद्रणव्यवस्थापकान् 'आनन्द-प्रिंटिंग-प्रेस' सञ्चालकान् श्रीआनन्दप्रकाशसिंघलोपाह्वान्, अहर्निश सेवमानान् तत्सहकर्मिणश्च प्रति हार्दिकी कृतज्ञतां विज्ञापयामि । मन्दबुद्धेममास्मिन् शोध-प्रबन्धेज्ञानवशात्, मुद्रणयन्त्रस्य मुद्रणविधौ सर्वथाऽसमर्थत्वाच्च याः खलु स्खलनाः सजातास्ताः साक्षात्परम्परया वा मदीया एवेति कृत्वा क्षन्तव्यास्तत्र भवद्भिः । अथ चात्र यत्किञ्चिदपि स्वल्पमात्रं ग्राह्य गुणगृह्य: श्रीमद्भिगृहीत स्यात्तेनैव स्वकीयं श्रमं सफलमित्यनुभविष्यामि । महावीरजयन्ती वि० स० २०३० (१५-४-७३) Bamar: 46 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयप्रवेशः प्रथमोऽध्यायः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनशब्दस्योत्पत्तिव्यं त्पत्तिविशेषार्यश्च दर्शनस्योद्भवः भारतवर्षे आदिकालादेव 'अहम्, विश्वञ्चे' त्युभयोर्विषये व्यष्ट्या समष्ट्या च चिन्तनं चिरात्प्रवर्तितं सदद्यापि परिशील्यत एव । ऋषिभिरैहिक चिन्तां परित्यज्यात्मतत्वान्वेषण एव स्वशक्तेः प्रयोगो विहितः । अस्यैवान्वेषणस्य धुर्यामिदं जगच्चक्रं परिभ्रमत् तिष्ठति । प्राणिनः सामाजिकत्वात् स एकाकी स्थातुं न शक्नोति, अतएव स्वपार्श्ववतिभिः सह सम्बन्धं संस्थाप्य सर्वतो वातावरणं शान्तमपेक्षते । अथ च सोऽभिलषति, यत्कथं वयं रागद्वेषद्वन्द्व विरहिता भूत्वा निराकुलाः स्याम ? समाजे जगति च कथं सुखशान्तेः साम्राज्यं स्यात् ? आभ्य एव चिन्ताभ्यो समाजस्याने के प्रयोगा. निष्पन्ना अभवन्, भवन्ति, भविष्यन्ति च । निराकुलभावनायाः प्रबलेच्छयेदं विमर्शयितु मनुष्यः बाध्योऽभवद् यन्मनुष्यः कोऽस्ति ? किमयं जन्मतो मरणं यावत् प्रचलद् भौतिकं पिण्डमेव ? आहोस्वित् मरणानन्तरमप्यस्यास्त्यस्तित्वम् ? 'परं प्राचीनतमान्नुषीश्चात्मतत्त्वे विवदमानानपि यदा गोस्वर्णदासादीनां परिग्रहं कुर्वाणान् पश्यामस्तदायं प्रश्न उदेति 'यत्किमियमात्मचर्चा केवलं लौकिकप्रतिष्ठायाः साधनमेव ?' एतैरेव प्रश्नैरात्मजिज्ञासोत्पन्ना, जीवनसघर्षाच्चापाकृत्य समाजरचनाया आधारभूतानि तत्त्वानि प्रति मानवः प्रवर्तितः । एवं संस्कृतवाङ्मयस्य परिशीलनाज्जायते यद्दर्शनपदेन योऽर्थो दार्शनिविद्वद्भिर्वा स्वीकृतः, न स वैदिककालेऽवलोक्यते, यतो हि ते तु धर्मे, देववादे वैव विश्वस्ताः, यज्ञर्दानैश्चैवेहपरला कसुखाभिलाषिण आसन् । 'विश्वमिदं प्राक्कीदृशमासीत्, अस्यान्तः पश्चाद्वा काचित् शक्त्यप्यस्ति किम् ?' एतादृशाना विचाराणामाभासमात्र एव ऋग्वेदे', यजुर्वेदस्यान्तिमेऽध्याये चावलोक्यते । एते एव विचारा उपनिषत्काले दर्शन रूपेण विकासमुपगताः । सम्प्रति चैषां विभिन्न शाखा - सम्प्रदायात्मकं बाहुल्यमेव दरीदृश्यते २५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्शनाध्वस्य व्युत्पत्तिः दर्शनशब्दस्य व्युत्पत्तिः 'दृशिर्' (भ्वा० पर०) धातोः ल्युट्प्रत्ययेन भवति, यस्यार्थः 'दृश्यते येन' इति । दर्शनमिदं स्थूलनेवाभ्यामपि, सूक्ष्मचक्षुषापि च भवति, यद् 'दिव्यचक्षुः' 'प्रज्ञाचक्षुः' 'ज्ञानचक्षु रित्यप्युच्यते । स्थूलसूक्ष्मोभयप्रकारका एवं जगति स्थिताः पदार्था दर्शनविषयभूताः। अथ च परमतत्त्वस्य प्राप्त्य उभयविधयोरेव साक्षात्कार आवश्यकोऽतः दर्शनशब्दस्य प्रयोग स्थूलसूक्ष्मोभयोरप्यर्थयोविद्यते । एवमिदं दर्शनमिन्द्रियजन्यनिरीक्षणं प्रत्ययीज्ञानं, अन्तर्दष्टेरनुभवो वा भवति । तच्च घटनानां सूक्ष्मेक्षणेन तार्किकपरीक्षणेनात्मनोऽन्तनिरीक्षणेन वाभिगम्यते । वर्शनशब्दस्य प्रयोगः साधारणतया दर्शनशब्दस्य प्रयोग आलोचनात्मकव्याख्यानेषु, (भाष्येषु) ताकिक सर्वेक्षणेषु, दार्शनिकपद्धतिसु वैव क्रियते। किन्तु प्रारम्भिकदार्शनिकविचारसरण्यां दर्शनशब्दस्य प्रयोगो नैष्वर्थेषु प्राप्यते, यतस्तस्मिन् काले दार्शनिक ज्ञानमाभ्यन्तरदृष्टिपरकमेवाधिकमासीत्, अतोऽनेन ज्ञायते, यत्तदर्शनमन्तर्दृष्ट्या सम्बद्धमप्यन्तर्दृष्टिपरकं नासीत् । सम्भाव्यते च यदस्य प्रयोगो बहुतर्कवितर्कानन्तरं तस्य विचारपद्धत्य जातः, यस्याः प्राप्तिस्त्वन्तदृष्टिजन्यानुभवतः, पर पुष्टिः युक्तिप्रमाणैरेव भवति । दर्शनशब्दस्य साक्षात्कारेऽर्थे विप्रतिपत्तयः दर्शनशब्दस्य स्पष्टः स्थूलश्चार्थः 'साक्षात्कारः' -प्रत्यक्षज्ञानेन कस्यचिद्वस्तुनो निर्णयः, इत्येवास्ति । यदि दर्शनस्यायमेवार्थो स्वीक्रियेत् तहि कथं विभिन्नेषु दर्शनेषु परस्पर विरोधोऽवलोक्यते ? प्रत्यक्षज्ञानेन साक्षात्कृतेषु पदार्थेषु न मतभेदो, विरोधः, सशयो वा भाव्यः ? यथा खलु आधुनिकस्य विज्ञानस्य सिद्धान्तानां प्रयोगशालायां प्रत्यक्षे कृते सति, न तेषु कश्चन मतभेदो भवति । मतभेदो विरोधो वा तत्र तावदेव भवितुमर्हति, यावन्न तस्य प्रयोगस्य सिद्धिर्भवति । किञ्च दर्शनेषु यदायं पारस्परिको विरोधोऽवलोक्यते, तदायं सन्देहस्तु स्वाभाविक एव, यद् दर्शनस्य किमवितथमेवार्थ. साक्षात्कारः ? यद्ययमेवार्थस्तदाय साक्षात्कारः कि समग्रस्यापि वस्तुनो साक्षात्काररूपः, आहोस्वित् कस्यचिदेकधर्मस्यांशस्य वा ? यदि समग्रस्यव साक्षात्काररूपस्तकिमस्य वर्णनविधावेव कश्चन विशेष: ? दर्शनानामस्य विरोधस्य कश्चनेतादृश एव हेतुर्भवितव्यः, अन्यथा सर्वैरेव दार्शनिकैः साक्षात्कृतस्यात्मनो विषयेऽपि (दर्शनाधार विषयेऽपि) नैतादशवपरीत्यं स्यात्। २६ जनदर्शन मात्म-द्रव्यविवेचनम् Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक्यते । ऋषीणामिमा अनुभूतयो वैयक्तिकत्वाद् भिन्नाः भिन्ना आसन्, बतएव पृथक्पृथग्विभिन्नदर्शनानां समूहोऽद्यावलोक्यते । वर्शनानां संख्यानिर्णयः दर्शनानां संख्याविषये 'षड्दर्शन मिति नाम बहुधास्माभिः श्रुतम् पठितञ्च परमस्यान्तःभूतानि कानि दर्शनानि, कानि चास्माद्बहिर्भूतानि ? अब नास्ति कयोरपि द्वयोः विदुषोरेकमत्यम् । अथ चायं 'षड्दर्शनम्' इति शब्दोऽपि नातिप्राचीनतम. । अत्रेदमप्यवधेयम्-यद्दर्शनानां संख्या न कदापि सुनिश्चितासीत, नापि भवितु शक्नोति । यस्य विदुषः येषु दर्शनेषु स्नेह आसीतेषामेवास्यान्तःपरिगणनं तेन कृतमथवा नियतसंख्याकानामपि परिगणनं विधाय प्रतिपादनं कृतम् । तद्यथाप्राचीनतमेषु ग्रन्थेषु शङ्कराचार्यस्य 'सर्वसिद्धान्तसंग्रहो' मुख्यः । अस्मिश्च क्रमश:-लोकयत--आईत्-बौद्ध (वैभाषिक-सौत्रान्तिक-योगाचारमाध्यमिकाः) वैशेषिक-न्याय-भाट्टमीमांसा-प्राभाकरीममांसा-सांख्यपातजल-व्यास-वेदान्तादीनां दशदर्शनानां चर्चा विद्यते । हरिभद्रसूरिणा स्वीये 'षड्दर्शनसमुच्चये'--बौद्ध-नैयायिक-कपिल-जैन-वशेषिकजैमिनिप्रभृतिषड्दर्शनानां विवेचन कृतम्। जिनदत्तसूरिमहोदयश्च स्वीये 'षड्दर्शनसमुच्चय'नाम्निग्रन्थे-जैन- मीमांसा - वौद्ध-सांख्य-शव-नास्तिकादीनां षड्दर्शनाना परिगणनपूर्वकं प्रतिपादन कृतम् । राजशेखरसूरिणा च-जैनसांख्य-जैमिनि-योग-(न्याय) वैशेषिक-सौगतादिदर्शनानां विवेचनं, तथा च काव्यानां टीकाकर्तृरूपेण प्रसिद्धानां मल्लिनाथमहाभागानां पुत्रण-पाणिनिजैमिनि-व्यास-कपिल अक्षपाद-कणादादिदर्शनानां विश्लेषणम् षड्दर्शनरूपेण कृतम् । हयशीर्षपञ्चरात्र गुरूगीतायाञ्च, गौतम-कणाद-कपिल-पतञ्जलिव्यासजैमिनिप्रभृतीनामन्त वो षड्दर्शनरूपेण विद्यते। अथ च 'शिवमहिम्न स्तोत्र' सांख्य-योग-पाशुपत वैष्णवदर्शनानां, कौटिल्यस्यार्थशास्त्र-सांख्य-योग-लोकायताना, माधवाचार्यस्य 'सर्वदर्शनसंग्रहेचार्वाक-बौद्ध-आर्हत्-रामानुज-पूर्णप्रज्ञ (माध्व)-नकुलीशपाशुपत-शैव-रसेश्वरऔलूक्य-अक्षपाद-जैमिनि-पाणिनि-सांख्य-पातञ्जल-शाङ्करप्रभृतीनां, मधुसूदन सरस्वतिना च सिद्धान्तबिन्दौ, शिवमहिम्नःस्तोत्रस्य टीकायाञ्च-न्यायवैशेषिक-कर्ममीमांसा-शारीरकमीमांसा-पातञ्जल-पञ्चरात्र - पाशुपत-बौद्धदिग-म्बर-चार्वाक-सांख्य-औपनिषप्रतिदर्शनानां नामोल्लेखः विसदंशसंख्याकः प्रतिपादितः। दर्शनशम्बस्योत्पत्तियुत्पत्तिविशेषार्थश्च Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनानामेभिः परिगणनेनंतु नामसु नापि संख्यासु कुत्रापि मतैक्यं प्रतिभाति । सत्यामिमावस्थायां 'षड्दर्शनमिति' शब्देन कोऽर्थोऽवगम्येत ? वस्तुतस्तु-नास्त्यस्य शब्दस्य कश्चन् विशिष्टोऽभिप्रायोऽतो न कोऽपि प्रामाणिकः सिद्धान्तः 'षड्दर्शनमि'त्याधारेण निश्चेतु शक्यते । दर्शनानां वर्गीकरणम् एषां सर्वेषामपि दर्शनानां यो विभागो मुख्यतयास्तिक-नास्तिकात्मको दार्शनिकः कृतो विद्यते, तत्र केचन् वैदिकदर्शनान्यवैदिकदर्शनानीत्युक्त्वा पूर्वोक्तमतात्किञ्चित्स्वमतवैभिन्न्यं प्रकटयन्ति। परन्त्यत्रापि स्यूलरूपेण वैदिकदर्शनपदेनास्तिकदर्शनाना, अवैदिकदर्शनपदेन च नास्तिकदर्शनानामेव बोधो भवति । इत्थं भारतीय-दर्शनस्य प्रमुखतया द्वावेव भेदौ वर्तते। तत्र जनदर्शनस्य स्थानं प्रायशः नास्तिक एव विभागे दार्शनिकै स्वीकृतम् । परमत्र पूर्वोक्तआस्तिकनास्तिकविभागे येषां दार्शनिकसिद्धान्तानां गणनाचार्य कृत्ता विद्यते, सा न न्यायोचिता, यतो ह्ययास्तिकशब्दस्य याः व्याख्याः प्राचीनतमैराचार्य: कृताः विद्यन्ते, तदनुसारन्तु नास्तिक-विभागस्थितानां केषाञ्चन् दर्शनानां ग्रहणमास्तिकविभागेऽथ च नास्तिकशब्दस्य याः परिभाषास्तत्र प्राप्यन्ते, तदनुसारमास्तिकविभागस्थितानामनेकदर्शनाना स्थानं नास्तिकश्रेण्यामेव भवितव्यम् । अतोऽत्र विचारे कृते सति ज्ञायते यदस्य विभाजनस्यापि न प्रामाण्यम् । एतदर्थमेतावताकालेन निश्चितानामास्तिक-नास्तिक-परिभाषाणां पर्यालोचनमावश्यकम् । आस्तिक-नास्तिकविवेचनम् संस्कृतवाङ्मये आस्तिक-नास्तिकविषयमधिकृत्यानेकानि भिन्नानि मतानि सन्ति, परन्त्वद्यप्रभृति प्रमुखानि चत्वार्येव निम्नाङ्कितानि मतानि सन्ति १. पाणिनेः सिद्धान्तानुसारं 'यः जगतः कारणं सत् (भावरूपं) स्वीकरोत्यर्थात् उत्पत्तेः प्रागपि जगतोऽस्तित्वमासीद् इति स्वीकरोति स आस्तिकः, यश्चान्य. जगतः कारणमसत् (अभावरूपं) स्वीकरोत्यर्था'दुत्पत्तेः प्राक् जगतोऽस्तित्वं नासीदिति' स्वीकरोति सः नास्तिक. । २. 'य इहलोक परलोकञ्च स्वीकरोति, स आस्तिकः' 'यश्चेमे अस्वीकरोति सः नास्तिक' इति, पतञ्जले: सिद्धान्तः । जैववर्शन मात्म-ब्यविवेचन ३२ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानां परमात्मा जैनदर्शनानुसारं साधारणोऽप्यात्मा स्वीयं वास्तविकं स्वरूपमजानन्ननादिकालाद्रागद्वेषेष्वासक्तोऽतः स न कदापि शांतो भवति । रागद्वेषाभ्यां विमुञ्चते सत्यात्मा शान्तो स्वस्थश्च भवति । यदा बाह्यकृत्रिमव्यवहारेभ्यः सर्वथा विमुक्तो भवति, तदा स्वकीये वास्तविके जीवने तिष्ठन् सर्वशः सर्वानन्दमयोऽविनाशी, किम्बहुना परमात्मैव भवति । इत्थमत्र नास्ति परमेश्वरस्येश्वरस्य वा सत्तायाः निषेधोऽपितु परमात्मनि प्राणिनामन्यपदार्थानाञ्चोत्पादकत्वस्य दण्डप्रदानस्य पारितोषिकप्रदानस्य वा गुणो नास्ति । अतः कथं जैन दार्शनिकान् आत्मन: ( परमात्मन) पवित्रां सत्तां स्वीकृतेऽपि तेषां श्रेण्यां स्थातु शक्नुमः येषां सिद्धान्ते देहात्पृथगात्मनः सत्ता स्वीकृता विद्यते ? ईश्वरशब्दप्रयोगः किञ्च, संस्कृत वाङ्मयस्य परिशीलनेनेदं ज्ञायते, यदीश्वरशब्दस्य परमेश्वरेऽर्थे प्रयोगोऽर्वाचीनसमयादेव संस्कृतसाहित्ये प्रयुक्तः, न पुरेश्वरस्यार्थः 'परमेश्वर' इति ग्रहीतः स्यात् । पौराणिककाले शैवसिद्धान्ते शिवाय य ईश्वरशब्दस्य प्रयोग आसीत् स एव पौराणिककालानन्तरं शैवधर्मात् संस्कृतावपि प्रविष्टोऽभूत । शनैरशनैश्चेश्वरार्थेऽपि प्रचलितः । नास्तीदानी काप्येतादृशी पुस्तिका यस्यामीश्वरशब्दात्परमेश्वरस्यार्थो नावगम्यते । ईश्वरशब्दस्यार्थः किञ्च पाणिनीयसूत्रेषु ईश्वरशब्दस्यार्थान्वेषणेन ज्ञायते यत्-ईश्वरशब्दस्य प्रयोगः स्वाम्यर्थे एव" विद्यते । पतञ्जलेः उदाहरणेष्वीश्वरस्यार्थः 'राजा'" अपि प्राप्यते । सत्यामिमामवस्थायामीश्वरशब्दस्य परमेश्वरेऽर्थे प्रयोगात्प्रागेव दार्शनिकदृष्ट्या 'ईश्वर स्वीकुर्वाण आस्तिका, अस्वीकुर्वाणश्च नास्तिका:' इति मतमासीदिति कथं कथितुं शक्नुमो वयम् । यदा हि तस्योत्पत्तिः स्थितिश्च ईश्वरपरमेश्वरसम्बन्धि - परिभाषायाः प्रागेव सिध्यति । किञ्च यदा पुरेश्वरस्वीकारास्वीकार एवास्तिकनास्तिकव्यवहारहेतुरासीत्तत्कथ वैशेषिकैः, सांख्य, पूर्वर्म मासकैश्च ( कणाद - कपिल - जैमिनिभिश्च ) स्वीयेषु दर्शनेषु ईश्वरस्योल्लेखोऽपि न कृत ? 'ईश्वर. कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनादित्युक्त्वा नैयायिकेन गौतमेन, 'क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर:' इत्युक्त्वा" योगिना पतञ्जलिना चानुषङ्गिकस्येश्वरस्य प्रसङ्ग उत्थापितः । ३८ जैनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र एषु सूत्रेध्वीश्वरशब्दस्यं परमेश्वराचे प्रयोगादेषां सूत्राणां पाकि नितः प्राचीनता, तथा च महाभाष्यकारपतञ्जलेः, योगसूत्रकारपजञ्जलेश्चाभिन्नतापि विद्वद्भिर्विचारणीया ? अथ च व्यासमहोदयानां श्रीमद्भगवद्गीतायामीश्वरशब्दस्य प्रयोगो क्वचिद्राशोऽर्थे क्वचिच्च परमेश्वरेऽर्थे (द्विप्रकारकः) प्राप्यते । 'ईश्वरोऽहमहंभोगी, सिद्धोऽहं बलवान्सुखी"त्यत्र राज्ञोऽर्थे, 'ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठती'त्यत्र च परमेश्वरेऽर्थे विद्यतेऽत इदमपि विचारणीय विद्यते । ईश्वरस्यानावश्यकता वस्तुतस्त्वेषु सिद्धान्तेषु ईश्वरस्यावश्यकता नावश्यिकी प्रतिभाति, यतो हि-दार्शनिकविचारानुसारं तु नेश्वरः परमपुरुषार्थप्राप्त्यै सहायकः, तदर्थ तु विभिन्नार्शनिकैः स्वस्वदर्शनेष्वभिव्यक्तानां पदार्थानां तत्त्वज्ञानादेव मोक्षप्राप्तिरभिहिता। तथा हि-कणादेन स्वषड्पदार्थज्ञानं," गौतमेन च षोडशपदार्थानां तत्त्वज्ञानं,' कपिलेन च प्रकृति पुरुषयोर्भेदज्ञान मोक्षावाप्तिकारणमुक्तम् । पतञ्जलिना तु 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। तदा द्रष्टुः स्वरूपेडवस्थानम्" इत्युक्तम् । एवञ्च जैमिनिना धर्मानुष्ठानेन नित्यसुखरूपा मोक्षसत्ताभिहिता । ईश्वरस्योपयोगस्त्वेषां सिद्धान्तेष्वायाति नैव । एभ्योऽनन्तर जातैः भाष्यकारैरन्यान्यटीकाकारश्च सहान्यान्यग्रन्थकाररपि (न्यायकुसुमाञ्जलिकार, ईश्वरानुमानचिन्तामणिकारश्च) वैशेषिके, न्यायदर्शने च प्रत्यक्षत एवेश्वरस्य प्रवेशः कृतः । किन्तु मीमांसायां, सांख्यदर्शने च कस्मिंश्चिदपि ग्रन्थे प्रत्यक्षत ईश्वरसिद्धरुल्लेखस्याभाव एव वर्तते । परं शङ्कराचार्यमहाभागैस्तु 'पत्युरसामञ्जस्यात्' इति सूत्रभाष्ये निगदितम्'केचित्तावत् सांख्ययोगव्यपाश्रयाः कल्पयन्ति प्रधानपुरुषयो अधिष्ठाता केवलं निमित्तकारणमीश्वरः, इतरेतरविलक्षणाः प्रधानपुरुषेश्वराः, इति । वैशेषिकादयोऽपि केचित् कथञ्चित्स्वप्रक्रियानुसारेण निमित्तकारणमीश्वर इति वर्णयन्ति ।'५ अनेनेयत्तु सुस्पष्टमेव ज्ञातं यत्सांख्यस्य वैशेषिकस्य च प्रक्रियायाः मूले नासीदीश्वरस्वीकारः, तदपि कैश्चिद्भविष्ये ईश्वरप्रवेश कारितस्तत्र । एवमेव मीमासकेष्वपि यत् 'कर्मणा ईश्वराय समर्पणेन मोक्षो भवती' त्युक्त्वा ईश्वरप्रवेशः कारितः । अस्माद्धेतोः यदि वेदानां यमः, प्रजापतिः, सूर्योऽग्निः, पुरुषो মনীষীপালি Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धग्रन्थेषु च वर्तमाना उल्लेखा एतस्य प्रमाणकाः, यत् नाथपुत्रात् महावीरात्प्रागपि निर्ग्रन्थानां (येऽधुना 'जैन' पदेन 'अर्हत्' पदेन वा प्रसिद्धा ) अस्तित्वमासीत् । यदा बौद्धधर्मो समुद्भूतस्तदा निर्ग्रन्थानां सम्प्रदायस्य महान् समादरः स्वतंत्रसम्प्रदायरूपेण आसीत् । बौद्धपिटकेष्वपि केषाञ्चत् निर्ग्रन्यानां बौद्धधर्मस्वीकरणस्य, केषाञ्चन च तद्विरोधित्वेनोल्लेखो विद्यते । एभिरुल्लेखे रप्युपयुंक्तसिद्धान्तस्यानुमानं भवति । अथ चैतद्विपरीतमेषां ग्रन्थेषु कुत्रचिदप्येतादृश उल्लेखो न प्राप्यते यत्र निर्ग्रन्थसम्प्रदायस्य नवीनं स्वरूपं स्पष्टं भवेत् । तस्य संस्थापकत्वेन च नाथपुत्रस्य महावीरस्याप्युल्लेखो न प्राप्यते । अतएवानेन हेतुना सिद्धान्तोऽयं सिद्ध्यति यन्महावीरस्वामिना न जैनधर्मः संस्थापितोऽपितु बुद्ध-महाव़ी रसमयात्प्रागेवातिप्राचीनकालान्निर्ग्रन्थानामस्तित्वं विद्यमानमासोत् । फ्रांसदेशीयविदुषा गेरिनाटमहोदयेनापी दम्मतं समर्थितम् । प्रागीशवीयाष्टमशताब्दीतोऽप्यस्य प्राचीनत्वम् एभिरुपर्युक्त कथनैरिदं स्पष्टं भवति यत् ख्रिष्टाब्दात्प्रागष्टमशताब्द्यां पार्श्वनाथेन जैनधर्मस्य प्रचारः कृत आसीत् । जैनमान्यतानुसारं तु प्रत्येकस्मिन् युगेऽने कैस्तीर्थकरैः पुनः पुनः जैनधर्मस्योद्योतनं कृतम् " । विद्यमानस्य युगस्याद्यतीर्थकरो ऋषभदेवोऽन्तिमौ च तीर्थकरौ पार्श्वनाथमहावीरौ स्तः । पार्श्वनाथविषये विदेशीयाः लैसनमहोदयाः कथयन्ति यदस्य जिनस्यायुस्तत्पुरोगामिनामिव सम्भावितमर्यादायाः अनुल्लङ्घिन्यतोऽयमेवास्यैतिहासिकत्वस्य सिद्धयं अलम्" । तथा च मथुराया प्राप्तर्जेनशिलालेखैरपि ज्ञायते यद्गृहस्थाः ऋषभदेवमर्घ्यप्रदानमकुर्वन्" । इमे ग्रहस्थाः इन्डोसायथिककालिका: ( Indosythic) भवितव्याः, इति सुस्पष्टं प्रतिभाति । अथवा यदि कनिष्कस्य तद्वंशजानाञ्च समये शकयुगेन सह मिलितास्ते गृहस्था अभविष्यंस्तर्हि प्रथमद्वितीयशताब्दिका इमे लेखा : " प्रतिभान्ति । अयमर्घो विशेषतया एकाधिकेभ्योऽर्हद्भयस्तथा व मुख्यतया ऋषभायार्पितः, अत एतेनास्य मतस्य पुष्टिर्भवति यज्जैनधर्मस्य प्रारम्भिक कालोऽतिप्राचीनस्तथा च ऋषभदेवात्समारभ्य क्रमशः अनेकास्तीर्थकरा. प्रादुर्भूताः । एष्वाधारेषु पाश्चात्यैः भारतीयैश्च निष्पक्षैरनेकै ऐतिहासिकः स्वीकृतं यज्जैनधर्मोऽतिप्राचीनकालात्प्रचलितस्तथा च वेदेष्वपि जैनधर्मस्य तीर्थकराणामुल्लेखो विद्यते । भारतवर्षस्य भूतपूर्वराष्ट्रपतिभिः डा० राधाकृष्णन् महोदयैरप्यस्य " समर्थनं कृतम् । जैनदर्शनस्य प्राचीनता, प्रन्थान्तरेषु च तदुल्लेख: ૪૧ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना प्राचीनतायाः ग्रन्थान्तरेषल्लेखः किंञ्च - हिन्दु - वेद-पुराण - धर्मशास्त्रप्रभृतिग्रन्थेष्वपि जैनधर्मस्य प्राचीनतायाः समर्थकानि, जैनसिद्धान्तानाम्, ऐतिहासिकपुरुषाणाञ्चोल्लेखानि विद्यन्ते। वर्तमाना ऐतिहासिकाः विद्वांसो आर्य धर्मसम्बन्धिनां वेदानां माधीनतां पञ्चशतोत्तरत्रिसहस्रवर्षात्मिकां स्वीकुर्वन्त्येव (३५००), किन्तु पदार्या अत्र समागतवन्त आसंस्तदात्रातिप्राचीनकालात्प्रचलितस्यास्य जैनधर्मस्याध्या त्मकतया पवित्रतया चैताशा प्रभाविता अभवन्, यद्वेदेषु, पुराणेषु स्मृतिषु च तद्रचनाकाले जैनतीर्थकराणा (धर्मगुरूणा) स्मरणं स्वीयया भक्त्या श्रद्धया वा समादरेण तैः कृतमासीत् । येषु धर्मशास्त्रादिग्रन्थेषु जैनसम्बन्ध्युल्लेखाः प्राप्यन्ते तेषामत्र विवरण नानुचितम्, अतः प्रदीयन्ते केषाञ्चन् ग्रन्थानामुद्धरणानि । श्रीमद्भागवतादिपुराणेषल्लेखः श्रीमद्भागवतस्य प्रथमे स्कन्धे चतुर्विशत्यवताराणा वर्णने ऋषभं सर्वाअमनमस्कृविशेषणेन स्मृतम्। द्वितीयस्कन्धे चास्य परमहंसस्वरूपवर्णनं विद्यते ।" पञ्च मे स्कन्धे तृतीयाध्याये ऋषभावतारवर्णने 'तस्मिन् यज्ञे ऋषीणां प्रसादतः, नाभेः राज्ञोऽभिलषितं पूरयितु, तस्य राज्या धर्म दर्शयितुमिच्छिन् दिगम्वरः, तपस्वी, ज्ञानी, नैष्ठिको ब्रह्मचारी, उर्ध्वरेता विष्णुः ऋषिभ्य उपदेष्टु, शुक्लदेहधारिणा ऋषभदेवेनावतरितम्' । अस्यैव स्कन्धस्य पञ्चमेऽध्याये ऋषभस्य ब्रह्मस्वरूपधारणस्येत्यं वर्णनं विद्यते-'ऋषभेण स्वीयं ज्येष्ठं पुत्र भरतं राज्यभारं समर्म्य, शरीरपरिग्रह संधाय केशलुञ्चनं कृत्वा ब्रह्मस्वरूपं धतम् अत्र केशलुञ्चनपदेन ज्ञायते यदनेन जैनश्रमणदीव गृहीता, यतो हि पद्धतिरियं जैनसाधुसाध्विष्वेव वर्तते, अन्यधर्मावलम्बिनस्तु दीक्षिते सति केशमुण्डनं, जटावर्धनं वैव कुर्वन्ति, न तु लुञ्चनम् । अस्यैव स्कन्धस्य षष्ठेऽध्यायेऽस्मै ऋषभाय महतादरेण नमस्कृतम् तथा चास्मिन्नेव स्कन्धे ऋषभपुत्रभरतनाम्ना भारतवर्षस्य नामकरणं स्पष्टम्-'शतपुष्वग्रजः, अतएव ज्येष्ठः, श्रेष्ठगुणश्च भरत आसीत्, तस्यैव नाम्नास्य देशस्य नाम भारतवर्षः, इति प्रचलितम् ।" मार्कण्डेयपुराणेऽप्यग्नीन्ध्रसूनोभि, नाभेः ऋषभस्य, ऋषभस्थ च शतपुत्रवरस्य वीरस्य भरतस्योल्लेखो विद्यते ।" जैनवर्शन आरम-ब्यविवेचना Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं च चतुर्थे मण्डले - 'यो मनुष्याकारोऽनन्तदानदाता सर्वज्ञश्चान् विद्यते सः स्वपूजकैरेव स्वपूजां कारयति । अन्यच्च पञ्चमे मण्डले -- 'समुद्रसदृशादर्हन्ताज्ज्ञानांशं सम्प्राप्य देवा" अपि पूज्यन्ते ' अपरञ्च द्वितीये मण्डले'हे अग्निदेव ! अस्यां वेद्यां मनुष्यात् प्रागर्हदुदेवस्य मनसा पूजनं दर्शनं च कुरु. तत आह्वानं कुरु. तदनन्तरं पवनोऽच्युतेन्द्रादिदेवानामिव तत्पूजां कुरु'"" । अस्य पञ्चमे सप्तमे "" च मण्डले उभयत्र अन्यत्रापि "" अर्हत्पदयुक्तानि मंत्राणि दृष्टिपथमायान्ति । सन्दर्भोल्लेखाः १. ऋवे - १०।१२६ ॥ ४. ब्रसू - २।१।११। ७. परिव्राट्कामुक शुनां एकस्यां प्रमदातनौ । कुणः कामिनी भक्ष्यस्तिस्र एता हि कल्पनाः ॥ ८. न्याकुल- द्वितीयो भागः - प्राक्कथन ॥ १०. ईशो - ५॥ १२. अष्टा- अस्ति नास्ति दिष्ट मतिः ४|४|६० ॥ २. ५. यवे - ( ईशो) अ-४० कठो - २६|| ३. मभा - वनपर्व ३१३।११७॥ ६. योक्स - १४५ ।। ५२ ६. ११. रमका । १३. काशिका - अस्ति नास्ति दिष्ट मति: ४ । ४ । ६०।१६१० ।। १४. मस्मृ-योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयात् द्विजः । स साधुभिर्बहिष्कार्यः नास्तिको वेदनिन्दकः ॥ १५. छान्दो - ६।२।१॥ १६. श्रीभगी - १६८ ॥ तसू - १।२।। २।११।। १७. छान्दो - ६।२।१ ॥ १८. सुशांभा - २२|३|| १९. कठो-येय प्रेते विचिकित्सा, मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥ १|१६|| २०. असू तर्कपाद २।११-१२। २२. श्रीभगी - १०।२२ ॥ २५. मुको- १|१|५|| २८. श्रीभगी - ११ । ५३ ।। ३१. श्रीभगी - २।४५ ॥ ३३. ऋवे - १०/२/२७/१६॥ ३४. अष्टा - अधिरीश्वरे ११४६७॥, स्वामीश्वराधिपतिः २/३/३६॥ यस्मादधिक यस्य वेश्वरवचन तत्र सप्तमी २३६॥ ईश्वरेतोसुनकसुनौ ३|४|१३|| तस्येश्वरः ५।११४२ ।। २१. मस्मृ - ४।१२४॥ २४. मुको- १।२७॥ २३. ऋवे - १०।४४६ ॥ २६. श्रीभगी - ८।२४-२५।। २७. २६. श्रीभगी - ६।२०- २१ ।। ३०. ३२. श्रीभगी - २१५३॥ श्रीभगी - ८|२८|| श्रीभगी- २४२ ॥ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. पाम-तया ठोक ईश्वर आज्ञापयति प्रामादस्मान्मनुष्या आयन्तामिति ॥ ३६. पायोद- १।२४॥ ३६. श्रीभगी - १८/६१।। ४१. न्यासू - प्रमाणप्रमेयसंशय ४३. पायोद- १/२ ॥ ३८. श्रीभगी - १६।१४॥ निःश्रेयसाधिगमः १२११०४॥ ४२. सांका-शा ४५. नसूशांभा - २२|३७|| ४६. सोऽयं धर्मो यदुद्दिश्य विहितस्तदुद्देश्येन क्रियमाणस्तद्धेतुः श्री गोविन्दार्पणबुद्ध्या क्रियमाणस्तु निःश्रेयसहेतुरिति ॥ ३७. न्याद- ४।१।१६॥ ४०. सू- धर्मविशेषप्रसूताद् निःश्रेयसाधिगमः १११११॥ ४४. पायोद - १।३।। ४७. बस - जैमिनीयाः पुनः प्राहुमानं वचो भवेत् ॥ ४५. अथापि वेदहेतुत्वात् सार्वशं मानुषस्य किम् || ४६. द्रष्टव्य-बआध- पृष्ठ २३ । ५०. OXHISY 1, P. 75 ५१. वर्धमानस्य माता त्रिशला तथा च बिम्बसारस्य राशी (पत्नी) चलना परस्पर सहोदरे भगिन्यो एवं च चेटकराज्ञः पुत्र्यावास्ताम् । ५२. CAMHISY 1, P. 157. ५४. lbide P. 164 ५६. मि० गेट सेंसर्स रिपोर्ट । ५३. CAMHISY 1. P. 160-61, 68. ५५. सराकोनाम श्रावकशब्दस्यैवापभ्रं शशब्दः । ५७. मि० सरसली । ५८. एव कूपलेड । They are represented as having great scruples against taking life. They must not eat till they have seen the Sun and they venerate Parshwanath. 59-A. S.B-1868, No 35. The Jain images are a clear proof the existence of the Jain Religion in these parts in old times. 60-Journel Ass1.-1840, No.-696. ६१. बंगाल स्थनालोजी में कर्नल डेलटन | 62-1-INTHEJAB-There can not longer by any doubt that Parshwanath was a historical personage. According to the jain tradition he must have lived a hundred years and died 250 years before Mahavira. His period of activity there for corresponds to the 8th century B. C. The perents of Mahavira were followers of relegious of Parshwa... The age we live in there have appeared 24 Prophets Thirthankeras) of jainism. They are ordinarily called Tirthankaras. With the 23th Parshwanath. We enter in to the religion of reality. 63 - Hem. V. V. -50-51. 64-Lesson-1A2, P. 261. 65-Ibid.-P.-383. No, -3. सम्बर्मोल्लेखाः 66-- Ibid P. 371 ५३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येकं द्रव्य गुणपर्यायाणामाधारभूतं भवति' द्रव्यस्वभावाश्च गुणाः, अतो द्रव्यादपृथग्भूताः, एषामेवपरिणामाद् द्रव्याणां परिणमनं लक्ष्यते । एषां गुणानां त्रिकालावस्था: पर्यायाः । गुणाश्च प्रतिक्षणं पर्यायपरिणतस्वभावः । अतएव प्रतिणक्षमेकं पर्यायं परित्यजति द्वितीयं च प्रतिग्रह्णाति । द्रव्यस्य गुरणपर्यायात्मकत्वम् (सामान्यविशेषात्मकत्वम् ) द्रव्यस्य सामान्यविशेषात्मकं विशेषणं धर्मरूपं वर्तते यच्चानुगतप्रत्ययस्य व्यावृत्तप्रत्ययस्य च विषयः । वर्तमानं प्रत्यतीतस्य, भविष्यन्तं प्रति च वर्तमानस्योपादानकारणत्वेन त्रयाणामपि क्षणानामविच्छिन्नकारणकार्यपरम्परा सिध्यति । द्रव्यस्य न केवल सामान्यात्मकत्वम्, नापि च केवलं विशेषात्मकत्वम्, किन्तूभयात्मकत्वम् । यदि केवलमूहवता सामान्यात्मक द्रव्यं (सर्वथा नित्योऽविकारि) स्वीक्रियते, तदा त्रिकाले तस्य सर्वथैकरसत्वमपरिवर्तनशीलत्वम् कूटस्थत्वञ्च सिद्ध्येत् । ईदृशे च पदार्थे सति परिणामाभावाज्जगतः समस्तव्यवहाराणामुच्छेदः, सर्वासामपि क्रियाणां फलरहितत्वम्, पुण्य-पाप-बन्धमोक्षादीना च व्यवस्थाया. विनाशो भविष्यति । अतस्तस्मिन् द्रव्ये परिवर्तनं ववश्यमेव भवितव्यम् । यतो हि वय नित्य प्रति प्रत्यक्षं पश्यामः यत्कश्चन् बालकः द्वितीयश्चन्द्र इवाहरहः वर्धते, शिक्षामाप्नोति, विकासञ्च लभते । जडस्य जगतोऽपि विचित्रा: परिणामाः सन्त्यस्माकं समक्षमतो द्रव्यस्य सर्वथा नित्यत्वात्तेषु क्रमेण युगपद्वा केनापि प्रकारेणार्थक्रियाकारित्वं न स्यात् । अर्थक्रियायाश्चाभावे द्रव्यस्य सत्तापि विनाशं लभेत् । एवमेव यदि द्रव्य केवलं पर्यायात्मकं विशेषात्मकं वा स्वीक्रियते, अर्थात्पूर्वक्षणपर्यायस्योत्त रक्षणपर्यायेण सह कश्चनापि सम्बन्धो न स्वीक्रियेत तदादान-प्रदान- गुरु-शिष्यादिव्यवहाराः, बन्ध-मोक्षाद्यवस्थाश्च समाप्ताः स्यु' । कार्यकारणभावाभावेऽर्थक्रियापि न स्यात् । अतएव द्रव्यं सामान्यविशेषात्मकं द्रव्यपर्यायात्मक' वाभ्युपगन्तव्यम् । द्रव्यस्य सदसदात्मकत्वम् प्रत्येकं द्रव्य स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावान् नाक्रामति, न च परद्रव्यक्षेत्रकालभावानवाप्नोति, तस्मात् स्वद्रव्याद्यपेक्षया द्रव्य सत्, परद्रव्याद्यपेक्षया चासत् । द्रव्य-क्षेत्र - काल- भावानामिदं चतुष्टयमेव स्वरूपचतुष्टयः । प्रत्येकञ्च द्रव्यं स्वरूपचतुष्टयेन सत्, पररूपचतुष्ट्येन चासद्भवति । यदि स्वरूपचतुष्टयेनेव पररूपचतुष्टयेनापि सत्ता स्वीक्रियेत तदा स्वपरयो भेद भित्वा द्रव्यस्य ६० जंनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पररूपताया अपि प्रसङ्गः प्राप्नुयात् । अथ च पररूपचतुष्टयेनेव स्वरूपचतुष्टयेनापि यद्यसत्स्वीक्रियेत तदा निःस्वरूपत्वादभावात्मकतायाः प्रसङ्गः स्यादतः arraraस्थायै प्रत्येकं द्रव्यं स्वरूपेण सत्वररूपेण चासदेव व्यवतिष्ठते । द्रव्यस्य एकानेकात्मकत्वम् वस्तुतः स्वतंत्र सिद्धयोः पृथकद्रव्ययोर्नेकात्मकत्वं घटतेऽपितु व्यवहारायेव तयोरेकत्वं स्वीक्रियते । यथाहि-- पुद्गलद्रव्यस्यानेकेऽणवो स्कन्धा - वस्थां प्राप्ते सति काञ्चित्कालावधि यावदेकसत्तात्मकाः भवन्ति, तत्र तावतेषां द्रव्यष्ट्यैकत्वं गुणपर्यायदृष्ट्या चानेकत्वम् । इत्थमेको मनुष्यः (जीव ) बाल-युवा- वृद्धावस्थापेक्षयाने कात्म कोऽनुभूयते । किन्तु यथा द्रव्यं गुणपर्याय:, संख्या -संज्ञा - लक्षण - प्रयोजनाद्यपेक्षाभिश्च भिन्नमपि गुणपर्यायाणां द्रव्यादपृथक्त्वात्, गुणपर्यायाणां पृथग्विवेचनाशक्यत्वाद्वाभिन्नम् भवति । सर्वेषामपि द्रव्याणां सत्सामान्येनैकत्वम्, स्वस्वरूपचतुष्टयत्वेन चानेकत्वम् । इत्यमेवेदं समग्रमपि विश्वमनेकात्मकमपि व्यवहारार्थ संग्रहेणैकमेव कथ्यते । एकं हि द्रव्यं स्वगुणपर्याय: अनेकात्मकम्, एक एवात्मा हर्ष-विषादसुख-दुःखज्ञानादिभिरनेकरूपात्मकोऽनुभूयते । 攀 द्रव्यमन्यरूपम्, पर्यायाश्च व्यतिरेकरूपाः । द्रव्यमेकं पर्यायाश्चानेकाः । द्रव्यस्य प्रयोजनमन्वयज्ञानं, पर्यायप्रयोजनं च व्यतिरेकज्ञानं । द्रव्यस्यानाद्यनन्तत्वम्, पर्यायाणाञ्च प्रतिक्षणं विनाशशीलत्वम् । इत्थं द्रव्यस्यैकत्वेऽपि यदनेकात्मकता प्रतीति सिद्धा वर्तते, तन्नात्र कश्चनापि विरोधो संशयो वा । द्रव्यस्य भावाभावात्मकत्वम् (श्रनन्तधर्मात्मकत्वम् ) द्रव्यस्य ( वस्तुन. ) अनन्तधर्मात्मकत्वविषये बहुधा जनाः विवदन्ते, यत् घटे यदा अस्तित्वं तदा कथं तस्य नास्तित्वम् ? घटस्य यदेकत्वम्, तदा कथमनेकत्वं तस्य ? किन्त्वत्र विचारे कृते सति ज्ञायते यद् घटो घट एव न वस्त्रम्, नापि किञ्चिदन्यत् । अस्यायमभिप्रायो वर्तते, यत् घटो तद्भिन्नानन्तपदार्थात्मको यदि नास्ति, तद् 'घटः स्वरूपेणास्ति, पररूपानन्तपदार्थात्मकाभावात् पररूपात्मको नास्ति' यदि नेत्थं स्यात्, तदा घटः पट एव स्यादन्यत्कश्चिद्वा स्यात् । अत्र दं पररूपव्यावर्तकं नास्तित्वमेव घटस्यास्तित्वं स्थापयति । अस्मिन्नेव घटे रूप-रस-गन्धस्पर्श- लघुत्व-दीर्घत्व-सूक्ष्मत्वादयो गुणधर्माः सन्ति । एषामपेक्षया तु घटोऽनेकधर्मात्मको वर्तते, यथा खलु घटेऽनेके जैनदर्शने द्रव्यव्यवस्था, तदीयं महत्वच ६१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्माः गुणा वा विद्यन्ते, तथैव प्रत्येकस्मिन् द्रव्ये द्रव्यत्वादेकत्वेऽपि परस्परं विरुद्धा अनेकधर्मगुणाः स्पष्टमेव प्रतिभासन्ते । अतएवात्र संशयविरोधयुक्तेभ्यो धर्मकीर्तिनेदं प्रतिपादितम् 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् । अतः द्रव्यस्य स्वद्रव्यक्षेत्र कालभावापेक्षया भावत्वम्, परद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया चाभावत्वमपि वर्तते । न केवलं भावत्वेन नाप्यभावत्वेन वा व्यवस्था भवति, तथाहि-- यदि द्रव्यवत् पर्यायोऽपि केवलं भावरूप एव स्वीक्रियेत तदा प्राक् प्रध्वंस - अन्योन्य- अत्यन्ताद्यभावानाम भावात्पर्यायाणामप्यनाद्यनन्तत्व स्यात्तदा त्वेकं द्रव्यमन्यरूपं भूत्वा प्रतिनियतद्रव्यव्यवस्थामेव समाप्नुयात् । तथाहि १ - प्रागभावः - कार्य कारणादुत्पद्यतेऽत किञ्चिदपि कार्यमुत्पत्तेः प्राक् असद्भवति । उत्पत्तेः प्राक्कार्यस्य योऽभावः स एव प्रागभावः, अभावोऽयं भावान्तररूप. । द्रव्याणामनाद्यनन्तत्वात् निश्चितसंख्यात्मकत्वादन्यूनाधिकत्वाच्च द्रव्यरूपेण कारणत्वम्, पर्यायरूपेण च कार्यत्वम्, यतो हि द्रव्याणि नोत्पद्यन्ते, पर्याया एवोत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च । अतो यः पर्याय उत्पद्यमानो वर्तते, न स उत्पत्तेः प्राग्वर्ततेऽतोऽत्र यस्तस्याभाव:, स एव प्रागभाव. । प्रागभावोऽय पूर्वपर्यायरूपो भवति । इत्थमत्यन्तसूक्ष्मकालदृष्ट्यापि पूर्व पर्याय एवोत्तरपर्यायस्य प्रागभाव, पूर्वपर्यायस्य च तत्पूर्वपर्यायः । अनया सन्तत्या चायमनादिर्भवति । यद्यत्र कार्यपर्यायस्य प्रागभावोऽस्वीक्रियेत तत्कार्यपर्यायाणामनादित्वाद्रव्येषु त्रिकालवर्तीना सर्वेषामपि पर्यायाणामेकस्मिन्नेव काले सद्भावः स्यात् स च प्रतीतिविरुद्ध । २- प्रध्वंसाभावः -- द्रव्यमविनाशि, पर्यायाश्च विनाशशीलाः कारणं हि विनश्य कार्यरूपमभिगच्छत्यत. कारणपर्यायस्य नाशो कार्य पर्यायरूप, कश्चनापि विनाशो नाभावरूपोऽपितृत्तरपर्यायरूप एव भवति, अस्यायमाशय:यत्पूर्वपर्यायस्य नाश सर्वदोत्तरपर्यायरूप एव भवति । यद्ययं प्रध्वंसाभावोऽपि न स्वीक्रियेत तदापि सर्वकार्य पर्यायाणामनन्तत्व स्यात् । यदीदं शङ्क्यते यत्पूर्वपर्यायस्य विनाश उत्तरपर्यायरूपः, तदुत्तरपर्यायस्य नष्टे ( पूर्व पर्यायशस्य विनाशे ) पुनः पूर्व पर्यायेण भाव्यम् १ विनाशनाशस्य सद्भावरूपत्वात् ? तन्न समीचीनम्, यतो हि - कारणोपमर्दनात्कायत्पत्तिस्तु जायते, किन्तु कार्योपमर्दनेन न कारणोत्पत्तिर्भवति, उपादानस्यो ६२ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमर्दनेनोपादेयस्योत्पत्तित्वात् । अत्र प्रागभाव-प्रहवंसाभावयोश्चोपादानोपादेयसम्बन्धो विद्यते । अतः 'यदतीतमतीतमेव तत्' इति नियमानुसारं विनष्टस्य प्रागभावस्य प्रध्वंसाभावनाशेन न पुनरुज्जीवनम् शक्यम् । ३ - इतरेतराभावः - ( प्रन्योन्याभावः ) – स्वभावान्तरात् स्वस्वभावस्य व्यावृत्तिः, एकस्य पर्यायस्यान्यस्मिन् पर्यायेऽभावो वा एकस्य स्वभावस्य अन्यरूपाभावो वा स्वभावानां प्रतिनियतता वान्योन्याभावः । यथाहि:- घटस्य पटे, पटस्य च घटे, वर्तमानकालिकोऽभावः । कालान्तरे तु घटपरमाणवो मृत्तिका - कार्पास- तन्त्वादिपर्यायानधिगम्य पटपर्यायमधिगन्तु क्षमाः, किन्तु वर्तमाने तु घटो न पटः, इयमेव या वर्तमानकालिका व्यावृत्तिः संवान्योन्या भावः । यस्याभावे कार्योत्पत्तिः स प्रागभावः यस्य भावे च कार्यस्य विनाशः सः प्रध्वसाभाव:, अत इतरेतराभावस्य अभावेन भावेन वा, उत्पत्या विनाशेन वा, सह सम्बन्धाभावान्न प्राग्प्रध्वंसयोः सतोः अन्योन्याभावस्यानावश्यकता, वर्तमानपर्यायाणा प्रतिनियतस्वरूपव्यवस्थापकत्वात् । यद्यप्यवमन्येत तत्कस्यचिदपि पर्यायस्य सर्वात्मकत्वस्य सम्भवः स्यात्, अतोऽयमप्यहेयः । कालिको ४ – अत्यन्ताभावः – एकस्य द्रव्यस्यान्यस्मिन् योऽभावः, स एवात्यन्ताभावः । यथाहि - ज्ञानस्यात्मनि यत्तादात्म्यं, न स कदापि पुद्गले सम्भवति । अत्यन्ताभावाभावे तु न कस्यचिदपि द्रव्यस्यासाधारणो भावः स्वरूपोऽवशिष्टः स्यात्, यतो हि सर्वं सर्वात्मकं भवेत् । अत्यन्ताभावादेवैकं द्रव्यं नान्यरूपं भवति, द्रव्ययोः सज्ञातीय- विज्ञातीययोः प्रतिनियतस्वा खण्डस्वरूपत्वान्न कदापि एकसत्तात्मकं मिश्रणं भवति । इमे चत्वारोऽप्यभावाः वस्तुनो भावरूपात्मकत्वादुद्धर्माः । एषामभावे स्वीकृते, द्रव्याणां केवलं भावात्मकत्वे वा स्वीकृते सत्युपयुक्ताः दोषाः बलात् समायान्ति, अतोऽभावाऽशोऽपि भावांशवद्वस्तुनो धर्मः इत्थं द्रव्यं भावाभावात्मकम् । यदि द्रव्यस्य ( वस्तुनो ) अभावात्मकत्वमेव स्वीक्रियेत, तदा बोधवाक्ययो अभावे जाते 'अभावात्मकत्वस्य तत्त्वस्य' स्वयमेव प्रतीतिरसिद्धा स्यात्, परप्रतिपत्तिश्चापि न स्यात् । स्वप्रतीतेः साधनं बोधः, परप्रतिपत्तेश्च साधकं वाक्यम्, अनयोरभावे स्वपक्षसाधनं, परपक्षदूषणं च कथं शक्नुयात् ? इत्थं विचारे कृते सति ज्ञायते यत्प्रत्येकमपि द्रव्यं भावाभावात्मकमेव भवति । नदर्शने द्रव्यव्यवस्था, तयं महत्वञ्च ६३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यस्य नित्यानित्यात्मकत्वम् द्रव्यस्य सर्वथा नित्यत्वे स्वीकृते सति वस्मिन् परिणमनाभावादर्थक्रियायाः अभावो स्यात्, अर्थक्रियाकारित्वाभावे तु पुण्य-पाप-बन्ध-मोक्षादिव्यवस्था: विनष्टाः स्युः, अथ च जगतः प्रतिक्षणभाविनः परिवर्तनादयोऽप्य भवाः स्युः । सर्वाऽनित्यत्वे च स्वीकृते पूर्वपर्यायस्योत्तरपर्यायै असम्बन्ध, आदानस्मृति-प्रत्यभिज्ञादिव्यवहाराश्च उच्छिन्नाः स्यु, कर्तु कर्मफलावाप्तेश्च भावोऽपि स्यात् । सर्वथा नित्ये पक्षे कर्तृत्वासम्भवस्तर्हि सर्वथाऽनित्ये पक्षे कर्ता करिब भोक्ता च कश्चिदिति स्यात् । अय चोपादानोपादेयमूलक कार्यरणभावोऽपि न घटते । बदः लोक-परलोक कार्य-कारणभावादिव्यवस्थायें द्रव्येषु तेषां मोलिकसाया अनाद्यनन्तरूपस्य द्रव्यत्वस्य चाधारो ध्रुवत्वमेव स्वीकरणीयम् । नैनं विना द्रव्यस्य द्रव्यत्व सुरक्षित स्यादतः प्रत्येकमपि द्रव्यं स्वीयानाद्यनन्तधारायां प्रतिक्षणमेव सदृश-विसदृश - अल्प- सदृश- अर्धसदृशादिरूपेण परिणममानं न कदापि समूलोच्छेदं विनाशं वाधिगच्छति । न कदापीदं परिणमनचक्रमवरुद्धं भवति, न कदापि किञ्चिदपि द्रव्यं समाप्तिमधिगच्छति, अतः प्रत्येकमपि द्रव्यं नित्यानित्यात्मकमेव विद्यते । यन्नित्यं तत्कथमनित्यं स्यात् ? इत्यपि शङ्का न कर्त्तव्या, यतो हि - रयते जगति यत्कश्चन अपि पुरुष स्वीयासु बाल-युवा- वृद्धाद्यवस्थासु परिवर्तमानोऽपि स्वीयमस्तित्वमेकमेवानुभवति, येनैषु परिवर्तनेष्वपि तस्यैकरूपता तिष्ठति । यदेशी वस्तुस्थितिस्तदोपर्युक्तं शङ्कन व्यर्थमेव प्रतिभाति, यतो हि परिवर्तन/धारभूता सन्तानपरम्परा द्रव्यस्यानाद्यनन्तत्वं विना न घटते, इयमेव तस्य नित्यता यत्तदनन्तेषु परिवर्तनेषु सत्स्वपि विद्यतेऽतीतांश्च संस्कारान् गृह णन्, परित्यजश्च वर्तते, आगामिनञ्च प्रत्येक क्षणं समतीत्यापिवर्त्यते । यथा खलु 'यः स्वयमन्तिम स्यात् तदनन्तरगामी च न कश्चन, एताशस्य कस्यचिदपि कालक्षणस्य कल्पनाप्यशक्या' एतदिव विश्वस्य जगतोSणु-परमाणु-जीवादिषु कश्चनेको सर्वे वा कश्मिश्चित् काले निर्मूला अतएव समाप्ताः स्यु.' इयमपि कल्पनाशक्या । नेयं कल्पना बुद्धेः परा, यतो हि जनदर्शन आत्म-ग्रन्यविवेचन ६४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अमुकस्मिन क्षणेsane य द्रव्यस्यामुकावस्था भविष्यतीति' परिवर्तनस्य प्रकारविशेषस्तु ज्ञातुमशक्यः, किन्तु द्रव्यस्य भविष्यति प्रत्येकस्मिन्नपि क्षणे यत्किञ्चित्परिवर्तनमवश्यमेव भाव्यमिति तु सुस्पष्टतया प्रतीयते बुध्या' । अतो द्रव्यस्य मौलिकत्वात्तस्य समाप्तेरभावः, यतो हि द्रव्यं परिणामिनित्यं प्रतिक्षणञ्च विलक्षणम् । प्रत्येकस्मिन् क्षणे तत् पर्यायैकयुक्तं भविष्यत्येव । यथा खलु स पर्यायोऽतीतपर्यायं विनाश्य स्वयमस्तित्वमागतः, तथैवोत्तरपर्यायं समुत्पाद्य स्वत एव विनङ्क्ष्यति । अतीतस्य व्ययः, वर्तमानस्योत्पादः, द्वयोश्च द्रव्यरूपेण श्रीव्यमस्त्येवेयमेव व्यात्मकता वस्तुनो वस्तुत्वम् । इदमेव स्वामिना समन्तभद्र'ण' कुमारिलभट्टेन' च प्रतिपादितम् । पातञ्जलमहाभाष्येऽपि " वस्तुनो व्यात्मकतायाः समर्थनं शब्दार्थमीमांसाप्रकरणे समुपलभ्यते, यदाकृतिनाशेऽपि पदार्थसत्तावशिष्यते । यद्यप्येकस्मिन्नेव क्षणे उत्पाद-व्यय- ध्रौव्याणां परस्परविरुद्धत्वं प्रतिभाति, किन्तु विचारे ते सति विरोधः शाम्यति । यतो हि नैनं विना तत्वस्वरूप निर्वाहो भवेत् । " द्रव्यस्य भेदाभेदात्मकत्वम् गुणगुणिनो, सामान्यसामान्यवतोः, अवयवावयविनोः कारणकार्ययोस्सर्वथा भेदे सति गुणगुण्यादिभावा न स्यु । सर्वथाभेदेऽपि 'अयं गुणः, अयं च गुणी' अयमपि व्यवहारो न सम्भवेत् । यद्यवयवी अवयवेभ्यो भिन्नस्तदवयवी स्वावयवेषु सर्वात्मनैकदेशेन वा तिष्ठति ? सर्वात्मना चेत्तर्हि — अवयवसंख्याकाः अवयविनोऽपि स्यु, यद्येकदेशेन तदवयवसंख्याका तस्य प्रदेशा. स्वीकरणीयाः । इत्थं सर्वथा भेदेऽभेदे वानेके दोषा. समायान्ति । अत. यद् द्रव्यं स एवाभेदः, यश्च गुण. पर्यायो वा स एव भेदः । पृथक् सिद्धयोद्र व्ययोर्यथा भेदः काल्पनिकस्तथैवैकस्य द्रव्यस्यापि स्वगुणपर्यायाभ्यां भेदो केवलं व्यवहारार्थमेव कल्प्यते । यतो हि गुणेभ्य पर्यायेभ्यो वा पृथक् न द्रव्यस्य किञ्चित् स्वत शास्तित्वं वर्ततेऽतस्तत्त्व भेदाभेदात्मकमेव स्वीकरणीयम् । एवमेवान्यानन्यात्मकत्वं" पृथक्त्वापृथक्त्वात्मकत्वं " वा तत्त्वस्य समन्तभद्राचार्येण व्याख्यातम् । यथैकः कश्चन पुरुषः विभिन्नापेक्षाभि. कर्तृ -कर्म-करणादिरूपेण व्यवहरति परं तस्य स्वरूपं तु स्वतः सिद्धमेव यथा भवति तथैव धर्म- धर्मिभावस्या"-पेक्षिकत्वेऽपि द्रव्यस्यापि स्वरूपं स्वतः सिद्धम् । केवलमयमेव निष्कर्षः - यद्द्रव्यस्यानन्तगुण पर्याय धर्मेभ्यः पृथक्स्वतंत्रास्तित्वाभावात्प्रत्येकस्यापि द्रव्यस्याखण्डस्य व्यवहारार्थमेवानेक जैवर्शने व्यव्यवस्था, तदीयं महत्वञ्च अस्य - - ६५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मादीनां विश्लेषणं विद्यते। नापि तेषां धर्मादीनां द्रव्याद् व्यतिरिक्ता काचित्सत्ता वर्तते । द्रव्य-व्यवस्था जैनदर्शने विभिन्नराचार्य. द्रव्याणां विवेचनं विभिन्नई ष्टिकोणः कृत विद्यते, तेषु प्रमुखानां सिद्धान्तानामत्र विवेचनं क्रियते । हे द्रव्ये विश्वस्य मूले मुख्यत' जीव. (Soul) अजीवश्च (Non Soul) एव विद्यतेऽनयोरेव सर्वत्र सम्मिश्रणम् । अनयोरेतेन सम्मेलनेन निर्मितंबन्धनर्जीवः नानाससारिदशामनुभवति । यदीय सम्मिश्रणधाराऽवरुद्धा स्यात्तदोत्पन्नान् बन्धनान् विनश्य जीव स्वीया शुद्ध-बुद्ध-मुक्तावस्थामाप्तु शक्नुयात्" । इत्थमत्र संक्षेपत द्वे एव द्रव्ये । अनयोर्ज्ञानरूपो जीवः, अज्ञानरूपश्चाजीव । पद्मनन्दिनाप्येतदेवोक्तम् चिदचिच्चेति द्वे परमतत्वे" (Ultimate reality) केचन च द्रव्याणामस्तिकायानस्तिकायरूपेण भेदमभिदधन्ति । अत्रास्तिकायपदेन तेषामेव ग्रहणं भवति येषामस्तित्वं बहुप्रदेशयुक्तत्त्वञ्चस्ति । यथाहि-जीवः (Soul), पुद्गल (Matter), धर्म. (Motion), अधर्मः (Rest), आकाशश्चेति (Space)। इमे सर्वेऽपि स्वीयेनास्तित्वेन सहैव बहुप्रदेशात्मकत्वात् काय इवाकाशे स्वस्वरूपानुसारं अवगाहन्ते, किन्तु कालोऽस्तित्वात्मकोऽपि बहुप्रदेशित्वाभावादकायवान् । इत्थं केवल काल (Time) एवानस्तिकाय , अन्ये चास्तिकाया । डा० रामनाथशर्मणापि सिद्धान्तोऽय स्वीकृत । पञ्च द्रव्याणि अन्ये च जैनदार्शनिका. जीवाजीवतत्त्वानामन्यदेव वर्गीकरणं कुर्वन्ति । येन केवलं पञ्चास्तिकायानामेव द्रव्यत्वेन स्वीकार , ते च यथा-जीव , धर्मोऽधर्म., आकाश , पुद्गलश्चेति । एषा पञ्चानामपि द्रव्याणा त्रिकालवर्तिना कालेन सम्बन्ध, त्रिकालस्थितत्वात् । अतोऽस्तिपदेनैषां स्थितेः (Existence) यथा बोधो भवति तथैव काय इव प्रदेशप्रचयत्वमप्येषा कायपदेन बुद्धयते । यतो हि समस्तमपि वस्तुजात यस्मिन् कस्मिन् वा देशे काले, (Time or Space) तिष्ठत्येव कालस्य द्रव्यत्वेनास्वीकारस्य विवेचनमग्ने करिष्यते । षड्वव्यारिण दिगम्बराचार्यास्तु पञ्चास्तिकायातिरिक्तं कालमपि द्रव्यरूपेण स्वीकृत्य जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्याणीति" स्वीकुर्वन्ति । तेषाम्मतानुसारं कालस्यापि द्रव्यलक्षणयोगादेकप्रदेशित्वेऽपि (अनेकप्रदेशित्वाभावेऽपि), द्रव्यत्वमस्ति (Substance) एव । गुणः पर्यायश्च युक्तं" द्रव्यं, तत्र स्वयं गुणरहिताः द्रव्याश्रिताः गुणाः (Qualisties or Attributes) । यथा जीवस्य ज्ञानं, पुद्गलस्य रूपादयः, धर्मस्य गतिः, अधर्मस्य स्थितिः, आकाशस्यावगाहः, कालस्य च वर्तनाहेतुत्वम् । द्रव्यस्योपयुक्तरूपेण परिणमनं ( भिन्नावस्थासु परिणमनं ) पर्यायः (Action)। यथाहि-जीवस्य घटादिज्ञानं, सुखं क्लेशादयश्च, पुद्गलस्य मृत्पिण्डघटादयः, धर्मादे. गत्यादिविशेषाः । इत्थ कालेन सह षड्द्रव्याणीति प्रसिद्धम् । सप्ततत्त्वानि तत्त्वानि सप्तविधानि, तथाहि-जीवः (Soul) अजीवः (Non-Soul) आस्रवः (Inflow), बन्धः (Bondage) सम्बरः (Stoppage), निर्जरा (Shedding) मोक्षश्चेति" (Liberation)। उपर्युक्तेषु षड्द्र व्येषु प्रथमो जीव, शेषास्त्वजीवाः (अजीवस्यव भेदाः) सन्ति । अत: जीवाजीवयोरतिरिक्तमपि कश्चिदाचार्यः एषां पञ्चानामपि विश्लेषणं कृतम् । द्रव्य-व्यवस्थायाः महत्वम पदार्थव्यवस्थादृष्ट्येद जगत् षड्द्रव्यमयं वर्तते, किन्तु मोक्षार्थिने येषां पदार्थानां ज्ञानस्यावश्यकतापेक्षा वास्ति, तानि सप्ततत्त्वानि प्रागुक्तानि एव सन्ति । मोक्षप्राप्त्य जगत., जगद्धेतो., मोक्षस्य, मोक्षोपायानाञ्च ज्ञान तथवावश्यक विद्यते यथा खलु कस्मैचन व्याविग्रस्ताय व्याधिमुक्त्यर्थ व्याः, व्याधिहेतो, व्याधिमोक्षस्य, व्याधिमोक्षोपायानाञ्च ज्ञानमावश्यकम् । विश्वव्यवस्थाया. तत्त्वनिरूपणस्य चोद्देश्यानि पृथक्पृथगेव सन्ति । तत्त्वज्ञानान्मोक्षावाप्तिस्तु विश्वव्यवस्थाया ज्ञानाभावेऽपि शक्या, किन्तु विश्व-व्यवस्थायाः समग्रमपि ज्ञानं तत्त्वज्ञानाभावे निरर्थकमेव स्यात् । इत्थमात्मा बद्ध , एभिहेंतुभिर्बद्ध:, बन्धश्चाय भेद्यः, एभिश्चोपायर्भेद्यः, एषु चतुर्षु एव भारतीय. दार्शनिकः तत्त्वज्ञानस्य परिसमाप्तिः कृता। भगवता बुद्धनापि एषामेव चतुण्णां रूपान्तरेण दुःख, समुदयः, निरोधो, मार्गश्चेति चतुःसत्यानां विवेचनं कृतम् । मोक्षार्थिने तु क. मोक्ष. ? इति ज्ञानमावश्यकम्, यस्य प्राप्त्यै सः प्राप्तान् अपि सुखान् परित्यज्य स्वेच्छया साधना-कष्टमनुभवितु सन्नदो जनदर्शने द्रज्यव्यवस्था, तबीमं महत्त्वञ्च Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति । किन्वात्मनः स्वतन्त्रस्वरूपस्य ज्ञानं विना, तस्य सुखदस्वरूपस्य च ज्ञानं विना केवलं परतन्त्रतामपाकतु ताशस्योत्साहस्य भावो न स्यात् येन मुमुक्ष : तपसः साधनायाश्च कष्टान् स्वेच्छया सहितुं प्रयतते । अतस्तस्याधारभूतस्यात्मनः स्वरूपस्य ज्ञानं मोक्षार्थिने सर्वप्रथममावश्यकम् । यतश्चात्मा बद्धः, अतएव मुमुक्ष स्वभावतो भवति । अतएव भगवता महावीरेण बंधास्रवसंवरनिर्जरामोक्षादीनां ज्ञानेन सहैव जीवतत्त्वस्यापि ज्ञानमावश्यकमिति कथितम्, यतो हि जीव एव संसारी भवति, स एव बन्धमधिगच्छति, स एव च बन्धान् विदीर्य मोक्षमवाप्नोति। बन्धश्च जीवाजीवयोर्द्वयोव्ययोर्भवति, अतो यस्याजीवस्य सम्पर्केण जीवस्य विभावपरिणति', रागद्वेषसन्ततिः, यैश्च कर्मपुद्गलः बन्धः स्वस्वरूपाद् भ्रशन च जायते, तस्याजीवतत्त्वस्यापि ज्ञानमावश्यकमपेक्षितञ्च । अस्यायमेवाभिप्रायो वर्तते--यज्जीवाजीवादीनां सप्तानामपि तत्त्वानां मोक्षाय सर्वप्रथमं ज्ञातव्यत्त्वाद् दर्शनेषु एषा तत्त्वाना महत्वं वैशिष्ट्यं च जैनदार्शनिकः स्वीकृतम् । जैनदर्शने द्रव्य-विवेचनम् जैनदर्शने जीवोऽजीव. धर्मोऽधर्म आकाश पुद्गलश्चेति षड्द्रव्याणि सन्ति, इति पूर्वमेवाभिहितम् । एषु प्रथमस्य जीवद्रव्यस्यैव विवेचनमस्य शोध-प्रबन्धस्य मूलभूतो विषय. तस्यैवाग्रे वक्ष्यमाणत्वात् तत्प्रयोजनभूतानां शेषाणां पञ्चाना द्रव्याणा विवेचन क्रियते । gamat: (Matter) पुद्गलद्रव्यस्य सामान्यलक्षणम् –'रूपरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः', 'पूरणाद् गलनाद्वा पुद्गल:' इति। अत्र पूरणम्-- व्यणुकादिस्कन्धेषु तस्य मिलनम्, गलनं च स्कचात्पृथकभवनम् । इत्थ य उपचयापचयमवाप्नोति सः पुद्गल । समस्तमपीद दृश्यमान जगत् पुद्गलविस्तर एव । मूलतस्तु पुद्गलद्रव्य परमाणुरूपमेव। परमाणूनां सघातेन यत्स्कन्धस्योत्पत्तिर्जायते तत् सयुक्त पुद्गलद्रव्य भवति । इमे पुद्गलपरमाणवः स्वबन्धनशक्त्या यावमिलिता सन्ति तावत् स्कन्धपदभाजो भवन्ति । एषां स्कन्धानामुत्पत्तिः विघटनञ्च परमाणूना भेदसघातेभ्य एव भवति । अस्य चेमे चत्वारः प्रमुखाः गुणा भवन्ति-रूपम् (Colour), रस (Taste), गन्ध (Smell), स्पर्शश्चेति (Touch)। जनदर्शन आत्म-प्रव्यविवेचनम् ६८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलस्य चत्वारो मेवाः पुद्गलद्रव्यस्य चत्वारो भेदाः भवन्ति-१-स्कन्धः, २-स्कन्ध-देशः, ३-स्कन्धप्रदेशः, ४-परमाणुश्चेति । तत्रानन्तानन्तः परमाणुभियुक्तः स्कन्धः, स्कन्धा? स्कन्धदेशः, तदर्धश्च स्कन्धप्रदेशः। परमाणुश्च सर्वथाऽविभागी सूक्ष्मतमश्च भवति । इन्द्रियाणि, शरीरं, मनः, इन्द्रियविषयाः, श्वासोच्छवासादयश्चास्यैव विविधा परिणामाः" । स्कन्धमेदाः स्कन्ध. स्वपरिणमनक्रियया षड्विधो भवति-(१) स्थूल-स्थूलाः (Gross-Gross) (२) स्थूलाः (Gross) (३) स्थूलसूक्ष्माः (GrossFine) (४) सूक्ष्म-स्थूलाः (Fine-Gross) (५) सूक्ष्माः (Fine) (६) सूक्ष्मसूक्ष्माः (अतिसूक्ष्माः ) (Fine-Fine) इति । १-अतिस्थूलाः (Gross-Fine)-ये स्कन्धाः छिन्नतां भिन्नतां वाप्ताः सन्तः पुनर्मिलितुमशक्तास्ते स्थूलस्थूलाः । यथाहि-काष्ठ-शिला-पर्वत-पृथिव्यादयः। २--स्थूलाः (बावराः) (Gross)-ये च स्कन्धाः छिन्नतां भिन्नतां वाप्ता. सन्त स्वत एव मिलनक्षमास्ते स्थूलाः । यथा--दुग्ध-तैल-जलादयः । ३--स्थूलसूक्ष्माः ( बादरसूक्ष्माः) (Gross-Fine )-येषा स्कन्धानां स्थूलत्व केवल दृष्टिपथमेवायाति, किन्तु न ते कदापि छेद्या. भेद्याः वा भवन्ति । ते बादरसूक्ष्मा इत्युच्यन्ते । यथाहि-छाया-आतप-अन्धकार-प्रकाशप्रभृतयः । ४-सूक्ष्म-स्थूलाः (सूक्ष्मबादरा.) ( Fine-Gross )--ये च स्कन्धाः सूक्ष्मत्वे सत्यपि स्थूला इव प्रतीयन्ते, ते चतुरिन्द्रियविषयाः स्पर्श-रस-गन्धशब्दाः सूक्ष्म-स्थूलाः भवन्ति । ५-सूक्ष्माः (Fine)-ये सूक्ष्मत्वान्नेन्द्रियग्राह्यास्ते कर्मवर्गणादयः सूक्ष्मस्कन्धा. भवन्ति। ६-अतिसूक्ष्माः ( सूक्ष्मसूक्ष्माः ) ( Fine-Fine )-कर्मवर्गणाभ्योऽपि सूक्ष्मा' व्यणुकस्कन्धं यावत् सर्वेऽपि स्कन्धाः सूक्ष्मसूक्ष्मा' (अतिसूक्ष्माः) भवन्ति। परमारणः (Atom) परमाणुः परमातिसूक्ष्मः", अविभागी५ चास्ति । शब्दकारणोऽपि सन् अनवर्शने विवेचनम् Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयमशब्दः, शाश्वतोऽपि सत्युत्पादव्यययुक्तो भवति । प्रत्येकस्मिन् परमाणो स्वभावत एवंकरसरूपगन्धाः, द्वे स्पर्श च भवन्ति । अर्थात् श्वेतरक्तनीलपीतकृष्णवर्णेषु कश्चनको रूपः (वर्णः) परिवर्तनशीलो भवति, मधुराम्लकटुकषायतिक्तेषु कश्चनको रसः परिवर्तनशीलः, सुगन्ध-दुर्गन्धयो कश्चनको गंधोऽप्यवश्यमेव भवति। शीतोष्ण-स्निग्धरूक्षयोश्चकैक कश्चनापि स्पर्शः, अर्थात् द्वौ स्पर्शी प्रत्येक परमाणौ भवत', शेषा मृदुकर्कशाः गुरुलघु चेमे स्पर्शा., स्कन्धावस्थायामेव भवन्ति, न तु परमाणौ। अयमेकप्रदेशिपरमाणु. स्कन्धानां सयोजकरवाद् हेतुः (कारणं), विभाजकत्वाच्च कार्यमप्यस्ति । अत पुद्गलस्य परमाणुरूपावस्था स्वाभाविकी, स्कन्धरूपा चावस्था विभावपर्याययुक्ता भवति। रूपिरणः पुद्गलाः पुद्गल. रूपिद्रव्यम्, अन्ये च सर्वेऽरूपिण , इदमेवास्यान्येभ्य. पार्थक्यम् । द्रव्यमिद वर्ण - गन्ध - रस - स्पर्शात्मकत्वात्, इन्द्रिय-ग्राह्यत्वाच्च रूपी (Material) । पुद्गलस्यमे मूर्तगुणा परमाणुत पृथ्वीस्कन्ध यावत्सर्वत्रापि प्राप्यन्ते, इमे च सर्वेऽपि रूपिणः सन्ति । अदमवधारणीयम्-यदस्मिन् वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्शाश्चत्वारोऽपि गुणा सर्वदेव तिष्ठन्ति, न कदापि कुत्रापि एको द्वौ त्रयो वा । इद तु सम्भाव्यते यदेकस्मिन् काले एकः प्रमुख इन्द्रियग्राह्यो वा स्यात्, अपरे तु गौणा , अतीन्द्रिया' वा स्यु , पर न तत्रषु कस्याप्यभावो सम्भाव्यते । अस्य सिद्धान्तस्य समर्थनमाधुनिकेन विज्ञानेनापि कृत विद्यते । तथाहि-वैज्ञानिक हाइड्रोजननामको वायु (Hydrogen) नाइट्रोजन (Nitrogen) नामको वायुश्च (Gas) वर्ण-गध-रसरहितोऽभिहित “ । परन्त्वनेन क्थनेन नानयोरेषा गुणाना सर्वथाभावो गृहीतु शक्यते, यतो ह्यनयो वाय्वोरेक. स्कन्धपिण्ड. अमोनिया' (Amonia) नामको विद्यतेऽस्मिन् हाइड्रोजननामकस्य वायोरेकोऽश , नाइट्रोजननामकस्य वायोश्च त्रयोऽशाः भवन्ति । स्कन्धे चास्मिन् वैज्ञानिक रसगन्धयोः स्वीकार कृतो" विद्यते। विज्ञानस्याय सर्वमान्य. मूलभूतच सिद्धान्त. 'यन्नासत उत्पत्ति. सतश्च विनाशो जायते', अनेनैव सिद्धान्तेन 'अमोनिया' स्कन्धे वर्तमानयो. रसगन्धयोः स्वीकारे कृते सति कथमुपयुक्तयो वाय्वोरस्वीकार स्वीक्रियते, यतो ह्यनयोरेव परिणामोऽमोनियास्कन्ध, नान्यः कश्चित् । किञ्च, यद्यनयोटिवोर्नेमौ गुणौ विद्यते, तत्कथमनयोः परिणामे जनदर्शन आत्म-प्रव्यविवेचनम् ७० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Resultant) अमोनियास्कन्धे इमौ गन्धरसी स्याताम् ? न कश्चनाप्येतादृशो गुणो वर्तते यस्य परमाणावभावे सति स्कन्धे सत्ता स्यात् । अतोऽनेन यथानयोaat रसगन्धौ सिध्येते, तथैव वर्णोऽपि साध्यः स्यान्नत्वसाध्यः । अस्य केवलमयमेवाशयः यत् पुद्गले सर्वत्रव वर्णरस- गन्ध-स्पर्शानां साम्येनास्त्यस्तित्वम्, न तु कस्याप्यभावेन । शब्दस्य पुद्गलपर्यायत्वम पुद् गलद्रव्यस्य पर्यायाः - शब्दः ( Voice), बन्ध (Bondage), सौक्ष्म्यं (Fine-ness), स्थौल्यं ( Gross-ness ), सस्थानं ( Figure ), भेदः, तमः, छाया, आतपः (Hot Light), उद्योतादय: ( Cold-light ) " च । वैशेषिकादिभिरशब्दमाकाशगुणमभिहितम्, किन्त्वाधुनिकविज्ञानेन विविधेर्यन्त्रैरशब्द, संग्राह्य तस्य पौद्गलिकत्व साधितम् । शब्द: पौद्गलिकैरेव यन्त्रैर्ग्रह्यते, पौद्गलिकेनैव यत्रेण धार्यते, पौद्गलिकैरेव पदार्थैरवरुध्यते, कर्णपटलादीन् ( पौद्गलिकान् ) एव विदारयति, पीद्गलिकमेव वातावरणमनुकम्पयति, अतएवायमपि पौद्गलिक सिध्यति । अय स्कन्धानां पारस्परिक संघर्षात् संयोगात्, विभागाद्वोत्पद्यते, जिह्वातात्वादीना सयोगादपि नानाप्रकारका प्रायोगिकशब्दा उत्पद्यन्ते, अस्योत्पादकानि निमित्तकरणान्युपादानकारणानि च पौद्गलिकान्येव सन्ति । यदा स्कन्धाभ्या संघर्षात्किश्चन शब्द उत्पद्यते, तदा सः स्वशक्त्या पार्श्ववर्तिनः स्कन्धान्नपि शब्दायमानान् करोति, यथाहि-- जलाशये पाषाणखण्डे प्रक्षिप्ते समुत्पन्न प्रथमस्तरङ्ग स्वीयगतिशक्त्या स्वपार्श्ववर्तिनं जलमपि क्रमशस्तरङ्गयति, अथ चाय क्रम येन केन प्रकारेण स्ववेगानुसारमतिदूरमपि जलमतिक्रामति । इत्थ शब्दो नाकाशगुणोऽपितु पुद्गलपरिणाम एव । शब्दस्य पुद्गलगुणत्वनिरसनम् अत्रायम्प्रश्नः यद्यथा वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्शा पुद्गलगुणास्तथैव शब्दस्यापि पौगलिकत्वे सिद्धे कथं न पुद्गलगुणत्व स्वीक्रियते, यतो हि यथा वर्णादयो क्रमशश्चक्षुरिन्द्रियादीना विषयास्तथैव शब्दोऽपि श्रोत्र न्द्रियविषयः । तन्न समीचीनं प्रतिभाति, यतो हि गुणा द्रव्यस्य आधारभूताः तलिङ्गाः " भवन्ति, अत शब्दो न पुद्गलगुण. नापि स पुद्गलद्रव्ये सर्वदा प्राप्यते । अतः स पुद्गलपरिणाम एव भवितु शक्नोति, यतश्च स पुद्गलस्कन्धानां . पारस्परिकसघर्षादुत्पद्यते । अनदर्शने द्रव्यविवेचनम् ७१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि शब्दस्य पुद्गलगुणत्वं स्वीक्रियेत तदा सर्वदा पुद्गलश्शब्दरूप एव स्यात्, किन्तु नैतादृशो वस्तुतः दृश्यतेऽतः शब्दस्य पुद्गलगुणत्वं नोचितम्, नापि स्वीकतुं शक्यते । धर्मद्रव्यम् (Medium of Motion) अनन्तेऽस्मिन्नाकाशे लोकस्याकारं निश्चेतुमिदमावश्यकं यत्काचिदेताशी विभाजिका रेखा मौलिकाधारयुक्ता भवितव्या, यया जीवपुद्गलानां गमन तावदेव स्यान्न तस्या बहि. । आकाशमेकममूर्तमखण्डमनन्तप्रदेशि, सामान्यसत्तया च सर्वत्र स्थित द्रव्यमतोऽस्य निर्धारितप्रदेशं यावदेव जीवपुद्गलाना गमन स्यान्न तदने, इत्यात्मके नियन्त्रणे नाकाश. क्षम., यतो हि तस्मिन् प्रदेशभेदत्वेऽपि न स्वभावभेदो विद्यते । जीवपुद्गलास्तु स्वत एव गतिस्वभावा , अतो न तेषा स्वतः स्थिते. प्रश्न., अस्मात्कारणादेव जैनाचार्य: लोकालोकविभागार्थमाकाशसदृशमेकममूर्तिक निष्क्रियमखण्ड धर्मद्रव्य स्वीकृतम् । यश्च गतिशीलाना जीवपुद्गलाना गमनक्रियायां साधारणो हेतुः । नाय धर्म कञ्चनमपि द्रव्य सचोद्य सचालयत्यपितु ये गतिमन्त पुद्गलजीवास्तेऽनेन माध्यमेनाश्रयं गृह्णन्ति । लोकान्तस्त्विदं द्रव्यं सामान्यं, परं लोकान्ते तु नियन्त्रकरूपेण स्पष्टं परिज्ञायते, यद्धर्मद्रव्यमप्यस्तित्ववान्, येन सर्वेऽपि पुद्गलजीवा' स्वीय गमन तावत्पर्यन्तमेव विधातु शक्ता, नाग्रेऽपि । धर्मशब्दस्य द्रव्यवाचकत्वम् वर्धमान महावीरेणोक्तम् द्रव्यं व्याख्याययता, यत्--'गुणाश्रयो द्रव्यम', अनेनेद सुस्पष्ट भवति यदत्र धर्मशब्दः नात्मशुद्धिसाधन.", नापि कर्त्तव्यगुणवाचि वास्ति । अपितु धर्मद्रव्यमेक", लोकव्याप्त, शाश्वत, वर्ण-गन्ध-रसस्पर्शशून्यञ्च, जीवानामणूनाञ्च गतिक्रियाया सहायकम् । जीवाना गमनागमने, भाषणोन्मेषौ, मानसिक-वाचिक-कायिक्या' वान्या. प्रवृत्तयोऽपि धर्मेणव सम्पाद्यन्ते"। धर्मद्रव्यस्यावश्यकता धर्मास्तिकायस्य कल्पन न केवल वागाडम्बरमात्रमित्यस्य विश्लेषणं जैनदार्शनिकरित्थ कृत विद्यते--जनदर्शनस्येयं मान्यता, यदाकाशमनन्तं, विश्वञ्च तदेकदेशवति, यदीत्थ न स्यात्तर्हि विश्वस्यकको परमाणुरनन्तेऽस्मिन्नाकाशे प्रकीर्ण स्यादथ चास्य विश्वस्य सघटनमप्यसम्भव स्यात् । अतः वर्तते कञ्चनैतादृशमेक द्रव्य यच्च लोकपरिमित, गतिक्रियायां सहायकञ्चास्ति । इयमेवास्त्यस्य धर्मद्रव्यस्यापेक्षा। जैनवर्शन आत्म-अध्यविवेचनम् Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मद्रव्यस्य स्वतंत्र कल्पनम् आत्मा अणुश्चेमी द्वावेव गत्यात्मको । स्वगतेरुपादानकारणे त्विमावेव, परं निमित्तं कारणं किम् ? पृथ्वी जलादीनि न लोकपरिमितानि, गतिस्तु सम्पूर्ण लोके एव दश्यते, वाय्वादयस्तु स्वत एव गतिशीलाः, आकाशरच लोकालोकव्याप्तः परं न जीवपुद्गलानां गतिस्सर्वत्रैवालोक्यते ? कालश्चापि गतिनिरपेक्षः, इत्थं निर्धारितेषु द्रव्येषु नैकमपि द्रव्य गतिमाध्यम प्रतीयते, अस्मात्कारणादेव धर्मद्रव्यस्य स्वतंत्रा कल्पना स्वाभाविका, बुद्धिगम्या चास्ति । धर्मद्रव्यस्य सहायस्वरूपम् गतिक्रियायां जैनमनीषिभिः आत्मनोऽणोश्च उदासीनमाध्यमरूपेण धर्मद्रव्यं निरूपितम् । धर्मद्रव्य कथ जीवपुद्गलानां गमने सहायको भवतीति कुन्दकुन्दाचार्यै निर्दिष्टम् 'धर्मास्तिकायो न तु स्वत गच्छति, नापि कञ्चन द्रव्य गमयति, तत्तु केवल गतिसाधनमात्रमेव यथाहि जलं स्वयमगच्छन्, मत्स्यान्नप्यगमयन् तासा गतावनुग्रहशील, तथैव जीवपुदगलेभ्यो धर्मद्रव्यमपि ज्ञेयम्" । terror प्राधुनिको गतिमाध्यमः गतिक्रियाया विश्लेषणे प्रवृत्ते राधुनिके वैज्ञानिक. प्राय द्विशताब्दपूर्वमेन सिद्धान्तं परिज्ञाय 'ईथरद्रव्य' परिकल्पितम् । एकोनविंशतिशताब्दी यावत् वैज्ञानिके जगति द्रव्यस्यास्य न किमपि स्थानमासीत् । सृष्टेः प्रत्येकेष्वणुषु विचारशीलो वैज्ञानिकवर्गोऽस्या सृष्टे महत्वपूर्णेनानेनाङ्गनापरिचित एवासीत् । किन्तु यदायं प्रश्न समुपस्थित यत्सूर्यादिग्रहनक्षत्राणां मध्ये वर्तमानेऽस्मिन् शून्यप्रदेशे कथमिमा प्रकाश किरणाः एकस्मात्स्थानादन्यं स्थानं गच्छन्ति ? कश्च तासां गतिमाध्यमः ? कथञ्चायं भारवान् प्रकाश. (पूर्ववैज्ञानिक : प्रकाश भाररहित एवाङ्गीकृत आसीत् किन्त्वद्य प्रभृतिः तैः प्रकाशः भारयुक्त. स्वीकृतः, अयमपि सिद्धान्तः जैनदर्शने पूर्वकालादेव विद्यते) माध्यमेन विनैवान्यं स्थान यावत् गच्छेत् ? अस्यैव प्रश्नस्य समाधानरूपेण एभि: 'ईथरद्रव्य' कल्पितं, स्वीकृतञ्च - 'यदीथरद्रव्य न केवलमाकाशीयग्रहनक्षत्रमध्ये स्थिते शून्यस्थाने एव विद्यतेऽपितु सूक्ष्मतमस्य परमाणोरप्यन्तः शून्ये देशे विद्यते' | ईथरसम्बन्धिप्राथमिकधारणाष्विद प्रतिपादितमासीद् यदस्मिन् सघनत्वं, तरलत्वं भौतिकत्वञ्च वर्तते । परमस्या विंशतिशताब्दयां जातैर्गवेषजैनदर्शने द्रव्यविवेचनम् ७३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाभिरीद्रव्यस्य तदेव स्वरूपं निश्चितं, यन् जैनदर्शने धर्मद्रव्यस्य स्वरूप विद्यते । ईथरद्रव्यस्य धर्मद्रव्येण कियत्साम्यं कियाश्च भेदो वर्तते, इति प्रदर्शनार्थमत्र थरद्रव्यसम्बन्धिविदुषां सिद्धान्तानामुद्धरणानि कानिचित् प्रस्तूयन्ते । नेमिरसनमहोदयरस्य विवेचनमित्य कृतम्-'कीदृशमासीदिदमीथरद्रव्यम् ? इत्यात्मिक्या विप्रतिपत्तयो विरोधा वा दृष्टिगोचरा अभवन्, यतो हीदं सिद्धमासीत्, यत् (१) ईथरद्रव्यं वायुभ्योऽपि तरलम् (२) लोहादपि सघनम् (३) सर्वत्राप्येकदृशम्, (४) अगुरुलघुत्वयुक्तमपि भारशून्यम्, (५) कश्मिश्चिदपि 'इलैक्ट्रान' (Electron) पार्वे पारदाख्याद्रव्यादपि भारवांश्चास्ति'।" डेन्टनमहोदयश्चापि एतद्विषये विलिखितम् यन्-~-'न्यूटनमहोदयेनाविष्कृतमीथरद्रव्य यद्यपि सघन विद्यते तथापि तस्मिन् सघर्ष विनैव स्वच्छन्दतया विहरन्ति पदार्था । अस्यात्यन्तकोमलत्वेऽपि न विभिन्नाकारा. भवितु शक्नुवन्ति, भ्रमणशीलत्वे चापि नास्य गतिर्दष्टिगोचरीभवति । पदार्थेष्वस्य प्रभावो भवत्येव परं नास्मिन् पदार्थप्रभाव' कथमपि सम्भवति, नास्य विभिन्ना' स्कन्धा सन्ति, अतएव न वयमस्य पृथक पृथगशान् अभिज्ञातुं शक्नुमः । स्थितानां नक्षत्राणामपेक्षयाम्य निष्क्रियत्वेऽपि, नक्षत्राणा परस्परापेक्ष्या गतिशीलत्वमेव स्वीकृत विद्यते । मैक्सबोर्नमहोदयश्चतद्विषयेऽभिहितम् यत्- 'शतवर्षपूर्व ईथरद्रव्यमेकमवलेह्यपदार्थवत्तरल स्वीकृतमासीत्, यच्चातिलघु , गुरुश्चापि स्यात्, येन तत् द्रुतगत्या परावर्तुं शक्नोतु। पर निकल्मनमहोदयस्य प्रयोगेनापेक्षावादसिद्धान्तेन चेद ज्ञात यत् 'ईथर'--द्रव्यमन्येभ्यो भौतिकेभ्यो द्रव्येभ्यो पृथग्वततेऽस्यापेक्षावश्यकता वा विद्युति, आकर्षणक्रियायाञ्चाप्यस्ति' ।" इत्थं बहुभि पाश्चात्यवैज्ञानिकै क्रमशः स्वीयेनानुसधानेनाम्य स्वरूपविषये विवेचन कृतम् । यत्र धर्मद्रव्यस्वरूपान् किञ्चित्साम्य, किचिद्वै भिन्दयञ्चाप्यासीत् । किन्त्वस्या शताव्द्या यद्वैज्ञानिकानामन्तिमो निर्णय सजात , तत्र यत्स्वरूपमेभिरस्य निश्चितम, तत्सर्वथा जैनदर्शने प्रतिपादितेन धर्मद्रव्येण साम्य भजते। तथाहि ---'नास्येदं तात्पर्य, यदीथरद्रव्य नास्ति ? अस्माकमस्यापेक्षास्त्येव · गतेऽस्मिन शताब्दे प्रायश स्वीकृतमिदम, यदीथर द्रव्यमेक पिण्डरूप, सघन, सामान्यद्रव्यवच्च गतिशीलमरत्येव, कदेय विचारधारावरुद्धेति कथन कठिन · परमद्यन्तनमिदं स्वीकरणम्-यदीथर द्रव्य न भौतिक द्रव्य, अभौतिकत्वाच्चास्य प्रकृतिरपि सर्वथा भिन्ना पिण्डत्व-घनत्वादि ७४ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिक गुणानां सर्वथाभावोऽप्यस्मिन् स्यात् परमस्य स्वीया एव नवीनाः, निर्णयात्मकाश्च गुणाः स्युः ईयरद्रव्यस्याभौतिकमुदधिरिति । " ईथर - धर्मद्रव्ययो साम्यम् अथ च प्रो० जी० आर० जैनमहोदयरीरद्रव्यस्य धर्मद्रव्यस्य च तुलनात्मके विवेचने सुस्पष्टतया प्रतिपादितं - 'यदिदं सिद्ध, यद्धर्मद्रव्यं ईथरद्रव्यञ्चतादृशमैक्यं भजेते, यत्ते द्वेऽप्यभौतिके, अपारमाणविके, अविभाज्ये, अखण्डे, आकाशवव्याप्ते, अरूपे, गतेरनिवार्यमाध्यमे, स्वस्थिते च स्त' ।" सुप्रसिद्ध गणिताचार्यै प्रो० अलवर्टआइस्टीनमहोदयैरपि लोकालोकयोः मर्यादानिरूपणे स्वीकृतम् - 'यल्लोकस्तु परिमितोऽलोकश्चापरिमित । अतः लोकस्य परिमितत्वान्न काचन् द्रव्यशक्ति लोकाद्बहिर्गन्तु शक्नोति, तत्र तस्या शक्ते. ( या शक्ति गती सहायिका, तस्या ) अभावात् । नेनोपर्युक्तेन विवेचनेन परिज्ञायते, यदाधुनिकैवैज्ञानिकै यत् 'ईथरद्रव्यं' परिकल्पितं, तस्य च ये गुणा सन्ति, तेषां जैनै परिकल्पितेन धर्मद्रव्येण सर्वथा साम्य जातम, येन नेद कथनमनुचितं प्रतिभाति, धर्मद्रव्यमेव सम्प्रति 'ईथर' इतिनवीननाम्नाधुनिक वैज्ञानिक साक्षात्कृत, वस्तुतस्तु एतदेव बहुकालाद् भारतीय वाङ्मये जैनै 'धर्मद्रव्यम्' इतिनाम्ना ग्रहीतं विद्यते । अधर्मद्रव्यम् (Medium of rest ) यथा जीवपुद्गलानां गतावपेक्षितम् धर्मद्रव्यं तथैवैषां स्थितावप्यसाधारणकारणरूपेणाधर्मास्तिकायस्य कल्पना जैनदार्शनिकै कृता । धर्माधम द्वावेव सदृशौ विद्येने, यतश्च धर्म इवाधर्मोऽपि रूप-रस- गन्धस्पर्शशब्दादिरहितोऽमूर्तिक, निष्क्रिय उत्पाद - व्ययाभ्या परिणमनशीलोऽपि नित्यो विद्यते । परन्त्वनयो. कार्यभेद स्वाभाविकस्तद्यथा - धर्मो यथा जीवपुद्गलानां गतावसाधारणो हेतुस्तथैवायमधर्मोऽपि जीवपुद्गलाना स्थिताव साधारणकारणत्वात् स्थितिलक्षणोऽस्ति । जीवपुलाना स्थितावयमुदासीनो हेतु वर्तते, यथाहि - वृक्षच्छाया गच्छन्तं कञ्चन् पथिक न बला स्थापयति, अपितु स्थितेभ्य पथिकेभ्य आश्रयमेव ददाति यथा च पृथिवी गच्छत पशूत् न गमनान्निवारयति, अपितु तेषां स्थित आधारमेव प्रददाति तथैवायमधर्मोऽपि जीवान् पुद्गलाश्च न तु गमनान्निवारयति, नापि स्थित्यं प्रेरयत्यपितु तेषा स्थिती वृक्षच्छाया-पृथिवीवदेवोदासीन साहाय्य प्रकरोति । जैनदर्शने द्रव्यविवेचनम् ७५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायते । न कस्यचिदपि पृथकपदार्थस्यावश्यकतात्र वर्तते । कथमन्यैः स्वीकतानां पदार्थानामत्रान्तर्भावो भवितुं शक्नोतीत्येतदर्थमेवात्र विवेचनं क्रियते। चार्वाकास्तावत् 'पृथिव्यापस्तेजोवायस्तत्वानी'त्यभिदधन्ति। बौद्धदर्शनापेक्षया च तत्त्वविमर्श. विषयगतविषयिगतभेदेन द्विधा भवति । तत्र विषयगतापेक्षया 'असंस्कृतधर्मा', संस्कृतधर्माश्चेति द्वैविध्यम् जगतः धर्माणां स्वीकृतम् । असंस्कृतस्यार्थश्च-नित्यः, स्थायी, शुद्धः, सहेतुकश्चेति । इमे चासंस्कृतधर्मा. त्रिविधा ----१-प्रतिसख्या निरोधः, २-अप्रतिसंख्यानिरोधः, ३-आकाशश्चेति । अत्र प्रज्ञया राग-द्वेषादिवर्माणां पृथक् पृथक् विसंयोगः प्रतिसंख्यानिरोध." । प्रज्ञया विनैव यो निरोधो भवति स खल्वप्रतिसंख्यानिरोध.। अर्थात् स्वभावत एव सास्रवधर्माणां निरोधोप्रतिसंख्यानिरोधः इति। आकाशश्चावरणस्याभावः" । संस्कृतधर्मास्तु-रूप-चित्त-चैतसिकचित्तविप्रयुक्तश्चेति विभेदश्चतुर्धाः भवन्ति । अत्रावरोधक. पदार्थ रूपः । अस्य पञ्चेन्द्रियाः, तेषा पञ्चविधाः विषया., अविज्ञप्तिश्चेत्यैकादशभेदाः भवन्ति । इन्द्रियाणां तद्विषयाणाञ्चाघात-प्रतिघाताभ्यामुत्पन्नं चित्तमिति । मन -विज्ञानादीन्यस्य नामान्तराणि"। चित्तेन च सघनसम्बन्धस्थापकः मानसिकव्यापार एव चैतसिको धर्म उच्यते । अयं च षट्चत्वारिंशद्विध." । ये च धर्मा रूपधर्मेषु चित्तधर्मेषु वाऽपरिगणितास्ते 'चित्तविप्रयुक्ता.' इत्युच्यन्ते । एते च धर्मा. चतुर्दश विधा. भवन्तीति५ ।। विषयिगतदृष्ट्या च जगतो विभागस्त्रिविध -१-स्कन्धः, २-आयतनं, ३-धातुश्चेति । तत्र स्कन्धा. रूप-वेदना-संज्ञा-सस्कार-विज्ञानभेदेन पञ्चधा भवन्ति । मनःसहितानि पञ्चेन्द्रियाणि, तेषा विषयाश्चात्र ज्ञानाधारण स्वीकृता । अत एवैषा ज्ञानाधारत्वात् आयतनत्वमित्युक्तम् । अत्र मन आयतनातिरिक्तेप्वेकादशष्वायतनेषु प्रत्येकमेकैको धर्म', मन आयतने च चतुष्पष्टिधर्मास्तिष्ठन्ति । अतएव मन आयतन 'धर्मायतनमित्यप्यभिदधति बौद्धाः । बौद्ध-दर्शने धातुशब्दस्यार्थः स्वलक्षणोऽभिहित । वसुबन्धुना च तानि सूक्ष्मतत्त्वानि येषा समूहात् ज्ञानसन्ततेरुत्पादो भवति) ज्ञानावयवत्वेन धातुशब्द स्वीकृतम् । एते च ज्ञानावयवा (षड् इन्द्रियाणि, तेषा षड् विषया., तदुत्पन्नानि विज्ञानानि चेति) अष्टादशविधा भवन्ति । वैशेषिकाणि द्रव्याणि वैशेषिकैश्च द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायाभावाश्चेत्येते सप्तपदार्थाः इसरदर्शनाभिमतव्याणामन्तर्भाव: Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकृताः। अत्रापि च पृथिवी-अप-तेजो-वायु-आकाश-काल-दिक्-आत्ममनांसीति नवद्रव्याणि स्वीकृतानि । मोमांसकद्रव्यारिण मीमांसकाना मतेऽपि न्याय-वैशेषिकवदेव जगतः सत्ता स्वीकृता विद्यते । एतेषु शबरमहोदय द्रव्य-गुण-कर्म-अवयवानामुल्लेखः स्वभाष्ये" कृतः । प्रभाकरमहोदयश्च द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-समवाय-संख्या-शक्ति-सादृश्यानां पदार्थत्वेन स्वीकारः 'प्रकरणपञ्चिकाया विहितः । अत्रंषा लक्षणानि भेदाश्च प्राय वैशेषिकसदशा एव सन्ति । परञ्च कुमारिलमहोदयानुसारं भावाभावभेदाभ्या पदार्थो द्विविधः । तत्र भावश्चतुर्विध --द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्यभेदेन । अभावोऽपि प्राग्-अत्यन्त-ध्वस-अन्योन्यभेदैश्चतुर्विधो भवतीति । अत्र द्रव्यमन्धकारशब्दाभ्या वैशेषिक स्वीकृत नवभिश्च सहकादशविधं सजायते। केचन च सुवर्णमपि पृथक् द्रव्यत्वेनाभिदधति"। किञ्चात्र मुरारिमिश्ररनयो (प्रभाकर-कुमारिलयो.) मताद्भिन्न केवलं 'ब्रह्म' एवैकः पदार्थ. स्वीकृत । व्यवहारे तु घट-घटत्व-अनियताश्रयप्रदेश विशेषादयश्चत्वार एव पदार्था. स्वीकृता । अतएवास्मात्परवर्तिभिराचार्य. ब्रह्मण एवैकपदार्थत्वेन स्वीकारा 'ब्रह्ममीमांसे'ति पदेनाभिहितम् तत् । सांख्यद्रव्याणि सांख्यदर्शने तु श्रीण्येव व्यक्त-अव्यक्त-ज्ञाख्यानि तत्त्वानि सन्ति । अत्राव्यक्तं, प्रकृति, प्रधान वेत्युच्यते । व्यक्तं त्रयोविशद्विध कार्यकारणपरम्परायाञ्च प्रकृते परिणामस्वरूपं भवति । ज्ञश्चैक एव चेतन पदार्थ पुरुषापराख्यश्चेति । अन्येषां द्रव्यारिण योगशास्त्रे च केवलमेकमात्र 'चित्तम्' एव तत्त्वं बुद्ध्यपरनाम्ना स्वीक्रियते । अस्यैव विविधानां स्वरूपाणा तत्र विवेचन विद्यते । अद्वैत (शांकर) वेदान्ते तु केवल 'ब्रह्म' 'आत्मा' वैकमात्र तत्त्वम् । शैवदर्शने च केवलं शिवतत्त्वमेवैकमात्र , परञ्च तदभिव्यक्ताना तत्त्वानामपेक्षया पञ्चविंशतिविधानि यानि साख्यदर्शने स्थूलभूतादय तत्त्वानि तान्येव सन्ति । केवलमयमेव विशेष , यदत्र पुरुष-प्रकृत्यो न साख्यवन्नित्यत्वं, स्वतंत्रत्व वा स्वीकृतमपितु मायापरनाम्नास्या अनित्यत्वं, परतन्त्रत्वञ्च स्वीकृतम् । जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् ८२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टाद्वैतदर्शने च चित्, अचित् ईश्वरश्चेति त्रीण्येव तत्त्वानि सन्ति । अत्र चित्तत्त्वं जीवात्मा, यश्च देहेन्द्रियमनः - प्राण- बुद्धिभ्य भिन्न एवास्ति । अयं चबद्ध - मुक्त - नित्यभेदेन त्रिविधः । अचित्तत्त्वं तु जडं विकारयुक्तं भवति । शुद्ध-मिश्र - शून्यसत्वभेदेनेदमपि त्रिविधम् । चिदचित्तत्त्वयोः आधारभूतमीश्वरतत्त्वमिति । द्वैताद्वैतदर्शने च जीवात्मा, परमात्मा प्रकृतिश्चेति त्रीणि तत्त्वानि । एषां परस्परं पृथक्त्वमस्ति । अत्र जीवात्मप्रकृत्योर्न परमात्मानं विना काचित् स्थितिः भवितु शक्नोति । किन्त्वेषां परमात्मन. समुद्रवीचिवदभेदोऽत एवेमेऽभेदवादित्वेनापि उच्यन्ते । पूर्णप्रज्ञ (द्वैत दर्शन ) दर्शनानुसारं दश पदार्थाः -- द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य- विशेष - विशिष्ट - अंशी - शक्ति - सादृश्य- अभावश्चेति । एषामवान्तरभेदेषु द्रव्यमेव केवलं विशद्वित्रं भवति । एवमन्यान्यपि विभिन्नभेदात्मकानि सन्तीति । एषां जनद्रव्येष्वन्तर्भावः इत्थं भारतीयदर्शनेषु द्रव्याणां पदार्थाना वा विवेचनस्य स्वस्वबुद्ध्या प्रतिपादकात्मकत्वाद्वै भिन्न्य युज्यत एव । परञ्चैषा पदार्थानां द्रव्याणामन्तर्भावः जैन स्वीकृतेषु जीव- पुद्गल-धर्माधर्म- कालाकाशेषु कथं सञ्जायत इत्यस्त्यत्र विवेचनीयम् । अत्र जैनदृष्ट्या पुङ्गलस्य यत्स्वरूपं तत्र चार्वाकः स्वीकृतानां चतुर्णामपि भूतानामन्तर्भाव: ( रूप-रस- गन्ध-स्पर्शात्मकत्वात् पुद्गलस्य) सञ्जायते" । तथा च बौद्ध स्वीकृतानां पदार्थानामाकाशं विहायान्येषामन्तर्भावो जीव- पुद्गलयोरेव भवति । यतश्च तत्र मन. – चित्तेन्द्रियादीना जैनदर्शनदृष्ट्या द्रव्य-भावात्मकत्वात् द्रव्यमनश्चित्तेन्द्रियादीना पुद्गले, भावमनश्चित्तेन्द्रियाणाञ्च भावात्मकत्वात् जीवेऽन्तर्भावो" जायते । यच्च वेदान्तदर्शने (तस्य सर्वासु शाखासु च ) केवलं ब्रह्म एव तत्वतः स्वीकृतम्, यत्रकुत्रचिच्च मायादीनां वा स्वीकार:, तेषामपि सर्वेषां जीवे पुद्गले वान्तर्भावः सारल्येन सञ्जायते । केवलं वैशेषिकैस्तदनु च मीमांसकैरपि यानि विविधानि तत्त्वानि द्रव्याणि च स्वीकृतानि वर्तन्ते तेषामत्र विशेषेणोपस्थानम् क्रियते, यत्कथं तेषामन्तर्भावो कतु ं शक्यते । इतरवर्शनाभिमतद्रव्याणामन्तर्भावः ८३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिकाः खलु पृथिव्यादीनि नवद्रव्याणि स्वीकुर्वन्ति । एष्वाधानि चत्वारि द्रव्याणि रूपरसगन्धस्पर्शयुक्तान्येव सत्यतः रूप-रस-गन्ध-स्पर्शयुक्तानामेषां जैनदार्शनिके पुद्गले एतत्सामान्यलक्षणयुक्तत्वादन्तर्भावो जायते । दिशस्त्वाकाशेऽन्तर्भाव', आकाशस्य कालस्यात्मनश्च जनदर्शनेऽपि स्वातत्र्येण द्रव्यत्वमस्ति । किञ्च, मनस्तु जैनदर्शनदृष्ट्या जीव-पुद्गलपर्यायत्वान्त पृथग्द्रव्यात्मकत्वं भजते । तद्यथा--द्रव्यमन', भावमनश्चेति मनसो द्वैविध्यम् । आत्मनो विचार-सरण्या सहयोगि, पुद्गलपरमाणना च स्कन्धरूपं द्रव्यमन. । आत्मनो हिताहितयोविमर्श यदुपकरणरूपं तद्रव्यमन इति। शरीरस्य यस्मिन्नशे आत्मन उपयोगो भवति, तदा तत्र स्थिताः परमाणवोऽपि मन परिणता भवन्ति । विचारशक्तिस्त्वात्मन्येवास्ति, अत. भावमनस आत्मरूपत्वमेव । यथा खलु भावेन्द्रियाण्यात्मन एव शक्तिविशेषरूपाणि, तद्वभावमनोऽपि नोइन्द्रियावरणकर्मण क्षयोपशमात्प्रकट्यमानाऽऽत्मन एवैका विशेषशक्ति , न तद्व्यतिरिक्त मनोद्रव्यं वर्तते । यद्यपीन्द्रियाणा मनसः सहयोगाभावे स्वस्वविषयग्रहणासमर्थत्वमेवास्ति, किन्तु मनस्त्वेकाक्येव गुणदोषविचारादिव्यापारसमर्थत्वात् निश्चितविषयत्वाच्च सर्वविषयकमेव भवति । वैशेषिका द्रव्यातिरिक्ताः षड्पदार्थाः वैशेषिक द्रव्यातिरिक्ताः पइपदार्थाः-'गुण-कर्म-सामान्य-विशेप-समवायअभावा.' अन्येऽपि स्वीकृता । अत्र 'गुणोऽय, गुणोऽय', इत्यात्मकप्रत्ययत्वाद् गुणोऽप्येक. पदार्थ । कर्म-कति प्रत्ययत्वाच्च कर्माप्येक: स्वतत्रपदार्थ. । अनुगताकारप्रत्ययात्मकाः परापररूपाश्चानेके सामान्याः । नित्येषु परमाणषु, शुद्धात्मषु, मुक्तात्मना मनःसु च परस्पर विलक्षणतावगमार्थ प्रत्येकेष्वपि नित्यद्रव्येष्वेकैक विशेषपदार्थ स्वीकृत । अपृथसिद्धाना पदार्थाना सम्बन्धाय समवाय आवश्यक । कार्योत्पत्तेः प्राग्वस्तुनो भाव प्रागभावः, उत्सत्तेरनन्तरं भावी विनाशश्च-प्रध्वसाभाव , पदार्थेषु परस्परमन्यस्वरूपस्याभावोऽन्योयाभाव , कालिकस्य च मंसर्गस्य परस्परमवरोधकोऽत्यन्ताभाव. । इत्थमत्र यावन्त. प्रत्यया. पदार्थेषु प्राप्यन्ते, तावन्त एव पदार्थाः वैशेषिक. स्वीकृता । अतएव वैशेषिकेभ्यः 'सम्प्रत्ययोपाध्याय' पदवी यथार्थमेव प्रदत्ता । गुणादीनामपृथक्पदार्थत्वम् अत्र जैनदर्शनदृष्ट्या विचारे कृते सति ज्ञायते, यद्रव्यस्वरूपाबहिर्न गुणा जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनां काचित्सत्ता विद्यते । यतो हि जैनदर्शनदृष्ट्या - द्रव्यं गुणपर्ययवद्भवति । गुण - क्रिया- सामान्यादयस्तु द्रव्यपर्यायरूपा एव भवन्ति, यतो हिज्ञानादिगुणानामात्मनः पृथक्, रूपादिगुणानाञ्च पुद्गलेभ्यः पृथक् न काचित्सत्तावलोक्यते, युक्तिभिः सिद्ध्यति वा । अथ च यदा वैशेषिकैरपि गुणगुणिनो, क्रिया- क्रियावतोः, सामान्य- तद्वतोः, विशेष- नित्ययोश्चायुतसिद्धत्वं स्वीक्रियते, तदा गुणादीन् परित्यज्य द्रव्यस्य कथं पृथक् सत्तावतिष्ठेत ? द्रव्येभ्यश्च ऋते निराधाराः गुणादयोऽपि कुत्र स्युः ? अतएवानयोः कथञ्चितादात्म्यसम्बन्धात्, 'गुणसन्द्रावो द्रव्य मिति' पातञ्जलसिद्धान्तानुसारमपि अपृथक्त्व स्वीकरणीयम् । एतच्च स्वीकृते न गुणाना पृथक्पदार्थत्वं समर्थनीयं “ स्यादिति । क्रियाया पृथक्त्वम् यथैकमेव द्रव्यमनेकगुणाना पिण्डरूपं भवति, तथैव सक्रियेषु द्रव्येषु तद्भाविन्य: क्रिया अपि तत्पर्यायरूपा एव तिष्ठन्ति न तु स्वतत्रा पृथसिद्धाः, यतश्च क्रिया कर्माणि वा न क्रियावतो. पृथगस्तित्वशालिनो कुत्राप्यवलोक्यन्ते । सामान्यस्यापृथक्त्वम् एवमेव सामान्यमपि पृथिवीत्वादिभिन्नद्रव्य वर्तिसदृशपरिणामरूपम् । न किञ्चिदेक, नित्य, व्यापकं वा सामान्यम् मुक्तापिहितसूत्रवद्द्रव्येष्वलोक्यतेऽपितु येषु द्रव्येषु येन रूपेण सादृश्यं प्रतीयते, तदेव द्रव्याणां सामान्यत्वेन स्वीक्रियते । तच्च सामान्य न केवल बुद्धिकल्पितमपितु सारश्यत्वावस्तुनिष्ठम्, वस्तुवदेवोत्पादव्ययशाली च वर्तते इति । विशेषस्यापृथक्त्वम् यथा खलु सर्वेषामपि द्रव्याणां पृथक्पृथक्स्वतंत्रास्तित्वमस्ति तथा तत्र स्वाfaradast विलक्षणप्रत्ययोऽपि भवितुमर्हति । यथा खलु विशिष्टाना पदार्थाना स्वरूपेणैव सिद्धत्वात् न तत्र विलक्षणप्रत्ययोत्पादकाः अन्येऽपि विशेषाः आवश्यका भवन्ति तथैवात्र द्रव्याणा स्वस्वरूपेणैव विलक्षणप्रत्यये स्वीकृते सति न विशेषाख्यस्य कस्यचित्पदार्थस्य स्वतत्रावश्यकता प्रतिभातीति । समवायस्यापृथक्त्वम् अवयवावयविनोः, गुण-गुणिनो:, क्रिया- तवतोश्च यः समवायसम्बन्धो जायते इतर दर्शनाभिमतद्रव्याणामन्तर्भावः ८५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्तयोरेव पदार्थयोः पर्यायरूपो भवति । यथा ज्ञानस्यात्मनि समवायसम्बन्धः । अत्रायमभिप्रायो-यज् ज्ञानं, तस्य समवायसम्बन्धश्चोभावपि ज्ञानस्यैव सम्पत्तिरूपी स्तः, न तद्भिन्ना ज्ञानस्य तत्समवायसम्बन्धस्य वा काचन् स्वतंत्रा सत्ता विद्यते । द्वयोः पदार्थयोर्यः कश्चनापि सम्बन्धः सस्थापितो भवति, सः स्वसम्बन्धिनोः पर्याययोविशेषरूप एव भवितु शक्नोति । यथा द्वयोर्युतसिद्धयोः पदार्थयोः संयोगः प्रत्येकमवतिष्ठते-एकस्यान्यस्मिन्, अन्यस्य चापरस्मिन् । अर्थात् संयोगः प्रत्येकनिष्ठोऽपि द्वाभ्यामेवाभिव्यक्तो भवति । इत्थमत्र न समवायस्य पृथक् सत्ता आवश्यिकी । प्रभावस्यापृथक्त्वम् कस्यचिदपि वस्तुनो सत्ताया अभाव तस्याभाव इत्युच्यते । स च प्राक-प्रध्वंसअत्यन्त-अन्योऽन्यभेदाच्चतुर्विधो भवति । अत्र जैनदर्शनदृष्ट्या प्रत्येकस्यापि द्रव्यस्य पूर्वपर्यायस्तस्य प्रागभावरूपः, उत्तरपर्यायश्च प्रऽवसाभावरूप एव भवति । प्रतिनियतस्वस्वरूपश्चान्योऽन्याभावः, अससर्गीयरूपश्चात्यन्ताभावो भवति । इत्थमभावो भावान्तररूप एव जैनदर्शने स्वीकृतो विद्यते । न च सः स्वतत्र कश्चन् पदार्थ. । यर्थकस्य द्रव्यस्य स्वरूपस्थितिरेव पररूपस्याभावोऽथ चैकस्यैव द्रव्यस्य द्वयो पृथक्पर्याययोः परस्परमभाव-व्यवहार इतरेतराभावस्तथा च द्वयो व्ययो. परस्परमभावोऽत्यन्ताभाव. इत्युच्यते । एषा विस्तृत विवेचन पूर्वमेव मया कृतम् । अतोऽभावस्यापि न पृथक्पदार्थरूपेण काचन आवश्यकता द्रव्य-व्यवस्थाया प्रतिभाति । इत्थ गुणादयो न पृथक्सत्ताका. स्वतत्रपदार्था , अपितु द्रव्यपर्यायरूपा एव, भिन्नप्रत्ययाधारेण पदार्थव्यवस्थास्वीकारे पदार्थानामानन्त्यमेव सम्भाव्यतेऽतो नेद समुचितम् । अवयवावयविनोरपृथक्त्वम् किञ्च, अवयविनं द्रव्यमवयवेभ्यः पृथक्स्वीकरणमपि प्रतीतिविरुद्धं, यथाहितन्तुरूपावयवा एव निर्धारिताकारपरिणता. पटसज्ञाकावयविरूपा भवन्ति । पटनामको कश्चनावयवी समवायसम्बन्धेनावयवेषु तन्तुषु स्यादिति नानुभवगम्य, यतो हि-यथा पटाख्यस्यावयविनो सत्ता तन्तु रूपेभ्योऽवयवेभ्यः पृथक न कदापि कुत्रापि प्रतीयते, तथैव स्कन्धाख्यस्यावयविनः पर्यायात्मकत्वेनैव प्रतीतिर्न तु स्वतत्रण द्रव्यरूपेण । तद्यथा-यमंत्परमाणुभिर्घटोत्पादस्ते परमाणव. स्वत एव घटाकारं ग्रह्णन्ति । अतस्तेषा परमाणूना सामुदायिक्यभिव्यक्ति.-'घट' इति भवति, न तु घटोऽववित्वेनान्यत जैनदर्शन आरम तस्य विवेचनम् Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगच्छति, अपितु मृत्परमाणू नामाकार-पर्याय- प्रकारेषु क्रमिकैः परिणाम रेव घटकार्याणि जायन्ते । इत्थञ्च घटव्यवहारस्य सङ्गतिरपि जायते" । अस्यायमेवाभिप्रायः - यत्परमाणुः स्वतंत्रास्तित्व- परिणामयुक्तोऽपि सामूहिके परिणामे स्वीयं परिणमनं विलीयते । अथ चेयं परिणमनसन्ततिः यावदवयवभूतेषु परमाणुषु प्रचलिता तिष्ठति तावत्तस्य पदार्थस्य स्थितिरपि सदृशीतिष्ठति । किन्तु यदा परमाणुभिः पूर्वोक्त्या सामुदायिकसन्तत्या सहयोग: प्रारभ्यते, तदा सामूहिकाभिव्यक्तौ न्यूनत्व-शिथिलत्व- जीर्णत्वादिरूपैर्वैविध्यं संदृश्यते । अतएव, मूलतो गुणपर्यायाणा य आधारभूतस्तिष्ठति स एव द्रव्यत्वभाग्भवति, तस्यैव सत्ता द्रव्यरूपेण स्वीकरणीया" । विभिन्नद्रव्याणाञ्च ये सदृश - विसदृशपरिणामा, न ते स्वातंत्र्येण द्रव्यसज्ञाभाग्भवन्तीति । यैश्च परमाणुभिर्घटो घटते, तेषु परमाणुषु निरंशावयविनोर्घटस्य स्वीकारेऽनेके दोषा समायान्ति । यथा हि निरशोऽवयवी स्वीयेष्ववयवेषु किमेकांशेन तिष्ठति, सर्वात्मना वा ? यद्येकदेशेन तदा यावन्तोऽवयवास्तावन्त एवावयविनो प्रदेशा स्वीकरणीया । सर्वात्मना चेत्तर्हि - अवयवसंख्याका एवाव विनोऽस्युः । यद्यवयवि निरंशस्तदेकस्मिन्नवयवे क्रियात्वे सति सम्पूर्णेऽप्यवयविनि क्रिया स्वीकर्तव्या, अवयविनोनिरंशत्वात् । यद्यवयवि पृथक् स्वीक्रियेत, तहि नियतभारात्मकै. सूत्र : निर्मित वस्त्रमवयविभारयुक्तं भाराविकत्व भजेत् । परं नैतादृश. दृश्यते, तथा च वस्त्रस्यैकांशस्य विदीर्णे सति पुनस्तावन्मात्रिकेषु परमाणुषु नवीनस्यान्यस्यावयविन उत्पत्ति स्वीकृते सति कल्पनागौरवः, प्रतीतिबाधा चोत्पत्स्यते, यतो हि प्रतिक्षणमेव वस्त्रस्यापचय उपचयो वा जायते, तदा च प्रतिक्षणमेवावयविनो विनाशस्तदनन्तरञ्चान्यस्योत्पादोऽप्यवश्य स्वीकरणीय स्यात् । अतो नावयवेभ्यः पृथगवयविनो सत्ता विद्यते इति । अथ च ये - परमाणव स्थूलघटादिरूपेण परिणतास्ते स्वीयां परमाण्ववस्थामेव परित्यज्य घटावस्थामधिगता । तेषामियं घटस्कन्धरूपावस्था न कस्यचिन्नवीनस्य द्रव्यस्यास्त्यपितु तेषा परमाणूनामेव समुदायात्मिकावस्थोत्पद्यते । यद्यत्र परमाणवः सर्वथा स्कन्धावस्थातः पृथक्पा एव स्वीक्रियन्ते, तदैकः परमाणुः यथा न चक्षुषावलोक्यते, तथैव सहस्रानामपि परमाणूनां सामीप्यातिशयेऽपीन्द्रियगोचरत्वमसिद्धं स्यात् । स्कन्धावस्थायां तु तेषामरयतां परित्यज्य दृश्यता स्वीकरणीयैव । इतर दर्शनाभिमतद्रव्याणामन्तर्भावः ८७ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्यचिदपि वस्तुनो दृढत्वं शिथिलत्वं वा तद्घटकावयवानां दृढ-शिषिलबन्धाश्रितं भवति । तद्यथा-लौहस्कन्धावस्था प्राप्य त एव परमाणवो दृढाः, चिरस्थायिनश्च भवितु शक्नुवन्ति, ये खलु तूलावस्थाया मृद्वचिरस्थायिनश्च जायन्ते । इद सर्वमपि तेषा परमाणू नां बन्धप्रकारहेतुकमेव भवतीति । यद्यपि पुद्गलपरमाणुषु सर्वा अपि शक्तयो विद्यन्ते, परं विभिन्नेषु स्कन्धेषु तासां न्यूनाधिकरूपेणानेकविधो विकासः सञ्जायते । यथाहि-घटे जलग्रहणशक्तिः , न तु पटे, परमाणवस्तु द्वयोरेवैकशाः सन्ति । अथ चेमे एव परमाणव एकत्र (चन्दनावस्थाया) शीतलत्व भजन्तस्तिष्ठन्ति, यदा ह्यग्निनिमित्तेनान्यत्राग्निसदृशा सम्भूय काष्ठाद्यग्निरिव दाहकत्वमप्युपगच्छन्ति । इत्थं पुद्गलपरमाणनां न्यूनाधिकसम्बन्ध रुत्पद्यमानाना परिणामाना न काचन संख्या, नाप्याकारप्रकाराः निर्धारिता सन्ति। कस्यचिदपि पदार्थस्यैकरूपत्वं, कालान्तरस्थायित्वञ्च तत्प्रतिसमयभाविपरिणामाधारभूत भवति। यावत्कालं तद्घटकपरमाणना सदृशपरिणामस्तावदेव तद्वस्त्वेकश स्यात्, यदा च केषुचिदेव परमाणुष विसदृशपरिणाम. प्रारभ्यते, तस्मात्कालादेव वस्तुन आकारप्रकारेपु वलक्षण्यं जायमान दृश्येत । अद्यन्तनेन विज्ञानेनापि विगलनशीलं 'अलूकद्रव्य' (Potato-शाकविशेष, राष्ट्रभाषाया-आलू ) बद्धवायौ (Air-Tite) प्रकोप्ठे सस्थाप्य शीघ्रविगलनात्परिरक्षितम् । अस्यायमेवाभिप्रायो-यत्परमाणू ना न तु सर्वथा नित्यत्वमपरिवर्तनशीलत्वं, नापि स्वतत्रपरिणमनशीलत्व वा स्वीकरणीयमन्यथा सदृशपर्यायाणा विकास एवासम्भव. स्यात् इति । द्रव्याद् गुणपर्यायाणामपृथक्त्वम् सामान्येन द्रव्यमखण्डमेव भवति, किन्तु सहभाविनामनेकगुणानामभिन्नआधारोऽपि भवति, अतस्तस्मिन् गुणकृतो विभागोऽपि सम्भाव्यते" । यर्थक. पुद्गलपरमाणु. रूपरसगन्धस्पर्शाद्यनेकगुणाना युगपदेवाधारभूतस्तिष्ठति । प्रत्येकमपि द्रव्ये प्रतिक्षण परिणामयुक्तेऽपि द्रव्येण कञ्चित्तादात्म्यसम्बन्धानि विद्यतेऽतएव द्रव्या गुणस्य पृथक्करणाशवयत्वात् स तदभिन्न."। सज्ञा-सख्या-प्रयोजनादिभेदैम्तु तस्य पृथग्निरूपणक्षमत्वात्तद्भिन्नोऽपि भवति । अनया दृष्ट्या च द्रव्ये यावन्तो गुणास्तावन्त एव प्रतिक्षणिका उत्पादव्यया.। प्रत्येकमपि गुणो स्त्रीय पूर्वपर्यायं परित्यज्योत्तरपर्यायमधिगच्छति, परञ्च तेषा पर्यायाणामपृथक्त्वाद् द्रव्यसत्तयैकत्वम् । सूक्ष्मेक्षयाव जनवर्शन आत्म-द्रध्यविवेचनम् ८८ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकने सुमायते यत् गुणपर्यायव्यतिरिक्तं द्रव्यसत्ताभावाद् गुणपर्यायाणामेव द्रव्यत्त्वम् । अथ च पर्यायाणां परिणमनशीलत्वेऽपि अविच्छिन्नतायाः नियामको योऽशः, स एव गुण इति कथ्यते ।। यदा च पुद्गलाणौ रूपो स्वीयं नवीन पर्यायं ग्रहणाति, तदा रस-गन्ध-स्पर्शादयोऽपि परिवर्तिता. भवन्ति, इत्थ प्रत्येकमपि द्रव्ये प्रतिसमयं गुणकतानेका उत्पादव्ययाः जायन्ते, ये च गुणस्य सम्पत्ति (Property)-स्वरूपाः सन्ति । किञ्च, रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादीना गुणाना न परमाणो काचन् सत्ता विद्यते, इत्यप्यन्यतरः पक्ष । परमाणुस्तु एतादृशोऽविभागिपदार्थ., यच्चक्ष रादीन्द्रियैरपि तस्मिन् रूपादीना न प्रतीतिर्भवतीति । यद्यप्ययं सर्वसिद्ध सिद्धान्त , यदिन्द्रियाणि तु गुणग्राहकानि एव भवन्ति, न तु तदुत्पादकानि । यथा कञ्चनाम्रफलं दृष्ट्वैव तस्मिन् रस-गन्ध-स्पर्शादीनामभावो न प्रतिपादयितु शक्यते, यतश्चानाघ्रातेऽपि गन्धोऽनास्वादितेऽपि रसोऽस्पृष्टेऽपि स्पर्शस्तस्मिन् विद्यत एवेति दैनिकानुभवप्रतीति । एवमेवात्मन्यपि ज्ञान-सुख-शक्त्याद्यनेकगुणाना युगपदेव सद्भाव. प्राप्यते । एषा प्रतिक्षण परिवर्तितेऽप्यात्मनाविच्छिन्नत्व तिष्ठति । अतएव गुणा. सहभाविनोऽन्वयिनश्च । पर्यायाश्च क्रमभुवो व्यतिरेकिणश्च सन्तो गुणाना विकारा (परिणामा.) एव भवन्ति । एकस्मिन् चिद्रव्ये यस्मिन् क्षणे ज्ञानपर्यायस्तस्मिन्नेव क्षणे दर्शनसुखाद्यनेकगुणा अपि स्व-स्वपर्याय परिणमन्ति । यद्यप्येषु गुणेष्वेकश्चतन्य एवानुस्यूतो भवति, परं स चिद्गुण. स्वयं निर्गुणो न गुणरूपेण प्रतिभासते, यतश्च गुणाना स्वीया स्थितिः पृथगेव भवति । इमे एकात्मका गुणपर्याया एव द्रव्याभिधानाः । नभ्यो पृथक् कश्चनापि स्वतत्र. पदार्थो विद्यतेऽपित्वेषां गुणपर्यायाणा तादात्म्यरूप एव भवति । इत्थं प्रत्येकमपि चेतनेऽचेतने वा पदार्थे गुणपरिणामोत्पन्ना अनेके उत्पादव्यया. स्वाभाविका , द्रव्य च तेष्वखण्डसत्तात्वेन तिष्ठति । गुणस्तु प्रतिक्षण येन केन वा पर्यायेण परिणमत्येव । एतादृशाश्चानेके गुणा अनन्तकालं यावद्यथा अखण्डसत्तयानुस्यूता भवन्तस्तिष्ठन्ति, सा सत्तैव 'द्रव्य'मित्युच्यते । गुरगस्य द्रव्यत्वखण्डनम् द्रव्यस्यार्थः-क्रमभाविपर्यायाणामधिगमनम् । इत्थं गुणस्याप्यनेनार्थेन द्रव्यत्वं खरदर्शनाभिमताब्याणामतर्भाव: ८ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पद्यते, क्रमभाविपर्यायेष्वनुस्यूतत्वात् । किन्त्विदं द्रव्यत्वमुपचारत एवं ने तु प्रामुख्येन सिध्यति । यद्यपि द्रव्येण तादात्म्यत्वादपि गुणस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते, परमत्र द्रव्यस्योत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मकत्वात् ( न तु केवलमुत्पाद-व्ययत्वात्) न गुणानां परिपूर्णद्रव्यत्वम् । यतो हीमे गुणाः वस्तुतः द्रव्यांशा एव सन्ति, न तु द्रव्याणीति । इत्थं गुणपर्यायेष्वविच्छिन्न तादात्म्यस्थापकं, स्वीयेषु प्रत्येकमपि प्रदेशेषु सम्पूर्णगुसत्ताया आधारभूतञ्च यत्तदेव द्रव्यमित्युच्यते " । स्वीयेषु गुणेषु पर्यायेषु च याश तादात्म्यमनेन संस्थाप्यते, तादृशं तादात्म्यं न पृथक्सिद्धोद्रव्यगुणयोर्गुणपर्याययोर्वा भवितुं शक्यते इति । 'स्याद्वादस्तदीयं व्यवस्था नियामकत्वञ्च' स्याद्वादो जैनदर्शनस्य हृदयम्, भारतीयदर्शनानाञ्च संयोजकमेकं सूत्रमतएव जैन दर्शनीय चिन्तनधारायामस्य विशिष्टं स्थान विद्यते । अस्य बीजानि सहस्राब्देभ्य प्रागेव जैनागमेषूत्पाद - व्यय - ध्रौव्यरूपेणास्तिनास्त्यवक्तव्य रूपेण, द्रव्य-गुण- पर्याय-रूपेण, सप्तनयादिरूपेण च प्रकीर्णानि सन्ति । समन्तभद्रसिद्धसेनादिर्जन दार्शनिकै सप्तभङ्गादिरूपेण तार्किकपद्धत्या तस्मै व्यवस्थितमेकं स्वरूप प्रदत्तम् । ततश्चाने केराचार्यैरेनमुद्दिश्य सुबहुवाड्मयस्य रचना कृता, याद्यापि स्याद्वादस्य गौरवं प्रकटयस्तिष्ठति । विगतपञ्चदशशताब्दीतः स्याद्वादो दार्शनिकजगत एक. सजीव. पक्षो वर्तते । साम्प्रत क स्याद्वाद ? का च तत्परिभाषा ? जीवन-व्यापाराय च तस्योपयोगोऽपि कीदृश. ? इत्यादिप्रश्नानामेवात्र संक्षेपतः पर्यालोचन क्रियते । स्याद्वादस्यार्थः 'परस्पर विरुद्धधर्माणा विवक्षावशान्मुख्यगौणत्वेन समन्वयः स्याद्वादः' अयमेव स्याद्वादस्यार्थः " । यथैकस्य न्यायाधीशस्य सूक्ष्मेक्षया निष्पक्षनिर्णय रूपं महत्वपूर्ण कार्य, तथैव विभिन्नाना विचाराणा समन्वयार्थ तदेव कार्य स्याद्वादस्य विद्यते । स्याद्वादपदे 'स्यात्' 'वाद' पदयोस्संयोग । तत्र स्याच्छब्दस्यार्थ : 'अपेक्षा' 'दृष्टि' र्वा, वादशब्दस्यार्थ - 'सिद्धान्तः' ' मन्तव्यो' वास्ति । द्वयोरपि शब्दयो. समुदितोऽर्थः 'सापेक्षसिद्धान्त', सः सिद्धान्तः यत्रापेक्षावश्यिकी भवति । जैनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम्र ६० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनेकान्तवादः', 'अपेक्षावादः', 'कथञ्चिद्वादः' 'स्याद्वादश्चे'त्यादयोऽस्य नामान्तराणि । अत्रानेकान्तवादे स्याद्वादे चायमेव सूक्ष्मो भेदो यदनेकान्तो वाच्योsनेकधर्मात्मकोऽर्थः, स्याद्वादस्तु वाचकः, तदभिव्यञ्जिका भाषापद्धतिः । स्याद्वादस्य परिभाषा अस्य परिभाषा स्याद्वादविज्ञराचार्यरित्थं कृता विद्यते स्वापरेषु विचारेषु, मतेषु, वचनेषु, कार्येषु च तन्मूलकापेक्षानामवधानं 'स्याद्वादः'। एतामेव परिभाषां स्पष्टयन्नमृतचन्द्राचार्यरभिहितम् 'एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्यान-नेत्रमिव गोपी॥ अष्टसहस्त्र्यामीदृशी परिभाषा विद्यते-'प्रत्यक्षादिप्रमाणाविरुद्धानेकात्मकवस्तुप्रतिपादकः श्रुतस्कन्धात्मको स्याद्वाद' इति । स्याद्वारे सप्तभङ्गाः अस्य स्याद्वादस्यानेकान्तवादस्य वाभिव्यञ्जनाय जैनाचार्य रेका पद्धतिनिर्धारिता विद्यते, सा पद्धतिरेव 'सप्तभङ्गो'तिपदेन व्यवहियते । सप्तभङ्गेः परिभाषा स्याद्वादविज्ञ रेकस्वरेण्यमेव स्वीक्रियते-'प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधि-प्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी'' 'सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गी' इति वा। यतश्चैकत्रवस्तुनि सप्तविधाः संशया जायन्ते, वस्तुनि सप्तधर्माणां प्रमाणतः सिद्धत्वात् । अतः सप्तविधसंशयोत्पन्नानां प्रश्नानां तदपेक्षया प्रतिपादनात् सप्तविधोत्तरवाक्याना समाहार एव सप्तभङ्गीपदेनोच्यते। अत्रष सप्तविधेष्वपि वाक्येषु विधि-प्रतिषेधार्थमेवकारप्रयोग आवश्यकः । तथा च प्रत्येकस्यापि भङ्गस्य कञ्चित्-अपेक्षात्मकत्वात्, पूर्व 'स्यात्' शब्दस्य प्रयोगस्यावश्यकता स्यादन्यथा घटः पटोऽपि स्यादिति । ते च सप्तभङ्गाः यथा (१) स्यादस्त्येव घटः । (२) स्यान्नास्त्येव घटः। स्थाद्वावस्तदीयं व्यवस्थानियामकत्वञ्च Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) स्यादस्ति - नास्त्येव घटः । ( ४ ) स्यादवक्तव्य एव घट. । (५) स्यादस्त्यवक्तव्य एव घटः । (६) स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव घटः । (७) स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्य एव घट' । are प्रथमे भगे घट. स्वद्रव्य क्षेत्र काल- भावापेक्षया 'घट' एवास्ति, न तु पट' । द्वितीये च भङ्गे 'घट' परद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया (पटद्रव्य-क्षेत्रकाल- भावापेक्षया) नास्त्येवेत्युक्तम् । अथ च तृतीये भङ्गे घटः स्वद्रव्यक्षेत्र काल-भावापेक्षया तु विद्यत एव, किन्तु पटद्रव्य-क्षेत्र काल- भावापेक्षया (परद्रव्य-क्षेत्र काल- भावापेक्षया) तु नास्त्येव, अत द्वयोरपि द्रव्ययोर्क्रमश एकत्र विवेचनेऽयं भङ्ग समुपजायते । किन्तु द्वयोरपि स्वपरद्रव्ययोरेककालावच्छेदेन विवेचनाशक्यत्वात् चतुर्थो भङ्ग सिद्ध्येत । मूलतस्तु-अस्ति नास्तिअवक्तव्यश्ते श्रय एव भङ्गा सन्ति । शेषाश्चैषां सम्मिश्रणादेव सिध्यन्ति । घटस्य स्व- द्रव्य-क्षेत्र काल-भावापेक्षया, तथा च घटपटयोरेककालावच्छेदपेक्षया वक्तुमशक्यत्वान् पञ्चमोऽपि भङ्ग सञ्जायते । तथा च घटे पटरूपपरद्रव्यस्य द्रव्यभावापेक्षा घटपटयोश्चक कालावच्छेदकापेक्षया च वक्तुमशक्यात् 'नास्त्यवक्तव्यमिति पष्ठो भङ्ग तथा च सप्तमो भङ्ग - क्रमश घट-पटयोविवेचनात् तथा च द्वयोरेकदैव विवेचनाशक्यत्वात् सिध्यति । स्याद्वादे एवकारप्रयोगः अत्र 'एव 'कारस्य प्रयोगो घटे घटत्वस्य ज्ञापनार्थमेव प्रयुक्तो विद्यते । यद्यवकारस्य प्रयोग आवश्यक न स्यात्तदा घटो यथा स्व द्रव्य क्षेत्र कालभावापेक्षयास्ति, तथैव परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भावापेक्षयापि सत्वात् पटोपि स्यादतोऽव्यवस्थानिवारणायात्र वकारप्रयोग आवश्यक । स्याद्वादे स्याच्छब्दप्रयोगः किञ्चात्र य स्याच्छब्दस्य प्रयोग स खलु वाक्येष्वनेकान्तद्योतनार्थमेव " प्रयुज्यते । येनैकस्या कस्याश्चिदपि विवक्षाया बोधो भवति, वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वात्तत्रानन्ता विवक्षा अपि सर्वदा तिष्ठन्ति । अतस्तत्र न काचिदन्या द्योत्यार्थभिन्नापेक्षावगम्येत इत्येतदर्थ स्यात्कार प्रयुज्यते । ܕ सुस्पष्टत्वं सहजगम्यत्वञ्च स्याद्वादस्य इद तु मया पूर्वमेवोक्त, यदयं स्याद्वादसिद्धान्त. भारतीयदर्शनानां संयोजक २ जनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर्क सूत्र विद्यते । अस्यायमभिप्रायः यद्भारतीयैस्तु स्याद्वादस्य सापेक्षत्वं सहजता स्वीकृतमेव, किन्तु पाश्चात्यैरपि विद्वद्भिरस्योपादेयत्वादेनं सुबहमहत्वं प्रदत्तम् । अतएव पाश्चात्यैः भारतीयैश्च कैश्चिद्विद्भिरस्य सुस्पष्टत्वं, सहजत्वं कठिनत्वं च प्रतिपादयितु स्वलेखनी साधिता । यद्यप्येनं सिद्धान्तमुद्दिश्य शङ्कराचार्य महोदयैर्यदालोचितं तद्विषये भूतपूर्वप्रयाग विश्वविद्यालयस्योपकुलपतिभि. डा० गङ्गानाथझा महोदयै लिखितम्"'यस्मात्कालान्मया शङ्कराचार्यैविधत्तं जैनसिद्धान्तस्य खण्डनमधीतं, तस्माकालात् ममायं विश्वासः समुत्पन्न, यदत्र बहु ( ज्ञानं ) वर्तते, यदुवेदान्तविज्ञैराचार्यैर्न सम्यग्ज्ञातम् । यच्चाद्यावधिपर्यन्तं मया जैनदर्शनज्ञानमजित, तेनाहं दृढेन विश्वासेन कथितु शक्नोमि यत् शङ्कराचार्य महोदयैर्यद्यस्य मौलिकग्रन्थानामवलोकनाय कष्टः कृतः स्यात्तर्हि तेभ्योऽप्यत्र विरोधाय नावकाश स्यात् । ' अनेन विवेचनेनेदमेव ज्ञायते यत् शङ्कराचार्य महोदयैरस्य जटिलपक्षमेवावलोकितम् यच्च विश्वप्रसिद्धम् । यतश्चात्र एकस्मिन्नेव वस्तुन्युत्पाद-व्ययधौव्याणा परस्पर विरुद्धधर्माणा सद्भावो कथं जायते ? इत्येवास्य जटिलतां प्रामुख्येनाभिदधाति । वस्तुन उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तत्वमेवोद्दिश्य बहुभिराचार्यैरस्य जाटिल्यस्य विवेचन कृतम् । किन्तु जैनदार्शनिकैरपि यदेतज्ज्ञातंयद्वस्तुनि परस्परविरुद्धधर्माणामेकत्रोपस्थिति न सामान्यजनेनावगम्या, तदा तैरस्येयत्सारल्येन विश्लेषण कृत यत् बालोऽपि तमनायासमेत्रावगच्छतु । स्याद्वादस्य त्रिगुणात्मकता कश्चन् स्वर्णकार, स्वर्णकलशमेकं भित्वा स्वर्ण मुकुटं निर्मातु सलग्नस्तदैव तत्पार्श्वे एक. स्वर्णघटार्थी, अन्यश्च स्वर्णमुकुटार्थी, अपरण्च स्वर्णार्थीति त्रयो क्रेतारः समागच्छन् । तत्र स्वर्णकारस्य प्रवृत्ति दृष्ट्वा प्रथमेन कष्टमनुभूतम्, यतोहि स स्वर्णघटार्थ्यासीत्, स्वर्णकारश्च घट भिद्यमानः । अन्यस्तु हर्षमगच्छत् यतो हि स्वर्णकारस्तदा स्वर्णकलशं विभेद्य स्वर्णमुकुटनिर्माणे सलग्न आसीत् । स क्रेतापि स्वर्णमुकुटाभिलाष्यासीत् । अपरश्च स्वर्णार्थी न तु शोकं, नापि हर्षमगच्छदपितु माध्यस्थभावेनैव स्वर्णकारप्रवृत्तिमवलोकयन्नतिष्ठत् । यतश्च सः स्वर्णार्थ्यासीत् । घटस्य सत्वे विनाशानन्तरं मुकु पत्तौ चोभयत्रापि स्वर्णस्य तदीप्सितस्य सत्वात् न शोकप्रमोदावस्था तस्य सञ्जाता । अतस्तस्य मनसि न तु शोक एव जातः नापि हर्ष. । स्याद्वावस्तदीयं व्यवस्थानियामकत्वञ्च ६३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्यायमेवाभिप्रायः --यदेकस्मिन्नेव पदार्थे (स्वर्णे) एककालावच्छेदेनैवको विनाशं, अन्य उत्पत्ति, अपरश्च धौम्य यथा पश्यति तथैव प्रत्येकमपि वस्तु परस्परविरुद्धधर्मात्मकं त्रिगुणात्मकत्वं स्वभावेनैव भजते । इमा एव परस्परविरुद्धधर्माणां सकारणस्थितयः । अतएव वस्तुषु नानापेक्षाभिर्विरोधिधर्मास्तु तिष्ठन्त्येवेति । इदमस्त्यस्य सहजत्वम् । किन्तु एतस्मादपि सहजतर मार्गे गच्छतोऽपि जनानवबोधयितुमयं मार्ग आचार्यः प्रकटित. । केनापि जनेन राजपथे गच्छन्तमाचार्य दृष्ट्वा पृष्टं, कः भवता स्याद्वाद. ? आचार्यैः कनिष्ठामनामिकाञ्च तदभिमुखं प्रसार्योक्तम्-अनयो कतरा दीर्घा ? तेन जनेनोक्तम्-अनामिका । पुनश्चाचार्य. कनिष्ठिकामपसृत्य मध्यमा च प्रसार्याभिहितम्-अनयोः कतरा लघ्वी उत्तरितं तेन जनेन-अनामिका । तदाभिहितमाचार्येण संतुष्टमनसायद् यथाभवन्त' एकामेवागुलिका दीर्घति लघ्वीति चापि कथयन्ति, तथवायं स्याद्वादोऽपि परस्परविरुद्धधर्माणामेकत्र स्थापक सिद्धान्त.। इयमेवास्य सहजगम्यता सुस्पष्टता च, या सर्वेषामपि शेमुषीमताम्मनासि आकर्षयति । स्याद्वादस्य नयापेक्षत्वम् स्याद्वादसिद्धान्ते नयाना बहुमुखी विवक्षा वर्तते। यतश्च यस्य कस्यचिदपि पदार्थस्य स्याद्वादेन योऽर्थ प्रविभक्तो भवेत्तस्यैव नया व्यञ्जका भवन्ति,." नोयते-साध्यते, गम्यमानोऽर्थो येनेति व्युत्पत्यात्मकत्वात् । इमे च नयाः सप्तविधा भवन्ति । एष्वेव स्याद्वादस्य सप्तभङ्गानां वाधारः स्थितो विद्यते, ते च नया' यथा १. नेगमः 'अर्थस्य सकल्पमात्रग्राही नेगमो नय..." । अथवा 'देशसमग्रग्राही नगम.' इति । यथा खलु कश्चन् पुरुष प्रस्थनिमित्तं वनात् काष्ठ समानेतुं परशुहस्तो गन्छति । तत्र कोऽपि पृच्छति, कुत्र भवान् गच्छति ? स उत्तरति-प्रस्थमानेतुं । अत्र काष्ठेन निर्मितं द्रव्यविशेषमेव प्रस्थसंज्ञ भवति, न तु केवलं काष्ठमेवाथ चात्र तदर्थ काष्ठमप्यानेतु सः गच्छन्नस्ति, अतो नात्रायमुचितः समाहित.। किन्त्वत्र तेन प्रस्थनिर्माणाय कृतसंकल्पत्वादेवेदमुत्तरं दत्तम् । अतएवात्र नैगमनयापेक्षयायं व्यवहार उचितः । जनदर्शन आत्म-व्यविवेचनम् Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. संग्रहः 'स्वजात्य विरोधेने कत्वोपनयात् समस्तग्रहणं संग्रह : ०५ इति तत्त्वार्थराजवार्तिके उक्तम् । इदमेव किञ्चित् शब्दभेदेन प्रमाणनयतत्त्वालोकेऽप्यभिहितम् 'सामान्यमात्रग्राही संग्रहः "०" । तथात्र तत्त्वार्थभाष्ये तु पदार्थानां सामान्यविशेषोभयविधधर्माणां संग्रहणादेकस्य कस्यचित्सामान्यस्य स्वीकरणमेव संग्रहत्वेन स्वीकृतम् । तद्यथा - 'अर्थानां सर्वेकदेशसंग्रहण संग्रह : "" इति तथाहि'सत्' इत्युक्ते सत्तासम्बन्धेन ग्राह्यानां द्रव्यगुणकर्मादिसर्वेषामपि तत्त्वाना ग्रहणं भवति, यथा च द्रव्यमित्युक्ते जगतिस्थितानां सर्वेषामपि पदार्थानां निरवशेषेण ग्रहणं भवति, तथैव संग्रहनयेन कस्यचिदपि निर्विशेषस्य पदार्थस्य सामान्येन ग्रहणं भवतीति । -यथा ३. व्यवहारः अयं व्यवहारनय संग्रहनयेन ग्रहोतमर्थ विधिपूर्वकमवहरति, अतएवास्येदं सार्थकं नाम । इदमेव तत्त्वार्थराजवार्तिके स्वीकृतम् । तथा च यः खलु सामान्यस्य निराकरणपूर्वकं विशेषेण व्यवहरति स एव व्यवहार इति विशेषावश्यकभाष्यवृत्तावुक्तम् । तद्यथा-संग्रहेण गृहीते सदर्थे द्रव्यत्वं गुणत्वञ्चास्ति । तत्र च द्रव्यान्तः जीवोऽजीवश्चापि भवति । एवं प्रकारकं विभाजनं येन विधिपूर्वकं क्रियते स एव 'व्यवहार' इति पदवाच्यो भवति । १०९ ४. ऋ जुसूत्रः यथा ऋजुसूत्रपातस्तथा ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयति" - ऋजुसूत्र इति भट्टाकलङ्कः। तत्त्वार्थभाष्यकृतश्च सतां साम्प्रतानामर्थानामभिधानपरिज्ञानम्ऋजुसूत्र :, "" इति । किन्त्वत्रान्यैराचार्यैरपि कृता अन्या. अपि परिभाषा: प्राप्यन्ते । तथाहि - ऋजु अवक्रं वस्तुं सूत्रयति - ऋजुसूत्र । परमत्र सर्वेषां केवलमयमेवाशयो विद्यते, यद्यः खलु केवलं वर्तमानं, वर्तमानकालिकं पदार्थ व्यवहारं वा ग्रह्णाति स ऋजुसूत्र इति । तथाहि - यथा खलु कश्चन् लेखने सलग्नोऽतः सः लेखक इति । यश्च कश्चन कदाचित् लेखनकार्यमेव यद्यपि करोति, किन्तु सम्प्रति न लेखनक्रियायां संलग्न, तन्न सः ऋजुसूत्रनयापेक्षा 'लेखकः' इत्यभिधातु शक्यते । अर्थादयं नयः वर्तमानकालिकक्षणस्यैव ग्राहको भवति । यथा रज्जुः प्रज्वलतीति व्यवहारे-रज्ज्वा यावद्भागः स्याद्वादस्तदीयं व्यवस्थानियामकत्वञ्च ६५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्वलितः, न तज्जुः, यश्चावशिष्ट सः न प्रज्वलत्यपितु रज्वाः यावदंशः प्रज्वलमानस्तिष्ठति तदपेक्षवायं व्यवहारो भवतीति । ५. शब्द: 'शत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्द. २ इति भट्टाकलङ्ककवचनानुसारं संकेत ग्राहको बोधक शब्दनय इत्युच्यते । शब्दनयदृष्ट्या व्याकरणशास्त्रीयप्रयोगाणामपि नौचित्य तिष्ठति, तत्र लिङ्ग संख्या-साधन - कालादिव्यभिचाराणां विद्यमानत्वात् । तथाहि - स्त्रीलिङ्गेन सह पुल्लिङ्गशब्दप्रयोग. - 'तारका स्वातिः', पुल्लिङ्गेन च सह स्त्रीलिङ्गस्य- 'अवगमो विद्या', स्त्रीलिङ्गेन च सह नपुसकशब्दस्य - 'वीणा आतोद्यम्' इत्यादयः प्रयोगाः न निष्पन्नाः स्युः । एवमेव सख्यादिप्रयोगानां व्यभिचारोऽपि न निष्पन्नत्वमधिगच्छतु । ६. समभिरूढः अनयापेक्षया कस्यचिच्छब्दस्य यदि शताधिका अपि अर्था सन्ति परं यदि सः कश्मिचिदर्थविशेपे रूढो सजातस्तदा न तस्यान्येऽप्यर्था ग्रहणीयाः भवन्तीति । अतएवाकलङ्केनोक्तम् - 'नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढ. ११३ 1 ७. एवम्भूतः यस्मिन् काले यो यम्यामवस्थाया विद्यते तस्य तथैव विश्लेषणमेवम्भूतनयस्य कार्यमिति । यथा खलु इन्द्र यदा इन्दनशक्ति मनुभवस्तिष्ठति, तदैव स 'इन्द्रो' भवति, न तु नाम-स्थापना द्रव्यनिक्षेपावस्थायामपि । नयानां द्वं विध्यम् इमे उपर्युक्ता सप्तविधा अपि नया मूलतो द्रव्य-पर्यार्यार्थिकयोर्विभेदयोविभक्ता सन्ति । तत्र केचन तु केवल नैगमसग्रहावेव द्रव्यार्थिकेन स्वीकुर्वन्ति । केचन चाचार्या नैगम- सग्रहव्यवहारादिनयत्रय द्रव्यार्थिकत्वेन ग्रह्णन्ति । सामान्य-विपयग्राहित्वाद्रव्यार्थिकनयस्य केवलं नैगम. एवास्यान्तर्भाव्य' । पर्यायार्थिकस्य च भेदविवक्षात्मकत्वात्, विशेषग्राहकत्वात्शेषाणामन्येषा षणयानां तत्रान्तर्भावो जायते । एतेषा नयाना भेदोपभेदास्तु बहुविधा. सन्ति । येषामत्र विवेचनमप्रासङ्गिकत्वात् न विशेषतः क्रियते । जैनवर्शन आत्म-प्रव्यविवेचनसु ६६ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव संक्षेपतः को द्रव्यार्थिको नयः, कश्च पर्यायाथिकः इत्येवोक्तम् । तथा चात्र यथा नयानां द्रव्य-पर्यायार्थिकरूपो द्विविधो भेदस्तथैव निश्चय-व्यवहारात्मकोऽपि भेदो दृश्यतेऽथ चानयोर्व्यवहारोऽपि शास्त्रषु प्रायः प्रत्येकमपि सिद्धान्ते कृतो विद्यते । अस्मात्कारणादनयोरपि निदर्शनं समुचितं प्रतिभाति। नयानां निश्चयव्यवहारत्वम् स्याद्वादसिद्धान्ते, सप्तभङ्गानां व्यवहारे वा वस्तुतः निश्चय-व्यवहार-नययोरेव सम्बन्धः विशेषावश्यकः । यतश्चोभयत्र यावत्योऽपि विवक्षा: समुपजायन्ते ताभिविशिष्टाभिरपेक्षाभिः सम्बद्धौ निश्चय-व्यवहारनयावेव स्तः। प्रत्येकमपि द्रव्यं व्यवहारे यादृशं प्रतिभाति, वस्तुत. न तादृशमेव तद्विद्यते, तस्याप्यन्ये स्वरूपाः सन्तीत्यस्य विवेचको निश्चयो नयः । एतदेवाचार्यरुक्तम् 'तत्वार्य निश्चयो वक्ति, व्यवहारश्च जनोवितम्' । १५ एतदेवानेनोदाहरणेन सुस्पष्टं भवति-'गौतमेनकदा भगवान् महावीरः पृष्ट:भगवन् ! फणितप्रवाहिगुडे कियन्तो वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शाः ?' महावीरेण प्रतिपादितम्-'व्यवहारेण तु स मधुर एव वर्नते, किन्तु निश्चयनयापेक्षया तु तस्मिन् पञ्चवर्णाः, द्वौ गन्धौ, पञ्चरसा., अष्टौ स्पर्शाश्च भवन्तीति' । अस्यायमेवाभिप्रायः, यद्वस्तुन इन्द्रियग्राह्य स्वरूपमन्यद्भवति, वास्तविकञ्च स्वरूपमन्यत् । वय बाह्यस्वरूपमेव पश्याम , यच्चेन्द्रियग्राह्यम् । सर्वज्ञस्तु बाह्यस्वरूपमाभ्यन्तरस्वरूपं च निश्चयनपेन सम्यगविजानाति । सापेक्षवादस्याधिष्ठातुः प्रो० अलवर्टआईस्टीनमहोदयस्यापि अयमेवाशयो वर्तते । ते कथयन्ति यत्--'वयं तु केवलमापेक्षिक सत्यमेव जानीमः, सम्पूर्ण सत्यं तु सर्वज्ञ एव विजानाति'१६ । तच्च सर्वज्ञज्ञानं केवलात्मकत्वात् पूर्णत्वाद्वा द्रव्यस्य सर्वासामपि विवक्षाना ज्ञायकं भवतीति । स्याद्वादस्य सापेक्षत्वम् जैनदर्शनस्य हृदयरूपोऽयं सिद्धान्तः वस्तुनः पदार्थस्य वा सापेक्षत्वस्वीकरणार्थमेव सप्तभङ्गान् प्रतिपादयति । नैनं विना कस्यचिदपि पदार्थस्य स्वरूपः पूर्णतामधिगच्छति । यथा कञ्चन आम्रफलं स्वस्माद्दीर्घादन्यफलात् लघवपि भवति तथा चान्यात्स्वस्मात् लघुफलात् दीर्घमपि भवति । अतश्चानयोर्द्वयोरपि लघु-दीर्घयोः फलयोरपेक्षयाम्रस्यापि लघुत्वं दीर्घत्वञ्च यदा स्याहारस्तवीयं व्यवस्थानियामकत्वन्ध Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीक्रियेत तदैवा म्रफलस्य स्वरूपः पूर्णत्वमवाप्नोति । न तु केवलेन लघुस्वरूपेर्णव तस्य बोधो यथार्थः जायते, नापि केवलं दीर्घस्वरूपमधिकृत्य तत्स्वरूपस्य पूर्णता भविष्यति । अस्मात्कारणादेव स्वद्रव्य क्षेत्र काल - भावापेक्षया, परद्रव्य-क्षेत्र -काल- भावापेक्षया च वस्तुनो यत्स्वरूपं निर्धारितं भवति, तदेव वस्तुनो वास्तविकं स्वरूपमित्युच्यते । एतच्च व्याख्यातुं स्याद्वाद एवैकः सिद्धान्त. दार्शनिके जगति जेनैः स्त्रीकृतो विद्यते, येन न केवलं लोकव्यवहारोऽपितु पदार्थमात्र एव विषयत्वेन गृह्यते । यः कोऽपि पुरुष कस्यचिदपेक्षया भ्रातृत्वेन भ्राता भवति । अपरश्च तत् भागिनेयोऽतस्तदपेक्षया स मातुलोऽपि अन्यश्च तस्य मातुलस्तदपेक्षया तु भागिनेयोऽप्यस्ति । एवमेवान्येऽपि बहव एताशाः सम्बन्धास्तदपेक्षयाऽपि तस्य विविधा स्वरूपास्तत्र तत्र यन्ते । अत्र यदि कयाचिदेकयैवापेक्षया तस्य पुरुषस्य स्वरूपो निश्चीयते, तत्सत्ये प्रतिष्ठितं पूर्ण वा भविष्यतीति कथ वक्तु शक्नुमः ? यदा हि तस्यान्येऽपि स्वरूपा. अस्माकमभिमुख विद्यमानास्तिष्ठन्ति । तदपेक्षया तु न मातुलः भ्रातान्यो वा कश्चिद्भवितुमर्हति । नापि मातुलस्तदरिक्तोऽन्य कश्चित् । अतोऽत्रानेन अपेक्षाव्यवहारेण "" ज्ञायते यत् तस्य पुरुषस्य कश्चनापि स्वरूप, सम्बन्धो वा न पूर्णत्वयुक्तस्तावद्भवति, यावत्सर्वेऽपि स्वरूपा नैकत्वेन तस्मिन् स्वीकरणीयाः इति । अतएव विभिन्नापेक्षाभिर्य स्वरूप. नानासम्बन्धात्मको कस्यचिदपि वस्तुनः पदार्थस्य पुरुषस्य वावलोक्यते, स एव तस्य वास्तविक स्वरूप, तस्यैव विवेचन स्याद्वादस्य ध्येयम् । तदपेक्षाना सापेक्षत्वात् च स्याद्वादस्यापि सापेक्षत्व स्वीकर्त्तव्यमेवेति । स्याद्वावस्य संशयवादत्वं, प्रनिश्चिततावादत्वं वा ? स्याद्वादस्य जटिलतामधिकृत्य विद्वद्भिरस्य कट्वालोचनं विधत्तम् । स्याद्वादस्य हार्दमिदमजानन् शङ्कराचार्यैरपि लिखितम्, यत् -- ज्ञानसाधनानि, ज्ञानविषय:, ज्ञानक्रियाः, सर्वेऽपि जैनदर्शने अनिश्चिताः सन्ति, तत्कथमधिकृतरूपेण तीर्थंकरैरुपदेश आचरण वा कर्तुं शक्यते ? यत् स्याद्वादिनोऽनुसारं तु ज्ञानमात्रमेवानिश्चित वर्तते । अतएव तैरेभ्यः 'सशयवादस्य' 'अनिश्चिततावादस्य' वा सज्ञा प्रदत्ता । इदं विवेचनं स्वत एव प्रकटयति यत् शङ्कराचार्यजनदर्शन आत्मद्रव्यविवेचनम् ६८ ม Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोदयः सम्भवतः 'स्यादस्ति' 'स्यान्नास्ति' इत्यत्र 'स्यात्' 'पदं राष्ट्रभाषायाः 'शायद' इत्यस्य नामान्तरं स्वीकृतम् । परमत्र नायं स्याच्छन्द:" संशयस्यानिश्चिततायाश्च वा द्योतकः । यतो ह्यनेन पदेन वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वस्यैव बोधो भवति । वस्तुनः स्वरूपनिर्णये वयमेकस्यैव धर्मस्यापेक्षां कुर्मः, यदा हि तत्रान्येऽपि तद्धर्माः विद्यन्त एव । अतः 'स्यादस्ति एव' इत्यत्र कश्चिद्धर्मविशेषस्यैवापेक्षास्ति। अस्मात्कारणादेव नात्र सन्देहस्यानिश्चिततायाः वावकाशः । स्याद्वादोन कश्मिश्चित्काल्पनिके आकाशे जगति वा स्थितः, अपितु व्यवहारस्यको बुद्धिगम्य: सिद्धान्तः । बहुभिराचार्यस्तु यदस्मै 'अस्तिनास्ति' इत्यनयोः रहस्यमजानन् सशयवादस्य अनिश्चिततावादस्य वा संज्ञा प्रदत्ता, सा चिन्तनधाराया सम्यगदिशि समागता सती तेषां सिद्धान्तानां स्वद्रव्यक्षेत्रकालाद्यपेक्षया सत्यत्वं स्थापयिष्यति । यतो हि स्यादस्ति-नास्तीत्यादयः सप्तभङ्गा एवास्य स्याद्वादस्य हृदयभूतास्तिष्ठन्ति । सन्दर्भोल्लेखाः १. (अ) तसू-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् ५।३०।। सद्रव्यलक्षणम्, ५।२६।। (ब) प्रसा-अपरिचित्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसजुत्तम् २॥३॥ (स) पंचा-दवियदि गच्छदि ताइ ताई सम्भावपज्जयाइ जं । दविय त भण्णन्ते अणण्णभूदं दु सत्तादो ॥६॥ २. (अ) तसू-गुणपर्ययवद्रव्यम् ॥३७॥ द्रव्याश्रयाः निर्गुणाः गुणाः ॥४०॥ (ब) प्रसा-गुणव च सपज्जाय ज त दव्वत्ति वुच्चति २।३।। ३. प्रसा-२।। ४ प्रसा-२।२०,२१॥ ५. प्रसा-२॥१२॥ ६. प्रसा-२॥११॥ ७. प्रवा-२।११०॥ 5. आमी-घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ॥५६॥ पयोवतो० ६०॥ ६. मीश्लोवा-वर्धमानकभङ्गे च माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥ १०. अ-अपाम-द्रव्यं हि नित्यं 'द्रव्यमेवावशिष्यते १३१३१॥ ब-पायोभा- ४॥१३॥ ११. आमी-कार्यकारणनानात्व''यदीष्यते ॥६१॥ सन्दर्भोल्लेखाः Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. आमी-पृथक्त्वकान्तपक्षेऽपि'''अनेकस्थो ह्यसौ गुणः ॥२८॥ १३. आमी-यद्यापेक्षिकसिद्धि. 'कारकज्ञापकाङ्गवत् ।।७३-७५।। १४. भासयो-पृष्ठ २१५॥ १५ चिदचिवे परे तत्त्वे विवेकस्तद्विवेचनम् । उपादेयमुपादेय हेय हेय च कुर्वतः ॥ हेय हि कर्तृ रागादिर्यत्कार्यमविवेकिता । उपादेय पर ज्योतिरुपयोगकलक्षणम् ।। १६ भादम्-पृष्ठ ६८॥ १७ तसू-कालश्चेत्येके ५३८|| १८. तमू-गुणपर्यायवद्रव्यम् ५॥३७॥ १६ तमू-जीवाजीवास्रवबधमवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् श४।। २०. तमू-५१,४॥ २१ पञ्चा-खधा य खधदेसा''मुणेयव्वा ७४-७५॥ २२ पञ्चा-खध सयलममत्थ'''परमाणू चैव अविभागी॥ २३ तसू-५।१६।। २४. पञ्चा-एयरसवण्णगध दो फासं सद्दकारणमसद्दम् ॥१॥ २५ पञ्चा-वण्णरसगन्धफासापोग्गलचित्तो।। २।४०॥ २६. निसा-अतादि अतमज्झ 'त परमाणु पनसति ॥२६11 २७. प्रसा-२१४०-वण्णरम गन्धफामा ..पोग्गलचित्ती । 28. INOCHEM (a) Hydrogen is a colourless gas, and has neither taste nor smell (b) Nitrogen is a colourless gas without taste or smell " (A) P 206 (B) P. 262. 30 Ammonia is a colourless gas, having a powerful Pimgent smell and a strong caustic soda NEWTH' P 304 ३०. तमू-शब्द बन्धमोक्षम्यस्थौल्यमस्थानभेदतमण्ठायातपोद्योतवन्तश्चेति- ५१२४॥ ३१. तमू-द्रव्याश्रया निगुणा गुणा ५॥४०॥ ३२ उसू-२८।६।। ३३ जैसिदी-७।२३।। ३४ व्यापश-२॥१०॥ ३५ भश-२॥१०॥ ३६. भश-१३१४॥ ३७ पञ्चा-६२॥ 38. ANOBOGIPA-"The first problem was, of course, that if light waves were real waves, they must be waves in something They were plainly not waves in matter It was necessary therefore to invent something else, which was not matter. For them to be waves in this something they called the 'Ether', and imagined it was an utcıly thin and utterly elastic, fluid, that flowed undisturbed between particles of the material universal and fillen all 'empty space' of every kind. What was the Ether' like ? Difficulties and contradiction appeared at once For it was proved to be (1) thinner than the thinnest gas, 12) more rigid than steel, (3) obsolutely the same everywhere, (4) obsolutely weightless, (5) in the neighbourhood of any electron emmensely heavier than lead" ust be was meer. For the १०० जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. RECO - The Newtonian 'Ether' is rigid, yet allows all matter to move about it without friction or resistence, it is elastic but cannot be distorted, it moves, but it's motion cannot be dedected. It exerts force on matter but matters exerts no force on it, it has no mass nor has it any parts which can be identified, it is sad to be at rest relatively to the fixed star's, yet the stars are known to be in motive relatively to one another. -Dention. 40. REUNI-A hundred years ago the Ether was regarded as one. elastic body something as a 'Jelly', but much stiffer and lighter so that it could vibrate extermely, rapidly, but a great many phenomena culminating in the Michelson experiment and the theory of relativity, showed that Ether must be something very different from ordinary terrestrial substances. -Max born. 41. This does not mean that the Ether is abolished, we need and Ether in the last century it was widly believed that Ether was a kind of matter, having properties such as mass, rigidity, motion like ordinary matter. It would be difficult to say when this view died out...Now a days it has agreed that Ether is not a kind of matter, being non-material, its propertles are suigene ries (quite unique) characters such as mass, and rigidity, which we meet with in matter will naturally be absent in Ether, but the Ether will have new and definite characters of its own...NON material ocean of Ether. TNAPHYWO-Eddington 42. Thus it is proved that science and Jain physics agree absolutely so far as they call Dharma (Ether) NON-material, NON-atomic, NON-discrete, continuous, co-extensive with space, indivisible and as a necesary medium for motion, and one which does not itself move. NOPSVI 'Prof. G. R. Jain. ४३ उमू - २८।६।। अहम्मो ठाणलक्खणो ॥ ४५. पञ्चा - १।६०॥ ४७ पञ्चा ११२४॥ णिय मेणपण्णत्तो ॥ १।२३ ४६. पञ्चा - १।६।। १।१०२ ॥ ५०. पञ्चा-सळभावस्वभावाण ५१ पञ्चा - ववगदपणवण्णरसो । ५३. नसास-सप्ततत्त्वप्रकरणम् - लोकाकाश स उच्यते । ५२ । ५४ सप्त (देव) - पुग्गला अद्धसमया जीवा य अणता ॥ ५५ उसू - ३६।६।। ४४. तसू आकाशस्यावगाह ५|१८|| ४६. गोसाजी. ५८६ ॥ ४८. भसू - २५/२, ४॥ ४१ ५२. द्रस- २२।१।२४ ५६. पञ्चा १।१००-१०१॥ टिप्पणी-कृपया ७४ पृष्ठ १ पङ्क्तौ 'णाभिरी द्रव्यस्य' स्थान णामिरीथरद्रव्यस्य' इति, ७५ पृष्ठे ४ पङ्क्तौ 'महोदयरीरद्रव्यस्य स्थाने 'महोदयैरीथरद्रव्यस्य' इति, २४ पङ्क्तौ च लक्षणोऽस्ति" इत्यत्र ४३ सन्दर्भ संख्यायुक्त, ८५ पृष्ठे-८ पङको द्रव्य मिति इत्यत्र ८७ सन्दर्भसख्यायुक्त च पठनीयम् । १०२ पृष्ठ ६३ संख्याक, सन्दर्भमपसार्य अग्रिमा सन्दर्भा. एकोनसख्यया पठनीया । १०६ पृष्ठे ३ पङ्क्तौ सिध्यति', ७ पङ्क्तौ परिणाम ", १५ पङ्क्तौ योगश्चेति, २१ पङ्क्ती" लक्षणमिति' सन्दर्भसख्यायुक्ताः, १०७ पृष्ठे-८ पङ्क्तौ स्थाने ११ सन्दर्भसख्या युक्ताः- पठनीयाः । सन्दर्भोल्लेखा: १०१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. उसू-समए समयखेतिए ३६।७।। ५८. ससू-४५॥ ५६. उसू-३६।२०८॥ ६०. स्थासू-३।४।१६२॥ ६१. भसू. ११॥१०॥ ६२. अनुसू-पृ० १७५ (प्रका० शाह वेणीचन्द्र सुरचन्द्र, बम्बई) । ६३. नता (देव) अद्धसमओ एगो''संतोऽथ पडुप्पन्नो॥ ६४. स्थासू-४।१।२५२॥, ५३।४४१॥ ६५. सप्र (हेम)-तत्र कालं विना सर्वे प्रदेशप्रचयात्मकाः ॥४२॥ ६६. द्रस-कालस्सेगा ण तेण सो काओ २३-२शा ६७. पञ्चा-कालस्य दु णस्थि कायत्तम् १।१०२।। ६८. प्रसा-णस्थि पदेस त कालस्स। अमृतचन्द्राचार्यटोकायाम्-अप्रदेश. कालाणु: प्रदेशमात्रत्वान् ॥२॥४३॥ ६६. अभिको-१॥६॥ ७०. अभिको-११६॥ ७१. अभिको-११५॥ ७२. अभिको-४।१-७॥ ७३. अभिको-२॥३४॥ ७४. अभिको-२।३-४॥ ७५. अभिको-२४३५-३६॥ ७६. द्रष्टव्य-भादउ-पृ० १५२-१५३।। ७७. मीसू-१०॥३॥४४॥ ७८. मीसू-काशी सस्करणम्-पृ० ७८ । ७६. न्यासिमा-पृ० १७१।। ८०. न्यासिमा-पृ० १७१॥ ८१. अरा-अंक ३-श्लोक १२॥ ८२. वेगाती-१।२।५।६, २११११३॥ ८३. पस-पृष्ठ २३ (क) ८४. तवा-५।३।३।। ८५. तवा-५।३।३।। ८६. तवा-५.६॥२०॥ ८७. पाम-५।१।११।। ८८, तवा-५२राहा ८६. तवा-५।२।३॥ ६०. प्रसा-२॥८॥ ११. प्रसा-२६॥ ६२. प्रसा-२॥१०॥ ६३. प्रसा-२॥१॥ ६४. प्रसा-२॥१०॥ ६५ प्रसा-२०॥ ६६. प्रसा-२॥४॥ ६७. प्रसा-२॥७॥ १८. आमी-१०४॥ ६६. पुसि । १०० तरावा.१६॥५॥ १०१. आमी-१०३॥ १०२. जैसा-१६ सितम्बर, १९३४ ई० । १०३. आमी-५६॥६०॥ १०४ आप-१०८॥ १०५, तभा-१॥३५॥ १०६. तरावा-१।३३।५॥ १०७. प्रनत-७॥१३॥ १०८. तभा-११३५॥ १०६ तरावा-१॥३३॥६॥ ११०. विवभावृति। १११. तरावा-११३३१७॥ ११२. तभा-११३॥ ११३: तरावा-१।३३।८-६।। ११४, तरावा-११३३॥१०॥ ११५. द्रव्यात-८२३॥ 116. We can only know the relative truth, the absolute truth is known only to the universalobsarver. -COSOLNE-p. 201 ११७. तरावा-१।६।११॥ ११८. तरावा-११६।८-१०॥ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- दर्शन आत्मद्रव्यम् तृतीयोऽध्यायः Page #80 --------------------------------------------------------------------------  Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्मशब्दस्य व्युत्पत्तिस्तल्लक्षणं व्याख्या च प्रात्मशब्दस्य व्युत्पत्तिः जैनदर्शने षड्द्रव्येषु प्रमुखं द्रव्यं जीवाख्यम् । यतश्च तस्यैवान्यैरजीवपदार्थ. सह सयोगादस्य विश्वस्य विस्तारो जायते । तथा चायं विश्व-व्यापार सतत प्रचलमान इह दरीदृश्यते । अयं जीवस्तावदत्रात्मपदेनापि व्यवह्रियतेऽतएव जैनदार्शनिकै प्राय. सर्वत्र जीवात्मनोरभेदेन यत्र कुत्रचित् जीवस्य विवेचन कृतं तत्रात्मपदेनापि तद्बोधो कारितः । अतोऽत्र मयोभयोरपि शब्दयोव्युत्पत्तिर्यथा जैनग्रन्थेषु प्राप्यते तदनुसारमेव प्रदीयते । अतति-गच्छति जानाति इति आत्मा । 'सर्वे गत्यर्था' इति वचनात् गमनशब्देन ज्ञान भण्यते । अतः शुभाशुभरूप. कायवाङ मनोव्यापारैर्यथासम्भव तीव्रमन्दादिरूपेण ज्ञानादिगुणेषु आसमन्तात् अतति-वर्तते यः स आत्मेत्युच्यते, अथवा--उत्पादव्ययध्रौव्यत्रिकैरासमन्ताद्वर्तते य. स' आत्मेति । जीवशब्दञ्च व्याख्याययद्भि. प्राय. सर्वेरेवाचारेर्यैकमतेनेदमेवाभिहितम्यत् चतुभिः प्राणैर्यो जीवति, अजीवत, जीविष्यति च स जीव , अर्थात्त्र कालिकजीवनगुणयुक्तो जीव इति । यद्यपीमे प्राणा दशविधा भवन्ति, परन्तु मूलतश्चातुर्विध्यमेव भजन्ते, तथाहिबलप्राणाः, इन्द्रियप्राणा , आयु.प्राणा', श्वासोच्छ्वासप्राणाश्चेति । एषा विभेदात्मकत्वादविधत्वमुपजायते । तद्यथा-बलप्राणास्त्रिविधा - कायवाङ्मनोभेदात्, इन्द्रियप्राणाः पञ्चविधा.-स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्ष.-थोत्रभेदात् । एते अष्टौ प्राणा श्वासोच्छ्वासायु.सहिता दशविधा भवन्ति । अत्र इन्द्रियरगोचराः ये शुद्धचैतन्यप्राणास्तत्प्रतिपक्षिभूताः क्षायौपशमिका इन्द्रियप्राणाः, अनन्तवीर्यरूपाश्च ये बलप्राणास्तेषामनन्तभागेष्वेकभागप्रमाणा' कायवाङ्मन प्राणा अनाद्यनन्तशुद्धचैतन्यात्मकाः (ज्ञानरूपा.) ये प्राणास्तद्विपरीतलक्षणाः साद्यन्ता आयु प्राणाः । श्वासोच्छ्वासावागमनक्लेशरहिता ये शुद्धचित्प्राणास्तद्विपरीता. श्वासोच्छ्वासप्राणा'। एवं व्यवहारनयेन यथासम्भवं चतुभि प्राणयुक्तो जीव., निश्चयनयेन तु चेतनालक्षणयुक्तो जीव । चेतनेय ससारिषु मुक्तषु चापि प्राप्यते । तथा च त्रिकालाबाधितानविच्छन्नरूपेण सदा तिष्ठति च। अतएव पुद्गलादिरूपेन्द्रिआत्मशब्दस्य व्युत्पत्तिस्तल्लक्षणं, व्याख्याच १०५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदा चायमात्माशुद्धोपयोगाद्राग-द्वेष-मोहभावं. ज्ञेयपदार्थान् पश्यति जानाति वा तदास्य चिद्विकाररूपाः राग-द्वेष-मोहपरिणामाः जायन्ते, एते परिणामा एव भावबन्धरूपाः । भाववन्धस्य च प्रारम्भे सति तदनुसारमेव द्रव्यकर्मणां बन्धो जायते। परोपाधिनोत्पन्नैश्चिद्विकाररूपरागद्वेषमोहपरिणामरात्मा बध्यते । परिणामनिमित्तादेकस्मिन्नेव क्षेत्र जीवकर्मणो. परस्पर बन्धो भवति, तदा यथायोग्यस्निग्धरूक्षस्पर्शगुण. पुद्गलकर्मवर्गणानां परस्परमेकपिण्डरूपो यो बन्धो" जायते स एव द्रव्यबन्ध इत्युच्यते । प्रात्मन. कतृ त्वम् व्यवहारनयापेक्षयायमात्मा परपर्यायेषु निमज्जन् पुद्गलकर्मणा, अशुद्धनिश्चय - नयापेक्षया च रागद्वेषादिचेतनभावकर्मणा, शुद्धद्रव्याथिकनिश्चयनयापेक्षया तु शद्धज्ञानदर्शनादिस्वात्मभावानामेव कर्ता भवति । यद्यपीमे ज्ञान-दर्शनादिभावा आत्मनोऽभिन्नाः, तथापि पर्यायाथिकनयापेक्षया भेदात्मकत्वाद्भिन्नाश्चापि भवन्ति । अत आत्मा स्वज्ञानदर्शनादीनामपि कथचित्कर्ता तिष्ठति । प्रात्मनश्चेतनकर्मकर्तृत्वम् रागादिविकल्परूपीपाधिरहितेन निष्क्रियेण परमचैतन्यभावविरहितेन च जीवेन यद्रागादिकोत्पादककर्मणामुपार्जन कृतं तेषामुदये सति निर्मलमात्मज्ञानमनधिगच्छन् भावकर्मवाच्याना रागादिविकल्परूपचेतनकर्मणामशुद्ध निश्चयनयेन कर्ता भवति । अशुद्धनिश्चयस्तावत्---कर्मोपाधिजन्यत्वादशुद्ध., तथा चाग्नौ तप्तायोगोलवत्तन्मयत्वात्तद्रूपत्वाद् निश्चय., द्वयोमिश्रिते सति शुद्धनिश्चय"रित्युच्यते । शुद्ध निश्चयनयापेक्षया तु चेतनकर्मणामेव कर्ता भवति । प्रात्मनः शुद्धाशुद्धभावकर्तृत्वम् छद्मावस्थाया यदा च जीव. शुभाशुभकायवाङ्मनोयोगव्यापाररहितेन शर्तकस्वभावेन परिणमति, तदानंतज्ञानसुखादिशुद्धभावाना भावनारूपेण विवक्षिते नकदेशशुद्धनिश्चयनयेन कर्ता भवति । मुक्तावस्थायां तु शुद्धनिश्चयनयेनानंतज्ञानादिशुद्धभावानामेव कर्ता भवति । आत्मशग्वस्य व्युत्पत्तिस्तल्लक्षणं, व्याल्या च Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्र शुद्धाशुद्धभावानां यत्परिणमनं, तस्यैव जीवे कर्तृत्वं ज्ञयम्, न तु हस्तादिव्यापाररूपपरिणमनस्य यतो हि नित्यो निरञ्जनो निष्क्रियश्च य आत्मस्वरूपस्तद्भावनारहितो यो जीवस्तस्मिन्नेव कर्मादीनां कर्तृत्वम् । अर्थादात्मा व्यवहारेण पुद्गलकर्मणा निश्चयेन चेतनकर्मणां शुद्धनयेन च शुद्धभावानामेव कर्त्तास्ति । आत्मन: कथञ्चिदकर्तृत्वम् परिणाम - परिणामिनो परस्परमभेदात् परिणामी एव स्वपरिणामानां कर्त्ता भवति । अत. जीवस्य य. परिणाम. स जीव एव, जीवपरिणामस्य जीवक्रियात्मकत्वात् । यतो हि यस्य द्रव्यस्य या परिणामरूपा क्रिया भवति, तया तद्रव्य तन्मय भवत्यत एव जीवस्यापि तन्मयत्वात्तत्क्रिया परिणामो वा जीवमय इत्युच्यते । या च क्रिया जीवेन स्वातन्त्र्येण विहिता सैव कर्मेति । अतश्च यदात्मनो रागादिविभावपरिणामरूपात्मक्रियया तन्मयत्व तदेवास्य भावकर्म, अस्मात्कारणादेवात्मा* भावकर्मणामेव कर्त्ता सिध्यति न तु द्रव्यकर्मणाम् । तथा च पुद्गलस्य यः परिणामः स पुद्गल एव परिणाम- परिणामिनोरेकत्वात्परिणामिन परिणामकर्तृत्वाच्च । सर्वद्रव्याणा परिणामरूपक्रियया तन्मयत्वात्पुलपरिणामोऽपि पुद्गलक्रिया । या च क्रिया, सैव कर्म, अतः पुद्गलस्यापि स्वातन्त्र्येण कर्तृत्वात् पुद्गलद्रव्य कर्मरूपपरिणामानामेव कर्तृ त्वम्, न तु जीवभावकर्मरूपपरिणामानाम् । इत्थ पुगलस्यैव पुद्गलरूपद्रव्यकर्मणा कर्तृत्वान्नात्मनि द्रव्यकर्मणा" कर्तृत्व व्यवतिष्ठते । श्रात्मन: पुद्गलस्कन्धाकतृत्वम किञ्च द्विप्रदेशादिका. पुद्गलपरमाणुस्कन्धा. स्वत एव स्निग्ध-रूक्षगुणपरिणमनशक्त्योत्पद्यन्ते । सूक्ष्मजातीया स्थूलजातीयाश्च पृथिवी - जल-अग्नि- वायुकाया अपि स्निग्ध- रूक्षभावाना परिणमनादेव पुद्गलस्कधपर्यायरूपेणोत्पद्यन्ते । नात्रात्मनो काचनावश्यकता " तिष्ठति । प्रात्मन. कर्मवर्गणानामप्यकर्ता त्वमप्रेरकत्वञ्च जीव खल्वनादिवधसंयोगादशुद्धभावेन परिणमति । तस्याशुद्धपरिणामस्य बहिरङ्गबरूप निमित्तकारण सम्प्राप्य कर्मवर्गणाः स्वीयान्तरङ्गशक्त्याष्ट जंनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् ११० Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मरूपाः परिणमन्ति । अतस्तासां स्वत एव परिणमनशीलत्वात् नायमात्मा तत्परिणामकर्ता भवति । लोकस्यास्य सर्वत्रैवानंतानंतकार्माणवर्गणाभिर्निचितत्वादस्यककस्मिन्नपि प्रदेशे जीवानां स्थितिविद्यते, तथा च तत्र सर्वत्र व कर्मबन्धयोग्याः पुद्गलवर्गणाश्चापि विद्यन्ते । अतश्च जीवो यत्र यादृशः परिणमति तत्र व तादृशाः कर्मवर्गणास्तत्परिणामाद्बध्यन्ते । न तु तत्रात्मा कार्माणवर्गणा: संचोद्य बध्नाति, यतश्च यत्र व जीवस्तवानंतवर्गणाः, अतस्तत्र व परस्परं स्वत एव बन्धो जायते । अस्माद्धेतो यमात्मा पुद्गलपिण्डरूपकाणिवर्गणानां कर्ता, नापि तत्प्रेरको" भवतीति । प्रात्मनः कथञ्चित्भोक्तृत्वम् आत्मा व्यवहारापेक्षया सुखदु.खरूपपुद्गलकमफलानां भोक्तास्ति । निश्चयेन तु चेतनभावस्येव भोक्ता । स्वशुद्धात्मज्ञानाद्यो यः पारमार्थिकसुखामृतरसस्तमभुजानो य आत्मा स उपचरितासद्भूतव्यवहारनयापेक्षयेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रियविषयोत्पन्नं सुख दुःख च भुङ्क्ते । एवमेवानुपचरितासद्भूतेव्यवहारनयापेक्षयान्त.सुखदु खोत्पादक द्रव्यकर्मरूप सातासातोदयं भुङ्क्ते । स एवात्माशुद्धनिश्चयेन हर्षविषादरूपं सुखदुःखं भुङ्क्ते । शुद्धनिश्चयेन तु परमात्मस्वभावस्य यत् सम्यश्रद्धानं, ज्ञानमाचरणञ्च तदुत्पन्नमविनाश्यानन्दरूपैकलक्षण सुखामृतं भुड्क्ते । प्रात्मन. स्वदेहप्रमाणत्वम् देहे ममत्वमूलककारणेष्वाहार-भय-मैथुन-परिग्रहादिसमस्तरागादिविभावेष्वासक्तितया, निश्चयनये न स्वदेहाद्भिन्नस्य केवलज्ञानाद्यनन्तगुणराशितोभिन्नस्यात्मशुद्धस्वरूपस्याप्राप्तितया च जीवेन यन्नामकर्मोपार्जितं, तदुदयाद्यत्सूक्ष्म-गुरुदेहप्राप्तिस्तत्प्रमाणः, आत्मप्रदेशोपसंहार-प्रसर्पणस्वभावादेहप्रमाणो भवतीति । यथा खलु प्रदीपो बह्वायामिते प्रकोष्ठे प्रतिष्ठापितः सन् तत्प्रकोष्ठस्थितान् सन्निपि पदार्थान् यथा प्रकाशयति, तथैवात्यन्तेऽल्पायामितेऽपि प्रकोष्ठे पात्र वा प्रतिष्ठापिते सति तदल्पपात्र-प्रकोष्ठस्थितान् पदार्थान् प्रकाशयति । तद्वदेवात्मापि गुरुशरीरस्थितः सन् प्रसर्पणस्वभावात्तद्देहप्रमाणः, सूक्ष्मशरीरस्थितश्चोपसहारस्वभावात् सूक्ष्मशरीरप्रमाणो भवति । किन्तु वेदना-कषायआत्मशम्बस्य व्युत्पत्तिस्तल्लक्षणं, व्याख्या च Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रियाऽऽहारक-मारणान्तिक-तैजस-केवलीतिसमुद्घाताद्यवस्थासु नात्मा देहप्रमाणस्तिष्ठति । समुद्रघाताः (Over-Flows) समुद्घातस्तावत् 'स्वीय मूलशरीरमपरित्यज्य वात्मप्रदेशाना देहाबहिनि सृत्योत्तरदेह प्रति गमनम्" इत्युच्यते । तेषु सप्तविधेषूपरिलिखितेषु समुद्घातेषु नात्मा देहस्थित एव भवत्यपितु तत्तत्समुद्घातवशादात्मनो देहाद्वहि. निस्सरति । तथाहि१. तीव्रवेदनानुभवान्मूलशरीरमपरित्यज्यवात्मप्रदेशाना शरीराबहिर्गमनं वेदना (Anguesh) समुद्घात । २. तीव्रक्रोधादिकषायवशात् मूलशरीरमपरित्यज्य परघातार्थमात्मप्रदेशाना शरीराद्वहिर्गमन कषाय (Passion) समुद्घात. । ३. कामादिजन्यविक्रियार्थमात्मप्रदेशानां मूलशरीरमपरित्यज्य देहाबहिर्गमन विक्रिया (Fluid) समुद्घात. । ४ मरणान्तकाले च यत्र कुत्रचिद्बद्धमायु प्रदेश स्पृष्टु मूलशरीरमपरित्यज्यात्मप्रदेशाना शरीराद्बहिर्गमन मारणान्तिक (Death-Bed) समुद्घात । ५. तेजस (Electric) समुद्रात शुभाशुभभेदाभ्या द्विविध , तथाहि(क) स्वस्यानिष्टोत्पादक किञ्चित्कारणान्तरमवलोक्य समुपजातक्रोधस्य सयमधनस्य महामुनेः वामस्कन्धान्निर्गतः, सिन्दूरपुञ्जप्रभ , द्वादशयोजनदीर्घः, सूच्यङगुलसख्येयभागमूलविस्तार., नवयोजनाप्रविस्तार , विडालाकृतिधारक पुरुष, मूलशरोरमपरित्यज्यैव वामप्रदक्षिणा विधायान्त. (मनसि स्थितं विरुद्ध पदार्थ भस्मीकृत्य तेनैव मुनिना सह स्वयमपि भस्मत्व गच्छति, सोऽशुभस्तैजस्समुद्घात । (ख) तथा च लोक व्याधिभिक्षादिपीडित समवलोक्योत्पन्नानुकम्पस्य परमसयमिनो महर्षे मूलशरीरमररित्यज्य वोक्तदेहप्रमाण , सौम्याकृति. पुरुषो, दक्षिणस्कन्धाद्विनि सत्य दक्षिगगेन प्रदक्षिणीकृत्य रोगभिक्षादीन् विनाश्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति स शुभतैजसस्मुद्घात इत्युच्यते । ६ पदे, पदार्थे वा सजातसशयस्य परमद्धिवारकस्य महर्षेः मूलशरीरमपरित्यज्यव मस्तकमध्यान्निगंत्य, निर्मलस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः ११२ जैनवर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुवनस्पति-जीवत्व-युक्तमेकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्केवलं स्पर्शनेन्द्रियसहित स्थावरत्वमथ च द्वि-त्रि-चतुःपञ्चेन्द्रियधारकत्रसनामकर्मोदयात्त्रसत्वमपि" प्राप्नुवन्ति । एतदेवैतेषा ससारिणां वैविध्यम् । सिद्धत्वमात्मनः (Liberation) सिद्धाः, मुक्तजीवाः, विमलात्मानो वा ते एव जीवाः ये खलु ज्ञानावरणाअष्टविधकर्मरहिताः, सम्यक्त्वाद्यष्टगुणधारकास्तथा चान्तिमशरीरात्किञ्चिन्यूनाः, शाश्वताः, न पुनर्जगति परावर्तनशीलाः, आत्मगुणानां पिण्डीभूताः, जन्ममरणादिविरहिताः, अमूर्तिकाश्चातएवाभेद्याः, अछेद्याश्चेतनद्रव्यस्य शुद्धपर्यायरूपास्तिष्ठन्ति । तथा चेमे सिद्धा ऊर्ध्वगमनस्वभावाल्लोकाग्रभागे स्थिता: उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तास्तिष्ठन्ति । यतो हि जीवो खलु यत्र कर्मविप्रमुक्तो भवति, तदा स तत्र व न तिष्ठत्यपितु, पूर्वप्रयोगादसङ्गाबन्धोच्छेदात्तथा च गतिपरिणामादितिहेतुचतुष्टयेनाविद्धकुलालचक्रवत्, व्यपगतलेपालम्बुवत्, एरण्डबीजवत्, अग्निशिखावच्चेति दृष्टान्तचतुष्टयवदूधर्वगमनस्वभावादूर्व गच्छति, तदूर्वगमनञ्च लोकाग्रे गतिसहायकद्रव्यस्य धर्मास्तिकायस्याभावाल्लोकानपर्यन्तमेव भवति न तत ऊर्व कथमपि गन्तु शक्नोति । तथा चैतेषु संसारकारणभूतानां द्रव्यप्राणानामभावो भवत्येव तथापि तत्र भावप्राणाना सत्त्वात्कथञ्चित् प्राणसता विद्यत एवेति । अतएवेमे शरीररहिता, अमूर्तिका', अवाग्गोचराः इत्यादिशब्दरभिधीयन्ते । प्रात्मनस्त्रविध्यम् यद्यपि द्रव्याथिकनयापेक्षयात्मा खल्वेकस्तदपि परिणामात्मकत्वात् पर्यायाथिकनयापेक्षया स त्रिविधो" भवति। तथाहि-- १. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा, ३. परमात्मा चेति । अत्र यावत् संसारिणो जीवस्य शरीरादिपरद्रव्येष्वात्मबुद्धिस्तिष्ठति, मिथ्यात्वदशावस्थितो वा भवति, तावदेवात्मा 'बहिरात्मा" इत्युच्यते । यदा च शरीरादिष्वात्मबुद्धेः, मिथ्यात्वस्य चापगते सति सम्यग्दृष्टिरात्मा 'अन्तरात्मा" इत्युच्यते । अत्रायमन्तरात्मापि उत्तम-मध्यम-जघन्यभेदैः त्रिविधस्तथाहि-समस्तपरिग्रहत्यागी, निस्पृहो, शुद्धोपयोगी, आत्मध्यानी च मुनीश्वर उत्तमोऽन्तरात्मा। देशवतानां धारकाः ग्रहस्थाः, षष्ठस्थानवर्तिनो निर्ग्रन्थाः जनदर्शन आस्म-द्रव्यविवेचनम् Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधवश्च मध्यमान्तरात्मानो भवन्ति । तथा च चतुर्थगुणस्थानवतिनो व्रतरहिताः सम्यग्दृष्टिजीवाः जघन्यान्तरात्मेत्युच्यन्ते । अन्तदृष्ट्यात्मकत्वादेते विविधाप्यन्तरात्मानः मोक्षमार्गसाधकाः भवन्ति । परमात्मानश्च द्विविधाः-सकलपरमात्मा, विकलपरमात्मा चेति। अत्र पातिकर्मणां विनाशकाः, सर्वपदार्थवेत्तारोऽर्हन्तः सकलपरमात्मानस्तथा च धात्यघातिसर्व विधकर्मरहिताः, अशरीरिणः सिद्धपरमेष्ठिन एव विकलपरमात्मान" इत्युच्यन्ते। सन्दर्भोल्लेखा: १. वृद्रसं-५७ ॥ २. पञ्चा -३० । ४. वृद्रस (वृत्ति)-३ ॥ ५. तरावा-१।४७ ॥ ७. तरावा-२।।१॥ ८. वृद्रस-६॥ १०. अकमा-३।७८ ॥ ११. तसू-११६ ॥ १३. तसू-११५॥ १४. अकमा-३॥६॥ १६. प्रसा-२०८० ॥ १७. प्रसा-२१८२॥ १६. प्रसा-२१८४ ॥ २०. अकमा-३।१३ ॥ २२. वृद्रस-८॥ २३. प्रसा-२॥३०॥ २५. ससा-१०३ ॥ २६. प्रसा-२१७५॥ २८. प्रसा-२१७६ ॥ २६ वृद्रस-१० ॥ ३१. प्रसा-२।४४ ॥ ३२. पञ्चा-३४ ॥ ३४. पञ्चा-५४ ॥ ३५ अकमा-३॥६॥ ३७. वृद्रसं-१२ ॥ ३८ अकमा-३।१०॥ ४०. अकमा-३११२ ।। ४१. अकमा-३॥१२॥ ३. वृद्रस-३ ॥ ६. तरावा-२।८।१॥ . अकमा-३१४॥ १२. तसू-१।३ ॥ १५. द्रस-७॥ १८. प्रसा-२८३ ॥ २१. वृद्रसं-८।। २४. ससा-१०२॥ २७. प्रसा-२१७७॥ ३०. गोसाजी-६६६ ॥ ३३. पञ्चा-५३ ॥ ३६. अकमा-३।११ ॥ ३६. मोप्रा-४ ।। ४२. सत-५॥ सन्दोल्लेखाः ११७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनो बहुत्वम् चतुर्थोऽध्यायः Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मनां संसारिमुक्तत्वम् जगति जन्ममरणाद्यवस्थासु संसरन् तत्रानुरक्तो जीवः विविधानि कर्माणि कुर्वन् नानाप्रकारकं बन्धमनुभवति । एतस्मादनुभवात् भवाद्भवान्तरेषु विचरन् - कर्मबन्धात्मकत्वाद्यः परवशस्तिष्ठति स एव संसारीत्युच्यते । अत्राष्टविश्वकर्मकर्तृ त्वात्तदुपचयाच्चात्मनो भवान्तरप्राप्तिः संसारः । स च द्रव्यक्षेत्र काल-भाव-भवभेदः पञ्चविधः । स यस्यास्ति सः संसारीत्युच्यते' । बन्धश्चात्र द्रव्य भावभेदाद्विविधस्तत्र कर्मनो कर्मपरिणतः पुद्गलद्रव्यविषयको बन्धः द्रव्यबन्धः । क्रोधादिपरिणामवशीकृतश्च भावबन्धः । एवमुभयविधोऽपि बन्ध निरस्तस्ते जीवा एव 'मुक्ता' इत्युच्यन्ते । आत्मनः खलु ज्ञानदर्शनस्वभावात्तस्मिन् ससारावस्थायामुपयोगस्य प्रामुख्येन स्थितिः, यदा हि मुक्तात्मसु तस्य गौणत्वम् । यथा छद्मस्थेषु एकाग्रचित्तनिरोधरूपं ध्यानं प्रमुखं, केवलिनि तु तत्कर्मध्वंसफलेनैवोपचारात् गौणत्वं भजते, तथैव संसारिष्वपि पर्यायात्पर्यायान्तरात्मकत्वादुपयोगस्य प्रामुख्य भवति । मुक्तेषु च जीवेषूपलब्धि सामान्यत्वात्तद्गौणत्वमुपगच्छति । संसारिरणां द्वैविध्यम् , गत्यादिपरिणामानुभूतात्मका स्वसवेद्याः, शुभाशुभकर्मफलानुभवनसंबंधवशीकृतस्वभावाः, ससरणादप्रच्युताः, पूर्वोपार्जितकर्मनिमित्ताज्जनितकरणविशेषाः संसारिणस्तावत् समनस्कामनस्कभेदेन द्विविधाः भवन्ति । अत्र मनसोऽपि द्रव्य भावभेदेन द्वैविध्यम् । तत्र पुद्गलविपाकिनो नामकर्मण उदयापेक्षं द्रव्यमनः । वीर्यान्तरायस्य नोइन्द्रियाणाञ्च क्षयोमशमादुत्पद्यमानात्मविशुद्धिरूपं भावमनः । अत एतेन द्विविधेनापि मनसा सहिता जीवाः समनस्का: ( Rational ), तद्विरहिताश्चामनस्का: ( Irrational ) इत्युच्यन्ते । अत्र समनस्का: संज्ञित्वेनामनस्काश्चासंज्ञित्वेनाप्युच्यन्ते' । तेषां मनः सद्भावे संज्ञित्वमभावे चासंज्ञित्वमिति । १२१ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये चात्र समनस्कास्तेषां सण्यिपीन्द्रियरूपाणि करणानि भवन्ति । अत एते शिक्षा-क्रिया-कलापादिग्रहीतु क्षमाश्चापि विद्यन्ते। समनस्कास्तावत् देवनारक-गर्भज-मनुष्य-तिर्यञ्चा एव भवन्ति, एभ्योतिरक्तास्तु अन्ये संसारिणो:मनस्काः समनस्कविपरीतलक्षणाः भवन्ति। संसारिणामन्ये भेदाः (Kinds of Mundane Soul) यद्यपि ससारिणा विविधकर्मोपार्जनात्तेषा विविधात्मकत्वादनेके भेदाः सम्भवन्ति, पर मूलतः द्वावेव भेदौ वर्तेते। तथाहि-त्रसाः, स्थावराश्च । तत्र 'त्रस्यन्ति-उद्वेजयन्तीति असा' इतिव्युत्पत्या, गर्भादिष्वत्रसत्वप्रसङ्गात्, गर्भाण्डजादीना बाह्यनिमित्तेषु सत्स्वपि चलनाभावात्, 'गच्छतीति गौ' रिति व्युत्पत्तिवद् व्युत्पत्तिमात्रमेवार्थ., न तु प्राधान्येन । अथ चेमे त्रसनामकर्मोदयादेव 'त्रसा" इत्युच्यन्ते । स्थावरनामकर्मोदयाच्च तन्नामकर्मापादिताः जीवाः (Immobile); स्थावरा' इत्युच्यन्ते। अत्र 'तिष्ठन्तीत्येव शीलाः स्थावरा' इतिव्युत्पत्या वायवादीनामस्थावरत्वप्रसङ्ग , देशान्तरप्राप्तिदर्शनात् । अथ च द्वीन्द्रियादीनामेकत्र व स्थायिनाञ्च स्थावरत्वप्रसङ्ग स्यात् । आगमे तु 'असा नाम द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिन इति स्वीकृत, तदपि विरुद्धं स्यादतोऽत्र गमनागमनापेक्षं न त्रसस्थावरत्वं, अपि तु तत्तत् नामकर्मोदयापेक्षमेव । यद्यप्यनयोद्धयोः परस्परं संक्रमणमपि प्राप्यते, यथाहि-त्रसाः मरणानन्तरं स्थावरत्वमपि समधिगन्तु शक्नुवन्ति, परमनयोर्मध्ये स्पष्टतया सुखदुःखादेरनुभवात्मकत्वात् प्रसाणामेव प्राधान्यमिति । स्थावरभेदाः (Immobile-Soul) स्थावरजीवाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायात्मकाः पञ्चविधाः । श्वेताम्बरसम्प्रदायानुसार तु पृथिवि-जल-वनस्पतिकायानामेव स्थावरत्वम् । अत्रेदमवधेयं, यत् स्थावरत्रसाणां कर्मोदयापेक्षया क्रियापेक्षया च यद् विश्लेषणं कृतं, तत्र पृथिव्यम्बुवनस्पतीना तु कर्मोदयापेक्षयैव भेदः, यतश्च कर्मापेक्षया तु द्वयोरेव स्थावरत्वम् । ते च पञ्चविधाः यथा-१. पृथ्वीकाय (EarthBodied), २. जलकाया (Water-Bodied), ३. तेजस्कायाः (FireBodied), ४ वायुकायाः (Air Bodied),५ वनस्पतिकायाश्च (Vegetable-Bodied)। १२२ जैनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषां स्थावरनामकर्मोदयापादितपृथिव्यप्कायादीनां जनार्षग्रन्थेषु चातुविध्यं प्रदर्शितम् । पृथिवीकायस्थावरस्य चातुविष्यम्' यथा १. पृथिवी, २. पृथिवीकायः, ३. पृथिवीकायिकः, ४. पृथिवीजीवश्चेति । पृथिवी (Earth in General) स्वाभाविकपुद्गलपरिणमनरूपात्काठिन्याच्च पृथिवी चेतनाविरहिता । अत्राचेतनत्वात् पृथिवी कायनामकर्मोदयाभावेऽपि पृथनक्रियोपलक्षितत्वात् पृथिवीत्युच्यते' । पृथिवीसामान्येन वा पृथिवीत्वमिति । उत्तरेषु त्रिष्वपि भेदेषु इयमनुगता भवति । पृथिवीकाय: ( Earth-Body ) कायः - शरीरम्, जीवादिभिः परित्यक्तशरीरमिव (मृच्छशरीरवत्) अचेतना पृथिवी 'पृथिवीकाय:' । पृथिवीकायिकः ( Earth Bodied Soul) पृथिवी कायनामकर्मोदयात्पृथिवीं शरीररूपेण स्वीकुर्वन्तो जीवाः 'पृथिवी - कायिका.' । पृथिवीजीव: ( Earth-Soul ) पृथिवीनामकर्मोदये सत्यपि यावन्न पृथिवीकायं धारयति तावत्-विग्रहगतिप्राप्तः कार्मणयोगस्थो जीवः 'पृथिवीजीव' रित्युच्यते । एषु स्थावरेषु साकारानाकारभेदात् उपयोगस्य द्वैविध्यमित्यागमेन" युक्त्या " चापि सिध्यति । आहारादिक्रिया विशेषदर्शनात्तेषामाहारभय में धुनपरिग्रहरूपसंज्ञाना बोधो जायते, तस्मात्तेषामुपयोगस्यानुमानेन सिद्धिर्भवतीति । एवमेवान्येषामप्तेजोवायुवनस्पत्यादीनामपि प्रत्यक चत्वारो भेदाः ज्ञेयाः । त्रसमेदाः (Mobile-Soul ) पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिका एकेन्द्रियाः स्थावराः, इति पूर्वमेव स्पष्टम् । शेषाः द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । ते च द्वीन्द्रिया (Two-Sense ), त्रीन्द्रिया: ( Three-Sense ), चतुरिन्द्रिया ( Four- Sense ) पञ्चेन्द्रियाश्चेति (FiveSense) भेदेभ्यश्चतुर्विधा भवन्ति । अत्र स्पर्शन- रसनेन्द्रियकायवाग्बलायुः श्वासोच्छवासादिभिर्युक्ताः द्वीन्द्रियाः । त्रीन्द्रियाश्च द्वीन्द्रियेभ्यो घ्राणेन्द्रियाधिकाश्चतुरिन्द्रियाश्चैतेभ्योऽपि चक्षुआत्मनां संसारिमुक्लत्वम् १२३ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिन्द्रियाधिकाः; पञ्चेन्द्रिया असंज्ञिनश्च श्रोत्रन्द्रियाधिकाः, संजिनः पञ्चेन्द्रियाश्च मनसा सह सर्वतोऽधिकदशप्राणयुक्ताः भवन्तीति । किचात्र श्वेताम्बरग्रन्थानुसारं तु तेजोवायुकायिकानां सयोगेन त्रसाः षड्विधाः । तत्राङ्गारकिरणादयस्तैजस्कायिका अनेकविधाः । वायुकायिकाश्चापिघनवातादिभेदैरनेकविधाः । यथा स्थावरेषु क्रियाप्राधान्यात् न तेजोवायूनां ग्रहणं कृतं तथैवात्र तत्प्राधान्यादेव ग्रहणं कृतमिति । प्रस-स्थावराणामिन्द्रियविभागः एतेषां पृथिव्यादित्रसस्थावराणां शरीराकारास्तावदीदृशाः पृथिवीकायिकजीवाना" मसूरसदृशाः, जलकायिकानाञ्चाम्बुपृषतसदृशाः, अग्निकायिकानञ्च सूचीकलापसदृशाः, वायुकायिकानां तु ध्वजसदृशाः, वनस्पतिकायिकानाञ्च" नेकविधाः भवन्त्यपितु विभिन्नाकारा एव शरीरा. जायन्ते । एषु पृथिव्यादिवनस्पत्यन्तानां जीवानां केवलमेक" स्पर्शनेन्द्रियं वीर्यान्तरायस्य स्पर्शनेन्द्रियावरणस्य च क्षयोपशमे, शेषेन्द्रियाणां च सर्वघातिस्पर्ध कोदये सति शरीरनामकर्मण, एकेन्द्रियजातेश्चोदये सति भवति । कृम्यादीनामपादिकनूपुरकगण्डूपदशङ्खशक्तिकाशम्बूकाजलौकाप्रभृतीनामेकेन्द्रियेभ्य पृथिव्यादिभ्य एकेन वृद्धौ सत्या स्पर्श-रसने द्वीन्द्रिये" भवत । एतेनाप्येकाधिकानि स्पर्शनरसनघ्राणानि पिपीलिकारोहिणिकोपचिकाकुन्थुतम्बुरुकत्रपुसबीजकासास्थिकाशतपद्युत्पतकतृणपत्रकाष्ठाहारकादीनां त्रीणान्द्रियाणि भवन्ति । एतेभ्योऽप्येकाधिकानि स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षू षि भ्रमरवटरसारङ्गमक्षिकापुत्तिकादंशमशकवृश्चिकनन्द्यावर्तकीटपतङ्गादीनां चत्वारीन्द्रियाणि" भवन्ति । शेषाणाञ्च तिर्यग्योनिजाना मत्स्योरगभुजङ्गपक्षिचतुष्पदाना सर्वेषां, नारक-मनुष्यदेवानाञ्च पञ्चेन्द्रियाण्येव भवन्तीति । इत्थमत्र केन्द्रियेभ्यो पृथिव्यादिभ्यः समारभ्य पञ्चेन्द्रिय यावत् क्रमश एकैकवृद्धानीन्द्रियाणि" भवन्तीत्ययमाशयः। संझिनो जीवाः (Rational-Soul) (समनस्काः ) संप्रधारण संज्ञाका ये जीवास्ते 'समनस्का' इत्युच्यन्ते । अत्रहापोहयुक्त गुणदोषविचारण सम्प्रधारणम् । तद्युक्ता. संज्ञिन , तद्व यतिरिक्ताश्चासंज्ञिनो ऽमनस्का इत्यर्थ. । अन्यथा पृथिवीकायिकादीनामप्याहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाकत्वात्तेषामपि तत् प्रसङ्गादिति । १२४ जनदर्शन मात्म-प्रष्यविवेचनम् Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतोऽत्र सप्तविधनरकभूमिवासिनां नारकाणाम्, चतुर्णिकायानां देवानां, गर्भजन्मनां सर्वेषामपि मनुष्याणां, केषाञ्चित्तिरश्चामपि समनस्कत्वम्, सम्प्रधारणात्मकसंशित्वादस्ति । तद्यथा-'इयं शङ्खध्वनिः, शृङ्गध्वनिवेति' तर्ककल्पनमीहा। माधुर्यादिना चेयं शङ्खध्वनिरेवेत्यादिकल्पनेनकविषयग्रहणात् शङ्गध्वनिपरित्यागात्मको विचारोऽपोहः । येभ्यश्च कारणेभ्योऽभिप्रेतविजयसिद्धिस्ते गुणाः । यश्चात्र विघ्नोत्पादस्ते खलु दोषाः । इत्थमीहापोहगुणदोषविचारानन्तरं ग्राह्यत्याज्यबुद्धिः संज्ञा । यद्यपीयं संज्ञा ज्ञानरूपवास्ति, परं मनारहितानां केवलमिन्द्रियेभ्यरुत्पद्यमानस्य ज्ञानस्यापेक्षयोत्कृष्टतरा भवत्यतएव समनस्कत्वबोधिकेति । तथा च मन. सहितेष्वेव प्राप्येति । देवानां दिव्यभावाः एखूपरिलिखितेषु देव-नारक-तिर्यङ्-मानुषेषु देवानां चातुर्विध्यं व्याख्यायन् वाचकप्रमुखैरभिहितम्-'देवाश्चतुर्णिकाया" देवानां चत्वारो समुदाया. स्सन्तीत्यर्थः । तद्यथा१. भवनवासिनः (Residential) २. व्यंतराः (Peripatetic) ३. ज्यौतिष्का' (Stellar) ४. वैमानिकाश्चेति (Heavenly) एते चतुर्विधा अपि देवाः दीव्यन्तीति व्युत्पत्या, देवगतिनामकर्मोदयादापादितदेवपर्याया , तत्स्वभावात्क्रीडाष्वासक्ताः, बुभुक्षाः-पिपासादिविरहिताः, रसरक्तादिरहिता अपि दीप्तशरीरयुक्ताश्वपलगत्यात्मकाश्चाष्टविधदिव्यभावैर्भासमानास्तिष्ठन्तीति। अत्र ये खल्वष्टविधाः स्वाभाविकाः दिव्यभावास्ते च यथा१. अणिमा-अनेन भावेन देवाः स्वीय शरीरमतिलघुरूपं निर्मातुं शक्नुवन्ति । २. महिमा-अनेन तेषां लघु-बृहद् पधारणे साहाय्यं प्राप्यते । ३. लघिमा--अनेन देवाः स्वशरीरं स्वल्पभारं कर्तुं शक्नुवन्ति । ४. गरिमा-अनेन च दिव्यभावेन देवशरीराणि भाराधिकानि भवितुमर्हन्ति । ५. सकामरूपित्वम्-दिव्यभावेनानेन देवानां यथेप्सितशरीरग्रहणमथ चैककालावच्छेदेनाधिकसंख्याकशरीरग्रहणत्वञ्च सम्भाव्यते । ६. वशित्वम्-भावेनानेन देवाः स्वव्यतिरिक्तान् जनान् स्ववशान् कर्तु मर्हन्ति । आत्मनां संसारिमुक्तत्वम् १२५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ईशित्वम्--- अनेन भावेन चान्यैः श्रेष्ठत्वं प्रदर्शितुमहन्ति । ८. प्राकाम्यम् - अनेनभावेन ते यथाभिलषितं कर्तुं मर्हन्तीति । देवानामुत्पत्तिस्थानानि चतुविधा: निकायाः देवानामभिहिताः । निकायस्तावत्-- नाम, संघः, जातिः, भेदः, निवासस्थान वेत्यवगम्यते । तत्र तेषां देवगतिनामकर्मोदयात्स्वधर्मविशेषादाभ्यन्तरसामर्थ्य कृतभेदा. समुदाया. निकायाः । - एषाञ्चतुविधानामपि देवानामुत्पत्ति-स्थितिस्थानानि भिन्नानि, तत्र भवनवासिनस्तावत् – रत्नपृथिव्या उपर्यधश्चैकैकसहस्रयोजनांशं विहायावशिष्टे भागे समुत्पद्यन्ते । तथा च यदत्रोपर्येकसहस्रयोजनं भागमवशिष्टं, तत्रोपर्यधश्चैकैकशतयोजनं भागं परित्यज्य मध्येऽष्टशतयोजनात्मके भागे व्यंतराः समुत्पद्यन्ते । ज्योतिष्काश्च पृथिवीत नवत्युत्तरसप्तशतयोजनान्तरं (७६० योजनान्तरं ) दशाधिकैकशतयोजनप्रमाणे उच्चैर्नभोभागे समुत्पद्यन्ते वैमानिकाश्च देवाः मेरोरुपरि ऋजुविमानात्समारभ्य सर्वार्थसिद्धिपर्यन्ते भागे विमानेष्वेवोत्पद्यन्त इति । परमेषा गमनागमन तु जन्मस्थानातिरिक्तेष्वपि " स्थानेषु सम्पद्यते । darai विभेदाः एतेषाञ्चतुर्विधानामपि देवनिकायाना क्रमशः दश- अष्ट- पञ्च द्वादशभेदाः कल्पोपन्न स्वर्गपर्यन्ताः भवन्ति । येषु स्वर्गेषु 'इन्द्रसामानिका' दिविभेदानां कल्पना प्राप्यते तानि स्वर्गाणि 'कल्पाः', तत्रोपपादजन्मधारकाश्च देवा 'कल्पना' इत्यभिधीयन्ते । येषु चेयं कल्पना नास्ति, तत्रोत्पन्ना देवा 'कल्पातीता' इत्युच्यन्ते । अत्रेयं कल्पना सौधर्म्याख्यात्स्वर्गादच्युताख्यं स्वर्ग यावदेव विद्यते । तत्रयं कल्पना प्रत्येकं कतिविधा प्राप्यते इति स्पष्टयन् उमास्वातिभिरभिहितम् - एतेषु चतुर्विधेष्वपि देवनिकायेषु प्रत्येकं इन्द्रसामानि कत्रास्त्रपारिषद्य - आत्मरक्ष-लोकपाल अनीक - प्रकीर्णक-अभियोग्यकिल्विषिकाश्चेति दशविधा प्राप्यन्ते । परञ्चात्रैवाग्रे तैरुक्त, यत्-व्यन्तर-ज्यो तिष्केषुत्रायस्त्रिशलोकपालेतिद्विविधभेदाभावात्तयोः प्रत्येक मष्टो विभेदा भवन्ति । देवानां सामान्यमेवाः या चात्रविभेदाना दशविधा कल्पना, सा यथा- १. इन्द्राः -- एतेषु चतुविधेष्वपि देवनिकायेषु ये देवा स्व-स्वनिकायवर्तिनां जनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् १२६ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानोन्मानप्रमाणयुक्ताः, पाणि-पादतल-नख-तालु-जिह्वौष्ठरक्तवर्णाः, द्युतिमान्मुकुटधरा', रत्नजटिताभरणभूषिताः, वटवृक्षध्वजाश्च" भवन्तीति । राक्षसाः राक्षसा खलु सप्तविधा. भवन्ति । तथाहि-(१) भीम', (२) महाभीमः, (३) विघ्न., (४) विनायक', (५) जलराक्षसः, (६) राक्षसराक्षसः (७) ब्रह्मराक्षसश्चेति। एते राक्षसाख्याः देवा निर्मलवर्णा. अपि भीमा , अतएव भीमदर्शनाः, शिरोकराला', रक्तलम्बोष्ठाः, तप्तसुवर्णाभरणभूषिताः, नानाभर्तािवलेपनाः, खट्वाङ्गध्वजाश्च" भवन्तीति । भूताः भूताख्या देवास्तु नवविधास्तथाहि -(१) सुरूप (२) प्रतिरूपः (३) अप्रतिरूप (४) भतोत्तम (५) स्कन्दिक., (६) महास्कन्दिक. (७) महावेग. (८) प्रतिच्छन्न (8) आकाशगश्चेति । एते च श्यामवर्णात्मका अपि सुरूमा , सौम्या., आपीवरा., विविधविलेपनाः कालरूपा, सुलसध्वजाश्च भवन्ति । पिशाचा. पिशाचा खलु पञ्चदशविधा भवन्ति । तद्यथा-(१) कूष्माण्डः, (२) पटक., (३) जोष , (४) आह्नक , (५) काल , (६) महाकाल', (७) चौक्ष , (८) अचौक्ष , (8) तालपिशाच., (१०) मुखपिशाच , (११) अधस्तारक , (१२) देहः, (१३) महातिदेह , (१४), तूष्णीक., (१५) वनपिशाचण्चेति । सुरूपाः सौम्यदर्शनाश्चेमे पिशाचा हयग्रीवयो मणिरत्नविभूषणप्रिया' कदम्बवृक्षध्वजाश्च" भवन्तीति । किन्नरव्यतिरिक्तेषु शेपेसु सप्तविधेषु व्यन्तरदेवेषु षण्णां दक्षिणेन्द्राणा सत्पुरुष-अतिकाय-गीतरति-पूर्णभद्र-स्वरूप-कालाख्यानां दक्षिरणे भागे, तथाचोत्तराधिपतीना महापुरुष-महाकाय-गीतयश मणिभद्र-अप्रतिरूप-महाकालानाञ्चोत्तरेभागे तावन्त एवावासा यावन्तो खलु किन्नर-किम्पुरुष योभवन्तीति । राक्षसेन्द्रस्य भीमस्य तु दक्षिणदिशि पङ्कबहुलभागेऽसंख्येयलक्षात्मकानि नगराणि विद्यन्ते । उत्तरस्याञ्च दिशि महाभीमस्यापि भीमवदेव नगरसख्या, तथा चैतेषा सर्वेषामपि षोडशविधानां व्यन्तरेन्द्रदेवानां सामानिकादिविभवस्तुल्य एव ज्ञेय. । १३२ जनदर्शन आत्म-नव्यविवेचनम् Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ज्यौतिष्कदेवाः (Stellar) ज्योतींषि-विमानानि, तेषु भवाः ज्यौतिष्का, यद्वा भास्वरशरीरत्वात् समस्तदिङ्मण्डलद्योतकत्वाच्च ज्योतिरेव ज्योतिष्काः इत्यन्वर्थेयं सामान्यसंज्ञा । एते च पञ्चविधा:-सूर्यः, चन्द्रः, ग्रहाः, नक्षत्राणि, प्रकीर्णकतारकाश्चेति । तदेवोक्त तत्त्वार्थसूत्रे 'ज्यौतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्चेति ॥ अत्र तेषां पञ्चविधानां सर्वेषामपि ज्यौतिष्कानां पृथक्पृथक्कक्षाः विद्यन्ते । ताश्च क्रमश उपर्युपर्येव सूत्रनिर्दिष्टक्रमेण भवन्ति । तद्यथा--सर्वतोऽधः सूर्यकक्षा, ततश्चन्द्रकक्षा, तदनन्तरं ग्रहकक्षा, तदुपरि च नक्षत्रकक्षा, अन्ते सर्वत उपरि च प्रकीर्णकतारककक्षेति । किञ्चात्रार्षेष्वागमेषु चन्द्रस्य कक्षा प्रथममुल्लिखिता, तदनन्तरञ्च सूर्यादीनां कक्षाः । दिगम्बरसम्प्रदायानुसारं तु सर्वतः प्रथमं तारकास्तदुपरि च सूर्यादिकाः सन्तीति वर्णन प्राप्यते । तद्यथा- अस्मात् भूमिभागादूर्ध्व नवत्युत्तरसप्तशतयोजनान्युत्पत्य सर्वज्यौतिषामधोभाविन्यस्तारकाश्चरन्ति । तत ऊर्व दशयोजनान्युत्पत्य सूर्यस्तदनन्तरमशीतियोजनान्तर चन्द्रस्ततस्त्रीणियोजनान्यन्ते नक्षत्राणि, ततस्त्रीणि योजनान्यूज़ बुधः, ततश्च त्रीणि योजनान्यूर्व शुक्रः, ततोऽपि त्रीणि योजनान्यूर्व वृहस्पतिः, तस्माच्चत्वारियोजनान्यूर्वमङ्गारक (भौम) ततश्चत्वारियोजनान्युत्क्रम्य शनिश्चरति । इत्थमिद सम्पूर्ण ज्यौतिष्चक्र नभसि दशाधिकैकशतयोजनशतबहुलोऽसंख्यातद्वीपप्रमाण घनोदधिपर्यन्त तिर्य ग्विद्यते । अत्राभिजिन्नक्षत्र सर्वाभ्यन्तश्चारी, मूलनक्षत्र तु सर्वबहिश्चारी, भरण्यस्तु सर्वाधश्चारिण्यः, स्वातिश्च सर्वोपरिचारीति । सूर्यः अत्र तेषु ज्योतिष्कविमानेषु प्रायः सर्वेषामेव स्वस्वविमानानि सन्ति । येषु ते समारूढास्तिष्ठन्ति । तेषां विमानानां निर्धारितान्यायामानि वर्णादीनि च सन्ति । तथाहि-सूर्यस्य विमानानि तप्तस्वर्णसमप्रभलोहितमणिमयानि चतुर्विशतियोजनकषष्टिभागबाहुल्यानि (२४-१/६० चौडे), अष्टचत्वारिशत्योजनकषष्टिभागविष्कम्भायामानि (४८-१/६० लम्बे), अर्धगोलकाकृतीनि, षोडशसहस्र वैरूढानि भवन्ति । आत्मनां संसारिमुक्तत्वम् १३३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नप्रभाविपृथिवीषु नरकसंख्या सर्वासु रत्नप्रभादिपृथिवीसु नारकाणामावासाः विभिन्न संख्याकाः सन्ति । तथाहि - आद्यायां रत्नप्रभायां त्रिशल्लक्षाणि शर्कराप्रभायां पञ्चविशतिलक्षाणि, बालुकाप्रभायां पञ्चदशलक्षाणि, पङ्कप्रभायां दशलक्षाणि, घूमप्रभायां त्रीणिलक्षाणि तमः प्रभायां पञ्चोनमेकलक्ष, महातमः प्रभायाञ्च केवलं पञ्चलक्षसंख्याकानि नरकाणि सन्ति । तथा चात्र रत्नप्रभाया अब्बहुलभागे उपर्यधश्चैकैकयोजनसहस्रं विहाय तन्मध्यभागे इन्द्रक - श्रेणि- पुष्पप्रकीर्णकविभागेन त्रिविधानि नरकाणि, तत्र तेषु त्रिविधेष्वपि विभागेषु त्रयोदशनरकप्रस्ताराः सन्ति । तत्र सीमन्तक-निरयरौरवादयस्त्रयोदशा इन्द्रका सन्ति । शर्करा प्रभायाश्चैकादशनरकप्रस्तारास्तत्र च स्तनक - संस्तनकादय एकादशेन्द्रकाः, बालुकाप्रभायाश्च नवनरकपटलास्तत्र च तप्तत्रस्तादयो नवेन्द्रका, पङ्कप्रभायाश्च सप्तनरकपटलास्तत्र चारमारतारादयस्सप्तेन्द्रकाः, धूमप्रभायाश्च पञ्चनरकप्रस्तारास्तत्र तम-भ्रम-झषअन्ध- तमिस्राभिधाना पञ्चेन्द्रकाः, तम प्रभायाश्च त्रयो नरकपटलास्तत्र च हिम-वर्द ल- लल्लकनामकास्त्रय इन्द्रकाः, महातमः प्रभायाश्चैक एव नरकपटलस्तत्र त्वप्रतिष्ठानाख्यमेकमेवेन्द्रकनगरम् " । अत्र सीमन्तनरके चतसृष्वपि दिक्षु विदिक्ष्वपि च निर्गतानां नरकश्रेणीनामन्तरेषु पुष्पप्रकीर्णकानि नरकाणि सन्ति । तत्र कस्यां दिङ्नरकश्रेण्यामेकोनपञ्चाशन्नरकाणि, विदिङ्नरकश्रेण्याञ्चाष्टचत्वारिंशन्नरकाणि भवन्ति । एवमेव निरयादिष्वपि नरकेषु दिक्षु विदिक्ष, चैकैकं क्रमशः परिहाप्य नरका भवन्तीति । इत्थं रत्नप्रभापृथिव्या त्रयस्त्रिशदुत्तरचतुश्चत्वारिशतशतानि श्रेणीन्द्रकनरकाणि (४४३३), सप्तषष्ट्यधिकपञ्चशतपञ्चनवतिसहस्रोत्तर कोनत्रिशल्लक्षाणि (२६६५५६७) पुष्पप्रकीर्णकानि सन्ति, सम्मिलितानि च त्रिशल्लक्षनरकाणि" ( ३००००००) । ܒ द्वितीयायाञ्च शर्कराप्रभापृथिव्या पञ्चनवत्युत्तरषड्विंशतिशतश्रेणीन्द्रकनरकाणि (२६६५), पुष्पप्रकीर्णकानि च पञ्चाधिकत्रिशतसप्तनवतिसहस्रोतरचतुर्विंशतिलक्षाणि (२४६७३०५), सम्मिलितानि च पञ्चविशतिलक्षाणि " (२५०००००) भवन्ति । तृतीयायाञ्च बालुकाप्रभायां पञ्चाशीत्यधिकानि चतुर्दशशतानि श्रेणीन्द्रकआत्मनां संसारिमुक्तत्वम् १३६ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकाणि (१४८५), पुष्पप्रकीर्णकानि च पञ्चदशाधिकपञ्चशताष्टनवतिसहस्रोतरचतुर्दशलक्षाणि (१४६८५१५), सम्मिलितानि च पञ्चदशलक्षाणि (१५०००००) भवन्ति। चतुर्थ्यां पङ्कप्रभाया श्रेणीन्द्रकनरकाणि सप्ताधिकसप्तशतानि (७०७), पुष्पप्रकीर्णकानि च त्रिनवत्युत्तरद्विशतनवनवतिसहस्राविकनवलक्षाणि (E६६२६३), सम्मिलितानि च दशलक्षाणि (१००००००) भवन्ति । पञ्चम्या धूमप्रभायाञ्च पञ्चषष्ट्यधिकद्विशतश्रेणीन्द्रकनरकाणि (२६५), पुष्पप्रकीर्णकानि च पञ्चत्रिशदुत्तरसप्तशतनवनवतिसहस्राधिकद्विलक्षाणि" (२६६७३५) भवन्ति । षष्ट्या तम प्रभाया तु त्रिषष्टिमात्राणि श्रेणीन्द्रकनरकाणि (६३), पुष्पप्रकीर्णकानि च द्वात्रिशदुत्तरनवशतनवनवतिसहस्राणि (६६६३२), सम्मिलितानि च पञ्चनवत्युत्तरनवशताधिकनवनवतिसहस्राणि भवन्ति (६६६६५)। तथा च सप्तम्या महातम प्रभाया अप्रतिष्ठितनामकमेक श्रेणीन्द्रकनरक, चत्वारि च श्रेणीनरकाणि, मात्राणि पञ्चसख्याकानि भवन्ति । इत्थ सर्वाषामपि पृथ्वीना श्रेणीन्द्रकनरकाणि त्रिपञ्चाशदुत्तरषण्णवतिशतानि (६६५३), पुष्पप्रकीर्णकानि च सप्तचत्वारिशदधिकत्रिशतनवतिसहस्राधिकयशीतिलक्षाणि (८३६०३४७) नरकाणि, सम्मिलितानि च चतुरशीतिलक्षाणि (८४०००००) नरकाणि भवन्ति । इमानि सर्वाण्यप्युष्ट्रकाद्यशभसंस्थानानि, शोचनरोदनाक्रन्दनाद्यशुभनामानि च सन्ति । नारकाणामशुभतरत्वम् एतेषा सप्तविधाना नारकाणा (सप्तपृथिवीषु स्थितत्वात्) लेश्याः, परिणामा, देहादयश्चापि क्रमशोशुभादशुभतरनित्या भवन्ति । लेश्याशुभतरत्वम् उपर्युक्तेषु नरकेषु स्थिताना जीवाना लेश्या नित्याशुभा., अधोऽधश्च क्रमशोsशुभतरा. भवन्ति । तत्र प्रथमायां भूमौ कापोती लेश्या, द्वितीया तत प्रकृष्टतरा कापोती लेश्या, तृतीयायाञ्चोपरिष्टात् कापोतीले श्या, अधश्च नीलालेपया भवति, चतुर्थ्या पृथिव्या ततोऽशुभतरनीला लेश्या, पञ्चम्याञ्चोपरि नीला, अधश्च कृष्णा लेश्या भवति, षष्ठ्या ततः प्रकृष्टा कृष्णा, सप्तम्याञ्च प्रकृष्टतमा परमकृष्णा लेश्या" भवति । जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र पूर्वस्यां दिशि एकोरुकाः, अपरस्यां दिशि लांगूलिन:, उत्तरस्यां भाषकाः, दक्षिणस्याञ्च विषाणिन. प्राणिनः सन्ति । विदिक्षु तु शशकर्ण- शष्कुलीकणंकर्णप्रावरण- लम्बकर्णा, अन्तरेषु चाश्व-सिंह-श्व- महिष-वराह-ग्याघ्र-उलूककपिमुखाः, शिखरिण उभयोरन्तयोश्च मेघविद्युन्मुखाः, हिमवत उभयोरन्तयोश्च मत्स्यमुखा कालमुखाश्च, उत्तरविजयार्धस्योभयोरन्तयोः हस्तिमुखाः, आदर्श मुखाश्च, दक्षिणविजयार्धस्यो भयोरन्तयोश्च गोमुखाः मेषमुखाश्च प्राणिनो निवसन्ति । कोरुका मृदाहारा. गुहावासिनः शेषास्तु पुष्पफलाहारा वृक्षवासिनश्च सन्ति । एते सर्वेपि पत्योपमायुषो भवन्ति । अत्र द्विविधेषु म्लेच्छेषु कर्मभूमिजास्तु शक- यवन-शबर- पुलिन्दादयो भवन्ति, अन्तद्वीपजाश्च म्लेच्छा एव भवन्तीति । तियंञ्चः तिरोभाव. - न्यग्भावः उपबाह्यत्वमित्यर्थः । तत. कर्मोदयापादितभावानां तिरश्चियोनिर्येषां ते तिर्यग्योनयः " । औपपादिकेभ्यो देवनारकेभ्यो, गर्भजसम्मूच्र्छनजेभ्यो मानुषेभ्यश्च व्यतिरिक्ताः ये ते तिर्यग्योनयस्ते चैकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियान्ता. खलु सूक्ष्मबादरभेदाभ्यां द्विविधा भवन्ति । तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयापादितभावा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय. सूक्ष्मा सर्वलोकव्यापिनः । बादर नामकर्मोदयापादितभावाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयो विकलेन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्च यत्र कुत्रचिदेव वर्तन्ते, न तु सर्वत्र । यथा खलु देवानामूर्ध्वलोक, मनुष्याणां मध्यलोको, नारकाणामधोलोकस्तथैवैतेषामपि यद्यप्याधारविशेषो ( तिर्यग्लोक) मध्यलोक एवास्ति, तदपि तेषां स्थावर कायरूपेण सर्वत्रापि सद्भावात् सर्वलोकव्यापकत्वम् । मूलतस्त्विमे Rootsftraiदेव 'तिर्यञ्च' इति सार्थकनामा सन्ति । एवमिमे संसारिण. प्राणिनश्चतुर्विधा देवनारकमानुषतिर्यञ्चस्तत्तन्नामकर्मोदयात्तत्तज्जातिषु समुत्पन्ना पुनः पुनः शुभाशुभकर्माणि कुर्वन्तश्च भवाद्भवान्तरमधिगतवन्तस्तत्तज्जन्मोपात्तशुभाशुभफल भुञ्जन्तोऽस्मिन्नेव जगच्चक्रे संसरन्तस्तिष्ठन्त्यत एवैतेषा संसारीति संज्ञा । अत एतेषा संसारित्वमनादितः प्रचलन्नद्यापि वर्तते, भविष्यत्यपि च स्थास्यति, अनाद्यनन्तत्वादिति । १४६ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये चात्मानो (जीवाः) अष्टविध सर्वैरपि कर्मभिविमुक्ताः, केवलं स्वस्मिन् (आत्मनि) एव विचरन्ति, ते सर्वेऽपि सांसारिकजन्म-फल-कारणाद्विमुक्ताः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रयुक्ता भूत्वा मुक्तत्वं भजन्ते । एतेषां सांसारिकबन्धनविमोक्षस्य साधनानां, मोक्षावाप्तिहेतूनां, मोक्षावाप्तौ च तत्स्वरूपादीनां विवरणं षष्ठाध्याये वक्ष्यमाणत्वन्नात्र विश्लेषितमिति । प्रात्मन: पारतन्त्र्यम् यः खल्वात्मा रागद्वेषाभ्यां संयुक्तो भवति, यस्य बुद्धिर्वा मिथ्यात्वेन सिता भवति, स एव मलिनत्वमधिगच्छति । तया च बुद्धया पञ्चेन्द्रियविषयोप. भोगात्, हिंसादिपञ्चविधपापाचरणाच्च यस्यात्मा कर्ममलीमसः, अथ चातरोद्रध्यानतीव्रपरिणामयुक्तो जायते, स एव तत्तन्निमित्तात्पारतन्त्र्यमधिगच्छति । अत्र ये खलु रागद्वेषादयः, मिथ्यात्वादयः, रौद्रातध्यानाः, कषायाश्च तेषामत्र संझेपतो विवेचनमावश्यकम् । TT: (Love) रमणीयेषु योषितादिद्रव्येषु आत्मपरिणामरूपेच्छया, बाह्यवस्तुभिश्च सहकीभवनरूपपारिणामात्मिक्या मूर्छया, अभीष्टवस्तुनोऽभिलषितेन कामेन, विशिष्टानुरागरूपेण स्नेहेन, अप्राप्तवस्तुनोऽभिकाङ्क्षणेन गार्थेन, 'इदं मदीय' 'अहमस्येश्वर' इत्यादिमनःपरिणामात्मकेन ममत्वेन, अभीष्टप्राप्तौ परितोषेणाभिनन्दनेन वा यदास्रवते, तदेव 'रागः" इत्युच्यते । द्वेषः (Hatred) यस्य जीवस्यात्मनि परविभवादिदर्शनात् एतेन विभवेनायं वियुज्यताम्' 'विभवश्चायं ममैवास्तु' 'कस्यचिदन्यस्य मा भूत्' इत्यादिको यश्चितपरि. णामस्तदेवा, तया चेतरस्य कस्यचिदपि सौभाग्य-रूपलोकप्रियत्वादिदर्शनादुत्पन्नेन क्रोधरूपेण रोषेण, दूषणात्मकेन दोषेण, परदोषोत्कीर्तनेन परिवादेत, सद्धर्माद्विचलनरूपेण च मत्सरेण, परगुणोत्कर्षाचसहनात्मकेनासूयत्वेन, परस्परं कलहादिनोत्पन्लेन क्रोधात्मकेन वैरेण, प्रकृष्टस्य क्रोधस्य प्रशान्त Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोपाग्नेश्च संधोक्षणात्मकेन प्रचण्डेन वात्मनि य. भावः समुत्पद्यते, स एव 'दोषः" इति । मिथ्यात्वम् (Wrong-Belief) जैनदर्शनानुसारमहत्प्रतिपादिताना तत्त्वानामश्रद्धानमेव मिथ्यात्वम् । तच्च त्रिविधम्-अभिग्रहीतानभिग्रहीतसन्देहभेदेन । तत्र त्रिषष्टिशतत्रयं पाखण्डिशताना यन्मतम् तदभिग्रहीतम, अप्रतिपन्नदेवतापाखण्डरूपमनभिग्रहीतम्, श्रुतज्ञानस्यैकस्मिन्नप्यक्षरे पदे वाऽनभिरुचिस्सन्देह । यस्य चैतत्त्रिविधं मिथ्यात्वं, तस्य बुद्धिरप्यवश्यं मलिना भवति । बुद्धेर्मालिन्येन च जीवः पञ्चेन्द्रियाणा विषयेष्वासक्तो भवति, अथ च हिसाऽनृतास्तेयकुशीलपरिग्रहादिपञ्चपापेषु प्रवृत्तो भवति । एतस्माच्च कर्मणामास्रवो प्रारभते, कर्मास्रवाच्चात्मनि कर्मरूपमलस्य पृथुला राशिरैकत्रिता भवति, तया चात्मा परतत्रत्वमधिगच्छति। प्रात्त ध्यानम् ऋतं दुखं, संक्लेशस्तत्रभवमातम्। आतञ्च यद्ध्यानं तदातध्यानम् । एतच्चतुर्विधं भवति । तथा है-अप्रियवस्तुन: सम्बन्धे सति तन्निवृत्यर्थ रात्रिन्दिव यच्चिन्तन, तदात्मकं ध्यानमाद्यम् । येन केन वा रोगेण व्याकुलिते सति तन्निराकरणार्थ रात्रिन्दिवं तद्विषयकं चिन्तनं द्वितीयं ध्यानम् । अभीष्टवस्तुनो विप्रयोगे मति, पुनस्तत्प्राप्त्यर्थ यच्चिन्तनं रात्रिन्दिवं, तत्तृतीयम् । तथा च चक्रवादीना विभवदर्शनात् 'ममाप्यस्य तपसः फलं परलोके एवविध एव स्यादि'त्यात्मकं चिन्तनं चतुर्थमार्तध्यानमिति । रौद्र-ध्यानम् क्रूरो-नृशसो वा रुद्रस्तस्येदं रौद्रम् । रौद्र ययानं तद्रौद्रध्यानमिति । एतदपि चतुर्विधम् अत्र 'येन केन प्रकारेण यत्रविशेषेणोपायविशेषेण वा, प्राणिनो व्यापाद्या.' इत्यात्मक चिन्तन हिसानुबन्ध्याख्यं प्रथम रौद्रध्यानम् । यैश्च कूटसाक्षिदानादिविभिन्नोपाय परो वञ्च्यते, तेषामुपायानां चिन्तनं द्वितीयमनृतानुबन्धिरौद्रध्यानम् । तथा च यैर्येरुपायैः घुघु रुक-कर्तरिका-छेदकखात्रादिभि. परधनमादीयते, तेषा चिन्तनं स्तेयानुबन्धी तृतीयं रौद्रध्यानम् । धनधान्यादिपरिग्रहसंरक्षणार्थ रात्रिन्दिव तदुपायानां चिन्तनं चतुर्थं विषयानन्दो रौद्रध्यानम्। १.४८ जैनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनयोर्द्धयोरपि ध्यानयोरात्मपरिणामास्तीव्रतरा जायन्ते। यस्य मे भावाः, स नूनमेव रागद्वेषाधीनत्वमधिगच्छति। तेन च जीवरक्षादीनां कार्याणा, प्राणिहिंसादीनाञ्चाकार्याणां निर्णयेऽक्षमः, कलुषितपरिणामात्मकेन कालुष्येण च युक्तः सन् निर्मलभावात्मिक्या विशुढ्यापरिचितश्चाहार-भय-मैथुनपरिग्रहादिकलहैप्रस्तः रागादीनामाधीनत्वमुपगच्छति । सकषायत्वम् (With-Passion) यश्च जीवः शताधिकानां गतीनामनेकेषु जन्ममरणात्मकेषु परिभ्रमणेषु पुनः पुनः परिभ्रममाणः क्लिष्टाष्टविधकर्मभिर्बद्धस्तथा च सहस्राधिकनरकादिगतिषु निरन्तरं दुःखैराक्रान्तत्वात् कृशतामधिगमनाच्च करुणास्पदः, तथा च विषयेष्वीडशोऽनुरक्तो यत्तस्येच्छा विषयसुखावाप्तावपि न तज्जनितेन सुखेन शाम्यति, अपितु सततं वर्द्धत एव, अस्मात्कारणात् विषयतृष्णया तृषितो रागद्वेषाधीनत्वमधिगच्छति । रागद्वेषादय एव कषायस्तदात्मकत्वादेवायं क्रोधी, मानी, मायावी, लोभवांश्च जायते । तत्र मोहकर्मोदयादुत्पन्न आत्मनो क्रोधनपरिणामो क्रोधः । अनेनास्मिन्नेव लोके स्वीय. प्रियजन. सह स्नेहविच्छेदादुःखमुत्पद्यते । अहमेव ज्ञानी-दाताशूरश्चेत्यादिकात्मपरिणामो मान । अस्माच्च विनयो विनश्यते । विनयश्च धर्ममूलमतः मानोदये सति, उपजातगर्व. जीव. देव-गुरु-साधु-वृद्धेषु यथायोग्य करणीयाद्धर्माद्विनयाद्वा भ्रश्यते । सत्यवादिनमेव पुरुष लोकः (जना.) न्यासकाद्यपस्थान करोति, यतो हि तस्य प्रत्यर्पणे सत्यात्मकत्वाल्लोकस्तस्मिन् विश्वसिति, अयमेव विश्वासः प्रत्ययः । पर शाठ्यपरिणामस्य मायायाः समुदये सति न्यासकापह्नवात्मकादसत्यभाषणात्प्रत्ययस्य हानिर्भवति । आत्मनो लोभपरिणामश्च तृष्णा, तदुदयाच्च लोभाभिभूतो क्षमामार्दवादीनां सर्वेषामपि गुणानां समुलकाषमाप्नोति, तस्माच्च सर्वगुणविनाशभाग्भवति । क्रोधः (Anger) यथा खलु दाहज्वरपीडितस्य रोगिनो कायः सर्वदा परिदहति, तथैव क्रोधिनोऽप्यन्तरात्मा सततं परिदहति । क्रोधाभिभूतेन च कुतश्चिन्निमित्तात् कृतो वधबन्धनाभिघातादिवरः सन्तानपरम्परामुत्पादयति। अतएवायं सर्वस्यापि भयमुत्पादयति । क्रोधिनश्च मुक्तावप्यसमर्थत्वात् क्रोधो मुक्तिघातकः । शास्त्रष्वपि श्रूयते, यत् सुभूमपरशुरामादयो क्रोधाविष्टात्मकत्वादेव न सुगति (मोक्ष) लब्धवन्तः । अनेन ज्ञायते, यत्क्रोध एवेहलोकपरलोकयोरपायकारी। १४६ आत्मनः पारतन्त्र्यम् Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव (Pride) आगम. श्रुतम्, सर्वज्ञप्रणीतागमानुचरणं च शीलम् । परं मर्योदयात् तयुक्तं शास्त्रज्ञं दृष्ट्वा जनरुच्यते यदयं 'श्रुतवानप्येवं गर्वितः' 'तेनैव मत्तः-मानी जातः शास्त्रषु श्रयते यत् 'श्रुतेन तु मानत्यागः कार्यः' यतो हि, श्रुतज्ञानेन मदो निर्मथ्यते, न चानेनासी मदो निर्मथितोऽतः ज्ञानज्ञानिनोरभेदत्वात् श्रुतमेव दूषितं भवति । एवमेव धर्मार्थकामानामप्ययं मानः विघ्नकारी भवति । तथाहि-कश्चन विनयरहितः शीलवानपि दुःशील एव, विनयरहितत्वे तु धर्मेऽपि विघ्नकारित्वं मानस्य, धर्मस्य विनयमूलकत्वात् । अर्थस्य चोपादानकारणं धर्मोऽतः धर्मविघ्नकारित्वादर्थेऽपि विघ्नकारित्वमस्योपपद्यते । यतो हि राजादिना विनयत एव पुरस्कारादयः संयोज्यन्ते । कामस्यापि च सम्प्राप्तिरर्थ-विनयसम्पन्नस्यैव दरीदृश्यते, यतो हि-कुलयोषिता वेश्यानाञ्च चित्तानुरोधलक्षणया चेष्टया कामी सुखभाग्भवति, अर्थविनयाभावे तु मान तत्रापि विघ्नकारकं भवेदतएव मानस्य धर्मार्थकामेषु विघ्नकारित्वं, श्रुतशीलदूषणत्वञ्चास्ति"। माया (Deciet) यथा खलूद्धृतदंष्ट्रोऽपि सर्पः लोक. दूरादेव परिहियते, तथैव मायाशीलोऽपि यदि सम्प्रति मायाचरणात्मकात् पूर्वस्वभावाद् विरतस्तदापि पूर्वदृष्टदोषैर्जनः पूर्वकृतेन दोषेण युक्तत्वादुपहन्यते, भुजङ्गवदविश्वास्यश्च १२ भवति। लोभः (Greed) सर्वेषामपि वैर-विरोध-स्तेयादीनां विनाशानामाश्रयो लोभ एव । तथाहिहिताद् व्यं सयन्ति पुरुषमिति व्यसनानि, तेषां द्यूत-स्त्री-मद्य-आखेट-अर्थदूषणादीनां व्यसनाना राजमार्ग इव लोभ एव । यथा खलु राजमार्गेण द्विजादयश्चाण्डालादयश्च सर्वेऽपि गमनक्षमास्तथैव लोभराजमार्गेण सर्वाण्यपि व्यसनानि प्रस्फुटन्तीतस्तत मनुष्यं गमयन्त्यागमयन्ति च । अत एवविवस्य लोभस्य मुखे पतित लोभपरिणामभाक् कः खलु दुःखानन्तरं सुखमुपेयात् ? एवमेते सर्वेऽपि क्रोध-मान-माया-लोभा नरकादिविभिन्नासु गतिषु परिभ्रामकत्वात् तीव्रदुःखदायकाः, संसरणमार्गप्रवर्तकाश्च सन्ति । अस्यायमाशयः यद् हिंसानतादिपापानामाचरणं संसारहेतुः, एतेषां पापानामाश्रयरूपश्च कषायवशीभूतो जीवः । ततश्च सः सांसारिक एव तिष्ठति । १५० जनवर्शन मात्म-प्रव्यविवेचन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सांसारिकत्वादेवात्मा पारतन्त्र्यमधिगच्छति, यतो हि संसारस्थितो जीवौ न कदापि पापविमुक्तं स्वातन्त्र्य कथमप्यनुभवितुं शक्नोतीति । श्रात्मनो भवान्तरसंक्रमणस् भवान्तरप्राप्तिः (Transmigrate ) जीवस्वभाव: परिणामात्मकस्तत्परिणामेन च स यादृशानि कर्माणि गृह्णाति, आत्मसाद्वा करोति तानि सर्वाण्यपि कर्माणि यथासमयमुदयं सम्प्राप्य स्वशक्त्यनुसारं फलं दातुं शक्नुवन्ति । तस्य फलस्य च जीवेनावश्यमेव भोक्तव्यत्वात्तत्कर्मनिमित्तकं जन्ममरणं संसारिणां जीवस्योपपद्यते । अत्र सञ्चितस्यायुष्कर्मणः समाप्तिर्मरणम्, नृत्नस्यायुष्कर्मणश्चावाप्तिर्जन्मेत्युच्यते । मरणानन्तरमन्यज्जन्मग्रहण भवान्तरप्राप्तिस्तदर्थमात्मनो यत्संक्रमण जायते, तदेव भवान्तरसक्रमणमिति । भवान्तरग्रहणार्थ च कदा, कुत्र, केन मार्गेण, केन विधिना वा जीवेन गमनं क्रियते ? इत्यादिकं सर्व तत्कर्मनिमित्तादेव भवति, तथा च कर्मानुसारमेव यथायोग्यं जन्मक्षेत्रमधिगतो जीव औदारिकं वैक्रियिक वा शरीररचनायोग्यं पुद्गलद्रव्यं ग्रह्णाति । कर्मनिमित्तादेव तच्छरीरं भवति, यतोहि शरीररचनायोग्यपुद्गलाना ग्रहणमेव जन्मेति । तदेतज्जन्म सम्मूर्च्छनम्, गर्भः, उपपादश्चेति त्रिविधं "" भवति । सम्मूर्च्छनम् (Spontaneous) त्रिष्वपि लोके पूर्व मधस्तिर्यक् समन्ततो देहस्य मूर्च्छनम् अवयवप्रकल्पनम्, सम्मूच्र्छनमिति, अर्थात् यत्र जीव उत्पद्यमानस्तत्स्थानीयपुद्गलद्रव्यस्य तज्जीवशरीररूपपरिणमन सम्मूर्च्छनम्"" । तद्यथा - काष्ठादिषु घुणोत्पाद:, फलादिषु क्रम्यादीनामुत्पादः, शैत्योष्ण्यनिमित्ताच्छरीरे वस्त्रादिषु वा यूकादीनामुत्पाद:, जलादीनां निमिताद बीजादिष्वङ्कुरोत्पत्तिः, पृथिव्याञ्च तृणादीनामुत्पाद: सम्मूर्च्छनमुच्यते । यतो हि तत्स्थाने जीवस्यागमनादेव तत्स्थानीयाः पुद्गलाः शरीररूपेण परिणता भवन्ति । एतदेव सम्मूर्च्छनम् । एकेन्द्रियाच्चतुरिन्द्रियपर्यन्ताना सर्वेषामपि जीवानामेतदेव जन्म भवतीति । गर्भः (Uterine ) स्त्रिय उदरमुपगतयो शुक्रशोणितयोर्यत्र गरणं - मिश्रणं भवति, स गर्भ इत्युच्यते । अर्थात् स्त्री-पुरुषयोः संयोगे सति तयोः रजो वीर्य संयोगाद्यच्छरीरमुत्पद्यते, आत्मनो भवान्तरसंक्रमणम् १५१ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेव गर्भ जन्मेत्युच्यते । यथा खलु पशु-पक्षि-मनुष्याणामिदं भवति, अथवा मात्रोपभुक्तस्याहारस्यात्मसात्करणादुपभोगाद् गर्भ इत्युच्यते । उपपादः (Instaneous ) उपेत्यपद्यतेऽस्मिन्नित्युपपादः । देवनारकाणां शरीररूपपरिणमनमेवोपपाद इत्युच्यते, अर्थात् देवनारकाणामेव नियतस्थानपुद्गलेभ्य उपपादो" भवति । गर्भजाः जीवाः (Uterine-Birth) • तत्र जरायुजानामण्डजपोतानाञ्च गर्भजन्म" एव भवति । नान्येषामेतद्व यतिरिक्तानाम् । अर्थात् गर्भजन्म जरायुजाण्डजपोतानामेव भवतीति । अत्र जावरतो विततं सशोणितं जीवस्य यदावरणं तज्जरायुरिति, "" तत्र जाताः जरायुजाः (Umbilical) मनुष्य - गो-महिष- अजा- अविका - अश्व-खर-उष्ट्रमृग- चमर- वराह- गवय- सिह व्याघ्र - ऋक्ष द्वीपि-श्व-शृगाल- मार्जारादयः १२० 1 अण्डजाश्च सर्प - गोधा - कृकलाश-गृहकोकिलिका-मत्स्यकर्म - नक्र - शिशुमारादयः, लोमपक्षाः पक्षिणः - हस - चाष- शुक - गृद्ध - श्येन - पारावत- काक- मयूर मद्गु-बकबलाकादयश्च । अत्र खलु शुक्रशोणितपरिवरणमण्डल नखत्वक्सदृशमुपात्तकाठिन्य यत्तदण्डम्, तत्र जाता अण्डजाः ( Incubatory ) इति । १२९ किञ्चित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो योनि निर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामर्थ्यपेत पोत इत्युच्यते । पोताश्च ( Unumbilical) शल्लक - हस्ती -श्वाविल्लापक- शश- सारिका - नकुल- मूषकादय, चर्मपक्षाः पक्षिण जलूका वल्गुलिभारण्डपक्षी-विडालादयश्चेति । एतेषा जरायुजाण्डजपोताना त्रिविधाना गर्भजन्म एव भवतीति । एषु त्रिविधेष्वपि जरायुजा अर्ध्याहता:, तेषु भाषाध्ययनादीनां क्रियाणां सत्त्वात् । एषु समुत्पन्नाः केचित्तु चक्रधर-वासुदेवादिमहाप्रभावा अपि भवन्ति तथा च सम्यग्दर्शनाद्यभ्युदयेन मोक्षसुखेनापि युज्यन्ते । उपपादजन्म तावत्केवलं देवनारकाणामेव भवति । अत्र तयोर्देव- नारक -गतिनामकर्मोदयाद्देवनारका दिव्यपदेशत्वात्तयोरिद जन्मेति न स्वीकरणीयम्, यतो हि तत्तद्गत्युदयस्तु विग्रहगतावेवास्ति परं न तत्र तत्तच्छरीरं विद्यते, तत्तच्छरीरनिर्वर्तकपुद्गलाभावात् । अतोऽत्र देवनारकादिशरीरनिर्वृत्तौ देवादिजन्मैवेष्टम्” । १५२ जनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषाणां जरायुज- अण्डज - पोत- देव-नारकातिरिक्तानां सर्वेषां सम्मूर्च्छनं जन्म भवति । अर्थात् शेषाणामेव सम्मूच्छेनं जन्म भवति, न तु जरायुजाण्डजपोतदेवनारकाणामिति २४ । जन्माश्रयाः (Birth Place Or Nuclei ) इत्थमष्टविधकर्मरूपेणास्मिन् संसारे बद्धानां जीवानां जन्मोपरिलिखितेन त्रैविध्येन भवति । तच्च यत्र कुत्रचिदपि जीवेन धार्यते, सर्वत्रापि तदाधारभूता योनयः सन्ति । योनिस्तु पूर्वशरीरस्य विनाशे सत्युत्तरशरीरयोग्यं पुद्गलद्रव्यं यत्र गत्वा संग्राह्य कार्मणशरीरेण संसारिजीवो युज्यते, तत्स्थानम् । ताश्चेमा नवविधाः १५ भवन्ति, तथाहि (१) सचित्तयोनयः, (Living Matter) (२) अचितयोनयः, (Non-Living - Matter) (३) सचित्ताचित्तयोनय:, (Combination of Birth) (४) शीतयोनयः, (Cold) (५) उष्णयोनयः, ( Hot) (६) शीतोष्णयोनयः, (Combination of Both) (७) संवृतयोनयः, ( Covered) (८) विवृतयोनय., ( Exposed) (E) संवृतविवृतयोनयश्चेति । (Combination of Both) अत्राचित्तयोनिका देवनारकाः भवन्ति, यतो हि तेषामुपपादप्रदेशपुद्गलप्रचयोऽचित्तो भवति । सचित्ताचित्तयोनयश्च जीवा गर्भजास्तेषां तदात्मना चित्तवता मातुरुदरे शुक्रशोणितमचित्तं मिश्रम् । सम्मूर्च्छनजेषु केचन जीवाः सचित्तयोनयोऽन्येऽचित्तयोनयोऽपरे सचित्ताचित्तयोनयस्त्रिविकल्पाः भवन्ति । देवनारकाणां केषाञ्चनोपपादस्थानानां शीतात्मकत्वादुष्णात्मकत्वाच्च शीतयोनित्वमुष्णयोनित्वञ्चाप्यस्ति । अग्निकायिकै केन्द्रियजीवास्तु केवलमुष्णयोनय एव भवन्ति । अन्येषु केचन शीतयोनयः केचनोष्णयोनयः, केचन शीतोष्णयोनयो भवन्ति, संवृतयोनयस्तु देवा, नारका, एकेन्द्रियाश्च जीवा । विकलेन्द्रियस्तु विवृतयोनयः, गर्भजाश्च संवृतविवृतयोनयी १२६ ऽवगन्तव्या. 1 आत्मनो भवान्तरसंक्रमगम् १५३ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोनीनामुत्तरमेवाः एतासां नवविधानां योनीनामुत्तरभेदाश्चतुरशीतिलक्षमिताः, ते च प्रामुख्येन यथा--नित्यनिगोतानां (त्रिष्वपि कालेषु ये न त्रसभावमधिगन्तु योग्यास्ते नित्यनिगोताः) जीवानां सप्तलक्षसंख्याकानि, पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकादीनां प्रत्येकं सप्तलक्षाणि वनस्पतिकायानामपि दशलक्षाणि, विकलेन्द्रियाणां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां षड्लक्षाणि (प्रत्येक द्विलक्षमितानि), देवनारकपञ्चेन्द्रियतिरश्चां द्वादशलक्षाणि (प्रत्येकस्य चत्वारि लक्षाणि), मनुष्याणाञ्च चतुर्दशलक्षमितानि योनिभूतान्युत्पत्तिस्थानानि भवन्ति । एतानि सर्वाणि समुदितानि चतुरशीतिलक्षसख्याकानि भवन्तीति । शरीराणि (Bodies) एषां त्रिविधजन्मनां ससारिणामनेकविधयोनीनां शुभाशुभनामकर्मनिवर्तनानि बन्धफलानुभवनाधिष्ठानानि शरीराणि तु पञ्चविधानि भवन्ति । तद्यथा-- १-औदारिकम्, २---वैक्रियिकम्, ३-आहारकम्, ४-तैजसम्, ५-कार्मणञ्चेति । शीर्यन्ते यथायोग्यं समयं सम्प्राप्यात्मना सम्बन्ध विच्छेद्य पौगलिकवर्गणारूपेणेतस्तत. प्रकीर्णा भवन्तीति शरीराणि । औदारिकादिषु पञ्चष्वप्ययं स्वभावो दृश्यतेऽतएवेमानि शरीराणीत्युच्यन्ते । शरीररचना अथ चैषा शरीराणा संरचनाऽन्त पुद्गलविपाकिशरीरमनाकर्मोदयापेक्षया भवति । तत्रौदारिकशरीरनामकर्मोदये सति, उदार-स्थूल-आसार-पुदगलद्रव्यर्यज्जायते तदौदारिकम् । विक्रिया च प्रयोजनं यस्य, तक्रियिकम्, वैक्रियिकनामकर्मोदये सति विक्रिया-विविधकरणता-अणिमादिकाष्र्टाद्धयुक्तं गुणयुक्त वा यत् पुद्गलद्रव्यवर्गणोद्भूतं तद्वै क्रियिकम् । सूक्ष्मपदार्थनिर्जानार्थमसंयमपरिजिहीर्षया च प्रमत्तसयतेनाहियते, निर्वय॑ते, यत्तदाहारकम् । आहारकशरीरनामकर्मोदये सति विशिष्ट-प्रयोजनसिद्धौ समर्थम्, शुभतरविशुद्धपुगलद्रव्यवर्गणोद्भुतमन्तर्मुहर्तस्थितिमात्र च यत्नदाहारकम् । तेजोनिमित्त तेजसिभवं वा तैजसम्, तैजसशरीरनामकर्मोदये सति तेजोगुणयुक्तपुद्गलद्रव्यवर्गणोत्पन्न तेजस लब्ध्यलब्धिभेदेन द्विविधम्"। तत्र लब्धिरूपतैजसमपि शुभाशभभेदेन द्विविध भवति । तत्र गोशालकवद्यस्य तेजसलब्धि स क्रोधादिवशीभूत. सन् स्वशरीराबहिस्तैजसमेकमाकृतिक १५४ जनदर्शन आत्मनाव्यविवेचन Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निस्सारयति, यच्चोष्णगुणयुक्तत्वादन्यस्य दाहकरणक्षम भवति, तदनुभवधितैजसम, शापदानाघशुभक्रियासमर्थमपि भवति। प्रसादे तु तदेव तेजसं शीतगुणयुक्तं निःसृत्यापरेषामनुग्रहकरणक्षमं शुभलब्धितेजसमित्युच्यते । अलब्धितेजसं तु पाचनशक्तियुक्तत्वादुपभुक्तस्याहारस्य पाचकं भवतीति । किञ्चाष्टविधकर्मणां समूहरूपं यच्छरीरं, तत्कार्मणमित्युच्यते । कर्मभिनिष्पन्नं, कर्मसु भवं, कर्माण्येव वेति कार्मणम् । अत्रान्येषां शरीराणां, तत्तन्नामकर्मोदयापेक्षत्वात्तच्छरीरनिष्पत्तिर्भवत्यतो नात्र सर्वेषां तेषां कार्मणत्वप्रङ्गः समायाति । शरीरस्वामिनः एतेषु पञ्चविधेषु शरीरेषु गर्भसम्मूर्च्छनजन्मभिः प्राप्तमौदारिक"" शरीरम्, औपपादिकजन्मभिर्देवनारकैरधिगतं वैक्रियिक"" शरीरम्, अर्थादौदारिकशरीरस्य गर्भसम्मूर्च्छनजाः, वैक्रियिकस्य च देवनारकाः स्वामिनो भवन्ति । वैक्रियिकस्य लब्धिप्रत्ययत्वात् औदारिकशरीरिषु मनुष्यतिर्यक्ष " तपसादिनिमित्तात् सम्प्राप्तशक्तिविशेषादिदं युज्यते । तैजसमपि लब्धिप्रत्ययं भवति । अथ शुभं, विशुद्धमव्याघातिशरीरमाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव, नान्यस्या कस्यचित्सञ्जायते । शरीराणां सौक्ष्म्यम् पञ्चविधेष्वेषु शरीरेषु पूर्वपूर्वशरीरापेक्षयोत्तरशरीराणां सूक्ष्मता" विद्यते । तद्यथा-औदारिकशरीरापेक्षया वैक्रियिकं सूक्ष्म, तदपेक्षया चाहारकम्, आहारकादपि तैजसम्, तैजसादपि च कार्मणशरीरं सूक्ष्म भवति । अत्र सूक्ष्मपदेन पारस्परिकापेक्षया सूक्ष्मता ग्राह्या भवति । तद्यथा--मनुष्याणां तिरश्चाञ्च शरीरं स्वभावत एव दृष्टिपथमायाति, अतएवौदारिकं शरीरं सर्वतः स्थूलम्, किन्तु वैक्रियिकं शरीरं विक्रियया एव दृष्ट शक्यते, न तु स्वभावेनात इदमौदारिकापेक्षया सूक्ष्माहारकापेक्षया तु स्थूलं भवति, आहारकस्य ततोऽपि सूक्ष्मत्वादियं सूक्ष्मतापेक्षिकीत्युच्यते । एवमेव तेजसापेक्षयाहारकं स्यूलं किन्तु तैजसमपि कार्मणापेक्षया स्थूलमतः कार्मणशरीरमेव केवलं सर्वतः सूक्ष्म (सूक्ष्मतमं) विद्यते । अर्थात्कार्मणशरीरे सर्वतोऽधिका सूक्ष्मता, यतो हि, याभिः पुगलवर्गणाभिः शरीराणि विरच्यन्ते, तासा प्रचयः उतरोत्तरमधिकाधिकसूक्ष्मो सघनश्च भवति । मात्मनो भवान्तरसंक्रमानम् Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीराणामसंख्येयगुणत्वम् अत्रोक्तशरीरेपूत्तरोत्तरं सौक्षम्यं यथा विद्यते, तथवोत्तरोत्तरमेतेषा प्रदेशेष्वसंख्येयगुणत्वमपि भवति । इदञ्चासंख्येयगुणत्वं तेजसात्प्रागेव भवति । तद्यथा- औदारिकशरीरस्य यावन्तो प्रदेशास्तावन्तः प्रदेशाः वैक्रियिकस्य न भवन्त्यपितु औदारिकापेक्षया वैक्रियिकशरीरप्रदेशा असंख्यातंगुणाः वैक्रियिक शरीरापेक्षया चाहारकशरीरप्रदेशा असंख्यातगुणा भवन्ति । अत्र प्रदेशपदेन परमाणूनामेव ग्रहणं भवति ।। अत्र च यदिदमसख्येयगुणत्वम्, न तच्छरीरोत्कृष्टप्रमाणापेक्षयापितु शरीरविगाहनशक्त्यपेक्षयास्ति । यथा खलु समयपरिमाणाना तूल-काष्ठ-पाषाणअयोगोलादीनामुत्तरोत्तरमाधिक्य भवति, तथैवात्रापि । परमत्र तेषां शरीराणां प्रदेशा उत्तरोत्तरं सूक्ष्मतरा अपि सन्त उत्तरोत्तर प्रदेशापेक्षयाधिकतराः भवन्तीति वैशिष्ट्यम् । शेषयोरनन्तगुणत्वम् औदारिक-वैक्रियिक--आहारकादतिरिक्तयोईयोस्तैजस - कार्मणोरनन्तगुणत्वं विद्यते, अर्थादाहारकप्रदेशापेक्षया तैजसप्रदेशा अनन्तगुणात्मका., तैजसप्रदेशापेक्षया च कार्माणप्रदेशा अनन्तगुणाः सन्ति । तथापि द्वे अप्युत्तरोत्तरे सूक्ष्मसूक्ष्मतरे' स्त.। अनयोयोश्शरीरयोरस्त्येकमन्यद्वैशिष्ट्यम्, तथाहि-इमे द्वः अपि अप्रतिघातात्मके" भवतः, अर्थादनयोगति वज्रपटलेनापि न प्रतिहता भवति । किन्त्वनयोरिय गतिर्लोकान्ते तु सहकारिकारणाभावाद् (धर्माधर्माभावात्) प्रतिकृता भवत्येव । तेजस-कार्मरणोरनादिसम्बन्धत्वम् अथ चानयो योस्तैजसकार्मणोर्यावदयं संसारस्तावज्जीवेन सह सम्बन्धस्तिष्ठति, ससारिणश्च जीवा अनादिकालादेव संसारिण, अतएवानयोर्जीवेनानादि सम्बन्धो विद्यते । एते च द्व एव शरीरे प्रत्येकमपि संसारिणो भवन्ति । एतेषु पञ्चविषेषु शरीरेषु तैजस-कार्मणाभ्या सहान्यान्यपि शरीराण्येकस्यैव जीवस्य भवितु शक्नुवन्ति । तद्यथा-तैजसकामरणे तु सर्वेषा भवत एव, १५६ जैनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतस्ताभ्यां सहेवीदारिक तृतीयं शरीरम्, अथवा वैक्रियिकं ततीयं शरीरं भवितुं शक्नोति । यदि कस्यचिज्जीवस्य चत्वारि शरीराणि भवन्ति, तत्तानि शरीराणि तेजसकार्मणाभ्यां सह औदारिकवैक्रियिकात्मकानि, औदारिकाहारकात्मकानि वा भवितुमर्हन्ति । यतो हि-तत्राहारकर्व क्रियिकयोरुत्पत्तेः परस्पर विरुद्धत्वान्न तयोयौंगपद्यं युज्यते। अस्मात्कारणादेव पञ्चविधानि अपि शरीराणि नैकस्मिन्" जीवे सम्पद्यन्ते । यदि केवलं द्वे एव शरीरे कस्यचिज्जीवस्य भवतस्तदा ते तु तैजसकार्मणे एवावगन्तव्ये । कार्मण उपभोगरहितत्वम् अत्र पञ्चविधेषु शरीरेषु कार्मणं शरीरमन्त्यम्, तच्चोपभोगरहित भवति, यतो हि नानेन सुखदुःखयोरुपभोगः, कर्मणा बन्धो वा, कर्मफलानुभवनं, निर्जरणं वा विधास्यते । अतएवेदं निरुपभोगमित्युच्यते"। एतदतिरिक्तान्यन्यानि चत्वारि शरीराणि सोपभोगानि सन्ति, यतश्च तैः सुखदुःखादीनामुपभोगो, कर्मणां बन्धस्तत्फलानुभवनं, निर्जरणञ्चापि भवत्यत औदारिकादीनि चत्वार्येव सोपभोगानीत्य च्यन्ते । अत्रोपभोगस्तु इन्द्रियनिमित्तशब्दाद्युपलब्धि', अतो जीवस्य विग्रहगतो सत्यामपि इन्द्रियोपलब्धौ द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्यर्थाभावात् शब्दादिविषयानुभवनाभावाच्च निरुपभोगं कार्मणमिति । fargenta: (Transmigration) कार्मणमिदं शरीरं विग्रहगतो केवलमेव तिष्ठति । अत एतन्निमित्तक एव योग.-प्रदेशपरिस्पन्दस्तत्र जीवस्य भवति । अत्रौदारिकादिनामकर्मोदयात्तत्तच्छरीरयोग्यपुद्गलानां ग्रहणं विग्रहः । विरुद्धो ग्रहो यत्रार्थाद्यत्र कर्मपुद्गलाना ग्रहणे सत्यपि नोकर्मपुद्गलाना ग्रहणाभावः, स विग्रह इति । तदर्थ च या गतिरात्मना क्रियते सा विग्रहगतिरित्युच्यते"५ । क्षेत्रात्क्षेत्रान्तर प्राप्तिर्गतिः । ये च जीवाः विग्रहगतिकास्तेषा कर्मकृत एव योगः प्राप्यते । कार्मणशरीरेण यत्प्रदेशपरिस्पन्दन तदेव कर्मयोगः" इत्युच्यते । एतदतिरिक्तासु सर्वाष्वप्यवस्थासु कायवाङ्मनस्त्रिविधोऽपि योगो भवतीति । अत्रेय गतिश्शरीरधारणार्थमेव भवति, सा चैकदेशाद्देशान्तरप्राप्तिरूपा, जन्माज्जन्मान्तरप्राप्तिरूपा वा भवति । तत्रक शरीरं परित्यज्यान्यच्छरीरप्राप्तिरन्यत्र गत्वा जीवो विदधाति, सा देशान्तरप्राप्तिरित्युच्यते । एतदर्थ .आत्मनो भवान्तरसक्रमणम् १५७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदात्मनो संसरणं, न तच्चेष्टरूपाद्योगादृते शक्यत्रतएव व्यक्त-ग्राह, यशरीरयोग-प्रणवर्तिनी या जोवस्य गतिः, सर्व विग्रहगतिरित्यभिधीयते । गतेव विध्यम् विविधापीयं गतिः प्रामुख्येन द्विविधा ऋज्वी, वक्रा चेति । तत्र धनुषाक्षिप्तेबुरिव यस्य जीवस्य गतिः, सा ऋज्वी गतिः । एतद्विपरीता वक्रा तु त्रिविधापाणिमुक्ता, लाङ्गलिका, गोमूत्रिका "" चेति । अत्र यथा पाणिना तिर्यक्प्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा, तथा संसारिणाविग्रहा पाणिमुक्ता गतिर्द्वसामयिकी भवति । यथा च लाङ्गलं द्विवक्रितं, तद्वत् त्रिविग्रहा लाङ्गलिका गतिर्गोमूत्रिको च चतुस्सामयिकी भवतीति । 1 तदेताः सर्वा अपि विग्रहगतय आकाशप्रदेश श्रेण्यनुसारमेव भवन्ति । लोकस्य मध्ये तिर्यगुपर्ययश्चाकाशप्रदेशाः क्रमशश्श्रेणिबद्धा स्तिष्ठन्ति, एतदनुकूलमेव सर्वेri जीवपुद्गलाना गतिर्भवति । गतेरनुश्रेणित्वम् (Sheet Wise Spread) अनुश्रेण्याः गतेर्देशो कालश्च नियतो भवति । जीवाना मरणानन्तरं नूत्नपर्यायधारणकाले, तथा च मुक्त जीवानामूर्ध्वगमनकाले गतेरनुश्रेणित्वमुपजायते । लोकादधः, अधोलोकाच्चोपरि तिर्यग्लोकाच्चोपर्यधश्च या गतिर्भवति सा अनुश्रेणि रेव" भवति । पुद्गलानाञ्चापि या लोकान्तं यावद्गतिः, सापि नियमतोऽनुश्रेणिरेव भवति । परं मुक्तजीवस्य तु गतिरविग्रहैव जायते । " १४९ संसारिणो जीवाः यदा स्वीयं शरीरं परित्यज्यान्यत्शरीरमधिगन्तुं भवान्तरार्थ गमनं कुर्वन्ति, तदा तेषां यादृश जन्मक्षेत्र तादृशी एव विग्रहात्मिकाऽविग्रहात्मिका वा गतिर्भवति । यदि विग्रहवतिगतियोग्यं क्षेत्र, तद्गतिरपि विग्रहा, यद्यविग्रहगतिरूपं क्षेत्र तदविग्रहागतिर्भवतीति । गतौ समय निर्धारणम् किञ्चेयं गतिस्तिर्यगूर्ध्वमधः यत्र कुत्रापि भवतु, तत्र न चत्वारि समयादधिको काल उपयुज्यते । यतो हि जगति न कश्चनैतादृशो देशो विद्यते यत्प्रापणार्थ त्रयोधिका विग्रहा. सन्तु । अतो गतिरपि चतुःसमयात्प्रागेवोपपद्यते । अत्र कालापेक्षया गतेश्चातुविध्यमुपजायते-- (१) अविग्रहा, (२) एकविग्रहा, (३) जैनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचन १५८ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विविग्रहा, (४) त्रिविग्रहा चेति । तत्र षुगतिरिव ऋजुगतिरेकसमयात्मिका, लोकाग्रभाग यावज्जीवस्य पुमलानाञ्च गतिरेकसमयात्मिकैव भवति । यस्याञ्च गतावेको विग्रहः, सा द्विसमयात्मिका, द्विविग्रहवती च त्रिसमयात्मिका, त्रिविग्रहवती च गतिश्चत्वारि समयात्मिका ११ भवतीति । 1 विग्रहगतावनाहारकत्वम् ( Non Assimiliativeness) भवादभवान्तरमधिगच्छन् एक-द्वि- त्रिसमयं यावज्जी वोऽनाहारकस्तिष्ठति । arterfina क्रयिकाहारकशरीरयोग्यानां षड्पर्याप्तियोग्यानाञ्च पुद्गलानां ग्रहणमाहारः, तैजसकार्मणशरीरपुद्गलास्तु मोक्षात्प्राप्रतिक्षणमागच्छन्तस्तिष्ठन्ति । अतो कार्मणशरीरकारणात् गच्छन्नपि पूर्वदेहपरित्यागदुःखसंतप्तो जीवोऽष्टविधकर्मपुद्गलेभ्यो निर्मितेन कार्मणशरीरेण नोकर्मपुद्गलग्रहणादाहारको ५१ भवतीति । समयात्मिक्यां गतौ नोकर्मपुद्गलान् ग्रहणन्नेव गच्छत्यतः नानाहारको भवति, द्विविग्रहवत्यां त्रिकालिकायाञ्च गतौ द्विसमयमनाहारकस्त्रिविग्रहवत्यां चतुःसमयात्मिक्याञ्च गतौ त्रिसमयमनाहारकस्तिष्ठति । चतुर्थे समये आहारक एव भवतीति । एवं भवक्षये सति मरणमुपगतो जीवोऽन्यद्भवप्राप्त्यै अविग्रहया विग्रहया वा गत्याकाशप्रदेश पङ्क्त्यनुसारं गच्छन्, स्वकर्मानुसारं स्वोपपातक्षेत्र यत्रानेन जन्म ग्राह्य ं तत्क्षेत्र गत्वा शरीरयोग्यान् पुद्गलान् ग्रह्णाति । पुनश्च तत्रोपग्रहीतेन शरीरेण नानाविधानि कर्माणि कुर्वन् सकषायत्वात्कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते, तदा च बन्धभाग्भवति । तथा च तेन बन्धेन समुपजातरागद्वेष-मोह. पुनः काय-वाङ् - मनोयोगैर्नानाविधेषु शुभाशुभेषु द्रव्येषु संजातरागद्वेषत्वात् संसारी जायते । तत्र चोपार्जितायुष्कर्मणः पुनः क्षये सति मरणमधिगच्छति । ततश्च पुनर्जन्म पुनर्भरणमित्यादिजन्ममरणात्मके संसरणे परिभ्रमन्, भवाभवान्तरमधिगच्छन् संसारोदधौ निमज्जन् तिष्ठतीति । प्रात्मकर्मणोः सम्बन्धः किमिद नाम कर्म ? का चावश्यकतास्य ययेदं स्वीकृतं दार्शनिकै ? विषयेऽस्मिन् समग्राणामपि दर्शनाना पर्यालोचनेन ज्ञायते यत्पूर्ववर्तिभिर्महर्षिभिवलमेतदर्थमेव कर्म स्वीकृतम्, यत् तर्कनिकषायां परीक्षितेऽपि न जगतः स्रष्ट्रा ईश्वरादिरूपो कश्चनापि तिष्ठति, एतद्विषयेऽनेके प्रश्ना उपस्थिताareकर्मणोः सम्बन्धः १५६ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तिष्ठन्ति यैर्न कोऽपि जगतः सर्जकः इति सिध्यति । नाप्यसंख्यजातीनां जगद्वैचित्र्यस्यास्य केनाप्येकेन निर्माण सम्भवं स्यात् । वस्तुतस्तु प्रत्येकमेव जीवः स्वीयस्य जगतः स्वयमेव स्रष्टा । स्वयमेव स्वीयस्य शरीरादिरूपस्यास्य जगतः स्रष्टा कथं सः सिध्यतीति कर्मसिद्धान्ताना विवेचनेन मननेनाध्ययनेन च सुस्पष्टतया ज्ञायते। किमिदं नाम कर्म ? राग-द्वेषादियुक्तेऽस्मिन् संसारिजीवे प्रतिसमय परिस्पन्दरूपात्मिका क्रिया भवन्ती तिष्ठति, तन्निमित्तेनात्मनि एकमचेतनं द्रव्यं यदा बीजरूपमागच्छति, तदेव रागद्वेषादिपरिणामनिमित्तादात्मनि वन्धत्वमधिगच्छति । यच्च काले प्राप्ते सति मुखदुःखरूपपरिणामफलं दातु क्षम जायते, तदेव कर्मेति कथ्यते । यथा खल्वाकरे स्वर्ण-पाषाणयोरनादिकालिकस्सम्बन्ध. प्रचलन्नद्यापि विद्यते, तर्थव जीवकर्मणामप्यनादिकालिकः सम्बन्धो विद्यते। जीवोऽनादिकालतस्तु सर्वथा शुद्ध चैतन्यस्वरूप एवासीत्पश्चात्कस्मिश्चित्काले तस्य कर्मभिस्सम्बन्धः सजात , नैतादृशी व्यवस्था विद्यते, यतश्च जीवकर्मणामनादिस्सम्बन्धस्सर्वैरेव स्वीक्रियते । यतो ह्यस्य कर्मग्रहणस्वभाव., स्त्रभावश्च कारणं विनैव सहजतया जायते । प्रकृति., शीलमप्यस्यैव नामान्तराणि । यथा खल्वग्नेरूर्ध्वगमन, वायोस्तिर्यग्गमन, जलस्य चाधोगमन स्वभावस्तथैवात्मनो स्वभावः रागादिरूपपरिणाम , रागादीनाञ्च स्वभावो रागादिरूपपरिणामयकः। कर्मणां रागाद्युत्पादकत्वम् यथा खलु भङ्ग-मदिरादिमादकपदार्थानां मादकस्वभावस्तदुपयोगकानाञ्च तन्मदेन मत्तस्वरूपो परिणामः, तथैव जीवस्वभावो रागद्वेषादिकषायरूपपरिणमनम्, तथा च कर्मणां रागादिकषायस्वरूपेण जीवस्य परिणामकः, यावच्चानयोईयोस्सम्बन्धस्तावदेव विकाररूपो जीवस्य परिणाम । अयञ्चानादिकालत एव स्वतस्सम्बन्धयुक्तोऽस्ति । अत्र जीवस्यास्तित्वमहमित्यात्मिक्या प्रतीत्या, कर्मणाञ्चास्तित्वं जीवानां भिक्ष क-श्रीमतादिरूपवैचित्र्यपरिणामेन प्रत्यक्षत एव५५ दृश्यते । प्रनादिः कर्मपरम्परा अद्याप्ययमात्मा स्थूल-सूक्ष्म-कर्मशरीराभ्यां बद्धो विद्यते । अस्य ज्ञान, सवेदन, सुखदुःखानि, जीवनशक्तिश्चापि, सर्वेऽपि शरीराधीनाः । शरीरे च विकारे १६० जैनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचन Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सति ज्ञानतन्तूनां क्षीणत्वं, स्मृतेभ्रंशः, उन्मादादीनामाविर्भावश्चापि जायते । आत्मनः संसरणशीलत्वात् शरीरे बद्धत्वेऽपि गत्यात्मकत्वमस्ति । यद्यात्मा शुद्धः स्यात्तर्हि शरीरसम्बन्धस्य न किञ्चित्कारणमन्यत् । शरीरसम्बन्धस्य १५६ राग-द्वेष-मोह कषायादिभावा: हेतुभूताः, शुद्धात्मनि चैतेषां परिणामानां भावो शुद्धात्मकत्वादशक्य: “" स्यात् । किन्त्वेते विभावास्तेषां शरीरसम्बन्धरूपं फलञ्च प्रत्यक्षतयैवानुभूयेतेऽतो ज्ञायते यदद्यावधिरियमस्याशुद्धपरम्परैव प्रचलन्ती विद्यते । अस्यायमेवाभिप्रायो यज्जीवस्य रागद्वेषादिवासना, पुद्गलकर्मबन्धसन्ततिश्च बीजवृक्षसन्ततिवदनादित एव वर्तन्ते । पूर्वोपार्जितकर्मोदयाद्रागद्वेषादयस्समुत्पद्यन्ते, तदा च या जीवस्यासक्तिः, सैव कर्मबन्धहेतुर्भवति । किन्त्वत्र न केवलं पूर्वोपार्जितकर्मभोगान्नवीनानां कर्मणां बन्धो जायतेऽपि तु तत्र (भोगकाले) नूत्नरागादिभावानामुत्पत्तिरपि बन्धहेतुरूपोत्पद्यते । नूत्नकर्मोत्पत्तिः यथा खलु तप्तमयः पिण्डं पयसि प्रक्षिप्ते सति, पयः परमाणून् स्वस्मिन् गृह्णाति तथा च शोषितेषु तेषु परमाणुषु केचन बहिर्गच्छन्ति बाष्परूपेण, यावच्च तत्पिण्डमुष्णं तिष्ठति तावदियं प्रक्रिया प्रचलति येन पयसि मन्थन - ञ्चापि भवति । तथैव यदायमात्मा रागद्वेषादिभिरुत्तप्तो भवति, तदा शरीरे हलन चलन क्रियोत्पद्यते । तद्यथा - क्रोधे चक्षूंषि रक्तवर्णानि जायन्ते, रुधिरगतिर्वर्धते वदनं शौष्क्यमुपगच्छति, नासिकापुटो च स्फुरतः, कामवासनायाः जागृतौ सत्यां शरीरे तु मन्थनविशेषः प्रारभते । यावच्च नायं कषायः शांतो भवति, तावन्मन्थनं भवत्येव, नावरुध्यतेऽर्थादात्मनो विचारानुसारमेव पुद्गलद्रव्येष्वपि परिणमनं जायते । तद्विचारोत्तेजकाश्च पुद्गलपरमाणवो वासनया ( कषायेण ) युक्ते सूक्ष्मकर्मशरीरे श्लिष्टाः भवन्ति । यदा च ते कर्मपुद्गलाः स्फुरन्ति तदा पुनः पुनस्तेषां भावानामुत्पत्तिः, ततश्च नूत्नकर्मपुद्गलानामास्रवः, ततश्च तत्परिपाकानुसारं नूत्नरागादिभावानामुत्पत्तिर्जायते । एवं रागादिभावकर्मपुद्गलाना सम्बन्धेनेदं जगच्चक्रं, यावन्न विवेकचारित्राभ्यां रागादीनां विनाशस्तावत् सततं प्रचलति । अतएव सम्यग्दृष्टेः पूर्वकर्मणामुपभोगः रागादिभावानामभावात्मकत्वान्निर्जराहेतुर्भवति । यदा हि तेनैवोपभोगेन मिथ्यादृष्टिनू लं. कर्मभिर्बध्यते । यतो हि सम्यग्दृष्टिस्तु पूर्वकर्मोदयोत्पद्यमानान् रागादिभावान् स्वज्ञानात् शमयति, न तेषु नृनामासक्ति करोति । अतस्तानि कर्माणि फलदानानन्तरं निर्जरामधिआत्मकर्मणोः सम्बन्धः १६१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छन्ति । मिथ्याडष्टिस्तु नित्यं प्रति नूनवासनासक्तितया द्रुतेन कर्मबन्धत्वमधिगच्छति । भौतिकमिदं जगत् पुद्गलेनात्मना च प्रभावितं भवति । यदा कर्मणां विशिष्टशक्तेरेकं स्रोतः भौतिकपिण्डमात्मना सम्बध्यते, तदा तस्य सूक्ष्म - तीव्रशक्त्यनुसारं बाह्यपदार्था अपि प्रभाविताः भवन्ति, प्राप्तसामग्र्यनुसारं च सञ्चितकर्मणां तीव्र-मन्द-मध्यमादिपरिणामोऽपि समुपलभते, एवमिदं कर्मचक्रमनादिकालात्प्रचलितं विद्यते, तथा च यावदुबन्धकानां रागादिवासनानां न सर्वथा विनाशो भविष्यति, तावत्प्रचलिष्यत्येव । श्रात्मना कर्मणामनादिः सम्बन्धः ये खलु राग-द्वेषादिजन्यसंस्काराः कर्मबन्धकास्तेऽपरस्मिन्नेव क्षरणे शील- व्रतसंयमादिपवित्र भक्षणत्वमप्युपगच्छन्ति । यदि तस्मिन् क्षणेऽन्येषामपि नूतनानां रागादिभावानां निमित्तं प्राप्यते, तत्प्राग्बद्धेषु कर्मपुद्गलेषु तदितरेषामपि कृष्णकर्मपुद्गलानां संयोगस्तीव्रतयोपजायते । इत्थं जीवनस्यान्ते कर्मणां बन्धनिर्जरयोरपकर्षणोत्कर्षणसंक्रमणादिषु सत्स्वपि यानि कर्माण्यवशिष्यन्ते, तान्येव सूक्ष्म-कर्मशरीररूपेण परलोकं यावद्गच्छन्ति । आत्म-शरीरसम्बन्धः, प्रकृति-पुरुषयोश्च संयोग, ब्रह्मणोऽविद्योत्पत्तिश्च कदा जाता ? इत्यस्य केवलमेकमेवोत्तरं यत् 'अनादिकालत' । किञ्च यस्मिन् समये समग्ररूपेणैतेषां संयोगानामभावो, विनाशो वा स्यात्तदा संसारस्याप्यभावो विनाशो वावश्यम्भावी, किन्तु नैतादृशस्य कालस्य केनापि दार्शनिकेन कल्पन कृतम् । व्यक्तिशस्त्वात्मना पुद्गलसंसर्गस्य, प्रकृतिसंयोगस्य वा तत्स्वरूपं परिसमाप्यते, येनात्मा संसारीत्युच्यते । अथवेदमपि तदुत्तर शक्यम्, यद्येते आत्मा-पुरुष-ब्रह्मादयः शुद्धस्वरूपास्तदेतेषां संयोगोऽपि न स्यात् । यतो हि, शुद्धेष्वेतेषु न कश्चनैतादृशो हेतुरवशिष्यते, यः खलु पुद्गलस्य, प्रकृतेः, अविद्याया वा सम्बन्धकः, संयोजको वा तिष्ठतु । यदीदृश एवात्मा शुद्धः, इति चेत्तस्याशुद्धत्वस्य शरीरसम्बन्धस्य वा न कश्चनापि हेतुरासीद्विद्यते वा । नात्मकर्मणोः पृथक्त्वम् यदा हीमो स्वतन्त्रसत्ताको भिन्नो पदार्थों, तदा तयोरतिप्राचीनोऽपि संयोगोऽपातु शक्यः, ततश्च द्वयोरपि पृथक्करणं शक्यम् । अर्थादात्मनः पुद्गलस्य चानादिकालिकः सम्बन्धः, तद्बन्धश्च जीवस्य रागद्वेषादिभावैरुत्तरोत्तरं जैनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनस् १६२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धते । यदा चेमे रागादिभावाः क्षीयन्ते तदायं बन्धो नात्मनि नूत्नविभावमुत्पादयितुं प्रभवत्यत शनैशनैस्सकृद्वा परिसमाप्यते । यतश्चायं बन्धो द्वयोः स्वतन्त्रसिद्धयोः पदार्थयोरेवास्ति, अतः विनाशयोग्योऽथवा तदवस्थायामप्यवस्थातुं योग्यो भवति, यस्यां तत्सन्निधानेऽप्यात्मा तेन निस्सङ्गो निर्लेपो वा जायते । एवं जैन दर्शनेऽयमात्मानाद्यशुद्धः स्वीकृतः, किन्तु प्रयोगः शुद्धोऽपि सादृश्यः । एकदा च शुद्धौ सत्यां न पुनरशुद्धत्वस्योत्पादक. कश्चन हेतुस्तत्रावशिष्यते । आत्मनोऽशुद्धेयं दशा स्वरूपप्रच्युतिरूपा परपदार्थेषु च ममत्वाहङ्काररूपा"" । अतोऽस्याः अन्तोऽपि स्वरूपज्ञानेनैव शक्यः । श्रात्मज्ञानयोः सम्बन्धः श्रात्मनो ज्ञानस्वभावः आत्मशब्दस्य सिद्धि: अत्-सातत्यगमनार्थकधातोर्भवति, गमनार्थक शब्दानां ज्ञानार्थकत्वादात्मनोऽपि ज्ञायकत्वं - ज्ञानसंयुक्तत्व स्वत एव सिध्यतीति प्रागेवोक्तम्, अर्थादात्मनो ज्ञानेनानादिकालिक एव सम्बन्धो विद्यते, न तु कदाप्यात्मा ज्ञानविरहित आसीत्, नापि भविष्यति । यावत्खल्वयमात्मा विभिन्नकर्मवशात् मलीमसो भूत्वास्मिन् संसारे संसरन् तिष्ठति, यद्यपि तावत्तस्य स्वाभाविकाः गुणाः तत्तत्कर्मकृदावरणजन्यमालिन्ययुक्ताः भवन्ति, येन न ते स्वाभाविक्या शक्त्यात्र प्रस्फुटन्ति, तथापि तद्गुणानामात्मनो स्वाभावादस्तित्वं तु विद्यत एव । यावच्चायं विभिन्नावरणैर्युक्तस्तिष्ठति तावत्तस्य ज्ञानशक्तिरप्यंशत्वेनावृता तिष्ठति, येन तस्य ज्ञानं विभावयुक्तं जायते, किन्तु ज्ञानावरणादिकर्मणां क्षयोपशमात् मति श्रुतादीनि ज्ञानानि प्रस्फुटन्ति । ततश्च घातिचतुष्कस्यापि यदा विनाशं करोति, तदा स ज्ञानस्य परिपूर्णा शक्तिमधिगच्छति । यथा खलु सूर्यस्य प्रतापनः प्रकाशकश्च स्वभाव:, किन्तु मेघपटलाच्छादितेऽपि तस्य प्रताप - प्रकाशयोरस्तित्वं ज्ञायत एव लोकैः । किञ्च यदैव तन्मेघपटलावरणमपसरति तदा पुनरपि सूर्यः स्वीयेन प्रताप - प्रकाशस्वभावेन सयुक्तः सर्वेरेवानुभूयते, तथैवायमात्मापि । सोऽयमात्मा यदा कर्मसंयुक्तस्तदा स्वीयेनेन्द्रियरूपकरणेन विभिन्नपदार्थानवगच्छति, किन्तु यदा स शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् घातिकर्मणां प्रक्षीणात्, क्षायोपआत्मज्ञानयोः सम्बन्धः १६३ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमिकादिज्ञानासंपृक्तत्वाच्चातीन्द्रियो जायते, तदा च ज्ञानदर्शनसम्बन्धिनां सर्वेषामप्यावरणानां सर्वथा क्षयत्वात् समुपलब्धज्ञानदर्शनतेजः, स्वयमेव स्वपरप्रकाशक ज्ञानमधिगच्छति, अर्थादिन्द्रियविनाप्यात्मनि ज्ञानं संपद्यते । मात्मज्ञानयोरेकत्वम् यच्चात्मनि ज्ञानं जायते तद्ज्ञानं जीवातिरिक्तेष्वन्येषु न कुत्रापि युज्यते, केवलमात्मनि जीवे एव वा तस्य सम्बन्धो जायते, येनात्मनो ज्ञानस्य चैकत्वमित्युच्यते । यतो हि, ज्ञानमात्मनो गुणः, सहभावित्वात् । न ज्ञानमात्मना विरहित कुत्रचिदपि प्राप्यते, नापि तस्य कश्चिदात्मातिरिक्तस्तु आधारो विद्यतेऽतः ज्ञानस्य आत्माश्रयत्वात्तदात्मकत्वमेव स्वीक्रियते । अस्मात्कारणादेवात्मनो ज्ञानस्य चाभेदमवलोक्यानयोरेकत्वं स्वीकृत जनदार्शनिकैः । किन्त्वत्र नात्मनो ज्ञानगुणात्मकत्वं स्वीकृत्य सर्वथाभेदस्तयो स्वीकृतोऽपितु ज्ञानगुणस्य तदात्मकत्वापेक्षयवायमभेद., यतो हि, आत्मनो द्रव्यत्वात्तस्मिन्नन्येऽपि ज्ञानातिरिक्ता सुखादयो गुणा सन्ति । यदि ज्ञानात्मनोःसर्वथाऽभेद एव स्वीक्रियेत तदा ज्ञानात्मकत्वात् तस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते, गुणस्य च द्रव्यत्वे सति, तत्र गुणानामभावात् तस्य गुणविरहितत्वादभाव सम्पद्येतातो न ज्ञानस्यात्मनश्च सर्वथा भेदः स्वीकरणीयः। एवमेवात्मनोऽपि गुण. ज्ञानमिति स्वीकृते तत्र केवल ज्ञानमेवैको गुणस्तिष्ठेत, अन्येषा गुणाना त्वभावस्सम्पद्येत, तदा च गुणानामभावे सति आत्मद्रव्यस्याप्यभाव. सिद्ध्येत, आत्मद्रव्याभावे तु ज्ञानगुणस्यापि निराश्रयत्वादभावः स्यादतो ज्ञानगुणस्यात्मातिरक्तेऽन्यपदार्थेऽविद्यमानत्वात्तस्य कथञ्चिदात्मरूपत्वम्, अथ चात्मनोऽपि ज्ञानगुणापेक्षया ज्ञानत्वमस्तीति । प्रात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वम् यावन्तोऽपि पदार्था जगति विद्यमानास्सन्ति, तेषा सर्वेषामपि ज्ञायकं ज्ञानम् । आत्मा च ज्ञानगुणयुक्तोऽत. सर्वेष्वपि पदार्थेषु ज्ञानस्य विद्यमानत्वात् तत्र सर्वत्रात्मापि तिष्ठति । यतो हि, यस्य द्रव्यस्य ये गुणास्सन्ति तस्य तेषु सर्वत्र विद्यमानत्वात् तत्प्रमाणत्व भवति । अत आत्मापि स्वगुणभूतज्ञानप्रमाणत्वात् सर्वेष्वपि पदार्थेषु तिष्ठति, न तदधिक, तदहीन वा कदापि तिष्ठति । यथा खलु स्वर्णद्रव्य स्वपर्यायेषु कुण्डलादिषु सर्वत्रापि पीतिमादिगुणरूपेण सहैव तिष्ठति, तथा चेन्धनस्थिताग्निर्यन्धनप्रमाणा भवति, तथैवायमात्मापि स्वज्ञानगुणप्रमाणमवसेयम्। जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. स्थासू-२।१।३६४ ॥ ६. षख-'तसकाया वीइ दियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलिति ।' सं० सू०४॥ ७. ताधिभा-२॥१२॥ ८. क-तसू-पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः २।१३।। ख-स्थासू-५१॥३६४॥ ६. ससि-पुढिवी पुटिवीकायो पुढिवीकाइय पुढिविजीयो य । २०१३ ॥ १०. प्रसू-६५६ ॥ ११. एकेन्द्रिया' उपयोगवन्तः, आहारादिषु विशिष्टप्रवृत्यन्यथानुपपत्तेः ।। १२. क-तरावा-२।१४।४ ॥ ख-जीवाप्र-११२७ ।। १३. तसा (असू)-मसूराम्बुषत् सूचीकलापसन्निभाः। धराप्तेजोमरुत्कायाः नानाकारास्तरुत्रसाः ॥५७।। १४. गोसाजी-१८५।१८६ ।। १५. क-तसू-२।२२ ॥ ख-प्रसू-१ १६. क-ताधिभा-२।२४ ॥ ख-प्रसू-१॥ १७. ताधिभा-२।२४ ॥ १८. ताधिभा-२।२४ ॥ १६. गोसाजी-१६७ ॥ २०. ताधिभा-२।२५ ॥ २१. निसा-(S.B.J Vol-9)-१७ ॥ २२. गोसाजी-१५१॥ २३. क-ताधिभा-४१॥ ख-व्याप्रश-२।७।। २४. क-ताधिभा-४।३ ॥ ख-प्रसू-१(देवाधिकार) २५. क-ताधिभा-४।४ ॥ ख-औपसू-४१ ।। ग-स्थासू-३।१।१३४ ।। घ-स्थामू-४।१।२४८ ॥ २६. अचिम-'वेश्याचार्यः पीठमर्द -वेश्याचार्य:-वेश्यानां नृत्तोपाध्यायः, पीठं-नर्तनस्थान पादमदनाति पीठमर्द' २।२४४ ॥ २७. ताधिभा-४॥५॥ २८. क-ताधिभा-४।४॥ ख-प्रसू-१ (देवाधिकार) २६. ताधिभा-४।११ ॥ ३०. तरावा-४।१०।१॥ ३१. तराबा-४।१०।। ३२. तरावा-४।१०।८॥ ३३. तरावा-४।१०।८ ॥ ३४. तरावा-४।१०।८।। ३५. ताधिभा (टिप्पण्या)-भवनं तावत्-बहिर्गोलमन्तश्च चतुष्कोणमधोभागे च कमल कणिकारनिर्मितं भवनम् । ४।११।। ३६. उप (टिप्पण्या)-आवासास्तावत्-नानाविधरत्नप्रभोद्दीप्ताः शरीरप्रमाणानुनिमिताः महामण्डपा. आवासा. ॥ ३७. क-ताधिभा-४।११ ॥ ख-प्रसू (प्र० पद-देवाधिकार) ३८ ताधिभा-४।१२ ॥ ३६. तरावा-४११॥ ४०. ताधिमा-४।१२॥ ४१. ताधिमा-४॥१२॥ ४२. ताधिभा-४११२ ॥ ४३. ताधिभा-४।१२॥ ४४. ताधिभा-४।१२॥ ४५. ताधिभा-४६१२॥ ४६. ताधिमा-४॥१२॥ ४७. तरावा-४॥११॥४॥ ४६. क-तसू-४॥१२॥ ख-प्रसू-(प्र० देवाधिकार)। सम्बर्नोल्लेखाः १६७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. द्रष्टव्य-ससि-णवदुत्तरसत्तसया दससीदिच्चतुदिगं चदुगचदुगचदुक्कं । तारारविससिरिक्खा बुधभग्गवगुरु अगिरारसणी । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति । १।१२। ५०. तरावा-४।१२।१०॥ ५१. तरावा-४।१२।१०॥ ५२. तरावा-४॥१२॥१०॥ ५३. तरावा-४॥१२॥१०॥ ५४. तरावा-४।१२.१०॥ ५५. तरावा-४।१६।१। ५६. क-ताधिभा-४११७-१८ ॥ ख-प्रज्ञापन-२-त्रैमानिकदेवाधिकार । ५७. क-ताधिभा-४।२०॥ ख-असू-१०३ ॥ ग-प्रसू-६।४६ ॥ ५८. क-तराबा-४।२४।१॥ ख-स्थासू-८।६२३ ॥ ५६. तरावा-४।२५।३ ।। ६०. क-तसू-४।२० ॥ ख-जीवाप्र-३।२।२१६ ॥ ६१. क-तसू-४२१॥ ख-प्रसू-२ देवाधिकार ।। ६२. तवा-४।२२।२ ॥ ६३. तवा-४।२२।३।। ६४. तवा-४।२२।४॥ ६५. तवा-४।२२।५ ।। ६६. क-तवा-४।२२।६ ।। ख-जीवाप्र-३।११२१४ ॥ ६७. क-प्ररप्र-८1१६० ।। ख-प्रसू-नरकाधि ० २॥ ६८. क-तवा-३१११३ ।। ख-जीवाप्र-२१७०-७१ ।। ६६. तवा-३।१।१०।। ७०. तवा-३११८ ॥ ७१. ताधिभा-३॥२॥ ७२. तवा-३।११८ ।। ७३. तवा-३१२॥ ७४. तवा-३।२।२॥ ७५. तवा-३।२।२ ।। ७६. क-तवा-३१२॥२॥ ख-जीवाप्र-३१६६ ।। ७७. क-तवा-३।२।२ ॥ ख-प्रसू-२ नरकाधिकार । ७८. तवा-३॥२॥२॥ ७६. तवा-३।२।२॥ ८०. वा-३१२।२ ।। ५१. क-तसू-३॥३॥ ख-प्रव्या-१, नरकाधिकार । ८२. क-ताधिभा-३१३ ॥ ख-स्थासू-३।१११३२ ॥ ५३. ताधिभा-३॥३॥ ८४. क-ताधिभा-३१३ ॥ ख-प्रसू-२, नरकाधिकार । ८५ तवा-३१३१४ ॥ ८६. तवा-३।३।४।। ८७. गोसाजी-१४६ ।। ८८. क-नाधिभा-३।४-५ ॥ ख-जीवाप्र-३।२।१७८ ॥ ८६. क-तमू-३।३६ ॥ ख-प्रसू-१, मनुष्याधिकार । ६०. तवा-३।३६।१।। ६१. तवा-६।३६२ ॥ ६२. तवा-३॥३६॥२॥ ६३. तवा-३॥३६॥२॥ ६४. तवा-३॥३६॥२॥ ६५. तवा-३॥३६॥२॥ १६. तवा-३।३६॥३॥ ६७. ताधिभा-३॥१५॥ ६८ तसू-३॥३६॥ १६. तवा-३॥३६॥४॥ १००. तवा-३॥३६॥४॥ १०१ तवा-३।३६॥१॥ १०२. प्ररप्र-२।२०।। १०३. प्ररप्र-१११८॥ १०४. प्ररप्र-१११६ ॥ १०५ प्ररप्र-२१२० ॥ १०६ प्ररप्र-२०२० ॥ १०७. प्ररप्र-२॥२१॥ १०८. प्ररप्र-२१२२-२३ ॥ १०६. प्ररप्र-२।२५।। ११०. प्ररप्र-२॥२६॥ १११. प्ररप्र-२।२७ ।। ११२. प्ररप्र-२।२८ ।। ११३. प्ररप्र-२॥२६॥ ११४. क-तसू-२॥३१ ॥ ख-उसू-३६।११७ ॥ ग-दवैसू-४, प्रसाधिकार ।। १६८ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वञ्चात्र पूज्यपादः प्रामुख्येन द्विविधं “ स्वीकृतम् - नैसर्गिकम्, परोपदेशपूर्वकचेति । तत्र परोपदेशं विनैव मिथ्यादर्शनकर्मोदयाज्जीवादिपदार्थानामश्रद्धानं नैसर्गिकम् । अन्यनिमित्तादुत्पद्यमानं मिथ्यात्वं परोपदेशपूर्वकमित्युच्यते । उमास्वातिभिश्चैष एव भेदः क्रमशोऽनभिगृहीतमभिगृहीतमिति प्रतिपादितः, एतस्योल्लेखो स्थानांङ्गेऽपि प्राप्यते । मातान्तरेण तु मिथ्यादर्शनं पञ्चविधमपि स्वीकृतम्, तथा हि १. श्रभिग्राहिकम् - तत्त्वमनपरीक्ष्यैव कञ्चन सिद्धान्तविशेषं स्वीकृत्यान्यसिद्धान्तखण्डनमाभिग्राहिकम् । २. प्रनाभिग्राहिकम् - गुणदोषान्नपरीक्ष्यैव सर्वसिद्धान्तानां सामान्येन ग्रहणमनाभिग्राहिकम् । ३. संशयितम् - देव-गुरु- धर्मस्वरूपेषु संदेहबुद्धिः संशयितम् । ४. ग्राभिनिवेशिकम् – स्वीयं सिद्धान्तमसत्यमिति ज्ञात्वापि तद्ग्रहणमाभिः निवेशिकम् । ५. प्रनाभोगिकम् - मोहस्य प्राबल्ये यन्मौढ्यं तदनाभोगिकम् । पूज्यपादाचार्येरन्ये पञ्चभेदाः " परिगणितास्तथाहि १. एकान्तम् -' इदमेव' ' इत्थमेवे 'ति धर्मधर्मिणोरेकान्तरूपोऽभिनिवेश: एकान्तम् (One Sided Belief) २. विपर्ययः सग्रन्थे निर्ग्रन्थभावः, केवलिनः कवलाहारः, स्त्रीणा सिद्धत्वस्वीकारश्च विपर्यय: ( Perverse Belief) ३. संशयः- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गभूतानि सन्ति न वेत्यात्मकः सशय. (Doubtfull Belief) ४. वैनयिकम् - सर्व देवशास्त्राणां समदर्शनं वैनयिकम् (Veneration of falls Creeds) ५. प्रज्ञानिकम् – हिताहितपरीक्षाविरहत्वमज्ञानिकमिति (Indiscriminate Belief) २. अविरति (Vowlessness) हिसा - अनृत - अस्तेय - अब्रह्म-परिग्रहेभ्यः पञ्चपापेभ्यो विरमणं विरतिः, एतत्प्रतिपक्षभूता विरति । अर्थात् पापेभ्यः, उपभोग्यपदार्थेभ्यः, सावद्यकमेभ्यश्चाविरमणमविरतिरिति । पूज्यपादाचार्ये. षड्जीवनिकायापेक्षया, षडिन्द्रियापेक्षया च द्वादशविधाऽविरतिरभिहिता" । बन्धस्ततवो मेवाश्च १७५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र केचनाचार्याः अविरतरत्यागभावं, प्रमादस्यानुत्साहभावञ्चैकरूपं संस्मृत्यानयोरेकत्वं स्वीकुर्वन्ति । किन्त्वेतद्विषये भट्टाकलङ्क: सुस्पष्टमभिहितम्" यत् नैतदुचितं प्रतिभाति, यतो हि अविरतेरभावेऽपि प्रमादस्तिष्ठति, विरतोऽपि प्रमादी भवत्यतो नैतयोरेकत्वं स्वीकरणीयमिति । ३. प्रमादः (Carelessness) प्रमाद व्याख्यात भि. पूज्यपादैरभिहितम्-यत् 'कुशलेष्वनादरः प्रमादः' । भट्टाकलकैश्च सयम-धर्मेष्वनुत्साहोऽनादरो वा प्रमादः'२५ इत्युक्तम् । उमास्वातिभिश्च ‘स्मृत्यनवस्थान योगदुष्प्रणिधानं कुशलेष्वनादरश्च प्रमाद:२५ इत्यभिहितम् । स चायं शुद्ध्यष्टकोत्तमक्षमादिभेदादनेकविधो" भवति । ४. कषायः (Passion) जीवस्य क्रोधादिरूपपरिणामः कषायः। अत्र कषाय-नोकषाययोरीषभेदोऽपि न भेदः, इति कृत्वा षोडशकषायाः नव नोकषायाश्च समुदिता. पन्चविशतिविधाः भवन्ति । अत्रे मे नवनोकषाया हास्य-रति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सास्त्री-पु-नप सकवेदाः। तद्यथा-यस्योदयाद् हास्याविर्भावस्तद्हास्यम् । यस्योदयाद्विषयेष्वौत्सुक्य सा रति.। एतद्विपरीता चारतिः। यस्योदयात् शोचनं सञ्जायते, स शोकः । यस्योद्यादुद्वेग उत्पद्यते-तद्भयम् । यस्योदयादात्मदोषाना संवरण, परदोषाणाञ्चाविष्करणं जायते सा जुगुप्सा। यस्योदयात् स्त्र णभावान् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेद. । यस्योदयात् पुवद्भावान् प्राप्नोति स पुवेद. । यस्योदयाच्च नपुसकत्वभावान्नधिगच्छति स नपुसकवेद । कषायाश्चानन्तानुबन्ध्यादिविकल्पात् पोडशविधा. । तद्यथा-मूलतश्चत्वारः कषाया.-क्रोधमानमायालाभाश्चेति । तेषा प्रत्येकमपि चतस्रोऽवस्थाः२८(१) अनन्तानुबन्धिन. (Error feeding), (२) अप्रत्याख्यानावरणाः (Partial vow preventing), (३) प्रत्याख्यानावरणा (Total Vow Preventing) (४) सज्वलनाश्चेति (Perfect-Right ConductPreventing) )। तद्यथाअनन्तस्यास्य जगत. कारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तसज्ञाकम् । ये च कषायास्तदनुबधिनस्ताः अनन्तानुबधिन. क्रोधमानमायालोभभेदाच्चतुर्धा । यदुदयाज्जीवः सयमाभिधा विरति न पूर्णतया कर्तुं शक्नोति, ते सकलप्रत्याख्यानमावृण्वन्तो प्रत्याख्यानावरणाः क्रोध मान-माया-लोभभेदाच्चतुर्विधाः । यदुदयाज्जीवः संयमासयमापरनाम्नी देशविरतिमल्पामपि कर्तुं न शक्नोति, जनदर्शन मात्म-व्यविवेचनम् Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताः देशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः क्रोध- मान-माया-लोभभेदाच्चतुर्विधाः । अथ च संयमेन सहावस्थानादेकीभूताः ज्वलन्ति, अथवा एषु सत्स्वपि संयमो ज्वलतीति सञ्ज्वलना, क्रोध मान-माया-लोभभेदाच्चतुविधाः । इत्थमिमे सर्वे समुदिताः षोडशविधाः कषायाः भवन्ति तथा चोपर्युक्तः नवन कषायैः सह पञ्चविशतिविधाः भवन्तीति । ५. योग. ( Vibration ) कायवाङ्मनसां प्रवृत्तिर्योगः " । आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो" वा योगः । स च कायवाङ्मनसापेक्षया त्रिविधस्तत्र वीर्यान्तरायकर्मणः क्षयोपशमे सत्यौदारिकादिसप्तविधकायवर्गणास्वन्यतमवर्गणालम्बनापेक्ष आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोग: "(Body-Vibration) प्राणातिपातादत्तादानमैथुनादिभेदैः पञ्चविधः । शरीरनामकर्मोदयात्प्राप्तानां वाग्वर्गेणानामालम्बने सति, वीर्यान्तरायमत्यक्षराधावरणानां क्षयोपशमाप्राप्ताया आभ्यन्तरवचनलब्धः सान्निध्ये सति वाक्परिणाममभिमुखस्यात्मन: प्रदेशपरिष्पन्दो वाग्योग : " ( Speech-Vibration) । स चानृतभाषणपरुषा सभ्यवचनादिभेदाच्चतुर्विधो भवति । ३२ वीर्यान्तरायाणां नोइन्द्रियावरणानाञ्च क्षयोपशमरूपाभ्यन्तरमनोलब्धिसन्निधाने सति बाह्यनिमित्तभूतानां मनोवर्गणानामालम्बने च सति मनःपर्यायाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोग. " ( Mind Vibration)। स च वध - चिन्तन-असूया - ईर्ष्यादिभेदात्मकश्चतुर्विधः । एतेषां यौगपद्यविषये उमास्वातिभिरभिहितं यत् - 'मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतुना पूर्वस्मिन्पूर्वस्मिन् सति नियतमुत्तरेषां भवतः । उत्तरोत्तरभावे तु पूर्वेषामनियमः" इति । बन्धस्य भेदाः अजीवपुद् गलद्रव्यवर्गणास्वे कैकवर्गणा कर्मरूपेण परिणमति । जीवः स्वक्षेत्रान्तरिताना कर्मवर्गणानां ग्रहणं करोति, ततश्च काषायिकत्वात्कर्म रूपेण परिणमयति, ततश्च कर्मभावपरिणतानां पुद्गलानामात्मप्रदेशैर्यः सम्बन्धो जायते, स एव बन्ध इत्युच्यते । तत्र पूर्वं पुद्गलकर्म वर्गणानामात्मप्रदेशेष्वागमनं भवति, तत एव बन्धो जायते । कर्मपुद्गलानामागमनञ्च नास्रवेण ऋते भवत्यत बंधोत्पत्तेर्मूलाधार "आस्रवः । बन्धस्ततवो मेवाश्च १७७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वादिहेतुनाञ्चाभावे कर्मपुद्गलानां न प्रवेशो भवितुमर्हति तदभावे च बन्धाभावः । अतो मिथ्यात्वादय आस्रवश्चैव बंधोत्पत्तिहेतुभूताः । बन्धानन्तरमात्मप्रदेशसम्बद्धानि कर्माणि सद्य एव फलदानि स्युर्नैतादृशः कश्चन नियमः । यतश्च बंधकालात्समारभ्य फलदानकालं यावत् सत्तारूपेणैव कर्माणि तिष्ठन्ति । अस्यामेवावस्थायां द्रव्याणामियं बन्धस्थितिः 'द्रव्यबन्ध' इत्युच्यते । अतोऽनंतर फलदानावस्थितानि कर्माणि सुखदुःखादीन्नुत्पादयन्ति । अतोऽत्र कर्मणां यदा फलदानशक्तिरुदेति संवावस्था 'भावबन्ध' इत्युच्यते । यथा खलु जन्मग्रहणकाले भावी तीर्थङ्करो द्रव्यतीर्थङ्कररूप:, तथा च सयोगकेवलिगुणस्थानं सम्प्राप्य वस्तुतस्तीर्थङ्करत्वमधिगच्छति तदा स भावतीर्थङ्कर इत्युच्यते । तथैव बद्धकर्मणा स्थितिद्रव्यबन्धः, उदयानन्तर फलदायकानां कर्मणां शक्तिर्भावबन्ध इत्युच्यते । कर्माणि द्विविधानि शुभाशुभाख्यानि । तत्र शुभकर्माणि पुण्येनाशुभकर्माणि च पापेनाप्युच्यन्ते । जीवप्रदेशः शुभाशुभकर्मणा संश्लेषापेक्षया बंधोऽपि शुभाशुभभेदेन द्विविधो भवति । इत्थमयं बन्धो मूलतो द्रव्यभावबन्धेन पुण्यपापबन्धेन चापि द्विविधो भवति । बन्धस्य चातुविध्यम् जीवः खल्वावमध्यमेन कर्मयोग्यपुद्गलान् संगृह्य कर्मरूपेण परिणमयति । कर्मणाञ्च स्वभावाः भिन्नाः सन्ति । अतोऽत्र कर्मणां स्व-स्वभावयुक्तो जीवेण सम्बन्ध' (Nature of Bondage ) " स प्रकृतिबन्ध इत्युच्यते । 1 प्रत्येकमपि प्रकृतेः कर्मनिर्धारितकालं यावदेवात्मप्रदेशैः सम्बन्धस्तिष्ठति । अर्थादात्मना गृहीता पुद्गलकर्म राशिर्यावत्कालमात्मप्रदेशेषु तिष्ठति, सा मर्यादा (Duration of bondage) 'स्थितिबन्ध'" इत्युच्यते । कर्मणः शुभाशुभफलस्य तीव्रता मन्दता वा रसपदवाच्या । उदयावस्थाया कर्मणोऽनुभवस्तीव्रो मन्दो वा कीदृशो भविष्यतीति प्रकृत्याद्यनुसारं कर्मबन्धकाले एव निर्धारितो भवति । तत्रायमनुभव एव 'अनुमावबन्ध ' ( Maturity with duration)। आत्मनोऽसंख्येयाः प्रदेशास्तत्र कैकस्मिन्नपि प्रदेशेऽनन्तानन्तकर्मवर्गणानां संग्रहः ‘प्रदेशबन्धः' । अर्थात् जीवपुद्गलयोः प्रदेशानामेक क्षेत्रावगाहनपूर्विका स्थिति: (Quantity of karmic moleculer) 'प्रदेशबन्ध" इत्युच्यते । इत्थमिमे बन्धस्य चत्वारो भेदा' । १७८ जनदर्शन आत्म द्रव्यविवेचनम् Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्परायिकानवाबत्कर्म बन्धत्वमधिगच्छति, तस्येमे चत्वारो रूपाः भवन्ति । बन्धमधिगतस्य कर्मणः कः स्वभावः ? कियती च स्थितिः ? स्वभावानुसारञ्च । न्यूनमधिकं वा कियत्काल कार्यक्षम तिष्ठति ? अथ चात्मना कियत्प्रमाणेन बन्धमाप्नोति ? एषां चतुर्णामपि पूर्वापरयोः योगकषायो निमित्तभूतौ । अतो यत्र योगकषाययोरभावस्तत्र कर्मबन्धस्याप्यभावः। कषायस्तु दशम गुणस्थानं यावदेव प्राप्यते, एकादशतमे गुणस्थाने न कषायात्मको जीवपरिणामः, द्वादशतमे च गुणस्थानेऽस्योच्छेदोऽत: जीवस्य स्थित्यनुभागबन्धौ दशमगुणस्थानं यावदेव भवतः । किन्त्वेकादशद्वादशत्रयोदशतमेषु गुणस्थानेषु कषायाभावेऽपि सवेद्यस्य प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धश्च जायते । किञ्च, यद्येषु गुणस्थानेषु स्थिति विनैव सद्वेद्यस्य बन्धस्तत्कथं तस्यात्मन्यवस्थानम् ? अथ चानुभागबन्धं विनवतस्य सद्वेद्यरूपो विपाकोऽपि कथं भविष्यति ? इति शङ्कनमनुचित, यतो ह्यषु गुणस्थानेषु कर्मणां गमनागमनमीर्यापथास्रवमाध्यमेनैव सम्पद्यते, न तेषां कर्मणां तत्रैकाधिकसमयं यावदवस्थानं, अतएवात्र स्थितिबन्धस्य निषेधस्तया च कषायनिमित्तकस्यानुभागबन्धस्यात्रानन्तगुणहीनात्मकत्वादेतस्याप्यभावः । कषायस्तावदशमगुणस्थानं यावदेव तिष्ठत्यतएव स्थित्यनुभागबन्धावपि दशमगुणस्थानं यावद्भवतः। योगस्तु त्रयोदशतमगुणस्थानं यावद्भवत्यतः प्रकृति-प्रदेशबन्धावपि त्रयोदशगुणस्थानं यावद्भवतः । अयोगकेवलिगुणस्थाने तु योगस्याप्यभावान्न तत्र कश्चनापिविधो बन्धो भवति । चतुर्विधबन्धस्यान्ये प्रमुखाः भेदाः बन्धस्य प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशाश्चत्वारः प्रमुखाः भेदास्तत्र प्रत्येकमप्युत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट-जघन्य-अजधन्यात्मकश्चतुर्विधो" भवति । अत्रापि च प्रत्येक सादि-अनादि-ध्र व-अध्र वभेदात्मकश्चातुर्विध्यं भजते । अत्र निरन्तरं यद्बध्यते, स ध्र वो बन्धः, यश्च सान्तरं बध्यते, सोऽध्र वो बन्धः । तत्र मिथ्यादर्शन-सासादनावोऽर्वगुणस्थानवतिषु गुणस्थानप्रतिपन्नेषु जीवेषु, येषां कर्मणामुत्कृष्ट: स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धस्तेषामेव कर्मणामनुत्कृष्टोऽपि स्थित्यनुभागबन्धस्तत्र भवति । स च साधनादिभेदेन चतुर्विधो बन्धस्तषेतवो मेराश्च १७९ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति । एवमेवोर्ध्वगुणस्थानवतिषु जीवेषु येषां कर्मणां जघन्यः स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धस्तेषामजघन्योऽपि बन्धस्तथैव" चातुर्विध्येन तिष्ठति । उपशमश्रेण्यारोहक: सूक्ष्मसाम्पराय (दशम) गुणस्थानवी जीव उत्कृष्टोच्चर्गोत्रस्यानुभागबंधानन्तरमुपशातकषाय(एकादश)गुणस्थानवर्ती जातः, पुनश्च ततोऽवरुह्य सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने समागतः, अतोऽत्रानुत्कृष्टोच्चैर्गोत्रस्यानुभागबन्धः, एतदेवास्य सादिबन्धत्वम् । यतोह्यत्रास्य बंधस्य पूर्वमभाव एवासीत्, ततश्चोत्पत्तिः सजाता । सूक्ष्मसाम्परायादध स्थानां त्वयं बन्धोऽनादिविद्यते । अथ चाभव्यानामयमेव बन्धो ध्र व., उपशमश्रेणिनाञ्चानुत्कृष्टबन्धातिरिक्तमुत्कृष्टो यो बन्ध. सोऽध्र वबन्ध इत्युच्यते । यथा कश्चन मिथ्यादृष्टिर्जीव. सप्तमनरकपृथिव्या प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखस्तत्र मिथ्यादृष्टि (प्रथम)गुणस्थानस्यान्तकाले जघन्यनीचैर्गोत्रस्यानुभागबधानन्तरं सम्यग्दृष्टिः सन्नप्यनन्तर पुनः मिथ्यात्वोदयान्मिथ्यादृष्टिर्जायते । तत्राजघन्यनीचर्गोत्रस्यानुभागो बध्यते। अत्रायमजघन्यनीचर्गोत्रस्यानुभागबन्ध. सादिबन्धः । तस्यैव मिथ्यादृष्टेर्जीवस्य तदेतत्समयात्प्रागेव यो बन्धः सोऽनादिरिति । इमे उत्कृष्टानुत्कृष्टादिभेदा' प्रकृतिबन्धादन्येषु विष्वेव भवन्ति । प्रकृतिबन्धस्य भेदाः (Nature of Karmic Matter) ज्ञानावरणादिकर्मप्रकृतिषु ज्ञानदर्शनादिविघातको य स्वभाव स एव प्रकृतिबन्ध इत्युच्यते । सोऽय प्रकृतिबन्धो" द्विविध -मूलप्रकृतिबन्ध , उत्तरप्रकृतिबन्धश्चेति । तत्र मूलप्रकृतिबन्धोऽष्टविधस्तथाहि"- (१) ज्ञानावरणम् (Knowledge obscuring), (२) दर्शनावरणम् (Conation Obscuring), (३) वेदनीयः (Feeling), (४) मोहनीयः (Deluding), (५) आयुः (Age), (६) नाम (Body-Making), (७) गोत्रम् (Family Determining), (८) अन्तरायश्चेति" (Obstructive)। अत्र ज्ञानमावियतेऽनेन, आवणोति वा यत्तद् ज्ञानावरणम् । दर्शनमावियतेऽनेन, दर्शनमावृणोति वा यत्तदर्शनावरणम् । वेदयति, वेद्यते इति वा वेदनीयम् । मुह्यतेऽनेन मोहयति वेति मोहनीयम् । येन नारकादिभवमेतीत्यायुः । नम्यतेऽनेन, नमयति वात्मानमिति नाम । येनात्मोच्चैर्नीचर्वागूयते-शब्द्यते इति गोत्रम् । दातुर्देयादीना वा मध्येऽन्तर वैतीति अन्तरायः । यथा च सकृदुप१८० जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तस्यान्नस्य रस-रुधिरादिरूपेणानेकविध परिणमनं तथैवैकेनात्मपरिणामेन सकृद् गृहीताः कर्मपुद्गलाः ज्ञानावरणाद्यनेकभेदान् प्राप्नुवन्ति । उपरिलिखितस्य मूलप्रकृतिबन्धस्याष्टानामेव भेदानां येऽवान्तरभेदाः उत्तरभेदाः वा भवन्ति, त एवोत्तरप्रकृतिबन्धेनोच्यन्ते । ते च यथा--ज्ञानावरणस्य पञ्चभेदाः, दर्शनावरणस्य नवभेदाः, वेदनीयस्य द्वौ भेदौ मोहनीयस्याष्टाविशतिभेदाः, आयुषश्चत्वारो भेदाः, नाम्नो द्विचत्वारिंशभेदाः, गोत्रस्य द्वी भेदौ, अन्तरायस्य पञ्चभेदाश्चेति । ज्ञानावरणभेदाः (Knowledge obscuring) येन वस्तुनो विशेषधर्माणा ज्ञानं भवति, तज्ज्ञानमिति । तच्च येन कर्मणावियते, तज्ज्ञानावरणीय कर्मेति । यथा चक्षुषो वस्त्रेणावृते सति चक्षुर्ज्ञानमावियते, तथैव ज्ञानावरणीयकर्मप्रमावादात्मन पदार्थज्ञानमावियते" । ज्ञानावरणकर्मण उत्तरप्रकृतयश्च पञ्चविधास्तथाहि(क) मतिज्ञानावरणीयकर्म-इन्द्रियैर्मनसश्चोत्पद्यमानमाभिनिबोधिकाख्यं ___मतिज्ञान यत्कर्मावृणोति तन्मतिज्ञानावरणीयं कर्मेत्युच्यते । (ख) श्रतज्ञानावरणीयकर्म-शब्दार्थयो पर्यालोचनजन्यं श्रुतज्ञानं यदावृणोति तन् श्रुतज्ञानावरणीयकर्मेति । (ग) अवधिज्ञानावरणीयकर्म-इन्द्रियमनसा साहाय्यं विनव, रूपिपदार्थानां मर्यादित प्रत्यक्षज्ञानमवधिज्ञान यदावणोति, तदवधिज्ञानावरणीयं कर्म । (घ) मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्म-इन्द्रियमनसामसाहाय्येन संज्ञिजीवानां ___ मनोगताना भावाना ज्ञायक मन.पर्ययज्ञानमावृणोति यत्कर्म तन्मन: पर्ययज्ञानावरणीयकर्म। (ङ) केवलज्ञानावरणीयकर्म-सर्वद्रव्यपर्यायाणा योगपद्येन प्रत्यक्ष ज्ञानं केवलज्ञान यत्कर्मावृणोति, तत् केवलज्ञानावरणीयकर्मेति । अत्र मतिज्ञानवरणीयादीनि चत्वारि देशघातिकर्माणि, केवलज्ञानावरणीय तु देशघाति-सर्वधातिभेदेन द्विविधम् । asiaraconturatei (Conation Obscuring) पदार्थानामाकाराद्व्यतिरिक्ताना विशेषाणामग्रहणपूर्वकं केवलं सामान्यस्य बन्धस्तषेतको भेवाश्च १८१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहणं दर्शनम्, तदावरणभूतं यत्कर्म तद्दर्शनावरणीयमिति । अस्योत्तरप्रकृतयो नवविधास्तथाहि - (क) चक्षुर्वर्शनावरणीयकर्म-चक्षुषा जायमानो सामान्योऽवबोधश्चक्ष - दर्शनम् । तदावियते येन तच्चक्ष दर्शनावरणीयम् । (ख) प्रदर्शनावरणीयकर्म-चक्ष :यतिरिक्तेन्द्रियमनसोत्पद्यमानमचक्ष - दर्शनम् । तदावरणभूतमचक्ष दर्शनावरणीयमिति । (ग) प्रवषिवर्शनावरणीयकर्म-इन्द्रियमनसा साहाय्येनोत्पद्यमानमवधि दर्शनम् रूपिद्रव्याणां सामान्योऽवबोधः । तदावरणभूतमवधिदर्शना वरणीयकर्म। (घ) केवलवर्शनावरणीयकर्म-सर्वद्रव्यपर्यायाणां युगपत्साक्षात्सामान्योऽ वबोधः केवलदर्शनमिति । तदावरणभूतं केवलदर्शनावरणीयं कर्म । (ड) निद्रा-मद-खेद-क्लेदादीन्नपनेतुं स्वापो निद्रा। येन सुखपूर्वकं जागरणं सम्पद्यते तन्निद्रादर्शनावरणीयं कर्म । (च) निद्रानिद्रा-निद्राया उत्तरोत्तरप्रवृत्तिः निद्रानिद्रा । येन कर्मणा सुप्तो जीवः काठिन्येन निद्रामुक्तो भवितु शक्नोति, तन्निद्रा-दर्शनावरणीय कर्म । (छ) प्रचला-शोक-श्रम-भयादिकारणरुत्पन्ना, आसीनस्यापि प्राणिनो नेत्र गात्र-विक्रियायाः सूचिका या क्रियात्मानं प्रचालयति सा प्रचला। येन कर्मणा उत्तिष्ठन्, उपतिष्ठन् वा निद्रायुक्तो भवति, तत् प्रचलादर्शना वरणीयं कर्म। (ज) प्रचला-प्रचला-प्रचलायाः पुन पुनरावृत्तिः प्रचलाप्रचला। येन कर्मणा गच्छन्नपि निद्रितो भवति तत् प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयं कर्म । (स) स्त्यानगृतिः-स्त्याने स्वप्नेऽपि गृद्ध्यति दीप्यते, अर्थात् यस्याः निमित्तेन स्वप्नेऽपि वीर्यविशेषस्याविर्भावः स स्त्यानगृद्धिः । येन कर्मणा स्वपन्नपि जीवः कार्यसंलग्नस्तिष्ठतु, तत् स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मेति । तत्त्वार्थसूत्रस्य श्वेताम्बरीयपाठे भाष्ये च निद्रादिकान्ते वेदनीयशब्द प्रयुक्तम्, दिगम्बरपाठे चैतन्न विद्यते । सर्वार्थसिद्धौ च प्रत्येकमपि दर्शनावरणीयकर्मणः संयोगस्य निर्देशः कृतः । १५२ जैनदर्शन आत्म-प्रध्यविवेचनम् Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलविहीनता (पितृपक्षीयकुलवं शिष्ट्याभावः ) बलविहीनता रूपविहीनता तपोविहीनता श्रुतविहीनता लाभविहीनता ऐश्वर्यविहीनता पितृपक्षीयकुलवैशिष्ट्यम् कुलम् २ कुलम् ३ बलम् ४ रूप: ५. तपः बलविषयकं वैशिष्ट्यम् रूपविषयकं वैशिष्ट्यम् तपविषयकं वैशिष्ट्यम् श्रुतविषयक शिष्ट्य म् लाभविषयकं वैशिष्ट्यम् ६ श्रुतम् ७ लाभ: ८ एैश्वर्यम् ऐश्वर्यविषयकं वैशिष्ट्यम् ऐश्वर्यम् बलम् रूपः तपः श्रुतम् लाभः एतेनेदं सुस्पष्टं परिज्ञायते, यदुव्यक्तित्वविषयकं यद्वैशिष्ट्य मवंशिष्ट्यं तद्गोत्रनिमित्तकमेव भवति । अन्तरायभेदाः (Obstructive ) अन्तरायो व्याघात । यत्कर्म क्रियालब्धि-भोगबल फाटनेषु अवरोधकस्सोऽन्तराय' इत्युच्यते । अस्यान्तरायकर्मणः पञ्चभेदाः – दानान्तरायः, लाभान्तरायः, भोगान्तरायः, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तरायश्चेति । ते च यथा(क) दानान्तरायः - दानकर्मणि यद्विघ्नकारी तद्दानान्तराय इति । अर्थात् एतदुदयाद्दातुकामोऽपि न दानकर्मणि प्रभवति । 1 (ख) लाभान्तरायः -- यस्योदये सति शब्द- गन्ध-रस-स्पर्शादीनां ज्ञान-दर्शनचारित्र-तपसादीना वा लब्धुकामोऽपि न तांल्लभते, तल्लाभान्तराय इति । (ग) भोगान्तरायः - यत्कर्मवशात् भोग्यपदार्थानामुपस्थितेऽपि न तान् भोक्तु शक्नोति तद् भोगान्तराय. । (घ) उपभोगान्तरायः - वस्तुनः पुनः पुनर्भोग : उपभोग, उपभोग्याश्च वस्त्राणि, गृहाणि, इत्यादीनि । एतेषां कर्मोपभोग्याना सत्त्वेपि तदुपभोग यद् व्याघातयति, तद्भोगान्तराय इति । (ङ) वीर्यान्तरायः - वीर्यं - शक्तिविशेषः २, काय वाङ्मनसां व्यापाराः वीर्यादेव" सम्भवन्ति । ससारिणि च जीवेऽनन्तवीर्य तिष्ठति । यच्च कर्मात्मनो वीर्यावरोधकं तद्वीर्यान्तरायः । निर्बलत्वमेतस्यैव फलभूतम् । I वीर्यञ्च त्रिविधम्- (१) बालवीर्यम्, (२) पण्डितवीर्यम्, (३) बाल - पण्डित - वीर्यञ्चेति । वीर्यान्तरायकर्मेतेषां त्रिविधानामेवावरोधकं" भवतीति । areergarat भेदाश्च १८६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ feafacerea ter: (Duration of the attachment of Karmic Matter) आत्मना गृहीतानां कर्मपुद्गलानां राशिर्यवत्कालमात्मप्रदेश: सम्बद्धा तिष्ठति, तावत्कालस्थितिरेव स्थितिबन्धत्वेनाभिधीयते । सेयं स्थितिद्विविधा " - उत्कृष्टस्थितिः, जघन्यस्थितिश्चेति । यद्यपि कर्मणां स्थितिः, बन्धेन संक्रमणेन, सत्त्वेन च त्रिधा भवति, परमत्र बन्धापेक्षयैवोत्कृष्टजघन्यरूपं द्वैविध्यं निर्दिष्टम् । अतोऽत्राष्टविधेषु कर्मसु चतुर्णा ज्ञान-दर्शनावरण- वेदनीयान्तरायकर्मणामुत्कृष्टा स्थितिस्त्रिशत्कोट्यकोटिसागरोपमा समानमाना भवति । मिथ्यादृष्टेः संज्ञिनः पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकस्य जीवस्य मोहनीयकर्मणः परा स्थितिः सप्तति (७०) सागरकोटी कोट्यात्मिकावसेया । नामगोत्रयोः कर्मणोः ( उपरिलिखितस्य जीवस्य) विंशतिसागरोपमकोटी कोट्य उत्कृष्टा स्थितिः । आयुषश्च कर्मण उत्कृष्टा स्थितिस्त्रयस्त्रिशतकोटी कोट्यः सागरोपमा भवति । सर्वेषा - मपि कर्मणामयमुत्कृष्टा स्थिति. मिध्यादृष्टि-सज्ञि - पञ्चेन्द्रियं जीवमुद्दिश्य निर्दिष्टा । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने ज्ञान - दर्शनावरणान्तरायाणां अनिवृत्तिबादरसाम्परायगुणस्थाने च मोहनीयस्य, सख्येयवर्षायुष्केषु तिर्यक्ष मनुष्येषु चायुषो जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्ता, वेदनीयस्य तु द्वादश मुहूर्ता, नामगोत्रयोश्चाष्टीमुहूर्त्ता जघन्या स्थितिर्भवतीति । अनुभावबंधमेदाः (The Fruition being Strong or Mild) बन्धकालेऽध्यवसायस्य तीव्रमन्दभावानुसारमेव कर्मषु तीव्रमंदफलदानशक्तिरुत्पद्यते । विविधफलदानशक्तिरेवानुभवपदवाच्या । बद्धकर्मणामुदयस्यावश्यम्भावित्वात्तेषामुदयात् फलदानानन्तरं कर्माण्यकर्मरूपाणि सम्भूयात्मप्रदेशेभ्योऽपसरन्ति । यावन्न फलदानकालः समायाति तावद्बद्धैः कर्मभिर्न सुखदुःखयोरनुभूतिर्भवति । बद्धकर्मणा शुभाशुभत्वात्तद्विपाकोऽपि शुभाशभात्मको भवति । तीव्र मन्दात्मकत्वाच्च तीव्र-मन्दो विपाक । F जीवाना शुभपरिणामप्रकर्षात् शुभप्रकृतीना प्रकृष्टोऽनुभवो, अशुभप्रकृतीनाञ्चानिकृष्टोऽनुभवः । अशुभपरिणामानां प्रकर्षभावात् अशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः, शुभप्रकृतीनाञ्च निकृष्टोऽनुभवो जायते । सोऽयमनुभव एव निमित्तवशात् स्वमुखेन परमुखेन च द्विधा" प्रवर्त्तते । अत्र सर्वासामपि मूलप्रकृतीनामनुभवो यद्यपि स्वमुखेनैव प्रवर्तते, परं तुल्यजातीयानामुत्तरप्रकृतीनामायुदंगंनचारित्रमोहातिरिक्तानामनुभवः परमुखेनापि " जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् १०० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तते । अत्र दमवसेयम् यन्नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुषः, मनुष्यायुषो वा विपाकस्तथा च चारित्रमोहरूपेण दर्शनमोहस्य, चारित्रमोहस्य च दर्शनरूपेण वा विपाको न" भवति । अनुभवोऽनुभागः, फलदानशक्तिर्वेति नामान्तराणि । अयमनुभागो बन्धकाले यथा प्राप्यते, नैकान्ततः स तादृश एव व्यवतिष्ठते, यतो हि स स्वावस्थानकाले कदाचित्परिणमति, कदाचिच्च न परिणमति । किन्तु यदायं परिणमति तदास्य तिस्रोऽवस्थास्तद्यथा-संक्रमणम्, उत्कर्षणम्, अपकर्षणञ्चेति । तत्र संक्रमणमवान्तरप्रकृतिष्वेव जायते, न तु मूलप्रकृतिषु । अवान्तरप्रकृतिषु चायुष्कर्मणः, दर्शनचारित्रमोहनीययोः सम्यग्मिथ्यात्व वेदनीयस्य च न संक्रमणं भवति । तदेतत् संक्रमणमपि चतुर्विधम्- प्रकृतिसंक्रमणम्, स्थितिसंक्रमणम्, अनुभागसक्रमणम्, प्रदेशसंक्रमणञ्चेति । तद्यथा- पत्र प्रकृतिसंक्रमणं प्रदेशसंक्रमणं वा प्रमुखं तत्र तु संक्रमणेनैव शब्दयते, किन्तु यत्र स्थितिसंक्रमणमात्रं, अनुभागसंक्रमण मात्र वा, तत्र तत्क्रमशरुत्कर्षापकर्षणेनोच्यते । बन्धकले तु या स्थितिः, अनुभागश्च प्राप्यते, तस्मिन् हासोऽपकर्षणम्, तथा च क्षीणस्थिती, क्षीणेऽनुभागे वा वृद्धिरुत्कर्षणमित्युच्यते । एवं विविधावस्थासु परिणममाने उदयकाले योऽनुभागो विद्यते स एव परिपच्यते । तद्यथा - अनुदयावस्थायां सम्प्राप्तानां प्रकृतीनां परिपाक उदयावाया सम्प्राप्तप्रकृतिरूपो भवति । यतो हि, उदितानां प्रकृतीनां फलं स्वमुखेनानुदितानाञ्च प्रकृतीनां फलं परमुखेनैव प्राप्यते । घात्यघातिभेदाभ्यां तु अनुभागस्य द्वैविध्यम् । तत्र घातिप्रकृतीनामनुभागो लता-दारु-अस्थि-शैलभेदात्मकश्चतुर्विधः । अघातिप्रकृतीनाञ्च पुण्यपापभेदाभ्या द्विविधो भवति । तत्र पुण्यप्रकृतीनामनुभागः गुड़-खण्ड-शर्कराअमृतरूपेषु चतुर्षु भागेषु विभक्तः, अथ च पापप्रकृतीनामपि निम्ब-काञ्जीरविष - हलाहलरूपेण चतुःप्रकारकोऽनुभागो भवति । प्रदेशबन्ध मेदाः (The number of karma Varganas ) कमंप्रकृतीनां कारणभूतानामेक क्षेत्रावगाहस्थितानामनन्तानां सूक्ष्मपुद्गलपरमाणूनां योगविशेषनिमित्तादात्मनः सर्वेष्वपि प्रदेशेषु यो बन्धो जायते, स प्रदेशबन्ध इति । अर्थात् येषा पुद्गलपरमाणूनां संसारावस्थाया जीवेन सर्वदैव ग्रहणं, तद्ग्रहणकारणञ्च योगः । अत्रात्मक्षेत्रस्थितानामेव सूक्ष्मपरमाणूनां equate १६१ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण भवति नान्यत्र स्थिताना, तथापि स्थितानामेव, न तु गतिशीलानाम् । अथ च गृहीता अनन्तानन्तकर्म परमाणव आत्मन सर्वेष्वपि प्रदेशेषु तिष्ठन्ति, एतदेवास्य प्रदेशबन्ध इति । मिथ्यादर्शनादीनां विनाशक्रमः बन्धहेतूनां निरोधः गतिस्वभावात्मकस्य जीवस्य काय वाङ्मनः परिस्पन्देन येषा कर्मणामागमनं जायते, तेषा द्रव्य भावात्मको बन्ध आत्मनि सम्पद्यते । तद्बन्धस्य च कारणानि मिथ्यादर्शनादीनि प्रसादकषाययोगाश्चेति पूर्वोक्तानि । एतेषा कर्मणां यावदागमनद्वाराणि नावरुन्धन्ति, तावत्तेषा सततमागमन भवत्येव, यावच्च तेषामागमनं तावद्बन्धोऽपि निरन्तर भवत्येव । बन्धस्य चतस्य नैरन्तर्यात् जन्ममरणादीनामपि चक्र सतत प्रचलिष्यत्येव । चक्रेणानेनात्मा सांसारिकत्व - मेवोपलभन् न कदापि स्वविशुद्धस्वरूपमधिगन्तु प्रभवति । स्वभावतस्त्वात्मातिविशुद्ध. निर्मलश्च, अतस्तत्स्वरूपाधिग्रहणार्थ, जन्ममरणपूर्वकससारचक्रान्मुक्त्यर्थ आत्मना यदि प्रयत्नानि विधीयन्ते तत्तस्य स्वाभाविकमेवोद्देश्यमित्यपि पूर्वमेव सुस्पष्टम् । अतोऽत्र मुमुक्ष ना यैमिथ्यादर्शनादिभिर्बन्धोऽधिगतस्तेषा विनाशाय तद्विनाशक हेतूनामाश्रयणमावश्यकम् । मिथ्यादर्शनादिभि बन्धहेतुत्वादास्रवद्वारिभिर्य आस्रवो जायते, तन्निरोधादेवागमनमवरुध्यते । तदेवोक्त वाचकमुख्यै- 'आस्रवनिरोध. संवरः " | अर्थात् कर्मागमननिमित्ताना काय वाङ्मनः प्रयोगानामनुत्पन्नत्वमेवास्रवनिरोध इत्युच्यते " । एवमात्रवनिरोधे च सति तत्पूर्वकानेकसुखदुःखबीजभूताना कर्मणामग्रहणमेव 'संवर. " इति । मिथ्यादर्शनाद्यास्रवप्रत्ययनिरोधादागामिकर्मणा निरोधात्मकोऽयं संवरः द्रव्यभावभेदात् द्विविधस्तत्र द्रव्यादिनिमित्ताद्भवान्तरप्राप्तिः ससार । तत्र निमित्तभूताना क्रियापरिणामाना निवृत्ति 'र्भावसवर. "", तथा च भावबन्धनिरोधात्तत्पूर्व कागतकर्मपुद्गलानां निरोधो 'द्रव्यसवर. ५ इत्युच्यते । १९५ बन्धहेतूनां विनाशक्रमः अस्मात्सवरात् मिथ्यादर्शनादीनां यदावरोधो जातस्तदा कर्मणामपि अवरोधो जायते । कर्माभावे चात्मनो सांसारिकत्वस्यापि क्रमशो ह्रासः प्रारभते । यदा १६२ जनवर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चात्मा क्रमेणतेषां हेतूनां सर्वथा क्षयमुपलभते, स शुद्धो निर्मल: सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रयुक्त. सन् केवलत्वं भजते । चतुर्दशगुणस्थानानि आत्मनोऽयं विकासक्रमो यथा प्रचलति, तस्यका विशिष्टा श्रेणिरस्मिन् दर्शने स्वीकृता विद्यते, या नान्यस्मिन् कश्मिश्चिदपि दर्शने समवलोक्यते । सेयं सरणिश्चतुर्दशगुणस्थानरूपक्रमयुक्ता, यत्र मिथ्यादर्शनादीना क्रमशो विनाशः कथं जायते ? कस्य स्थानिकस्य जीवस्यायं विनाशः कियत्परिमाणे वा जायते ? इत्यादिकस्य सुस्पष्टं विवरणं विद्यते । तानि च चतुर्दशगुणस्थानानि निम्नाङ्कितानि (१) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् (Delusion-Stage)। (२) सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् (Dawn fall-Stage) । (३) सम्यमिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् (Mixed-Stage)। (४) असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् (Vowless-Right-Belief Stage)। (५) संयतासंयतगुणस्थानम् (Partial-Vow-Stage)। (६) प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् (Imperfect-Vow-Stage)। (७) अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् (Perfect-Vow-Stage)। (८) अपूर्वकरण (उपशमकक्षपक) गुणस्थानम् (Newthought Activity-Stage)। (९) अनिवृत्तिकरण (बादरोपशमकक्षपक) गुणस्थानम् (Advanced thought-Activity-Stage) i (१०) सूक्ष्मसाम्पराय(उपशमकक्षपक)गुणस्थानम् (Slightest-Delu sion-Stage)। (११) उपशान्तकषाय(वीतरागछद्मस्थ)गुणस्थानम् (Subsided Delusion-Stage)। (१२) क्षीणकषाय (वीतरागछद्मस्थ) गुणस्थानम् (Delusionless Stage)। मिथ्यावर्शनादीनां विनाशकमः १९३ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) सयोगिकेवलिगुणस्थानम् (Vibrating Omniciant Cong ueror Stage)। (१४) अयोगिकेवलिगुणस्थानञ्चेति (Non-Vibrating Omniciant Conqueror Stage)। एषु चतुर्दशष्वपि गुणस्थानेषु प्रथमतः समारभ्य क्रमशस्तत्तद्गुणस्थानमधिगतो जीवोन्ते सिद्धत्वमुपगच्छति" । अर्थात् प्रथमे मिथ्यात्वे गुणस्थाने जीवस्योदयिको भावः, द्वितीये पारिणामिकस्तृतीये च क्षायौपशमिकश्चतुर्थे च त्रय एव भावाः भवन्ति । तथा च पञ्चमे, षष्ठे, सप्तमे गुणस्थाने औपशमिकक्षायिकश्च भावी सम्पद्यते । ततश्च सर्वेष्वपि उपशमकक्षपकेषु गुणस्थानेषु क्षायिकोपशमिकप्रभावः । किञ्च, क्षायिको भावस्तु केवलमयोगिजिने एवं सम्पद्यते, यश्च सिद्धेत्यपरनाम्नाप्युच्यते । तत्र कस्मिन् गुणस्थाने कियतां बन्धहेतूनामभाष इत्यर्थमत्रचतुर्दशानामपि गुणस्थानां क्रमशो विवेचन क्रियते । f. fazaraficzy wreAA, (Delusion-Stage) गुणा: ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषास्तेषां स्थानं शुद्धयशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षकृत स्वरूपभेद.। तिष्ठन्ति गुणा. यस्मिन्निति स्थानम्, गुणानां स्थानं गुणस्थानम् । तत्र मिथ्या-विपर्यस्ता, दृष्टिरहतप्रणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स. मिथ्याष्टिस्तस्य यद्गुणस्थान तन्मिथ्याष्टिगुणस्थानमिति । अर्थाद्यस्य मिथ्यादर्शनोदयः, सः मिथ्यादृष्टिरस्ति" | मिथ्यादर्शनोदयाच्च तत्त्वेष्वश्रद्धानमुत्पद्यते। एतादृशस्य जीवस्य ज्ञानावरणक्षयोपशमादुत्पद्यमानानि श्रीण्येव ज्ञानानि मिथ्यात्वयुक्तानि भवन्ति । अत्र स्थितस्य जीवस्य मिथ्यात्वोदयात् या विपरीतदर्शनात्मिका बुद्धिर्जायते, तया यथा ज्वरिताय मधुरो रसो न रोचते, तथैवायमपि धर्मेषु नाभिलषति । नापि केनचिदप्युपदिष्टे वचने श्रद्दधाति, अपितु वस्तुनोऽसद्भाव तथाचानुपदिष्टे" वचने एव शृद्दधाति । सामान्यतश्चायं हिताहितपरीक्षाविरहितः, परीक्षकश्चेति भेदेन द्विविधो भवति । तत्र संज्ञिपर्याप्तकव्यतिरिक्ता एकेन्द्रियादय. सर्वेऽपि जीवाः हिताहितपरीक्षाविरहिता., संज्ञिपर्याप्तकाश्चोभयविधाः अपि भवन्ति । अत्र ज्ञानादिगुणा. कथं विपर्यस्ताया दृष्टौ सम्पद्यन्ते, इति नोचितं शङ्कनम्, जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतोहियथापि प्रबलमिथ्यात्वमोहनीयोदयात् जीवाजीबादिप्रतिपत्तिरूपादृष्टि: प्राणिषु विपर्यस्ता जायते, तथापि काचिन्मनुष्याश्वादिप्रतिपत्तिस्त्वविपर्यस्तैव भवति। तस्मात् निगोदावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता भवति, अन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गः सम्पद्येत । अर्थात्प्रबलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचिदविपर्यस्तापि दृष्टिर्भवति, ययापेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसम्भवः । २ सासादनसम्यादृष्टिगुणस्थानम् (Down-Fall-Stage) अत्रेदमौपशमिकसम्यक्त्वलाभलक्षणः, सादयत्यपनयतीति सासादनमनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् । आसादनेन सह वर्तते इति सासादन । सम्यगविपर्यस्ता दृष्टि:--वस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः । सासादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेति सासादनसम्यग्दृष्टि. अत्र सास्वादनसम्यग्दृष्टिरित्यपि पाठो विद्यते । तदपेक्षया स्वीपशमिकसम्यक्त्वलक्षणेन रसास्वादनेन सह वर्तते इति सास्वादनस्तथाहिभुक्तक्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तः कश्चन पुरुषस्तदमनकाले क्षीरान्नरसमास्वादयति, तथैव मिथ्यात्वाभिमुखेन सम्यक्त्वे व्यलीकचित्तो जीव सम्यक्त्वमुद्वमन् तद्रसमास्वादयति । सास्वादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेति सास्वादनसम्यग्दृष्टिस्तद् गुणस्थानं सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमित्युच्यते ।" मिथ्यादर्शनोदयाभावे सत्यपि यस्यात्मानन्तानुबन्धेरुदयात्कालुष्यमधिगच्छति स सासादनसम्यग्दृष्टिर्भवति । अनादिमिथ्यादृष्टे व्यस्य मोहनीयषड्विशतिप्रकृतीनां, सादिमिथ्यादृष्टेश्च षड्विंशतिप्रकृतीनां, सप्तविंशतिप्रकृतीनामष्टाविशतिप्रकृतीनां वा सत्ता तिष्ठति । एते च यदा प्रथमसम्यक्त्वग्रहणोन्मुखास्तिष्ठन्ति, तदानवरतमनन्तगुणविशुद्धि वर्धयन्तः शुभपरिणामसंयुक्ता जायन्ते । ततश्च चतुश्चतुर्विधेषु वाङ्मनोयोगेष्वेकैकेन योगेनौदारिकर्व क्रियिकयोश्चकतरेण काययोगेन युक्ता. भवन्ति । एक कश्चन कषायोऽपि हीनाविको जायते, तथा च त्रिष्वपि वेदेषु केनचिदेकेन साकारोपयोगेन सहितः, संक्लेशरहितः, प्रवर्धमानः शुभपरिणामः कर्मप्रकृति स्थितिञ्च क्षयमाणोऽशुभकर्मप्रकृतीनामनुभागञ्च विदारयन्, शुभप्रकृत्यनुभागरसञ्च वर्द्धयन करणत्रयं" प्रारभते। अन्ते च सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-सम्यमिथ्यात्वादीनामनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभानामुदयाभावेऽन्तमुहूर्त यावत्प्रथमोपशमसम्यक्त्वं भवति । तस्मिन्काले चात्यधिक षडावलिं यावन्न्यूनतमञ्चकसमयकमिदमवशिष्यते । मियावर्शनादीनां विनाशक: Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदा च यदि अनन्तानुबन्धि-क्रोध-मान-माया-लोभेषु कश्चिदुदयमधिगच्छति, तदा स मासादन इत्युच्यते। अत्र मिथ्यादर्शनोदयाभावेऽपि मतिश्रुतावधिज्ञानान्यज्ञानाख्यान्यस्य भवन्ति । कषायश्चानन्तमिथ्यादर्शनानुबन्धित्वादनन्तानुबन्धीत्युच्यते। एवमत्र परमानन्दरूपानन्तसुखफलप्रदो मोक्षबीजभूतः, औपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः एकसमयेन, उत्कृष्टत षडावलिकाभिरवगच्छति, स एव सास्वादनगुणस्थानकाल इत्युच्यते । ३. सम्यमिथ्यावृष्टिगुणस्थानम् (Mixed-Stage) सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासो सम्यमिथ्यादृष्टिस्तस्य गुणस्थानं सम्यङ्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । अत्र सम्यङ्-मिथ्यात्वोदयान्न तु केवलं मिथ्यादर्शनं, नापि केवल सम्यङ्दर्शनमपितूभयोमिश्रित एव भावो" जायते । अर्थात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रवोपभोगाद्यथेषत्कलुषितः मदपरिणामो जायते, तद्वदेव सम्यमिथ्यात्वप्रकृतेरुदयात्तत्त्वार्थश्रद्धानरूपोऽश्रद्धानरूपश्च मिश्रित एव परिणामो जायते । अर्द्धविशुद्धदर्शनमोहनीयपुञ्जोदयादर्धविशुद्ध तत्त्वश्रद्धानं भवति । यतो ह्यस्य त्रीण्यपि ज्ञानान्यज्ञानमिथितानि भवन्ति । तदेतत् अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सम्यमिथ्याष्टिगुणस्थानमुच्यते । अन्तर्मुहू दूध्वं तु नियमत. सम्यक्त्वं, मिथ्यात्व वैवाधिगच्छतीति । ४ असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम, (Vowless-Right-Belief-Stage) हिसानतादिभ्य. पापेभ्यो विरमणं विरतिस्तदेव विरतम्, तत्पुन सावद्ययोगप्रत्याख्यानम्, तदेतन्न तु जानाति, नाभ्युपगच्छति, नापि तत्पालनाय यतते, इत्येषा त्रयाणा पदानामष्टौ भेदाः जायन्ते । तत्र प्रथमेषु चतुर्विधेषु भेदेषु अज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टित्वम्, शेषेषु त्रिषु च ज्ञानित्वात्सम्यग्दृष्टित्वमुपपद्यते। सप्तभेदेषु नास्य विरतत्वमस्तीति-अविरतः, चरमे तु भेदे विरतिरस्त्येव । अतः विरमति स्म, सावद्ययोगेभ्यो निवर्तते स्मेति विरत', न विरतोऽविरतः, स चासो सम्यग्दृष्टिश्चेत्यविरतसम्यग्दृष्टिः । स च क्षायिकसम्यग्दृष्टिरौपशमिकसम्यग्दृष्टिायोपशमिकसम्यग्दृष्टि सावद्ययोगविरति सिद्धिरूपसौधाध्यारोहणनि श्रेणिकल्पां जानन्नप्यप्रत्याख्यानकषायविघ्नितत्वात् नाभ्युपगन्तु शक्नोति, नापि तत्परिपालनाय यतते, इत्यसावविरतसम्यग्दृष्टिस्तस्य गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् । जनवर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोल्लेखाः १. उसू-नेमिचन्द्रीयटीकायाम्-२०१४ ॥ २. स्थासू-टीकायाम्-बन्धो जीवकमंत्री योगी नियत । १४ith ३. स्वासू-टीकाथाम्-अध्यतो बन्धो निनादिभिर्भावतः कम्मणा | PINE | ४. द्रसं-३२॥ ५. ससि-१-४ ६. स्थासू-टीकायाम्-आदिरहितो जीवकर्मयोग इति । १४ ।। ७. स्वासू-टीकायाम्-१।४।॥ ८. स्थासू-२४ १. उसू-३०१ ॥ १०. ससू-३०७ । ११. स्थासू-टीकापान-२४१६६ ।। १२. स्थासू-(टीकायाम्)-जोगापयडिपदेस ठिति बजुभागकषायो कुगति । ४९६ ॥ १३. स्थासू-(टोकायाम्)-मिथ्यात्वाविरतिकषापयोमाः बन्धहेतवः । रास॥ १४. भसू-१॥२॥ १५. तसू-८॥१॥ १६. ससू-(टीकायाम्) ५ ॥ १७. स्थासू-१०१११७३४ ॥ १९. ससि-c-1 १६. तसू-भाष्ये । ॥१॥ २०. स्थासू-२२७० ॥ २१. ससि ॥ २२. ससि-७१॥१॥ २३. क-ससि-८।१॥ ख-तवा-८।१।२६। २४. तवा-41१॥३९ ॥ २५. तवा-८॥१॥३०॥ २६. तसू-११॥ २७. ससि-॥१॥ २८. SEBOJA-voll. 5/282 २६. क-अकमा-४॥२॥ ख-तसू-६॥१॥ ३०. हवा-२॥२५॥३॥ ३१. तवा-६।१।१० ॥ ३२. सवा-६६१।१०।३३. खा-६१।१०॥ ३४. ताधिभा-८॥१॥ ६५. पञ्चा -१४७॥ ३६. तवा-८॥३॥१४॥ ३७. तवा-८।३।२,५।। ३८. तवा-दा॥६॥ ३६. तबा-८३१७॥ ४०. गोसाक-८९॥ ४१. मोसाक-१०॥ ४२. गोसाक-६५ ॥ ४३. तवा-८।३।११ ॥ ४४. तसू-८॥४॥ ४५. SEBOJA-Vol1-5/38 comm. ४६. गोसाक-२१॥ ४७. उसू-३३४॥ ४८. स्थासू-२।४।१०५॥ ४६. उसू-३३॥॥१॥ ५०. तसू-'निद्रानिद्रानिद्रा-स्थानपतिवेदनीयानि च ।८८।। ५१. तसू-सर्वार्थसिद्धी-इह निवादिभिर्दर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसम्बध्यते । ५२. स्थासू-टीकायाम्-२।४।१०५॥ १३. समू-६।१३ ॥ ५४. ससू-१२॥ ५५. प्रसू-२३।३।१ ।। २३।३।८ ॥ १६. उसू-टीकायाम्-२४१०५॥ ५७. उसू-३३॥८॥ ५७. उसू-३३॥९॥ ५६. गोसाजी-२८२ ।। ६०. गोसाजी-अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये । ततोऽनन्त्यानुबन्ध्याख्या क्रोधायेषु नियोजिता ।। २०३ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. गोसाजी - स्वरूपमपि नोत्सहेद्येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । द्वितीयेषु निवेशिता ।। अप्रत्याख्यानसज्ञातो ६२. गोसाजी - सर्व सावद्यविरतिः प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणस ज्ञास्तृतीयेषु निवेशिता ।। ६३. ससि ८६ ॥ ६४. कषायसहवतित्वात् कषायप्रेरणावपि । हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषायकषायता || ६६. स्वासू टीकावाम् । २।४।१०५ ।। ६५. उसू ३३।१०-११ ॥ ६७. तथा ८।१०।२ ॥ ६६. तवा - ८/१०१५ ॥ ७०. तवा ८।१०१६ || ७३. प्रसू-टीकायाम् २३।१।२८८ ।। ७५. उसू ३३।१३ ।। ६८. प्रसू २३।१ ॥ ७१. तवा ८११०१७ ॥ ७७. नसास - ८।४६ ॥ ७६. स्थासू- टीकायाम् - २।४।१०५ ८१. तसू भाष्य ८।१३ ।। ८४. भसू - ११८ ॥ ८७. ससि । २२ ॥ ६०. तसू - ८।२४ ॥ ६३. तवा - ६।१।१ ।। ६६. गोसाजी - ११-१४ ।। ६६. क्रक- प्रकृति स क्रमे २०४ ७६. नसास (भाष्य ) - ७/३७ ॥ ७८. क- ससू ४२ ॥ ।। ८२. ८५. स्थासू - १।१।४२ ॥ ८५. ससि ८।२२ ॥ स्थासू- १०१११७४० ।। ७२. तवा-८।१०१६ ॥ ७४. गोताक - १२ ॥ ६१. तसू - ६१ ॥ ६४. तबा- ६।१1८ 1. ६७. तत्रा - ६।१।१२ ।। गुणस्थानविचारणा पृष्ठ ६० १०१. स क्रक-पृ० ६४ । ॥ १००. तवा - ६।१।१३ ॥ १०२. गोसाजी - १६-२१ ॥ १०३. तरावा - ९।१।१३ ।। १०४. गोसाजी - २१,२२ ।। १०५. स क्रक्र- पृष्ठ ६४-६५ । १०६. गोसाजी - २५ ॥ १०७. SEBOJA-Voll.5 गाथा-२६ comm. १०८. गोसाजी- ३० । १०६. संकक पृ० ७४ । ११०. तवा - ६ । १ । १७ ।। १११. सकक-पृ० ७४ । ११२. तवा - ६।१।१८ । ११३. SEBOJA-Voll. 5 गाथा ४६ । ११५. स क्रक-पृ० ७४ । ११७. तवा - ६ ११६ ॥ ११६. तवा - ६।१।२० ॥ १२२ स कक-पृ० ७६ । १२५. गोसाजी- ६२ । १२८. गोसाज़ी - ६४ । ख- प्रसू - २३१२-२६३ ॥ ८०. प्रसू - २३।१।२८८ ॥ ८३. भसू - ११३ ॥ ८६. तसू - ८।१४ । ८६. तसू - ( भाष्य ) ८।२२ ॥ ६२. तवा - ६।१०१ ॥ ६५. तवा - ६।११६ ॥ ६८. गोसाजी-१७।१८ ॥ १२०. तवा - ६।१।२१ ।। १२३. गोसाजी- ६१ । ११४. SEBOJA-Voll.5 गाथा ४७ । ११६. SBBOJA-Voll.5 गाथा ४८ । ११८. संक्रक-पृ०-७५ । १२१. गोसाजी - ५६, ६० ॥ १२४. स ऋक पृ० ७६ । १२६. स कक - पृ० १३० १२७. संक्रक-पृ० १३७ । १२६. सक्रक- पृ० १३७ । १३०. गोसाजी- ६५ ६७ ।। नदर्शन आत्म-प्रष्यविवेचनम् Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तात्मनां स्वरूपम् षष्ठोऽध्यायः Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षो मोक्षमार्गश्च मोक्षस्य सद्भावः जैनदर्शने खलु नव- पदार्थाः स्वीकृतास्तत्रान्तिमस्य पदार्थस्य मोक्षस्य प्राधान्यात् शेषाणाञ्च तत्प्राप्त्यं सहकारिभावादन्ते एव निर्वचनं कृतम् । मोक्षस्यास्तित्वविषये यद्यपि जनाः परस्परं विवदन्ते, परमेतेनैव मोक्षस्यास्तित्व प्रतीयते यतो ह्यात्मा बद्धः सर्वैरनुभूयते, यथा खलु कारावासपदेनैव स्वातन्त्र्यस्यास्तित्वं प्रतीयते तथैवात्रात्मनो मोक्षविषयेऽपि प्रतीतिः | अत्र केचन जैनाचार्यास्तु मोक्षः बन्धस्य' प्रतिपक्षितत्त्वमित्यभिदधति । यतो हि बन्धस्य यदा सद्भावस्तदा मोक्षस्यापि सद्भावस्तिष्ठत्येव । बन्वस्य कर्म संश्लेषणात्मकत्वान्मोक्षस्य च सश्लिष्टकृत्स्नकर्मक्षयात्मकत्वादिति । मोक्षस्वरूपम् (Dfferentia of Liberation) ये खलु कर्मपुद्गलाः आत्मना सश्लिष्टत्वात्तद्गुणधातित्वाच्च कर्मत्वपर्यायमधिगतवन्तस्तेषामत्र कर्मपर्यायविनाश एव 'मोक्ष' इति । मोक्षं विवेच यद्भिरिदमेव पूज्यपादैरभिहितम् - 'कृत्स्नकर्म वियोगलक्षणो मोक्षः' इति अनादिकालात्कर्मभिर्निबद्धस्यात्मनो बन्धात्मकपारतन्त्र्यस्योच्छेद एव मोक्षः । बन्धोच्छेदे सति बद्ध आत्मा स्वतन्त्रो जायते, इयमेवास्य अस्माज्जगतो मुक्तिः । अर्थबन्धनमुक्तिरेव मोक्ष., बन्धकारणानामभावे, सचितकर्मणाञ्च क्षये (निर्जरणे) सति समस्तानामपि कर्मणा समूलोच्छेदो मोक्ष इति । तदेतेषां कर्मणामुच्छेदस्यायमेव क्रमो जैनागमेषु प्राप्यते । राग-द्वेषमिथ्यादर्शनान् विजित्य जीवो ज्ञान-दर्शन- चारित्राराधने तत्परो भवति, ततश्चाष्टविधकर्म ग्रन्थेर्भेदार्थं प्रयतते । तत्र च प्रथम मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिप्रकृतीनां क्षयो जायते, ततश्च पञ्चविधज्ञानावरणीयाना, नवविधदर्शनावरणीयानां पञ्चविधान्तरायकर्मणाञ्च युगपदेव क्षयो भवति, मोक्षो मोक्षमार्गश्च २०७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनन्तरमेवानन्त- परिपूर्ण योशवरण रहितयोर्लोकालोकप्रकाशकयोः केवलज्ञानदर्शनयोरुत्पादो जायते । केवलज्ञानदर्शनयोश्च सद्भावे सत्येव ज्ञानावरणीयादीनाञ्चतुर्णां घनघातिकर्मणामपि विनाशो भवति । ततश्च यदान्तर्मुहूर्तात्मक आयुष्यकालोऽवशिष्यते तत्र केवली प्रथम मनोव्यापारं (योग), ततश्च वाग्व्यापारम् तदनन्तरञ्च कायव्यापारम् श्वासोच्छवासञ्च सरुध्य पञ्चह्रस्वाक्षरोच्चारणमात्र' काल शैलेशीकरणावस्थाया शुक्लध्यानचतुर्थश्रेण्या तिष्ठति, तत्र स्थितस्यावशिष्टाना वेदनीयायुष्कनामगोत्राणामपि युगपत्क्षयः सञ्जायते । सर्वेषा कर्मणाञ्च क्षयेण सहैव औदारिककार्मण- तैजसशरीरेभ्योऽपि सार्वकालिकी मुक्तिमधिगच्छति । एव ससारावस्थिक एव स सिद्ध., ' मुक्तो वा जायते । मोक्षमार्ग: (The Path of Liberation) जैनदर्शनदृष्ट्वा सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्राणा समुदितानामेव मोक्षमार्गेण स्वीकारो न तु व्युदितानाम्, अतएव जैनागमेष्वेतद्विषयेऽभिहितम्, यत्'सम्यक्त्वस्य चारित्रस्य च युगपदेवात्मनि सद्भावो जायते, तत्र प्रथमं सम्यक्त्वमुत्पद्यते यतो हि यस्य श्रद्धाभावस्तस्य न सम्यग्ज्ञान कथमपि भवति । सम्यग्ज्ञानेन च ऋते सम्यक्चारित्रस्यापि न सद्भावो भाव्यते । चारित्रगुणानाञ्चाभावे कर्ममुक्तिरपि न भवितुमर्हति कर्ममुक्तेरभावे तु निर्वाणमप्य सम्भाव्यमिति । ज्ञानेन तावज्जीवः पदार्थान्नवगच्छति, दर्शनेन श्रद्दधाति चारित्रेण चास्रवनिरोध विदधाति तपसा च कर्मणा निर्जरण विधायान्ते शुद्धः सञ्जायते । एवं मोक्षार्थिनो जीवस्य सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि तप उपयोगश्चेति लक्षणात्मकानि सन्तीति । ' इत्थं मोक्षस्याय ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक एक एव मार्ग, नान्यः कश्चिदेतद्व्यतिरिक्तो जैनदृष्ट्या भवति । किन्त्वत्रानेन मार्गेण केन क्रमेण सिद्धिरवातुं शक्यते एतद्विषयकास्त्रिविधा क्रमा. जैनागमेषु दरीदृश्यते । ते च यथा- मोक्षमार्गक्रमाः यदात्मा जीवाजीवयोः सम्यग्ज्ञाता, तदा स जीवाना विविधगतीनामपि ज्ञायको भवति, ततश्च तस्मिन् पुण्य-पाप-बन्ध-मोक्षविषयकमपि ज्ञानमुत्पद्यते, जैनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनन २०८ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतेषाञ्च ज्ञानाद्देवमनुष्यादीनां कामभोगादीनामपि ज्ञायकत्वा तेभ्यो विरक्तो भवति, ततश्चैतेभ्यो भोगेभ्यो बाह्याभ्यन्तरसम्बन्धोऽपि विच्छेदयति, तस्मादनागारवृत्तिधारकः सन् उत्कृष्टसंयममनुत्तरं धर्मं च संस्पर्शति, एतेन संयमधर्मसंस्पर्शनेन अज्ञानात् सञ्चितं कलुषितकर्मरजः संधुनोति, तेन स केवलज्ञानं केवलदर्शनञ्च लभते । एतस्माल्लाभात् केवलीति भूत्वा, लोकालोकज्ञः सन् योगाश्च निरुध्य शैलेश्याख्यामवस्थामधिगतः कर्मणां सर्वथा क्षयं विधाय सिद्धो भूत्वा लोकाग्रे तिष्ठन् शाश्वतः सिद्धो जायते इति । अन्यश्चायं क्रमः स्थानाङ्गे' महावीर - गौतमसम्वादे इत्थं विद्यते - तथारूपस्य श्रमण-ब्राह्मणस्य पर्युपासनायाः फलं श्रवणम्, श्रवणफलञ्च ज्ञानम्, ज्ञानफलञ्च विज्ञानम्, एतत्फलञ्च प्रत्याख्यानत्यागः, तस्य च फलं संयमरूपः, संयमस्यानास्रवः, अनास्रवस्य च तप, तपसश्च व्यवदानम् - कर्मणा निर्जरणम्, व्यवदानस्य तु फलमक्रिया (योगाभाव ), अक्रियायाश्च फलं निर्वाणम्, एतस्य च फलरूपेण सिद्धगतौ गमनं भवतीति । अपरश्च तृतीयः क्रम इत्थ विद्यते दशाश्रुतस्कंधे- रागद्वेषविरहितो निर्मलचित्तवृत्तेर्धारको जीवो धर्मध्यानमधिगच्छति । निःशङ्कमनसा धर्मस्थितेन च निर्वाणमुपलभ्यते । एतादृश स संज्ञिज्ञानात् स्वीयमुत्तमस्थानं विजानाति । अथ च य. खलु सर्वकामविरक्त, सहिष्णुश्च भवति, तस्य संयमधनस्य तपस्विनोऽवधिज्ञानमुत्पद्यते । स च तपसाऽशुभलेश्याः अपावृत्याafaज्ञान निर्मल विदधाति । ततः ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्लोकस्थिताना सर्वेषामपि जीवादीनां पदार्थानां प्रत्यक्षज्ञानेन युज्यते । अथ च सर्वथा शुभलेश्याधारणात् तर्क-वितर्कजन्यचाञ्चल्यविरहितचित्तस्य, सर्वथा विमुक्तस्य तस्य मन:पर्ययज्ञानमुत्पद्यते । यदा च तस्य ज्ञानावरणीयं सर्वथा क्षयमधिगच्छति, तदा स केवलज्ञानी जिनो भूत्वा लोकालोकयोर्ज्ञाता भवति । तथा च प्रतिमाना विशुद्धाराधनजन्य मोहनीयक्षयमधिगच्छन् सर्वविधान्यपि कर्माणि विनाश्य, देहञ्च परित्यज्य नाम - गोत्र - आय्वादिविरहितः सन् कर्मरजसा सर्वथा विप्रमुक्तत्वमुपलभते । एवमत्र जैनदर्शन आत्मन. कर्मणां सर्वथोच्छेद एव 'मोक्ष' इति स्वीकृतमर्थात् आत्मनः कर्मणाञ्च द्वयोरपि पदार्थयोः पृथक् र स्वस्वरूपेण स्थितिरेव 'मोक्ष' इति । आत्मनः कर्माणि विमुञ्च्य स्वशुद्धरूपेणावस्थानम्, कर्मणाञ्चात्मसंश्लेषणं परित्यज्य स्वस्वरूपेण तस्मात्पृथगवस्थानमित्यर्थः । मोक्षो मोक्षमार्गश्च २०६ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न दीपनिर्वाणवदात्मनिर्वाणम् किञ्चात्र यया बौद्धर्दीपनिर्वाणवद् आत्मनिर्वाणं स्वीकृतम्, न तग्राह्यम् । यतो हि, बौद्धरात्मनिर्वाणविषयेऽनेकाः कल्पनाः कृताः, तद्यथा-चित्तसन्ततेः निरास्रवत्वं सोपाधिनिर्वाणम्, यच्च दीपनिर्वाणवच्चित्तसन्ततेः निर्वाणं तन्निरुपाधिनिर्वाणमिति । अत्र रूप-वेदना-विज्ञान-संज्ञा-सस्काररूपेणात्मनः स्वीकरणस्यवायं परिणामः यनिर्वाणदशायामपि आत्मनो निर्वाणम्अनस्तित्वमेभिः स्वीकृतम् । अत्रेदं विचारणीयम्, यत् निर्वाणे यदि दीपप्रकाशवद् चित्तसन्ततेनिरोधः स्वीक्रियेत, तर्हि आत्मनोऽप्युच्छेदावसरः प्राप्यते, चार्वाकस्य नास्तित्ववादवत् । यतो हि निर्वाणावस्थाया समूलोच्छेदस्वीकारे, मरणानन्तर वोच्छेदस्वीकारे, नो कश्चनापि विभेद । किन्तु या चित्तसततेरभौतिकत्वात्तत्प्रतिसधि(परलोकगमनम्)रपि स्वीकता तस्या निर्वाणावस्थायां तु समूलोच्छेद इति तस्यानौचित्यमेव प्रतिभाति । अतो मोक्षावस्थाया चित्तसन्तते. सत्ता स्वीकरणीयैव भवति, यतो हि, सानादिकालादास्रवादिभिर्मलिना भवन्ती साधनादिभिनिरास्रवत्वमुपगच्छति । निर्वाणस्वरूपप्रतिपादने आचार्यकमलशीतेनाप्येतद्विषयक. श्लोकोऽयमुद्धृत. चित्तमेव हि संसारो, रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैविनिर्मुक्तं, भवान्त इति कथ्यते ॥ नापि जानादिगुणानां सर्वथोच्छेदो मोक्षः वैशेषिकस्तावद् बुद्धि-सुख-दुःखेच्छादिनवविशेषगुणानामुच्छेदरूपो मोक्षः स्वीकृत. । अभि प्रतिपादितम्-यदेषा विशेष-गुणानामुत्पत्तिः आत्मनो मनसश्च संयोगाज्जायतेऽत. मनासयोगाभावे तु मोक्षावस्थायामेतेषामनुत्पादस्तस्मात्तत्रात्मनो निर्गुणत्वमेवोपपद्यते, गुणानाञ्च कर्मजन्यत्वान्न तत्र सत्ता व्यवतिष्ठते । पर बुद्धे.-ज्ञानस्यात्मनो गुणभूतस्योच्छेदो नात्र सर्वथा स्वीकर्तव्यः । यद्यपि संसारावस्थायां यदाशिक ज्ञानमिन्द्रियमन.सयोगादुत्पद्यमानमासीत्, तस्याभावस्तु मोक्षावस्थायां सुनिश्चितमेव, परन्त्वस्य यत्स्वरूपभूतं चैतन्यमिन्द्रियैर्मनसा च परम्, न तस्योच्छेदः केनापि शक्यः, सम्भाव्यो वेति । या च निर्वाणावस्थायामात्मन स्वरूपेणोपस्थितिः वैशेषिकः स्वीकृता, तत्स्व२१० जनदर्शन मायाव्यविवेचनम् Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपमिन्द्रियातीतं चैतन्यमेवास्ति । इदमेव चैतन्यमिन्द्रियमन प्रभृतिपदार्थनिमित्तात् नानाविधंविषयबुद्धिषु परिणतं भवति, एतासामुपाधीनां बिनम तस्य चैतन्यस्य स्वस्वरूपयुक्तत्वं स्वाभाविकम् । यद्यप्यत्र कर्मजन्यानां सुखदुःखादीनां विनाशः, कर्मणां क्षयोपशमजन्यस्य क्षायोपशमिकज्ञानस्य स्थितिश्च जमैरपि स्वीकृता विद्यते, परमात्मनः स्वस्वरूपचैतन्यस्य विनाशः स्वरूपस्याच्छेदकत्वान्न कथमपि स्वीकृतम् । इत्थं ज्ञायते, यदत्र 'आत्मनिर्वाणम्' न तु दीपनिर्वाणवत्स्वीकरणीयम्, मात्र तत्र गुणानामत्यन्तो विनाश. । यतो हि, अत्र क्लेशादीनां कर्मणा वा विनाश, स्यायमेवार्थ उपयुक्तः यत्-कर्मपुद्गलाः जीवात्सर्वथा पृथक्त्वं-भिन्नत्वं लभन्ते, . न तेषामत्यन्तो विनाशः कदापि जायते । यतो हि, पदार्थदृष्ट्या न कस्यचिदपि सत्पदार्थस्यात्यन्तो विनाशो जातः, जायते, भविष्यति वा। पर्यायान्तरेण परिणमनमेव पूर्वपर्यायस्य नाश इत्युच्यते। एवं न तु निर्वाणदशायामात्मनोऽभावो भवति, नापि तद्गुणानां सर्वथोच्छेदात् अचेतनत्वमुपगच्छति सः । यदा खल्वात्मा स्वतन्त्रो मौलिको वा पदार्थस्तदा तदभावस्य तद्गुणोच्छेदस्य वा कल्पनमनुचितमेवेति। सम्यग्दर्शनम् जडपदार्थेभ्य आत्मनो व्यावर्त्तकमात्मगुणभूतं चैतन्यं निराकाररूपं दर्शनं, साकाररूपञ्च ज्ञानमित्युच्यते । एतयोर्द्वयोरपि आत्मनि सान्निध्यात् सहभाविगुणात्मकत्वात् 'उपयोग इत्यपि संज्ञास्ति । एष उपयोगश्चात्मनो लक्षणम् । अतो यदाऽऽत्मा पदार्थानवगच्छति तदा तेषां पदार्थानां य. निराकारात्मकोऽवबोधस्तद्दर्शनम्, यश्च साकारात्मकोऽवबोधस्तज्ज्ञानमित्युच्यते । एतस्य दर्शनस्य विवेचने वाचकमहोदयैरभिहितं यत् 'तत्त्वार्थभवानं सम्यग्दर्शनम्॥ अर्थात् योऽर्थः यथावस्थितस्तस्य तथैव श्रद्धानं तत्वार्थश्रद्धानम् । एतदेव सम्यग्दर्शनं वस्तुनो यथार्थस्वरूपस्य प्रथमनिराकारग्रहणमित्यर्थः । यद्यपि संस्कृतवाङ्मये दर्शनशब्दस्य विभिन्नाः व्याख्याः विद्यन्ते, यासु प्रमुखानां विवेचनं प्रथमेऽध्याये कृतम् । तासु दर्शनस्य व्याख्या चैतन्याकारपरिधिमुल्लध्य पदार्थानां सामान्यावलोकनं यावत्समागता। जैनसिद्धान्ते चास्य निराकाररूपेणान्तरङ्गार्थविषयकत्वमेव स्वरूपं स्वीकृतम् । तत्र विषयविषयिणोः सन्निपात एव दर्शनमिति स्वीकृतम् । अर्थाद्यदायमात्मा पदार्थसम्यग्दर्शन २११ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधिगृहीतुमिच्छति तदा तेन यद्वस्तुनो सन्निपातः - निराकारग्रहणं, तदेव दर्शनपदभाग्भवति । नेमिचन्द्राचार्यैस्त्वेतद्विषयेऽभिहितम्, यत्- 'यदानेनात्मना कश्चित्पदार्थोऽधिगतस्ततश्चान्यत्पदार्थज्ञाने यदा प्रयतते, तत्कालं यावत्, अर्थात्पूर्वाधिगतस्य पदार्थज्ञानस्य अधिग्रहण कालादन्यत्पदार्थाधिग्रहण कालात्पूवर्तनी यात्मनो निराकारावस्था, सँव दर्शनमित्युच्यते", अर्थादात्मनो सावस्था दर्शनम्, यस्यां ज्ञेयपदार्थः न प्रतिभासते । अतएव पदार्थानां सामान्यावलोकने दर्शनं प्रसिद्धम् । तदेतत् दर्शनमेव बौद्ध परिकल्पितेन निर्विकल्पेन, नैयायिकादिभिस्स्वीकृतेन निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ेण च साम्यं भजते । दर्शनस्योत्पादः जगतियावन्तोऽपि जीवास्सन्ति, तेषां तत्त्वार्थेषु यत् श्रद्धानमुत्पद्यते तद्विविधम्- निसर्गज, परोपदेशजश्चेति" । अत्र निसर्ग. स्वभाव परिणाम:, अपरोपदेशो वा समानार्थकत्वात्पर्यायवाचिनः । अर्थात् तत्त्वार्थेषु परोपदेशं विनैव यज्जीवेषु श्रद्धानमुत्पद्यते, तस्य स्वभावत एव परिणामविशेषत उत्पन्नत्वात् 'निसर्गजम्' इति व्यपदेश । यच्च परोपदेशादेव, न तु स्वभावत, परनिमित्तकपरिणाम विशेषत उत्पद्यते, तत्परोपदेशजमिति व्यपदेश । तथाहिजीव खलु ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोगलक्षणोऽनादिकालादस्मिन् जगति परिभ्रमन्, कर्मनिमित्तान्नवीनाना कर्मणा ग्रहणात्तेषा कर्मणा बन्ध" -निकाचन"-उदय"निर्जराद्यपेक्षया " नारक- तिर्यङ्-मनुष्य-देवयोनिषु जन्म-मरणादीन् प्राप्नुवन्, तत्र नानाविधान् पुण्य-पापपरिणामांश्चोपभुञ्जन्, ज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगस्वभावात् तत्तत्परिणामाध्यवसायविलक्षणानि स्थानानि समधिगच्छति । येषाञ्चाधिगमेऽनादिमिथ्यादृष्टेरपि जीवस्य परिणामविशेषादेव विधमपूर्वकरणं जायते, यन्निमित्तादुपदेश विनैव सम्यग्दर्शनमुत्पद्यते एतदेव निसर्गजेतिपदेन व्यवह्रियते । " अधिगमोऽभिगम आगम, निमित्त, श्रवणं (शब्दः), शिक्षा, उपदेशश्चेत्यादयः समानार्थकाः । एतन्निमित्तक दर्शनं परोपदेशजन्यम्, आगमश्रवणाध्ययनजन्यमन्यनिमित्तादुत्पन्नं वा यत् तत्त्वार्थेषु श्रद्धानात्मकं सम्यग्दर्शनं सञ्जायते तदेव परोपदेशजमित्युच्यते । अत्र कैश्चिदिदं शक्यते यत्, यथा खलु कश्चित् पुरुषो यावन्न तत्त्वाना सामान्येन ज्ञायको भवेत् तावत्कथ तस्य तत्त्वार्थेषु श्रद्धान भविष्यति ? यदा च तेन येन केनापि प्रकारेण पदार्थाना ज्ञानं सम्प्राप्तं तदा तत्श्रद्धानं पदार्थेष्व जैनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् २१२ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यूत्पन्न, तत्तस्य कथं नैसर्गिकत्वमुपयुज्यते, पूर्वगृहीतज्ञानात्मकत्वात्तस्याधिगमजत्वमेव स्यात् ? अथ च यदा जीवस्य सम्यदर्शनमुत्पद्यते, तदेव मत्यज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानमपि सञ्जायतेऽतः दर्शनस्य ज्ञानोत्तरात्मकत्वात् कथं ज्ञानान्तरं नैसर्गिक दर्शनमुत्पद्यते ? तदेतन्न समांचीनम्, तद्यथा-अत्रदं विचारणीयम्-निसर्गाधिगमजयोर्द्वयोरपि दर्शनमोहस्योपशमः, क्षयः क्षयोपशमो वान्तरङ्गहेतुभूतं समानमेवास्ति । एतस्य सत्यपि यद्बाह्योपदेशमनपेक्ष्येवोत्पद्यते, तन्नसर्गिकं सम्यग्दर्शनमिति । यच्च परोपदेशापेक्षयवोत्पद्यते, न तु स्वभावतः कथमपि तस्योत्पादः शक्य., तत्परोपदेशिकं सम्यग्दनिमिति । यथा खलु जैनशास्त्रानुसारं कुरुक्षेत्र बाह्यप्रयत्नं विनैव स्वर्ण प्राप्यते, तथैव बाह्योपदेशं विनैवोत्पद्यमानं नैसर्गिकम, तथा च, यथा स्वर्णाकरेषु विविधैर्बाह्यप्रयत्न रेव स्वर्ण निःसार्यतेऽभ्युपगम्यते वा तथैव सदुपदेशात्, आगमाभ्यासादिभिर्वा यज्जायते तदधिगमजं सम्यग्दर्शनमित्युच्यते। सम्यग्दर्शनोत्पत्तिकारणानि एतस्य द्विविधस्यापि सम्यग्दर्शनस्योत्पत्तौ पञ्चविधा लब्धयो हेतुभूताः सन्ति। ताश्चेमा - (१) क्षयोपशमलब्धि . (Destructive-Subsidential-Attai nment) (२) विशुद्धिलब्धिः (Virtue Attainment)। (३) देशनालब्धि . (Precept-Attainment) । (४) प्रायोग्यलब्धिः (Completency-Attainment)। (५) करणलब्धिश्चेति (Efficiency-Attainment)। अत्र यासामुत्पत्तावेव सम्यग्दर्शनस्योत्पत्तिः सम्भवा, एतादृशीना योग्यतानां प्राप्तिरेव लब्धिपदेनाभिहिता । तत्र आत्मना क्षयोपशमलब्धौ सत्या कर्मणां स्थितिरवशिष्टान्तःकोट्यकोटिप्रमाणा तिष्ठति। विशुद्धिलब्धौ च सत्यां जीवस्य परिणामेषु भद्रता, नैर्मल्यञ्च समागच्छति । देशनालब्धौ च सद्गुरोरुपदेशात् जीवाजीवयो, संसारमोक्षयोः, सप्ततत्त्वानां, नवपदार्थानां, षड्द्रव्याणाञ्च स्वरूपस्थितेनिं सजायते, येन सम्यग्दर्शनं सुपुष्टं भवति । संज्ञि पर्याप्त-जागुतावस्था-साकारोपयोगयोग्यतानामधिगमः प्रायोग्यलब्धिरित्युच्यते। करणं नामात्मनः परिणामः, स च त्रिविधः-अधोऽपूर्वानिवृत्तभेदः । सम्यग्दर्शनम् २१३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसु लब्धिषु धादिमास्तु चतस्रः सामान्या एव, केवलं करणलब्धिरेव विशिष्टा, यतो हि, क्षयोपशमादिचतसृषु लब्धिषु जातास्वपि करणलब्धेरभावे सति न सम्यक्त्वमुपपद्यते। अस्मिन् जगत्यनादिकालात्परिभ्रमता जीवेन बहुशश्चतसृणां लब्धीनां संयोगोऽधिगतः, पर करणलब्धेरनुपलब्धात् न तेन सम्यग्दर्शनं लब्धम् । तथापि सम्यग्दर्शनोत्पत्तावेतासां चतसृणामपि लब्धीनामुत्पाद यावश्यकः । अत्रोपदेशोधिगमो वा देशनालब्धेरेव नामान्तरम् । अत एतन्निमित्तं यत्सम्यग्दर्शनं तदधिगमजमेब, यच्चैतद्व्यतिरिक्तमभावयुक्तं वा तन्निसर्गजमेव भवति । वर्शनस्य सम्यक्त्वम् कर्माधीनोऽयं जीवः यदा तन्निमित्तान्नवीनानि कर्माणि गृह्णाति, तदा तस्य तत्तत्कर्मनिमित्तकबन्ध-निकाचन-उदय-निर्जराद्यपेक्षया चतुर्गतिषु परिभ्रमणम्, तत्र स्थितत्वात् च तत्तत्कर्मणां शभाशुभफलोपभोग आवश्यक एव भवति । ततश्च तत्कर्मजनितपरिणामस्थानानि च समधिगच्छन्नयं जीवोऽनादिमिथ्यादृष्टिरपि स्वोपयोगस्वभावात्परिणामविशेषर्देशनालब्धिं विनैव (परोपदेशं विना) करणलब्धेर्भेदरूपस्यापूर्वकरणस्य परिणामान् समधिगच्छति, ततश्च तस्य सम्यग्दर्शनमुत्पद्यते । यद्यपि सम्यक्त्वोपपत्ती चतसृणामेव लब्धीना लाभ आवश्यकः, परं देशनालब्बेरभावे सम्यक्त्वोपपत्तो साक्षादसाक्षात्कृतो भेद एव हेतु. । अर्थात् साक्षात्परोपदेशादाप्ततत्त्वार्थश्रद्धानमधिगमजम्, तदभावे च निसर्गजं भवतीति । अस्यायमाशयः—यदनादिकालादेवावधि यावन्न येन जीवेन देशनानिमित्तं प्राप्तं, तस्य सम्यग्दर्शनस्य लाभोऽप्यसम्भवः । परं यस्य देशनालब्धेलाभेऽपि करणाभावात् सम्यग्दर्शनाभावस्तस्य कालान्तरे भवान्तरे चापि परोपदेशं विनैव करणलब्धर्भेदभूतस्यापूर्वकरणस्योत्पादे सम्यक्त्वोत्पादः सम्भवस्तदेव निसर्गज सम्यग्दर्शनमित्युच्यते । सम्यग्वानस्य मेदाः तदिदं सम्यग्दर्शनं सरागवीतरागभेदेन द्विविधं" भवति । तत्र मोहनीयकर्मणः सप्तकर्मप्रकृतीनामात्यन्तिके विनाशे सत्यात्मविशुद्धिरूपं यत्तद्वीतरागसम्यग्दर्शन मिति । एतद्विपरीत यत्सरागसम्यग्दर्शन, तत् प्रशम-संवेग-अनुकम्पा-आस्तिक्यभावरेवोत्पद्यते। ते च भावाः यथा अनवर्शन आत्मभाव्यविवेत्रावर Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः (Calmness) राग-द्वेष - क्रोधादिकषायाणामनुद्र कात् तेषां रामद्वेषादीनामजागृतिः, तज्जेतुं प्रयत्नो वा प्रशम इत्युच्यते । संवेगः (Fear of Mundane Existence ) - संसारहेतुभूतानां कर्मणां संग्रहो मयि न स्यादित्यनया भावनया जन्ममरणादियुक्तं संसारं दृष्ट्वा तस्माद्भीतिः संवेगः । अनुकम्पा (Compassion for All Living Beings) - जगतः सर्वेष्वपि प्राणिषु दयाभावना, जगतः जीवानामभयस्य भावना वानुकम्पेति । प्रास्तिक्यम् (Belief in the Principles) - जीवादिपदार्थानां यदागमवर्णितं स्वरूपम्, तदेव सम्यगिति कृत्वा तत्तत्पदार्थानां तत्तत्स्वरूपेणावगमनमास्तिक्यमिति । एभ्यः पञ्चभावेभ्य उत्पद्यमान दर्शनं सरागसम्यग्दर्शनमित्येवोच्यते, यतो ह्यते भावाः खलु रागयुक्तायामवस्थायामेवोत्पद्यन्ते । न तदा रागादिभ्यो मुक्त आत्मा तिष्ठत्यतएव तेषां सरागत्व युक्तम् । सम्यक्त्व-प्रकृतौ सम्यग्दर्शने च भेदः कर्मप्रकृतिषु गृहीतस्य मोहनीयान्तर्भूतस्य सम्यक्त्वस्य पुद्गलपर्यायात्मकत्वात् पुद्गलत्वमेव विद्यतेऽथ चेद सम्यक्त्वमात्मविशुद्धया क्षीणशक्ति कमपि भवति, अत इदं सम्यक्त्वं न मोक्षस्योपादानकारणभूतमात्मपरिणामविशेषात् औपशमिका दिनिमित्तात् सम्यग्दर्शनं भवति । यतो ह्यत्र सम्यग्दर्शनस्यात्मनोऽन्त परिणामात्मकत्वादुपादेयत्वम्, सम्यक्त्वप्रकृतेश्च पुद्गलपरिणामात्मकत्वाद् हेयत्वम् । अथ च सम्यक्त्वस्य क्षयादेव क्षायिकं सम्यग्दर्शनमुत्पद्यतेऽतोऽत्र सम्यग्दर्शनस्याहेयत्वात्, प्रधानत्वात् प्रत्यासन्नमोक्षकारणत्वाच्च पुद्गलरूपसम्यक्त्वेन विभेदोऽस्त्येवेति । एवमस्य सम्यग्दर्शनस्य सद्भावे सति सम्यग्ज्ञानम्, ततश्च सम्यक्चारित्रमुत्पद्यते, तत्तत्पूर्वकत्वात्तयोः । एते च त्रय एव समुदिता: मोक्षमार्गस्वरूपाः, न तु व्युदिताः कथमपि सम्भवन्ति । सम्यग्ज्ञानम् मोक्षमार्गात्तभूतमिदं प्रमाणनयंजवादितत्त्वानां संशय-विपर्यय - अनध्यव २१५ सम्प Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायादिरहितं यथार्थावबोधरूपं सम्यग्ज्ञानम्"। दर्शनानन्तरं सकृदेवेदमुत्पद्यतेऽतएवेदं दर्शनपूर्वकमित्यप्युच्यते। तदिदं मतिज्ञानावरणीयादिपञ्चविधज्ञानावरणीयकर्मणां क्षयादुपशमाच्चोत्पद्यतेऽतोऽस्य तन्निमित्तकाः पञ्चभेदाः सन्ति । ते च यथा (१) मतिज्ञानम् (Sensitive Knowledge)। (२) श्रुतज्ञानम् (Scriptural Knowledge)। (३) अवधिज्ञानम् (Visual Knowledge)। (४) मनःपर्ययज्ञानम् (Mental Knowledge)। (५) केवलज्ञानमिति च (Perfect Knowledge)। लोके यावन्तोऽपि पदार्था (विषया.) विद्यन्ते, आसन, भविष्यन्ति चेति त्रिकालस्थितान् तान् सन्निपि, तेषां गुणपर्यायाश्च प्रत्यक्षेण परोक्षेण वा यद्विजानाति, तज्ज्ञानमित्युच्यते"। तस्य पञ्चविधस्याद्यानि त्रीणि ज्ञानानि विभङ्गात्मकानि विपरीतान्यपि जायन्ते, तैश्च सह ज्ञानस्याष्टो भेदा. भवन्ति, परमेतेषा त्रिविधाना विभङ्गानामसम्यक्त्वादत्र च सम्यग्ज्ञानस्य मोक्षहेतुभूतस्य प्रसगात् न तेषा विश्लेषण क्रियतेप्रासङ्गिकत्वात् । मतिज्ञानम् (Sensitive Knowledge) मननं मति , मनुतेऽर्थान् या सा मतिः, मन्यतेऽनेन वेति ज्ञानस्यात्मनश्च भेदविवक्षयाऽस्य भाव-कर्तृ-करणसाधनत्वं सघटते। तदिद मतिज्ञान तदावरणभूतकर्मणा क्षयोपशमे सति मनस इन्द्रियाणाञ्च साहाय्यादर्थाना मननरूपमुत्पद्यते । अर्थादात्मना परोपदेशादिना विनैव यज्ज्ञानमुत्पद्यते तन्मतिज्ञानमिति । श्रुतज्ञानम् (Scriptural Knowledge) श्रुतपरिणत आत्मेति श्रुतम्, श्रूयते येन तत् श्रुतम्, शृणोतीति वा श्रुतम् । श्रुतावरणकर्मणा क्षयोपशमे सति बाह्याभ्यन्तरहेतुद्वयसन्निधाने च यत् श्रूयते, तत् श्रुतज्ञानमित्युच्यते । मतिश्रुतयो' परोक्षत्वम् उपरिलिखित पञ्चविधमपि ज्ञान प्रमाणात्मकम्, तत्रापि एतयोर्द्व योः मतिश्रुतयो. परोक्षत्वम्, शेषाणां तु प्रत्यक्षत्वम् । यतो ह्यत्र परशब्देनोपात्तानामिन्द्रियाणा मनसश्च प्रकाशोपदेशादोनामनुपात्तानां ग्रहणमस्ति। परस्य जनदर्शन आत्म-तव्यविवेचनम् Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधान्यादुत्पद्यमानं प्रमाणं परोक्षम् । यथा खलु गतिशक्तियुक्तत्वेऽपि स्वयं गन्तुमशक्तस्य पुरुषस्य गमनं दण्डाद्यवलम्बनप्रधानं भवति, तथैव मतिश्रुतावरणयोः क्षयोपशमे सत्यपि स्वयमेवार्थान्नुपलब्धुमसमर्थस्याज्ञ-स्वभावस्यात्मन उपात्तानुपात्तादीनां प्राधान्याद्यज्ज्ञानं पराधीनं मतिश्रुतात्मकं जायते, तदुभयविधमेव परोक्षमित्युच्यतेऽर्थात् इदं मतिश्रुतज्ञानं परायत्तम्, नत्वज्ञानम्, नाप्यनवबोधो वेति । स्मृतिसंज्ञादीनां मतित्वम् स्मृति-संज्ञा - चिन्ता अभिनिबोधादीनां सर्वेषां मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमितादेवार्थस्योपलब्धी वृत्तेरनर्थान्तरत्वान्मतित्वमेवोपपद्यते, न तु मतिभिन्नत्वम् । यद्यप्यत्र शब्दभेदादेतेषामस्ति परस्पर भेदः, परमुत्पादकहेतुसादृश्यात्वभेद एवास्ति, यश्चैषां शब्दकृतो भेदस्तत्तु तत्तत्पर्यायापेक्षयास्ति । यथा खलूष्णत्वमग्नेरभिन्नत्वात्तल्लक्षणम्, तथैव स्मृत्यादीनामभिनिबोधसामान्यात्मकस्य मतिज्ञानस्य लक्षकत्वान्मतिज्ञानलक्षणत्वम् । अर्थात् मति स्मृतिचिन्तादिशब्दैर्यदुच्यतेऽवबुध्यते वा तत्सर्वं मतिज्ञानमेवेति । मतिज्ञानस्य भेदा: तदेतन्मतिज्ञानमिन्द्रियैर्मनसा च तन्निमित्तकमुत्पद्यतेऽर्थात् इन्द्रियाणां मनसश्च साहाय्यादेव मतिज्ञानमुत्पद्यते, अत्र कर्ममलीमसस्य इन्द्रस्य - आत्मन. स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्यार्थोपलम्भने यल्लिङ्गं तदेवेन्द्रियमिति भट्टाकलङ्कविवेचितम् । अनुदरा कन्यावच्च अन्त करणरूपं मन एवानिन्द्रियम् । तयोर्द्धयोरपि युगपत् साहाय्यात् मतिज्ञानमुत्पद्यते । न मनसोऽभावेऽपीदमुत्पादयितु शक्यम्, यतो हि मनसोऽनवधाने सति नेन्द्रियाण्यभिमुखं स्थित पदार्थ गृहीतुं समर्थानि भवन्तीति । एतच्चेन्द्रियैर्मनसा च साहाय्येनोत्पद्यमानं ज्ञानं येन क्रमेणोत्पद्यते, तस्य क्रमस्य चत्वारो विभागाः सन्ति, तदपेक्षया मतिज्ञानस्यापि चत्वारो भेदाः" सञ्जायन्ते, ते च चत्वारः क्रमाः यथा- ( १ ) अवग्रह: ( Perception ) । (२) ईहा (Conception ) । (३) अवाय (Judgment ) । (४) धारणा चेति (Retention ) । सम्यग्ज्ञानम् २१७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवग्रहः (Perception) अत्रेन्द्रियाणां पदार्थों: सन्निकर्षे सति यदाद्यमर्थग्रहणमर्यात्पदार्थानां सामान्यावलोकनात्मकं ज्ञानमवग्रह" इत्युच्यते । अत्र कैश्चिदस्य संशयत्वमप्यभिधीयते, परं तन्न समीचीनम्, तथाहि - संशयः खलु स्थाणुपुरुषावनेकपदार्थेषु अनिश्चयात्मकत्वात् निराकरणाक्षमो भवति, यदा हि-निश्चयात्मकत्वात् स्वविषयादुभिन्नानां पदार्थाना निराकरणक्षमत्वाच्च पदार्थेकविषयोऽवग्रहो भवति । एवं संशयस्तु निर्णयविरुद्धः, अवग्रहश्च यावन्तोऽपि तस्य विशेषास्तावद् तत्तद्विशेषस्य सर्वस्यापि निर्णायकत्वादुद्बोधात्मको भवति । अतो द्वयोरपि विभिन्नलक्षणात्मकत्वात् नैकत्व" युज्यते । सोऽयमवग्रहः व्यक्ताव्यक्तपदार्थसम्बन्धकत्वाद् द्विविधो भवति । तथाहि अव्यक्तशब्दादिपदार्थानां येषामिन्द्रियसम्बन्धानन्तरमेवाऽवगमनं जायते, तेषामवग्रह एव भवति, न त्वीहादयोऽपि । अतोऽत्र अव्यक्तग्रहणात्पूर्वमव्यक्तरूपं यज्ज्ञानमुत्पद्यते, तद्व्यञ्जनावग्रह इत्युच्यते । यच्च व्यक्तपदार्थाना ग्रहणं तदेवार्थावग्रहपदेनोच्यते । इत्थमयमवग्रहः व्यञ्जनावग्रहः, अर्थावग्रहश्वेति द्विविधो" भवति । अत्रापि च यद्व्यञ्जनावग्रहस्तस्य न कदापि चक्षुषा मनसा वोत्पत्तिर्भवति यतो हि, जैनदर्शने चक्षुर्मनश्चाप्राप्यकार्य रीत्यभिहितम् । अत एतयोरप्राप्यकारित्वात् योग्य देशस्थितस्यापि पदार्थस्यासम्बन्धात् सन्निकर्षाभावान्न तयोर्व्यञ्जनावग्रहो भवतीति । अत्र मनसोऽप्राप्यकारित्वं तु निर्विवादमेव, परं चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वं केवल जैनरेव प्रतिपादितम् यतो हि चक्षुरपि नार्थान् संस्पृश्यावगच्छति । एतदेव पञ्चास्तिकाये "ऽभिहितम् कुन्दकुन्दाचार्यैः । ईहा (Conception) अवग्रहेणाद्यग्रहणे कृते सति तत्सम्बन्धिविशेषाकाङ्क्षणमीहा" । यथा खलु कञ्चनपुरुषविशेषं दृष्ट्वाऽवगृहीतं 'यदयं कश्चित्पुरुष' इति । पुनश्च तद्विषये वेषायुर्भाषामाध्यमेन विशिष्ट ज्ञातुमभिलाषा योत्पद्यते संव 'हे' त्युच्यते । यद्यप्यत्रास्याभिलषितमुद्दिश्यास्यापि सशयात्मकत्वं" तद्रूपं वेति शङ्कितम्, तदभ्यसम्यगेव यतो हि सशयस्तावत् कस्यचिदपि वस्तुनो निर्णयेऽसमर्थः, किन्त्वत्र तु यदुवेशभाषायुषादिदर्शनात् 'किमयमुत्तरदेशीयो दक्षिणदेशीयो 'त्यात्मकं यदभिलषणमुत्पद्यते तस्य निर्णयपूर्वकत्वात्, निर्णयात्मकत्वाद्वा न संशय कोटित्त्वमुपलभ्यते, यतो हीहा निर्णयार्थमेवोत्पद्यते । २१८ जनदर्शन आत्म-प्रम्यविवेचनम् Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) अनुगामी (Acompanying)। (२) अननुगामी (Non-Acompanying) । (३) वर्द्धमानम् (Increasing)। (४) हीयमानम् (Decreasing ) । (५) अवस्थितम् ( Steadfast) । (६) अनवस्थितम् ( Unsteady or Changeable) । अत्र यज्ज्ञानं सूर्यप्रकाशवत् स्वस्वामिनं क्षेत्रान्तरे भवान्तरे उभयत्र वानुगच्छति, तदनुगामीति, एतद्विपरीतञ्चाननुगामि । यच्च ज्ञानं वलक्षपक्षक्षपाकरवदनुदिनं तपश्चरणादि जन्यात्मशुद्धिवशात् सम्यग्दर्शनादिगुणप्रकर्षाच्च वर्द्धते वर्द्धमानमिति । एतद्विपरीतमनुदिनं हीयमानं ज्ञानं हीयमानमिति । यच्च ज्ञानं सूर्यमण्डलवन्न तु हीयते, नापि वर्द्धते, सततं सदवस्थमेव भवति, तदवस्थितम् । यच्च ज्ञानं चन्द्रमण्डलवत् कदाचिद्वर्धते कदाचिच्च हीयते, नंककदापि तिष्ठति, तदनवस्थितमित्युच्यते । कि चेदमव विज्ञानमन्यतस्तु त्रिविधमपि भवति । तद्यथा - ( १ ) देशावधि: (Partial Visual), (२) परमावधि: ( High Visual), (३) सर्वावधिश्चेति (Full Visual) । तत्र भवप्रत्ययकोऽवधिस्तावत् केवलं देशावधिरूपात्मक एव यदा हि गुणप्रत्ययकोऽवधिः परमावधि सर्वावधिरूपश्च सन् देशावधिरूपोऽपि भवति । यद्यपि अवधिज्ञानावरणस्य क्षयोपशमादेव अवधिज्ञानमिदमुत्पद्यते, किन्तु देव-नारकेषूत्पद्यमानमिदं न तत्क्षयोपशमाख्यं भवत्यपितु भवप्रत्ययाख्यमेव, यतो हि तत्र तेषां भव एव तदुत्पादक हेतुर्भवतीति । यः कोऽपि जीवस्तद्भवधारको जायते स एतेन युज्यते, इत्याशयः । अथवा तत्र परोपदेशस्य तपश्चरणस्य चाभावान्न तन्निमित्तकं क्षयोपशमाख्यमवधिज्ञानं भवतीत्यर्थः । यच्चानुगाम्यादिषड्विधं गुणप्रत्ययमवधिज्ञानमन्तरङ्गबाह, यनिमित्ताभ्यामुत्पद्यते, तत्र क्षयोपशमवैचित्र्यमन्तरङ्गकारणम्, संयम-स्थानाद्यन्यनिमित्तानां भयरूपं च बाह्यकारणम् । अतएवात्र देवनारकयोरिव भवधारणादेवावधिज्ञानावरणकर्मणां क्षयोपशमाभावात् तपःसंयमानुचरणजन्यक्षयोपशमात्मकत्वात् क्षयोपशमनिमित्तमित्युच्यते । किञ्चेदमवधिज्ञानं मानवेषु केषुचित्तिर्यञ्चेष्वपि च सम्यग्दर्शनादिभिरवधिज्ञानावरणस्य क्षयोपशमे सति सञ्जायते, किन्त्वसंज्ञ यपर्याप्तकेषु तु क्षयोपश सम्यानम् २२५ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसामर्थ्याभावान्नेदं कथमप्युत्पादयितुं शक्यते", इति । एवं मनुष्यतिरश्चामपि भवप्रत्ययेतरो गुणप्रत्ययकोऽधिर्भवितुं शक्यते । मन:पर्ययज्ञानम् (Mental Knowledge ) यत् खलु सर्वविधप्रमादरहितं मन:पर्ययज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाधिगतमेकमत्यन्तविशिष्टं क्षायोपशमिकं प्रत्यक्ष तन्निमित्तान्मनुष्यलोकवर्तिनो मनः पर्याप्तेर्धारकस्य पञ्चेन्द्रियप्राणिनः त्रिकालवfत्तमनोगतविचाराणां इन्द्रियमनसा साहाय्यं विनैव यज्ज्ञानं जायते तन्मनः पर्ययज्ञानमित्युच्यते" । अर्थात् येन ज्ञानेन परमनोगतं चिन्तितमचिन्तितमर्ध चिन्तितं वा विषयकं ज्ञानं सञ्जायते तन्मन:पर्ययज्ञानमिति । तदिदं मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति, विपुलमतिश्चेत्यात्मकं द्विविधं भवति । तत्र यज्ज्ञानं ऋजु - सामान्यपर्यायान् एव गृह्णाति, अर्थात् यज्ज्ञानं सरलमनोगतमर्थमवगच्छति, तद् ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञानमित्युच्यते । एव ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानं वर्तमानकालवत्तिन एव जीवस्य चिन्त्यमानपर्यायान् विषयीकतु शक्नोति । यच्च विपुल. बहुपर्यायान् गृहीतु शक्नोत्यर्थात् यज्ज्ञानं कुटिलमनोगतमप्यर्थमवगच्छति तद्विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानम् । एवं विपुलमतिमन - पर्ययज्ञानं त्रिकालवर्तिना जीवेन चिन्तिताचिन्तितार्धं चिन्तितान्नपि पर्यायान् गृहीतुं शक्नोति । किञ्चात्र ऋजुमतिमन पर्ययस्य (Simple Mental) तद्विषयका : काय वाङ्मनःसम्बन्धिनस्त्रयो भेदा: " सजायन्ते । तथा च विपुलमतिमनः पर्ययस्य ( Complex Mental) ऋजु कुटिलोभयमतिविषयसम्बन्धिनः षड्भेदाः " भवन्तीति । तदिदं मन:पर्ययज्ञानं न दर्शनपूर्वकं भवति । यथा खल्ववधिज्ञानं प्रत्यक्षत्वयुक्तमपि दर्शनपूर्वकमेव भवति, न तथेदं मन:पर्ययज्ञानम्, यतो ह्यत्रावग्रहाभावाद् ईहाकरणात्समारम्भाच्च न दर्शनं पूर्वमुत्पद्यते इति । प्रवषिमनः पर्यययोविशेषः अत्रावधिज्ञानापेक्षया मन:पर्ययस्यास्ति विशुद्धतरत्त्वम्" । यतो हि यावन्तो रूपिणः पदार्थाः अवधिज्ञानेन ज्ञायन्ते तावन्तः पदार्थाः मन:पर्ययज्ञानेनाधिक्येन स्पष्टतया मनोगताश्चापि ज्ञायन्ते । एवमेव क्षेत्रापेक्षयाप्यनयोः " २२६ जनदर्शन आत्म-प्रम्यविवेचनम् Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परं विशेषो विद्यते, तद्यथा-अवधिज्ञानस्य क्षेत्रमगुलासंख्येयतमभागात्समारभ्य सम्पूर्ण लोकात्मकं क्षेत्र विद्यते, अर्थात् सूक्ष्म निगोदस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य उत्पत्तितस्तृतीये समये यस्य शरीरस्य जघन्यावगाहना भवति, तत्प्रमाणमवधिज्ञानस्य क्षेत्रम् । क्षेत्रेऽस्मिन् यावन्तोऽपि जघन्याः पदार्थास्तान् ज्ञातुं समर्थमवधिज्ञानम् । अस्मादुपरि क्रमशो वृद्धिमुपलभन् अवधिज्ञानस्य क्षेत्र लोकपर्यन्तम्, तत्र स्वस्वयोग्यक्षेत्रस्थितं प्रत्येकमपि पदार्थमवधिज्ञानं विजानाति । परमेतन्मनःपर्ययविषये न संघटते । यतो हि, तत्क्षेत्र तु मनुष्यलोकमात्रम् । तदन्त एव संझिनो जीवस्य मनःपर्ययान् विज्ञातुक्षम मनःपर्ययज्ञानम्, न तस्माद्बहिरिति । विशुद्धिक्षेत्रापेक्षावत्स्वामिनोऽपेक्षयाप्यनयोरस्ति विशेष एकोऽन्यस्तद्यथाअवधिज्ञानं खलु संयमासंयमेषु, संयतासयतश्रावकेषु, चतुर्गत्यात्मकेषु जीवेषु चापि भवितु शक्नोति, परं मनःपर्ययज्ञानं तु केवलं सयमिषु जायते. नान्येषु। एवमेव विषया"ऽपेक्षयापि अनयोरन्यद्विशेषो विद्यते, तथाहि-अवधिज्ञानं खलु रूपिणः पदार्थान्, तत्सर्वान् पर्यायांश्चापि विजानाति, यदा हि मनःपर्ययस्तावदवधेविषयस्यानन्तं भागमेव विषयत्वेन गृह णाति । अर्थात् मनःपर्ययस्य विषयोऽवधिज्ञानापेक्षयात्यन्तं सूक्ष्मो विद्यते । ऋजुविपुलमत्योविशेषः ऋजुमतिमनपर्ययज्ञानाद्विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानं विशुद्धितया प्रतिपातेन" विशिष्टम्, यतो हि, ऋजुमतेविषयः स्तोकः, विपुलमतेश्च विषयोऽधिको विद्यते। ऋजुमतियोवतः पदार्थान् येन सौक्ष्म्येन ज्ञातु प्रभवति, विपुलमतिस्तान् पदार्थान् विविधविशिष्टगुणैः पर्यायश्च सहात्यन्तसूक्ष्मतया ज्ञातु प्रभवति । अतएव ऋजुमत्यपेक्षया विपुलमतिज्ञानं विशुद्धितरम् । अप्रतिपातिवैशिष्ट्यञ्चेदम्-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानं तूत्पद्यते विनश्यति चार्थाद वारम्वारमुत्पद्यमानमपि पुनः पुनर्विनाशमधिगच्छति । परमयं विशेषो विपुलमति ज्ञाने विद्यते यदेकदोत्पन्न तन्न विनाशमधिगच्छति, अपितु तज्ज्ञानं यस्मिन् यदैकवारमुत्पन्नम्, तस्मात् तं जीवं तेनैव भबेन केवलज्ञानोत्पत्यन्तरं निर्वाणपदमपि प्राप्तव्यं भवति । अतएव विपुलमति जुमत्यपेक्षया अप्रतिपातीअप्रतिघाती, अतो विशुद्धितरो भवतीति । केवलज्ञानम् (Perfect Knowledge) चतुर्णा धातिकर्मणां-मोहनीय-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-अन्तरायाख्यानां २२७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षये सति केवलज्ञानमुत्पद्यते । अर्थादत्र केवलज्ञानोत्पत्ती चतसृणां कर्मप्रकृतीनां क्षय एव हेतुविद्यते । एषु चतुर्वपि घातिकर्मसु पूर्व मोहनीयस्य क्षये सति ज्ञानदर्शनावरणान्तरायादीना पश्चात् क्षयः सम्पद्यते, अर्थात् मोहनीयस्य क्षयानन्तरमेव ज्ञानावरणादीनां त्रयाणां युगपदेव क्षयो जायते, यस्मात् विशुद्धतमं पूर्णज्ञानं केवलाख्यमुत्पद्यते इति । मतिश्रुतयोविषयः मति-श्रुतयोईयोरपि ज्ञानयोः परोक्षत्वमुक्तमेव, तेषु पररूपेषु कारणेषु इन्द्रियाणां क्षेत्र, विषयश्च नियत एव, अत आभ्या मति-श्रुताभ्यां समग्राणां द्रव्याणां तत्पर्यायाणाञ्च ज्ञानमसम्भवम्, मनोऽपि धर्मादीनां द्रव्याणां सूक्ष्मातिसूक्ष्मपर्यायान् ज्ञातुमक्षममत एव मतिज्ञानं श्रुतज्ञानञ्च द्रव्याणि सामस्त्येन तु जानन्ति, परं तेषा सर्वविधपर्यायान् ज्ञातुमक्षमे" एव स्तः । अत्र मानसमतिज्ञानस्य धर्मावर्माकाशाद्यरूप्यतीन्द्रियपदार्थानामपि ज्ञायकत्वादनयोर्मतिथ तयो सर्वद्रव्यसंग्राहकत्वं" सिध्यति । अवधिज्ञानस्य विषयः अवधिज्ञानस्य विषय केवलं रूपिद्रव्यमेव विद्यते न तत्पर्याया.। अर्थादतिविशुद्धावधिज्ञानयुक्तोऽपि कश्चित् रूपिणो द्रव्याण्येवावगच्छति, रूपिद्रव्यस्य सम्पूर्णपर्यायान्, रूपिद्रव्यातिरिक्तानन्यान् पदार्थान् वावगन्तु न प्रभवति । अत्रोपलक्षितेन रूपेण रस-स्पर्श-गन्धादीनामपि ग्राह्यत्वाद् प-रस-गन्ध-युक्तानां पुद्गलानामेव" ग्रहणं भवति । मनःपर्ययस्य विषयः अवधिज्ञानविषयभूतानां रूपिद्रव्याणामनन्तं भागं मन.पर्ययज्ञानं विषयीकरोति । यतो हि, मन.पर्ययज्ञानमन्तःस्थितत्वात् अन्तःकरणविचारागतानां रूपिद्रव्याणा मनुष्यक्षेत्रस्थितानामवधिज्ञानादतिविशुद्धः सूक्ष्मतरर्बहुतरश्च पर्यायैः सह गृह णाति । अर्थान्मन पर्ययज्ञानस्य विषयोऽवविषयस्यानन्तकभागप्रमाणं रूपिद्रव्यम्, तच्चाप्यसर्वपर्याययुक्तमेव" । अत इदमवध्यपेक्षया सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषय विशेषेण विजानातीति । केवलज्ञानविषयः जीवपुद्गलादीनि सर्वाण्यपि द्रव्याणि, तेषाञ्च त्रिकालवर्तिनः समग्रपर्यायाः २२८ जैनदर्शन आत्म-व्यविवेचनम् Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञानस्य विषयभूताः सन्ति । नास्मादुत्कृष्टमन्यत् ज्ञानम्, नाप्येतादृशः कश्चन पदार्थः पर्यायो वास्ति योऽस्य विषयाबहिस्तिष्ठेत् । अत्र ज्ञानावरणस्य सर्वथा क्षयात्मकत्वात् नेतेन सहान्यत् ज्ञानं कथमपि तिष्ठति, एकाक्येवेदमुपजायते, अत एवेदं केवलमित्युच्यते। तदिदं केवलज्ञानं सकलद्रव्यभावानां परिच्छेदकत्वात् परिपूर्णम्, अथ च यथैक जीवपदार्थ साकल्येन गृह्णाति, तथैवान्येषामपि समस्तपदार्थानां ज्ञायकत्वात् समग्रम्, क्षयोपशमनिमित्तेनान्येन केनाप्यसादृश्यत्वादसाधारणम्, इन्द्रिय-मनसआलोकादिसहायकालम्बनानपेक्षत्वात् निरपेक्षम्, ज्ञानावरणदर्शनावरणादिनिमित्तानां मलदोषाद्यशुद्धीनां सर्वथाऽभावाद्विशुद्धम्, समग्राणामपि तत्त्वानामवबोधकत्वात् सर्वभावज्ञापकम्, लोकालोकयोः सर्वेषामप्यशाना परिच्छेदात्मकत्वाल्लोकालोकविषयम्, अगुरुलघुगुणनिमित्तानन्तपर्यायपरिणमनात्मकत्वादनन्तपर्यायमपीदमुच्यते । अथवा ज्ञयपर्यायानन्तात्मकत्वात्, अनन्ताविभागप्रतिच्छेदात्मकत्वाद्वास्यानन्तपर्यायत्वमस्तीति । अस्यायमाशयो यदनन्तशक्ति-योग्यतानां धारकत्वादिदं सर्वथाऽप्रतिम ज्ञानमिति । ज्ञानानामेककालभावित्वम् एषु मतिश्रुतादिज्ञानेषु कस्यचिज्जीवस्यकम्, कस्यचिद् द्वे, कस्यचित् त्रीणि, चत्वारि वा ज्ञानानि एककालावच्छेदेन भवितुं शक्नुवन्ति । तदेवोक्तं तत्त्वार्थसूत्रे वाचकमुख्य. 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्यः। अत्रेदमवधार्यम्, यद्यस्य श्रुतज्ञानं विद्यते, तस्य मतिज्ञानेनापि अवश्यं भाव्यम्, तस्य तत्पूर्वकत्वात् । परं यस्य केवलं मतिज्ञानमेवास्ति न तस्य श्र तज्ञानमवश्यम्भावि । अथ च केवलज्ञाने जाते सति मत्यादीन्यपि तेन साकं विद्यमानानि सन्ति न वेति विषये विदुषां यन्मतवैभिन्न्यं, तदित्थम् अत्र केचनेत्थं प्रतिपादयन्ति, यत् केवलज्ञाने सति न मतिज्ञानादीनामभावो जायतेपितु तानि केवलज्ञानेनाभिभूतानि एव भवन्त्यतस्तानि केवलज्ञानावस्थायां न कार्यकरणक्षमानि भवन्ति । यथा खलु केवलज्ञाने सत्यपि सर्वाणीन्द्रियाणि तदवस्थितान्येव तिष्ठन्ति न किञ्चिदपि कार्य कर्तुं शक्नुवन्त्येवमेव मतिज्ञानादीन्यपि । केचनेत्यं प्रतिपादयन्ति—यन्नेमानि मतिज्ञानादीनि केवलिनस्तिष्ठन्ति, यतो सम्यग्ज्ञानम् २२९ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि, श्रोत्रादीन्द्रियरुपलब्धस्येहितपदार्थस्य निश्चयोऽवायः, मतिज्ञानञ्चापायस्वरूपं सत् विद्यमानं विद्यमानसदृशं वा पदार्थमेव गृह णाति, किन्तु नैतानि केवलज्ञाने समुपलभ्यन्तेऽतो न तेन केवलेन सह वर्तन्ते। श्र तज्ञानस्य च मतिपूर्वकत्वात्, अवधिमनःपर्ययोश्च केवलं रूपिद्रव्यमात्रविषयत्वाच्च न तत्र केवलिनि भवितव्यमिति । अथ च यानि मतिज्ञानादीनि केवलव्यतिरिक्तानि चत्वारि ज्ञानानि, तेषामुपयोगः खलु जीवस्य क्रमेणैव जायते, न तु सहवर्तित्वेन । न दृशं केवलज्ञानं भवति, अर्थात् येन केवलिना परिपूर्णज्ञानं दर्शनञ्च सम्प्राप्तम्, स समस्तमपि पदार्थ युगपदेव विषयीकरोति । तस्यासहायत्वादनयोः केवलज्ञानदर्शनयोर्युगपदुपयोगो भवति । अथ चैषु पञ्चविधेषु ज्ञानेषु चत्वारि खलु क्षयोपशमादुत्पद्यमानानि, केवलज्ञानञ्च सर्वथा कर्मक्षयादुत्पन्नमतो न केवलिनि चतुर्णामेषा सहभावो भवत्यतस्तत्र तेषामभाव एवावगन्तव्य इति । सम्यक्चारित्रम् सम्यक्चारित्रलक्षणम् संसारस्य (ससरणस्य) कारणभूताना रागद्वेषादीना निवृत्त्य कृतसंकल्पस्य विवेकिन शरीरवाङ्मनसा बाह याभ्यन्तरक्रियाभ्या विरागानन्तरं स्वरूपस्थितेरधिगम सम्यक्चारित्रम् । अर्थात् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावपरिवर्तनरूपस्य पञ्चविधससारस्य कारणभूतानामष्टविधकर्मणामात्यन्तिकी निवृत्ति प्रति कृतसकल्पस्य ज्ञानयुक्तस्य जीवस्य बाह यक्रियाभ्यो मानसिकक्रियाभ्यश्च विरमणं यदैव जायते, तदेव तस्य स्वरूपे स्थितिरपि सञ्जायते । सा स्वरूपस्थितिरेव 'सम्यक्चारित्रमि'त्युच्यते । एवमहिसा-अस्तेय-अचौर्य-ब्रह्मचर्यअपरिग्रहादीना सम्यक्परिपालन सम्यक्चारित्रमिति," अथवा-संसरणकारणभूताना कर्मणां बन्धयोग्याः या. क्रियास्तासा निरोधानन्तरं शुद्धात्मस्वरूपावाप्तये या सम्यग्ज्ञानपूर्विका प्रवृत्तिर्जायते, तत्सम्यक्चारित्रमिति कथ्यते। सम्यक्चारित्रभेदाः तदेतत् सम्यक्चारित्र खलु पञ्चविधम्", तद्यथा (१) सामयिकम् (Equanimity) (२) छेदोपस्थापनम् (Recovery of Equanimity after down-fall) २३० जैनदर्शन मात्म-द्रव्यविवेचनम् Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) परिहारविशुद्धिः (Pure & Absolute Non-Injury)। (४) सूक्ष्मसाम्परायम् (All but entire Freedom from Pass____ion, or Slightest Delusion)। (५) अथाख्यातञ्चेति (Ideal & Passion-less)। अत्र समस्तपापक्रियाणां त्यागः समत्वस्याराधनञ्च 'सामयिकम्', व्रतेषु दूषणे सजाते सति दोषपरिहारं कृत्वा पुनः व्रतेषु स्थितिः 'छेदोपस्थानम्', सर्वत्र गमनादिप्रवृत्ती सत्यामपि शरीरेण जीवहिंसाभावः 'परिहारविशुदिः', समस्तानां क्रोधादिकषायाणां विनाशे सत्यवशिष्टस्य लोभस्य विनाशार्थ प्रयत्न एव 'सूक्ष्मसाम्परायम्', अथ च समस्तानामपि कषायाणां क्षये सति जीवन्मुक्तस्य पूर्णात्मस्वरूपे विचरणं 'यथाख्यातमि'त्युच्यते । सामयिकम् (Equanimity) आगच्छन्तीत्यायाः, सत्त्वव्यपरोपणहेतवोऽनर्थाः सङ्गताः आयाः, सम्यग्वा आयाः समायाः, तेषु, ते वा प्रयोजनमस्येति सामयिकमवस्थानम् । अर्थात् सर्वेषामपि सावद्ययोगानामभेदेन सार्वकालिको नियतकालिको वा त्यागः सामयिकम् । अत्रास्य मानसिकप्रवृत्यात्मकत्वान्न गुप्तावन्तर्भावो भवति, यतो हि, गुप्तौ तु मनोव्यापारस्यापि निग्रहः सजायते । किञ्चास्य मानसिकप्रवृत्त्यात्मकत्वात् समितावपि नान्तर्भावः शक्यः, यतो हि, सामयिकचारित्रोपेतस्यैव समिती प्रवृत्तिर्जायतेऽतः कार्यरूपस्य समितेरेतत्कारणात्मकत्वमुपपद्यते। छेदोपस्थापनम् (Recovery of Equanimity after Down-fall) त्रस-स्थावरादिजीवानामुत्पत्ति-विनाशहेतूनां छद्मस्थाप्रत्यक्षत्वात्, प्रमादवशाच्च स्वीकृतासु निरवद्यक्रियासु दूषणे सति तस्य प्रतीकाररूपं 'छेदोपस्थानम्' । अर्थात्-सावद्यकर्म खलु हिसानतादिभेदात्पञ्चविधम्, इत्यादिविकल्पनपूर्वकं तेभ्यो विरम्य पञ्चयमरूपे धर्मे संयोजनं 'छेदोपस्थापनमि'ति। afegtafayfa: (Pure & Absolute Non-Injury) परिहरणं परिहारः प्राणिवधान्निवृत्तिः, तयुक्तत्वेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन् सा परिहारविशुद्धिः । चारित्रमिदं त्रिंशद्वर्षायुषः, वर्षत्रयात् नववर्ष यावत् तीर्थकरपादमूलसेविनः, प्रत्याख्याननामकपूर्वपारङ्गतस्य, जन्तूनामुत्पत्तिसमाचारित्र २२१ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनाशयोर्देशकालद्रव्यादिस्वभावज्ञस्याप्रमादिनः, महावीर्यस्योत्कृष्टनिर्जरस्यातिदुष्करक्रियाणामनुष्ठातुः त्रिकालसंध्यां वर्जयित्वा द्विकोशगामिन एवोत्पद्यते, नान्यप्यतद्विरहितस्य कस्यचिदपि सजायते। सूक्ष्मसम्परायम् (All but Entire Freedom from Passion) सूक्ष्मसम्परायचारित्र दशमगुणस्थानीयानामेवोत्पद्यते, यत्र खलु लोभसज्वलनाख्य. सम्पराय. सोक्ष्म्यमुपगच्छति । तच्चेद स्थूलसूक्ष्मप्राणिनां वध-परिहारे पूर्णतयाप्रमत्तस्य, निर्वाधोत्साहशीलस्याखण्डचारित्रस्य, सम्यग्दर्शनज्ञानमहापवन. सन्धोक्षिताभि. प्रशस्ताध्यवसायाग्निज्वालाभिर्भस्मितकर्मेन्धनस्य, ध्यानविशेषतः कषायविषाकुरविििखतस्य, सूक्ष्ममोहनीयकर्मबीजान्नपि अपचयाभिमुखमालीनस्य, परमसूक्ष्मलोभकषाययुक्तस्य सूक्ष्मसम्परायाख्यं चारित्रमुत्पद्यते । यथाख्यातम् (Ideal & Passion-less Conduct) यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्त्वात् 'यथाख्यातमिति' । सर्वविधस्यापि चारित्रमोहस्योपशमात् क्षयाद्वात्मस्वभावस्थितिरूपं परमोपेक्षापरिणतं यथाख्यातचारित्रम् । अर्थात्पूर्वचारित्राणामनुष्ठातृभिरपि साधुभिर्न मोहोपशमाभावे क्षयाभावे वा प्राप्तु शक्यते तदथाख्यातमिति। अत्राथशब्दस्यानन्तर्यात्मिकत्वाच्चारित्रमोहस्योपशमानन्तर क्षयानन्तरं वेत्येव" गृह्यते । एवमिद यथाख्यात (अथाख्यात वा) चारित्र मोहनीयाख्यस्याशुभकर्मणः उपशमे क्षये वा सत्येव यस्मिन् छद्मस्थे जिने वा सम्पद्यते स 'यथाख्यातचारित्रम्" इत्युच्यते। गुप्तयः (Preventions) सम्यक्चारित्रस्यैतेषा भेदाना विश्लेषणेनेद ज्ञायते, यदस्यावाप्तौ ये प्रमुखाः हेतव. सन्ति ते गुप्तय , समितयः, चारित्रमोहाभावश्चेत्येव सन्ति । अथदिषा त्रयाणां गुप्त्यादीनामाचरणेनैव सम्यक्चारित्र परिपुष्ट भवति । तत्र सत्कार लोकप्रसिद्धिमलौकिकं पारलौकिकञ्च सुखमनपेक्ष्य क्रियमाणो योगनिग्रहो गुप्तिरित्युच्यते । तंत्र कायवाङ्मनसा परिस्पन्दो योगः, निग्रहश्च"-प्राकाम्यस्य यथेष्टचारित्रस्याभाव । योगस्य च यो निग्रहः स एव गुप्तिरिति, सा च त्रिविधा भवति काय-वाङ्-मनो (Body, Speech, Mind) भेदेन । तत्र निगृहीतकायप्रचारस्याप्रमत्तस्यानवेक्षिताप्रमार्जितभूमिप्रदेशविचरणम्, जनदर्शन आत्म-अध्यविवेचनम् २३२ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्वन्तराराधननिक्षेपः, शयनासनादिशारीरिकक्रियाश्चेत्येतेषां निमित्त यत्कर्म, तस्यानास्रवणमेव 'कायगुप्तिः'। संवररहितस्य जीवस्यासत्प्रलापाप्रियभाषणादिभिर्यानि वाचिकव्यापारनिमित्तानि कर्माणि आस्रवन्ति, वाग्योगनिग्रहिणि जीवे यत्तेषामभावस्तदेव वचनगुप्तिरिति । यच्च रागद्वेषादिभिरभिभूतप्राणिनोऽतीतानागतविषयाभिलाषादिभिः मनोव्यापारनिमित्तकानि कर्माण्यागच्छन्ति, तेषामभाव एव मनोगुप्तिरित्युच्यते । एतत्त्रिविधानामपि गुप्तीनां योगनिग्रहात्मकत्वाच्चारित्रसाहाय्यत्वमस्ति । किन्त्वत्रायं योगनिग्रहो यद्यविधि-अज्ञान-अस्वीकार-मिथ्यादर्शनादिपूर्वक: स्यात्तदा नास्य गुप्तित्वमुपपद्यतेऽतएव सम्यग्योगनिग्रहस्यैव गुप्तित्वमत्र स्वीकृतम् । अन्यथा आत्मघातादीनां बालतपश्चरणसंलग्नाना मिथ्यादृष्टीनां मौनधारणादीनां प्रक्रियाणामपि गुप्तित्वं स्यात् । समितयः (Carefull-ness) एताः गुप्तयः संवरस्य प्रधानसाधनभूताः, अतएव मुमुक्षभिः सम्यक्परिपालनीया । किन्तु ये खल्वेतासां परिपालनेऽक्षमास्तेषां कृतेऽथ च 'शरीरस्य न यावत् सम्पूर्णरूपेण परित्यागस्तावत्प्राणसंधारणार्थ (यात्रार्थ) यत्किञ्चिदशन-पान-आदान-निक्षेपण-उत्सर्गादिकमावश्यकम्, तेन सवरः खल्वशक्यः' इत्याशङ्ख्यमानाना कृते एव सम्यक्प्रवृत्तीनां समितीनामुपदेशो विद्यते । इमाश्च समितयः पञ्चविधास्तथाहि" (१) ईर्यासमितिः (Care in Walking)। (२) भाषासमितिः (Care in Speaking)। (३) एषणासमितिः (Care in Eating )। (४) आदाननिक्षेपणसमिति (Care in Lifting & Laying) । (५) उत्सर्गसमितिश्चेति (Care in Excreting)। fafafafa: (Care in Walking) तत्र जीबस्थानादिविधिविज्ञस्य धर्मार्थप्रयत्नशीलस्य सूर्योदये सति चक्षुरिन्द्रियविषयगृहीतत्वे मनुष्यादिचरणपातोपहृतावश्यायमार्गे सावधानचित्तस्य सकुचितावयवस्य शनैश्शनय॑स्तपादस्य शरीरप्रमाणभूमिमग्रे निरीक्षणावहितदृष्टे: यदप्रमत्तं गमन तदीर्यासमिति"पदेनोच्यते । सम्यक्धारित्रम् २३३ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावासमितिः (Care in Speaking) अथ च हित-मित-असंदिग्ध-अनवद्यार्थप्रतिपादननियतानां वचनानां व्यवहारो भाषासमितिरिति । अर्थात् मोक्षसाधने प्रवृत्तिरूपाः, आत्मनः कल्याणलक्ष्याभावरूपाः, निष्प्रयोजनाः, अपरिमितरूपाः, अनिश्चायकाः, अतएव सन्देहीत्पादका संशयपूर्वकाः पापरूपाः पापकार्यसमर्थकाः वा ये शब्दास्ते न समितिस्वरूपाः, अतएवैतान् शब्दान् परित्यज्योपयुक्तान् चत्वारः शब्दानुद्दिश्याप्रमत्तभाषाया व्यवहार एव भाषासमितिरित्युच्यते"। goarafafa: (Care in Eating) आगमे ये उत्पादनादिका दोषा वर्णितास्तेषा वर्जनपूर्वकं धर्मसाधनानां धारणम्, अन्नपानप्रवृत्तिश्चषणासमितिः । अर्थात् भक्ष्य-पेय-रजोहरण-पात्र-चीवरादीनां धारणे उद्गमोत्पादनषणादिदोषाना परित्याग एषणासमितिरिति । aratararaquarafa: (Care in Lifting & Laying) धर्मविरोधिना परानुपरोधीनां ज्ञानसंयमयोश्च साधकानामुपकरणानां निरीक्ष्य, प्रमृज्य प्रवर्तनमादाननिक्षेपणसमितिः । उत्सर्गसमितिः (Care in Excreting) यत्र स्थावरजङ्गमादिजीवानां विराधना न स्यात्, तव मलमूत्रादिविसर्जनम्, शरीरस्य स्थापनञ्चोत्सर्गसमिति", अर्थात् यत्र पृथिवीकायिकादय स्थावराः पञ्चविधा एकेन्द्रियादिजीवा' असाश्च न स्युस्तत्र शुद्धे, स्थण्डिले, प्रामुकस्थाने निपुण निरीक्ष्योपमृज्य च मलमूत्रयोः परित्याग एबोत्सर्गसमितिरिति । चारित्रमोहाभावः एव सम्यक्चारित्रस्यावाप्तौ यादृशं साहाय्यं गुप्तिसमित्योरस्ति, तदधिक चारित्रमोहाभावस्य, यतो ह्यस्याभावे तु नेद सम्यक्चारित्र कथमपि युज्यते । अतस्तदवाप्तौ चारित्रमोहाभावोऽत्यावश्यकः । तत्र चारित्रस्य मोहकानां सप्तपरीषहाणामभाव एव चारित्रमोहाभावपदेन गृह यते । यतो हि, चारित्रमोहस्योदये सत्येव इमाः सप्तविधाः परीषहा उत्पद्यन्ते, यद्वशान्नात्मा सम्यक्चारित्रमधिगन्तु प्रभवति । एषामभावे सत्येव तेनात्मा युज्यते । ताश्च सप्तविधाश्चारित्रमोहपरीषहा इमाः-- जनदर्शन मात्म-न्यपिचमन २३४ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) नाग्न्यपरोषहा (Nakedness)। (२) अरतिपरीषहा (Dissatisfaction, Languor)। (३) स्त्रीपरीषहा (Women Suffering)। (४) निषद्यापरीषहा (Sitting)। (५) आक्रोशपरीषहा (Abuse)। (६) याचनापरीषहा (Begging)। (७) सत्कारपुरस्कारपरीषहश्चेति (Respect on Disrespect)। एषामुदये सति सम्यग्दर्शनज्ञानयुतस्यापि जीवस्याचरणं न सम्यक्त्वं लभतेऽतस्तदवाप्त्यै एषां सप्तचारित्रपरीषहाणां वशिनः साधुजनाः न मोक्षमार्गेऽने सरितु प्रभवन्ति। अतएवैताः-मोक्षमार्गबाधिकाः चारित्रपरीषहाः विजित्येव मोक्षमार्गे प्रगतिविधीयते साधुभिः । ताश्चेक्स्वरूपाः-यथाजातरूपस्य नाग्न्यस्य मूर्तिमच्चारित्रस्वरूपत्वमस्ति । तदिदमविकारि संस्कारशून्यं स्वाभाविकञ्चास्ति । तस्यतस्य नाग्न्यस्य धारणे बाधिकाः विपत्तय एव नाग्न्यपरीषहपदवाच्याः, आसां बाधकविपत्तीनामेव जयो नाग्न्यपरीषहजयः । अनिष्टपदार्थसंयोगेऽप्रीतिभावोऽरतिपरीषहा । तासां धैर्येण विनाशनमेवारतिपरीषहजयः। एकान्तोद्यानभवनादिषु यौवन-मदरूपमद-विभ्रम-उन्माद-मद्यपानादिसाधनैर्जायमान विघ्न स्त्रीपरीषहा, तत्सत्यपि तत्स्पर्शनदर्शनादीच्छारहितो भावः स्त्रीपरीषहजयः। ध्याने सामयिके वैकासनस्थिते च तदासनस्थितौ काठिन्यानुभवनं निषद्यापरीषहा, तस्याः जयो निषधापरीषहजयः । एवञ्च 'वञ्चकोऽयं' 'साधुवेषाच्छन्नश्चौरोऽयं' 'पापी' 'दुष्टश्चायं' इत्यद्याज्ञानाक्षेपितमिथ्यावचनानि एवाक्रोशपरीषहा, तस्याः सहनमेव आक्रोशपरीषहजयः । संक्लेशे विपत्तिकाले च तस्माद्वि भेत्य तद्रीकरणार्थं यस्य कस्यचिद्वस्तुनो याञ्चाभावो याचनापरीषहा, तस्याः जयः, याचनापरीषहजयः इति । अथ च विभिन्नयोग्यतायुक्तस्यापि तदनुरूपं मानपुरस्कारादिप्राप्त्यभावो सत्कारपुरस्कारपरीषहा, तस्याः जयः सत्कारपुरस्कारजय इति । एवमेतत् सप्तविधपरीषहजययुक्तेन मुमुक्षुणा बुभुक्षा-तृषा-शैत्य-औष्ण्य-दशकमशकादीनाम्, चलता, गच्छता, स्वपिता वा कण्टकादीनाम्, वध-आक्रोशमलोत्सर्गादीनाञ्च बाधाना शान्त्या प्रसहनम्, नग्नत्वेऽपि सति स्यादिना २३५ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्यघातकानां साधनानां दर्शने सजाते प्रकृतिस्थत्वम्, सुचिरं तपस्तप्तेऽपि ऋद्धि-सिद्ध्यनवाप्ती तपः प्रत्यनादराभावः, ऋद्धिप्राप्तौ च तद्गर्वाभावः, यस्य कस्यचिदपि सत्कारपुरस्कारयोरन्यतरस्य प्राप्ताप्राप्ती हर्षापमाने वा खेदाननुभूतिः, भिक्षिते भुङ क्तेऽपि वात्मन्यदन्यमित्यादिपरीषहजयश्चारित्रे हढा निष्ठा सजायते, तस्मात् चारित्रमपि परिपुष्टं भवति। एवं सप्तविधपरीषहाणां चारित्रमोहोत्पादिकानां विजयात् चारित्रमोहस्याप्यभावः सम्पद्यते, तदभावे च चारित्रस्य सम्यक्त्वमपि सुदृढं भवतीति । कश्चिदाचार्य स्त्विदं सम्यक्चारित्र संयमपदेनाप्यभिहितम्, तदेतत् संयमः खलु धर्मान्तर्भूत इन्द्रियविजय-प्राणिरक्षारूपश्चास्ति । कैश्चिच्च व्रतधारणम्, समितिपालनम्, कषायनिग्रहः, दण्डपरित्यागः, इन्द्रियजयश्चेति पञ्चविधः। स्वीकृत । पर तत्त्वार्थवात्तिककृतायं संयमः प्रामुख्येन उपेक्षासंयमः, अपहृतसयमश्चेति द्विविधोऽभिहित. । तत्र देशकालविधिज्ञस्य स्वभावत एव शरीराद्विरक्तस्य गुप्तित्रयधारकस्य रागद्वेषरूपायाश्चित्तवृत्तेरभाव उपेक्षासंयमः । अपहृतसयमश्चोत्कृष्ट-मध्यम-जघन्यभेदेन त्रिविधः । तत्र प्रासुकवसत्याहारमात्रबाह यसाधनात्मकत्वस्य स्वाधीनज्ञानचारित्रकरणस्य बाह यजन्तूपनिपाते सत्यात्ममन संरक्षणपूर्वक पालनमुत्कृष्टापहृतसयमः, मृदूपकरणादिभिर्जन्तूनां प्रमार्जकस्य मध्यमापहृतसयम , अन्योपकरणाद्यभिलाषिणश्च जघन्यापहृतसंयमो भवति । अतस्यापहृतसंयमस्य प्रतिपादनार्थमष्टशद्धयो भाव-कायशुद्ध्यादय उपदिष्टा'। यासा सम्यक्परिपालनेनापहृतसयमस्य पुष्टिर्भवति, तस्माच्च सम्यक्चारित्र परिपुष्ट भवति । एव सम्यग्दर्शनज्ञानयुतस्य गुप्ति-समितिचारित्र-सयमादीना सम्यक्परिपालनेन सम्यगाचरणस्य सद्भावात्सम्यक्चारित्रमुत्पद्यते, तस्मादेव जीवो मोक्षत्वमधिगच्छति, यतो हि, सम्यक्चारित्राभावे न कथमपि सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्नोऽप्यात्मा तदधिगन्तुप्रभवति इति । कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः कर्मक्षयस्यावश्यकत्वम् जगत्यस्मिन् सासारिकस्य जीवस्य संसरणात्मकत्वात् जन्ममरणादीन्नुपलभतः, पूर्वजन्मोपाजिताना कर्मणां प्रभावादधिगतेऽस्मिन्नपि जन्मनि कर्मणामुपार्जनात्पुनर्जन्म, तत्रापि च कर्मणां संचयात्मकत्वात्पुनरपि जन्म गृह णाति । २३६ जनदर्शन आत्म-व्यविवेचनम् Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा च तत्र तसज्जन्मोपार्जितायुष्कर्मणः समाप्तौ मरणम्, ततश्च पुनर्जन्मन्यपि तत्कर्मसम्बद्धं मरणमुपलभते। एवमनयोर्जन्ममरणयोर्मध्यवतिनं यावत्कालं जीवो जगति तिष्ठति, तावत्कालमहर्निशमेव नित्य-नैमित्तिकआवश्यकाद्याचरणीयः कर्मभिस्तत्तत्कर्मपुद्गलान् प्रति, इच्छा-राग-द्वेष-मोहादिभिर्युक्तः श्लिष्यते। ते च कर्मपुद्गलाः जैनदार्शनिकः प्रमुखेष्वष्टसु भागेषु विभक्ताः । तेषां मध्ये खलु चतुर्विधास्तु प्रत्यक्षत एवात्मना श्लिष्यन्ति, अन्ये चतुर्विधास्त्वप्रत्यक्षतः । एषां संश्लेषणेनैवात्मा कर्मपुद्गलसंश्लिष्टोऽयमेव च बन्ध इत्युच्यते। अस्य बन्धस्य सद्भावे सति, पुनः पुनरुत्पद्यमाने च न कथमप्यात्मा संसारात् निर्मुक्तो भवितु शक्नोति, नाप्येषु केषाञ्चन कर्मणां विनाशे, केषाञ्चन चाविनाशे बास्मात्संसाराद्विमुच्यतेऽपितु सर्वेषामेव कर्मणा यदा विनाश आत्मनि सजायते, तदेवातो मुक्तिः प्राप्यते । अत एभिः कर्मभिविमुक्त्यर्थमेषां सर्वेषामपि कर्मण क्षयः-विनाश आवश्यक: । सम्यक्चारित्रस्य मोक्षहेतुत्वम् यद्यपि बहुभिर्दार्शनिकैः स्व-स्व-पदार्थाना सम्यग्ज्ञानादेव मोक्षलाभोऽभिहितः, तत्र कर्मणामभावस्य कृते न चारित्रस्य प्राधान्यमावश्यकत्वं वा स्वीकृतम्, किन्तु अत्र विचारे कृते सति ज्ञायते, यद्वस्तुतस्तु तत्तत्पदार्थाना ज्ञाने सत्यपि, तेषु विरागो यदि न स्यात्, तत्कथ तेभ्यः पदार्थेभ्यो मनो-वाक्कायादीनां त्रिविधयोगानां विरक्तिर्भाविनी, विरक्त्यभावे च तत्र स्नेहादय एव प्रवर्धन्ते, तेषाञ्च सद्भावात्कथमपि पदार्थज्ञानमात्र मोक्षकारणं मोक्षस्वरूपं वा न भवितुमर्हति । पुण्यकर्मणामपि हेयत्वम् अतएव ये खलु जगति स्नेह-राग-द्वेषप्रभृतिभिर्दारैरात्मनि स्नेहादिभावानामुत्पादकाः कर्मशत्रवो विद्यन्ते, तेषां सर्वथा विनाश एव मुक्तवावश्यकः । यद्यपि कर्माण्यपि शुभाशुभरूपाणि द्विविधानि सन्ति, तत्र केवलमशुभान्येव हेयानि, शुभानि चोपादेयानीति कश्चिदभिहितम्, परम दमवधेयं यज्जनदार्शनिस्तावद्यथा खल्वशुभानि कर्माणि जगति जीवं वध्वा स्थातु लौहनिगडवदभिहितानि, तथैव शुभान्यपि कर्माण्यत्र स्थातु स्वर्णनिगडवत् स्वीकृतानि, यतो हि, उभयविधरपि कर्मभिर्बन्धः जगद्धेतुभूतः सदृश एव जायतेऽतो यथा अशुभकर्मणां निवृत्तिः जगदुच्छेदहेतो मोक्षे वा सहायिका तथैव शुभानामपि । कृत्स्नकर्मण्यो मोशः २३७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात-उद्योत स्वाथर-सूक्ष्म-साधारणानां षोडशप्रकृतीनामनिवृत्तिबादरसम्पराये समाधिना युगपत् समूलो विनाशो भवति ।। अतोऽनन्तरं च प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान-क्रोधमानमायालोभाद्यष्टकर्मकषायाणां विनाशो भवति। तत्रैव च स्त्रीनपुसकवेदयोः षड्नोकषायाणाञ्च क्रमशः क्षयो जायते। ततश्च पुवेदसञ्ज्वलनक्रोधमानमायादीनां क्रमशः क्षयो भवति । लोभसवलनस्तु सूक्ष्मसम्परायान्ते एव विनश्यते । क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थस्योपान्ते काले निद्राप्रचले क्षयं गच्छतः । पञ्चज्ञानावरणानां, चतुण्णां दर्शनावरणानां, पञ्चानामन्तरायाणाञ्च द्वादशतमगुणस्थानस्यान्ते विनाशो भवति । अब चैकः कश्चन वेदनीयः, देवगत्यौदारिक-बैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्मणसरीरषड्संस्थानानि, औदारिकर्व क्रियिकाहारकाङ्गोपाङ्गाः, षड्संहनानि, पञ्चप्रशस्तवर्णाः, पञ्चाप्रशस्तबर्णाः, द्वे गन्धे, दश प्रशस्ताप्रशस्तरसाः, अष्टो स्पर्शाः, देवगतिप्रायोग्यानुपूागुरुलघूपघातपरघातोच्छवासप्रशस्तविहायोगति-अपर्याप्तकप्रत्येकशरीरस्थिरास्थिरशुभाशुभदुर्भगसुस्वर-दुःस्वरानादेयायशस्कीति-निर्माणनीचगोत्रसंज्ञाकाश्चेत्येतासा द्विसप्ततिप्रकृतीनामयोगकेवलिन उपान्त्ये काले विनाशो भवति । एको वेदनीयो मनुध्यायुर्गतिपञ्चेन्द्रियजातिमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यत्रसबादरपर्याप्तकसुभगादेययशस्कीर्तितीर्थकरोच्चैर्गोत्राख्यानां त्रयोदशप्रकृतीनामयोगकेवलिनश्चरमे समये व्युच्छेदो भवति । कंवल्यम् (Perfect Knowledge) मिथ्यादर्शनादयो ये बन्धहेतवस्तेषां तत्तदावरणीयकर्मणां क्षये सत्यभावस्ततश्च सम्यग्दर्शनादीनामुत्पत्तिर्जायते । अत्र तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं निसर्गतोऽधिगमतश्च (परोपदेशतः) उत्पद्यते । एवं तत्सद्भावे सति सम्यग्व्यपदेशितस्य संवृतस्य निर्जरणकारणानामत्यन्तक्षयो जायते । एतस्मात्क्षयादेव सर्वद्रव्यपर्यायविषयके केवलज्ञानदर्शने प्रकटयतः याभ्यामात्मा शुद्धः, बुद्धः, सर्वज्ञः, सर्वदर्शी, जिन., केवलीति वोच्यते । ततश्चायमघातिकर्मावशिष्टं आयुष्कर्मसंस्काराज्जगति विहरन् तिष्ठति अर्यात् संवरकारणानामभावे सति बन्धकारणानामभावः, ततश्च नूनकर्मणामागमनाभावोऽतोऽनन्तरं च निर्जरकारणनिमिसात्पूर्वोपार्जितकर्मणामेकदेशक्षयोऽपि प्रारभते । एवं नून-नूनयो मोगः २३९ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मणां संवरणात्, सचित्तानाञ्च निर्जरणात् केवलज्ञान सञ्जायते । तदेवोक्तमुमास्वातिना - 'मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् " । मोहनीयस्य ज्ञानावरण-दर्शनावरणयोरन्तरायस्य च क्षये सति केवलज्ञानं केवलदर्शनञ्चोत्पद्येते । अर्थात् चतुर्णा घातिकर्मणां क्षयादेव केवलमुत्पद्यतेऽत्र मोहनीयक्षयानन्तरमेवान्येषां त्रयाणां क्षयो भवति । मोहनीयस्य क्षयान्ते दर्शनज्ञानावरणादीनाञ्च क्षयात्प्रागन्तर्मुहूर्त्तकालं छद्मस्थवीतरागत्वं भवति । ter: (Liberation) मोक्षस्तावत्कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणस्तत्राष्टी कर्माणि ( चत्वारि घातिकर्माणि, चत्वारि वाघातिकर्माणि) क्षयमुपगच्छन्ति, तत्र चतुर्णां घातिकर्मणां पूर्वमेव कँवल्यावस्थायां क्षयो जायते । अतोऽवशिष्टानां चतुर्णामघातिकर्मणा यस्मिन् काले सर्वथा क्षयो भवति, तदैव मोक्षप्रसिद्धिर्भवति । तदेव चौदारिकशरीरवियोगोऽपि जायते येनान्तेऽस्य जन्मनोऽभावो भवति, पुनश्च कारणाभावादुत्तरजन्मप्रादुर्भावोऽप्यसम्भवः स्यात् इयमेवावस्था सर्वेषामपि कर्मणां क्षयरूपा । अयमेव मोक्ष, एताशे कर्मविप्रमोक्षे मोक्षे सद्भावे सति जन्ममरणादिविरहितावस्था भवति । एवं समस्तानामपि कर्मणां सर्वथाभावादेव यावस्थोत्पद्यते सेव 'मोक्ष' इत्युच्यते । मुक्तात्मनां स्वरूपम् श्रात्मगुणसाक्षात्कारः 'चैतन्यं' जीवस्य सामान्यं लक्षणम्" । जगति सर्वविधेष्वपि जीवेषु चैतन्य - मुपलभते । यतो हि प्रत्येकमपि जीवो निसर्गादेवानन्तज्ञानदर्शनादिसामर्थ्य गुणैः सम्पन्नो भवति, परं जीवेष्वावरणीय कर्मभिः तेषां स्वाभाविकानां गुणानामुदयो न सम्भवति । आत्मीयानामेव शुभाशुभकर्मणा प्रभावाज्जीवस्य स्वाभाविक्रेषु गुणेष्वेकमावरणं सञ्जायते किन्तु अशुभकार्याणां परित्यागात्, शुभकार्याणामेवानुष्ठानाच्चास्यावरणस्य तिरोभावे सति एतेषां गुणानां साक्षात्कारो जीवे सञ्जायते । आत्मापरनामो जीवः खलु स्वतन्त्र एकः पदार्थस्तस्योपयोगलक्षणात्मकत्वात् " चैतन्यमसाधारणो गुणः, येनायं सर्वेभ्योऽपि द्रव्येभ्यः स्वीयं पृथगस्तित्वमुपलभते । चैतन्यस्यास्य बाह्याभ्यन्तरकारणवशात् ज्ञानदर्शनरूपो द्विविधः जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचन २४० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामो भवति । यदा चेदं चैतन्यं स्वतोऽभिन्नं चैतन्याकारमात्र तिष्ठति, तदा दर्शन मिति, यदा च स्वतो भिन्नं कञ्चन ज्ञयविशेषं विजानाति, तदा ज्ञानमित्युच्यते । यदा चायमुपयोगो द्विविधोऽपि केवलत्वमुपपद्यते, तदात्मनो मोक्ष: सञ्जायतेऽतोऽस्य मोक्षस्योपलब्धिस्तत्त्वतस्त्वात्मगुणानां साक्षात्काररूपैव भवति । मोक्षस्य पञ्चगतित्वम् जगतः प्रत्येकस्मिन्नपि भागे जीवानां सत्तावलोक्यते, तत्र जीवः खलु शुभाशुभकर्मणां कर्त्ता, सुखदु:खानाञ्च भोक्ता, स्वस्य प्रकाशकश्चास्ति । अतो जीवस्य परस्परं विरुद्धे द्वे अवस्थे संसार-मोक्षरूपे स्तः । अत्र संसारो यदि जन्ममृत्योः प्रतीकभूतस्तन्मोक्षस्त्वेतद्विपरीतभूत । यतो हि संसारावस्थायामात्मा कर्माधीनो भूत्वा नारक- तिर्यङ्-मनुष्य- देवगतिषु परिभ्रमति, किन्तु मोक्षस्त्वंत: , भिन्नश्चतुर्गतिनिरोध कस्तद्विरहितश्च सन् पञ्चमगतिस्वरूप एव भवति । श्रात्मनो मेदा: यदात्मा चतुर्दशष्वपि गुणस्थानेषु विचरन् समस्तानामपि कर्मणा विनाशको भवति, तदैव तस्य पञ्चमगति'र्मोक्षो' जायते । संसारावस्थायां स्थितस्य तस्य कर्माभिभूतत्वात् न तस्मिन् ता. शक्तयः प्रकटन्ति, यै खलु मुक्तावस्थायां तस्य परमात्मत्वमुपलभ्यते । ततश्चानन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्यञ्च धारयति । अव ताः शक्तय प्रकटन्ति याः खलु मोक्षहेतुरूपेण जैनदार्शनिकै स्वीकृताः विद्यन्ते । एवं संसारावस्थातो मोक्ष यावत् यद्यपि जीवस्थानन्ताः पर्यायकृताः भेदाः सञ्जायन्ते परं प्रामुख्येन त्रय एव, ते च यथा (१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा, (३) परमात्मा चेति । अत्र शरीरमेवात्मेति स्वीकरणात्म के नाज्ञानेन युक्तो जीवः - बहिरात्मा । अतो ज्ञानी आत्मा स्वकं देहाद्भिन्नं ज्ञानमयञ्चावगच्छति, एवं ज्ञात्वा यः खल्वात्मध्याने लीनः, स परमात्मज्ञोऽन्तरात्मा । एवञ्च समस्तानामपि बाह्यवस्तूनां सर्वथा परित्यागे कृते सत्यन्तरात्मैव परमात्मत्वमुपलभते । प्रात्म-कर्मणो स्वभावः राग-द्वेषादिमनोभावरूपा आत्मना सम्बद्धा: परमाणव एव कर्मेत्युच्यन्ते । मुक्तात्मनां स्वरूपम् २४१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवकर्मणोः सम्बन्धश्चानादिः । कर्मकृता एकात्मनोऽनेका अवस्थाः, अथ च कर्महेतुनव जीवस्य शरीरे स्थितिर्भवति । यद्यप्यात्मा कर्मवशात् शरीरस्थितस्तदपि तस्मात्सर्वथा भिन्नः, षड्द्रव्येषु केवलमेक एव चेतनोऽनन्तस्य ज्ञानानन्दस्यागारी भूत्वा शरीरप्रमाणश्च दर्शन-ज्ञान-गुणमुख्यः सन् मुक्तावस्थायां कर्मबन्धनशून्यत्वात् शून्यात्मकोऽपि भवति । यद्यपि सर्वेषामप्यात्मनामस्तित्वं पृथक्पृथग्विद्यते, परं गुणापेक्षया न तेषु कश्चन विशेषः, सर्वेषामप्यात्मनामनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यागारात्मकत्वात् । केवलमशुद्धावस्थायामेवेषामेतद्गुणानां कर्मावृतत्वात्परस्परं पृथक्त्वं दरीदृश्यते । परमात्मनः स्वभावः परमात्मा खलु त्रिष्वपि लोकेष्वधर्व तिष्ठति । स शाश्वतज्ञान-सुखसमृद्धः, पुण्य-पापादिभिरप्यनिलिप्तः, निर्मलध्यानादेव प्राप्यः । विश्वञ्च तस्य ज्ञाने विद्यते, सर्वस्यापि ज्ञायकत्वात् । त एतेऽनेके परमात्मान. परस्परमभिन्नाः न त्विन्द्रियगम्याः, नापि केवलेन शास्त्राभ्यासेनैव ज्ञातु शक्याः, अपितु केवल ध्यानगम्या एते ब्रह्मा-परब्रह्म-शिव-शान्तेत्याद्यपरनामकाः सन्ति । प्रात्मैव परमात्मा आत्मा खलु कर्मवशीभूत सन्, तधेतुत्वात् न परमात्मत्वमधिगन्तुक्षमो भवति, पर यदैव स स्वं विजानाति, तदेव परमात्मत्वमधिगच्छति । स्वाभाविकगुणापेक्षया तु नास्त्यात्मनि परमात्मनि वा कश्चनापि भेद । यदा स कर्मबन्धनान्मुच्यते, तदा तस्यानन्दोऽसीमित. सजायते । एतदेवात्मनो परमात्मत्वमुच्यते, अस्यामवस्थायामात्मन्यनेके गुणाः स्वभावत एवोत्पद्यन्ते। चित्तस्य नर्मल्यम् आत्मनि परमात्मत्वमधिगते सति देहादीनां समस्तानामपि परद्रव्याणां परित्यागपूर्वकं ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभिः, रागादिभावकर्मभिः, शरीरादि नोकर्मभिश्च रहितं निर्मल चित्तं सजायते, तदा स केवलज्ञानादिगुणसयुक्तः चित्तस्य नर्मल्यं भजते । शान्तः शिवश्च नैयायिकवंशेषिकः स्वीकृतो न जगतः कश्चित्कर्ता सर्वव्यापी, मुक्तः, शान्तः २४२ जनवर्शन आस्म-भव्यविवेचन Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवश्च भवत्यपितु यः खत्वनन्तज्ञानादिरूपं स्वभावं न कदापि परित्यजति, नापि कामक्रोधादिपरभावान् अधिगच्छति, अथ च त्रिष्वपि कालेषु त्रिलोकस्थितान् सर्वान्नपि पदार्थान् सर्वदा नित्यं विजानाति, स शुद्धात्मैव परमात्मत्वमधिगतः शान्तः: "", शिवश्चेत्युच्यते जैनदर्शनानुसारम् । निरञ्जनस्वभावः यस्य खल्वात्मनः श्वेत- कृष्णादिपञ्चविधाः वर्णाः, द्विविधो गन्धो, मधुराम्लादिपञ्चविधाः रसाः, भाषाभाषारूपा. (सचित्ताचित्तमिश्रिताः) शब्दाः, सप्तस्वराः, जन्ममरणे, जरा चापि न सन्ति स एव चिदानन्दः, शुद्धस्वभावः, निरञ्जनो देव परमात्मेति । अथ च - क्रोध-मद- मोहेषु, कुलजात्याद्यष्टविधाभिमानेषु, माया-मान- कषायेषु च पुण्य-पाप-स्थान-ध्यान-हर्ष-विषाद- क्षुधा तृषादिषु चैकोऽपि दोषो नास्ति, अर्थात् स्वप्रसिद्धेः महिम्नोऽपूर्ववस्तुनः संयोगस्य वियोगस्य वा इच्छारूपादिविभागपरिणामान् परित्यज्य शुद्धात्मनोऽनुभूतिज्ञानस्वरूपनिर्विकल्पकसमाधौ स्थितो भवति स एव निरञ्जनः ११, निर्मल:, ज्ञानदर्शनस्वभावः परमात्मा भवतीति । वेदः शास्त्रश्चागम्यत्वम् वेदानां शास्त्राणाञ्च शब्दरूपात्मकत्वात् नेते शब्दातीतमात्मानं परिज्ञातु शक्तुवन्ति यतो हि इन्द्रियाणि मनश्च विकल्परूपाणि मूर्तिकपदार्थज्ञानसमर्थानि शुद्धो निरञ्जनस्वरूपात्मा तु निर्विकल्पोऽमूत्तंश्च वर्ततेऽतो नायं वेद शास्त्रैरिन्द्रियादिभिर्वाधिगन्तु "पार्यते, अपितु मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगरूपैः पञ्चविधास्रवैविरहितो निर्मलस्वभावः शुद्धात्मा शास्त्रश्रवणजन्मशुद्धध्यानावाप्तितयैवानुभूयते इति । श्रात्मनो बेहस्थितावपि परमात्मत्वम् परमात्मा खलु सकल - विकलभेदेन द्विविधस्तत्र सकलपदवाच्या अहन्तः, साकाराः, शरीरसहिताः भवन्ति । यश्चोदारिकादिपञ्चविधशरीरविरहितः सर्वोत्कृष्टः, केवलज्ञान -दर्शन-सुख वीर्ययुक्तो निराकारः, स विकलः परमात्मा सिद्ध:, स एव परमपदे लोकस्योर्ध्वभागे विराजते । याशोऽयं सिद्धात्मा परमे पदे विराजते तथैवास्मिन् देहे स्थितोऽपि तत्स्वभावो"" विराजते । मुक्तावस्थायां यथाजातस्वभाव आत्मैव परमात्मा भवति, तथैव केवलमुक्तात्मनां स्वरूपम् २४३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानादिप्रकटस्वभावस्वरूपकार्य:, उपाधिरहितः, भावद्रव्यकर्म नोकर्मरूपमलेविरहितः, केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरूपः, परब्रह्म, शुद्धस्वरूप आत्मास्मिन् देहेऽवतिष्ठति । एवमनुपचरितास द्भूतव्यवहारनयापेक्षया स्वतोऽभिन्ने चेतने देहे यः स्थितः, शुद्धनयापेक्षया तु य स्वात्मस्वभावे एव स्थितः, स शुद्धः परमात्मैवास्ति, नान्यः कश्चिदिति" । तदेतन्न तु देहवशुचि, नापि मूर्तिको वास्त्यपितु पवित्रतमोऽमूर्तिकश्चैव, यतो हि देहस्तु तावदादियुक्तोऽन्तयुक्तश्च, आत्मात्वनाद्यनन्तः, लोकालोकप्रकाशकस्तथा च देहस्य जडत्वेऽपि एवम्भूते शरीरे यो देहमस्पृशन् सर्वशुचिमस्तिष्ठति स एव शुद्ध निश्चयनयेन परमात्मेत्युच्यते । मुक्तात्मनां स्वरूपम एव रागादिविकलरूपोपाधिना रहितस्य परमात्मरूपस्य भावनयोत्पन्नस्य सदानन्दस्वरूपैकलक्षणस्य सुखामृतरसास्वादतृप्ति रूपस्य निश्चयध्यानस्य परम्पराया कारणभूतेन शुभोपयोगलक्षणव्यवहारध्यानेन ध्येयभूता पञ्चपरमेष्ठिन. सञ्जायन्ते । ते च यथा ( १ ) साधव. ( Saints) । (२) उपाध्याया ( Preceptors) । (३) आचार्या (Heads of the Order of Saints ) । ( ४ ) सिद्धा: ( Perfect or Liberated Souls ) । (५) अर्हन्तश्चेति ( Worshipfull Lords ) 1 साधुस्वरूपम् (Saints ) तत्र ये खल्वात्मानः सर्वथा वीतरागसम्यग्दर्शनज्ञानाभ्या परिपूर्णा. मोक्षमार्गस्थिता., रागद्वेषादिव्यापारविप्रमुक्ता, सदाशुद्धचारित्राः, एतल्लक्षणाः साधु ""परमेष्ठिनो भवन्ति । अथ च दर्शन- ज्ञान चारित्रतपसामुद्योतन रूपञ्चतुविधमुद्योग निर्वहण - साधन निस्तरणञ्चेति विद्वद्भिराराधनमित्युच्यते । तदिद दर्शनज्ञानादिचतुष्प्रकारकमाराधनमेव बहिरङ्गमोक्षकारण भवति, यतो तस्येव बलेनात्मनि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तपश्च सञ्जायन्ते । तथा चात्मन्येतेषामेव स्थितत्वात् 'आत्मैव मे शरणम्' इत्याराधनाबलाद्द्बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गेण ये वीतरागचारित्राविनाभूत स्वशुद्धात्मान भावयन्तिसाधयन्ति त एव 'साधुपरमेष्ठिन""" इत्युच्यन्ते । २४४ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्यायाः (Preceptors) किञ्च-स्वशुद्वात्मन्युत्तमोऽभ्यासः निश्चयस्वाध्यायः । तस्य निश्चयस्वाध्यायस्वरूपधारकस्य निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूताना भेदाभेदरूपरत्नत्रयाणां, जिनकथितपदार्थानाञ्चोपदेशकाः, सर्वविधेच्छाविरहिताः, अतएव निःकाङ्क्षभावसहिता 'उपाध्यायाः' भवन्ति । अर्थात्-ये खलु बाह याभ्यन्तररूपरत्नत्रयाणामनुष्ठानेन युक्ताः, जीवाजीवादिषद्रव्येषु, पञ्चास्तिकायेषु, सप्ततत्त्वेषु, नवपदार्थेषु च क्रमशः स्वशुद्धमात्मद्रव्यम्, स्वशुद्धो जीवास्तिकायः, स्वशुद्धमात्मतत्त्वम्, स्वशुद्धः आत्मपदार्थ एवोपादेयः, अन्ये सर्वेऽपि त्याज्याः इति, तथा च उत्तम-क्षमा-मार्दवादिदशधर्माणां पालनार्थं नित्यमेवोपदिशन्ति, ते उपाध्यायाः स्वाध्यायप्रवचनपरायणाः, पञ्चेन्द्रियविषयाणा विजेतृषु स्वशुद्धात्मनि यत्नपरायणेषु यतिवरेषु प्रधानरूपाः १९ भवन्ति । waruf: (Heads of the Order of Saints) निरुपाधेः शुद्धात्मनो भावनानुभूत्योर्यः साक्षात्कारस्तव्याप्तेर्धारको यः निश्चयनयापेक्ष पञ्चविधाचारस्तयुक्ताः, पञ्चेन्द्रियदलनाः, गुणगम्भीरा आचार्यपरमेष्ठिन:२० । तत्पञ्चविधमाचरणं तु यथादर्शनाचारः 'निश्चयनयविषयभूतः, शुद्धसमयसारपदवाच्यः, भाव-द्रव्यनोकर्मादिपरपपदार्थेभ्यो भिन्नः, परमचैतन्यविलासलक्षणो यः शुद्धात्मा स एवोपादेयः' एतादृशी रुचिरेव सम्यग्दर्शनम्, तस्मिन् यदाचरणपरिणमनं, तदेव 'निश्चयदर्शनाचार' इति । ज्ञानाचारः एतस्यैव शुद्धात्मनोपाधिरहितेन स्वसंवेदनरूपेण भेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः पृथक्परिज्ञानं, तदेव सम्यग्ज्ञानमिति, तस्मिन् यदाचरणं तदेव 'निश्चयज्ञानाचार' इति । चारित्राचारः एतस्मिन्नेव शुद्धात्मनि रागद्वेषादिविकल्परूपोपाधिरहितस्य स्वाभाविकमुक्तास्मनां स्वरूपम् २४५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखस्यास्वादनेन निश्चलचित्तवृत्तिर्वीतरागचारित्रम्, तत्रावरणमेव 'चारित्राचारः' इति । तपश्चरणाचारः समस्तेष्वपि परद्रव्येष्विच्छायाः निरोधेन, अथ चानशनावमौदार्यादिद्वादशविधतपश्चरणरूपेण बहिरङ्गसहकारिकारणेन स्वस्वरूपे प्रतपनं, विजयनं निश्चयत्तपश्चरणमित्युच्यते, तत्राचरणं यत्तदेव 'निश्चयतपश्चरणाचार:' इति। वीर्याचारः एतेषां दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपश्चरणाचाराणां रक्षणाथ स्वशक्ते रनवगृहनं 'निश्चयवीर्याचार' इति । एतेषा पञ्चविधानामप्युपदेशकत्वेनैतेषु पञ्चविधेष्वप्याचारेषु स्व परञ्चानुष्ठानेन सम्बन्धयति यः स 'आचार्यपरमेष्ठि'. पदभाग्भवति। सिद्धाः (Perfect or Liberated Souls) येषामष्टविधकर्मणा बन्धो विनष्टः, ततश्च तत्सम्बन्धिनोऽष्टमहागुणाः समुत्पन्नास्ते नित्यमेव लोकाग्रस्थितिशीलाः परमात्मानः 'सिद्धाः,१२ इत्युच्यन्ते। अर्थात् शुभाशुभकायवाङ्मन क्रियाद्वैतकर्मकाण्डस्य विनाशनक्षमेण, स्वशुद्धास्मस्वरूपभावनयोत्पन्नरागादिविकल्परहितेन, परमानन्दकलक्षणेन, सुमनोहारिणानन्दनिःस्यन्दिना, क्रियारहिताद्वैतपदवाच्येन, परमज्ञानकाण्डेन विनष्टाः ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मरूपपञ्चदेहाः यस्य स ज्ञानकाण्डभावनाया परिणामरूपेण, सकल-निर्मलकेवलज्ञान-दर्शनद्वयेन लोकालोकगताना, गतागतानागतकालेषु स्थिताना समस्तानामपि पदार्थानां सम्बन्धिनोः सामान्य-विशेषयोरेकसमय एव दर्शक-ज्ञायकत्वात् लोकालोकयो ष्टा ज्ञाता च भवति । स पुन निश्चयनयापेक्षया इन्द्रियागोचरपरमज्ञानोच्छलननिर्भरशुद्धस्वभावधारणेनाकाररहितोऽपि व्यवहारेण भूतपूर्वनयापेक्षयान्तिमशरीरात्किञ्चिन्यूनाकारधारक सन् सिक्थगत ('मोम' गत) भूषाग कारवच्छायाप्रतिबिम्बवद्वा पुरुषाकारस्तिष्ठति । एतल्लक्षणयुक्त स आत्मा 'अञ्जनसिद्ध.' 'पादुकासिद्धः' 'गुटिकासिद्धः' 'खङ्गसिद्धः' 'मायासिद्ध'श्चेत्यादिलौकिकसिद्धेभ्यो भिन्नलक्षणः, केवलज्ञानाद्यनन्त२४६ जनदर्शन मात्म-द्रव्यविवेचन Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणाभिव्यक्तलक्षणः 'सिद्धपरमेष्ठी'त्युच्यते, स च लोकशिखरस्थः कायवाङ्मनस्त्रिगुप्तिरूपं यद्रू पातीतं ध्यानं तेन ध्येयो भवतीति । महन्तः (Worshipfull Lords) यो निश्चयरत्नत्रयात्मकेन शुद्धोपयोगरूपेण ध्यानेन घातिचतुष्टयप्रमुखस्य मोहनीयस्य प्राग्विनाशात्तदनन्तरञ्च ज्ञानावरण-दर्शनावरणान्तरायपातित्रिकस्य विनाशकत्वाच्च धातिचतुष्टयप्रणष्टकर्मः, ततश्चानन्त-ज्ञान-दर्शनसुख-वीर्याप्तानन्तचतुष्टयत्वात् सहजशुद्धाविनाशिज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यः, निश्चयेन शरीरविरहितोऽपि व्यवहारापेक्षया सप्तधातुभी रहितस्य सहस्रसूर्यसमप्रभस्य परमोदारिकशरीरस्य धारणात् शुभदेहो विराजतेर्हन्नित्युच्यते । एवञ्च क्षुधा-तृष्णा-भयद्वेषाद्यष्टादशदोषाभावात् शुद्धः, निरञ्जनः, आप्त आत्मा ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयान्तरायकर्मणां विनाशात्, इन्द्रादिदेवविरचितां, गर्भावतारजन्माभिषेकादिपञ्चविधमहाकल्याणरूपां पूजामहति, अतएव 'अर्हन्' इत्युच्यते इति । सन्दर्भोल्लेखाः १. स्थासू-२३५७ ।। २. तसू (ससि०)-१।४॥ ३. उसू-२६७१-७३ ॥ ४. उसू २८२-३,५,१५,२६,३०,३५ ।। ५ दवसू-४।१४-२५॥ ६. स्थासू-३।३।१६० ॥ ७. दश्रु-२१-३,५।११,१६ ॥ ८. तसंप-(पृ० १०४) । ६. उसू-२८।१०॥ १०. तवा-२। ।१॥ ११. तसू-१।२ ।। १२. वृद्रस (टीका)-४३॥ १३. तसू-१॥३॥ १४. बन्धो व्याख्यातः, पञ्चमेध्याये ॥ १५. यस्य बन्धस्य फलमवश्यमेव भोक्तव्य, तन्निकाचनम् ।। १६. द्रव्यक्षेत्रादिनिमित्तः कर्मणां या फलदानशक्तिः स उदयः ।। १७. फलदानानन्तरमात्मनः कर्मणां च सम्बन्धविच्छेदो निर्जरा ॥ १८. ताधिभा-११३ ॥ १९. गोसाजी-६५१ ॥ २०. तसा (असू०)-'भेदःसाक्षादसाक्षाच्च' । २१. तवा-१।२।२६॥ २२. ताधिभा-१॥२॥ २३. तवा-१३१०२ ॥ २४. गोसाजी-३०० ।। २५. गोसाजी-२६६॥ २६. तवा- ११॥ २७. तवा- १२॥ २८. प्ररप्र-१४॥२२५॥ २६. तवा-१।१४।१॥ ३०. गोसाजी-३०६ ॥ ३१. गोसाजी-३०८॥ ३२. तवा-१।१५८।। ३३. गोसाजी-३०७ ॥ सम्बोल्लेला २४७ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. पञ्चा । ३५. क-गोसाजी - ३०७ ॥ ३६. विवभा - १८१-१८२ ।। ३७. गोसाजी - ३०६ ॥ ३८. गोसाजी - ३०६ ॥ ४१. तवा - १।१५।१३ ॥ ४३. क-तवा- १।१६।१६ ॥ ४५. ताविभा - १।१६ ॥ ४८. तवा - १।२०।१२॥ ५१. तवा - १।१२।१ ॥ ५४. तवा - १।२१।१,२ ॥ ५७. गोसाजी - ३७१ ।। ६०. गोसाजी - ४३८ ॥ ६३. तवा - १।२५।१ ।। ६६. तवा - १।२५।१ ।। ६६. गोसाजी ४६० ॥ ७२. ताधिभा - १।२८ ॥ ७५. गोसाजी - ४६० ॥ ७८. तवा - १।१।३ ॥ ८१. प्ररप्र- १५।२२८ ।। ८४. गोसाजी - ४७२-७३ ।। ८७. तवा - ६।१८ ११,१२ ॥ ६०. तसू - ६१ ॥ ६३. तसू - ६५ ।। ६६. तवा - ६।५।६ ।। ६६. ताधिभा - ६।१५ ॥ १०१. गोसाजी - ४६५ ॥ १०४. तवा १०।२।३ ॥ १०७. तसू - १०१ ॥ ११०. पत्र - १५ ॥ ११३ पत्र- २३ ॥ ११६. निसा ७५ ॥ ११६ वृद्रस- ५३ ॥ १२२ निसा - ७२ ।। २४८ ३६. गोसाजी - ३११-३१४ ।। ४२. क-तवा - १।१६ १,६ ॥ ख -मोसाजी - ३१२ ॥ ४६. गांसाजी - ३१५ ॥ ४६. तवा - १।२०।१४, १५ ५२. गोसाजी - ३७० ॥ ५५. गोसाजी - ३७२ ॥ ५८. ६१. गोसाजी - ३७१, ३७४ गोसाजी - ४३६ ॥ ख-तवा - १५।२ ।। ४०. गोसाजी - ३१० ।। ख-गोसाजी - ३११ ॥ ४४. गोसाजी - ३१४ ॥ ४७. तसू - १।२० ।। प्ररप्र- १४१२२५ ।। ५३. तसू - १।२१ ॥ ५६. गोसाजी - ३७२ ।। ।। ५०. ।। ५६. तवा - १।२३।१ ॥ ६२. गोसाजी - ४४० ॥ ६५. तवा - १।२५।१ ।। गोसाजी- ४६० ।। तवा - १।२५।१।। ६४. ६७. गांसाजी - ४४७-४५६ ।। ६८. ७०. ताधिभा १।२७ ॥ ७३. तवा - १।२७।१,४ ॥ ७६. प्ररप्र-१४।२२६ ॥ ७९. जैद - पृ० २४१ । ८२. गोसाजी ४७० ॥ ८५. गोसाजी - ४७४ ॥ तवा - ६।१८।६,१० ॥ ८८. गोसाजी - ४७५ ।। तथा ६।४३ ॥ ६१. तवा - ६।४।२ ॥ ताधिभा - ६४ ॥ ६४. तवा - ६५१३ ।। ६५. तवा - ६।५१५ ।। ६७. तवा - ६।५।७ ॥ ६८. तवा ६।५१८ ।। १००. तवा - ६६ १०, ११, १३, १५, १७, १९, २५ ॥ १०२. तवा - ६।६।१५ ।। १०५. तवा १०।२१४ ॥ १०८. बस का० ४६ ॥ १११. पत्र - १८ ॥ ११४. पत्र - २५ । ११७. वृद्रस-५४ 1 १२०. निसा ७३ । १२३ वृस - ५१ । ७१. तवा- १।२६।५ ॥ ७४. तात्रिभा - १।२६ ॥ ७७. तसू - १।३० ॥ ८०. ताषिभा - ६१८ ॥ ८३. गोसाजी ४७१ ।। ८६. ८६ ६२. १०३. तसू - १०१२ ॥ १०६. तवा-पृष्ठ- ६४१ ॥ १०६. तसू - २८ ॥ ११२. पत्र - १६-२१ ॥ ११५. पत्र- २६ ॥ ११८. निसा ७४ ॥ १२१. वृद्रस-५२ ॥ १२४. निसा - ७१ । जनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षणमुपसंहारश्च सप्तमोऽध्यायः Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत र दर्शनदृष्ट्याऽऽत्मद्रव्यस्य समालोचनात्मकं विवेचनस् भारतीयदर्शनानां यत् स्वरूपम् सम्प्रति संस्कृतवाङ्मये दरीदृश्यते, तस्य मूल:धारात्मक आत्मैवास्ति । जगद्दावानलेन दग्धो जीवो दुःखनिवृत्तेरेकमात्रं साधनम् 'आत्मसाक्षात्कार' एवेति यदा विजानाति शृणोति वा ततः प्रभृति स आत्मान्वेषणे प्रवर्तते । अनयैव प्रेरणया यावदद्भिर्महर्षिभिराचार्यैव ये ये प्रयत्नास्तदन्वेषणे विहितास्तेषां परिणामरूपेण यादृश: साक्षात्कारस्तेरात्मनोऽधिगतस्तस्य विश्लेषणं स्वस्वसिद्धान्तेषु विहितमिति प्रथमाध्याये एवोक्तम् । तेषा तत्तत्सिद्धानामध्ययनेनेदं परिज्ञायते, यदात्मनो विभिन्नस्वरूपाणामेव पृथक्पृथक् साक्षात्कारो येन महर्षिणा येनोपायेनाधिगतः, तयोरेव तत्तद्दर्शनेषु विश्लेषणात्मकत्वादेकस्यैवात्मद्रव्यस्य जन्मनः समारभ्य मरणं यावद् विभिन्नरूपाणां जन्मान्तराणां, मृत्योरनन्तरं भाविन. सर्वकर्मविप्रमोक्षरूपस्य मोक्षस्य च भिन्न-भिन्नरूपेण विवेचनं विद्यते । जैनाचार्यास्तु प्रत्येकमपि द्रव्यमनन्तधर्मात्मक मेवामनन्त्यतस्तैस्तैराचार्यैः कृतस्य यस्य कस्याप्यायधर्मस्य साक्षात्कारात्मकस्य विश्लेषणस्य च न हेयत्वं स्वीकुर्वन्त्यपितु तेषा सर्वाण्यपि स्वरूपाण्यात्मधर्मत्वेन स्वीकृत्य पृथग् विवेचनात्मकस्य कस्यचिदेकस्य सिद्धान्तस्यात्मनो धर्मेकविवेचकत्वादप्रामाण्यमभिदधति, यतो हि नात्मनि केवलं स एव धर्मो विद्यतेऽपितु तेऽपि धर्मास्तस्मिन् सततं विद्यन्ते येषामन्यैरपि आचार्यैरेकान्तेन विश्लेषणं कृतम् । एवं विभिन्नदर्शनेषु विश्लेषितानामात्मसिद्धान्तानां कीदृशं साम्यं, कश्च विशेष: इत्येवात्र विवेच्यते । चार्वाकदर्शनापेक्षायात्मविवेचनम् भारतीय दर्शनेषु चार्वाक - जैन-बौद्धानां नास्तिकत्वं सर्वैः स्वीक्रियते, किन्तु याथार्थ्येन कानि दर्शनानि नास्तिकपदयोग्यानि, इति प्रथमेऽध्याये एवास्तिकनास्तिकविवेचने स्पष्टं जातम् । तदनुसृत्य प्रथमं चार्वाकानुसारमत्रात्मनो विश्लेषणं क्रियते । जैनेत र दर्शन दृष्ट्याऽऽत्मद्रव्यस्य समालोचनात्मक विवेचनम् २५१ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवस्य शुद्ध-बुद्ध-सर्वानन्दस्वरूपात्मकत्वाज्जगति स्थितस्यापि स्ववास्तविकस्वरूपाधिगमनाय यत्क्रियाशीलत्वं तदुःखनिवृत्यर्थमेवोपजायते । आत्मदर्शनाच्च दुःखनिवृत्तिर्भवतीति सर्वेः स्वीकृतमेव । अत एव सर्वैरात्मान्वेषणं तदर्शनार्थ साधनान्वेषणञ्च क्रियते। अत्र चार्वाकसम्प्रदायेऽनेके सिद्धान्ता आत्मविषयका विद्यन्ते, तेषु निम्नलिखिताः प्रमुखाः । भूतचैतन्यवादः प्राणिना पृथक्पृथग्बुद्ध्यात्मकत्वात्, यथा कस्यचित् मिष्टभक्षणेन, कस्यचिच्चाम्लभक्षणेनापरस्य च तिक्तरसेनानन्दानुभवस्तथैव यस्य येन दुःखनिवनिर्जायते 'तदेवात्मेति तस्य स्वीकरण स्वाभाविकम् । अत्र चार्वाकाणामिदम्मतम् ---शरीरे यच्चतन्य तत्खलु भूतानां सस्थानाद्यदृच्छयवोत्पद्यते, न केनचिद्विशिष्टेन हेतुनेति । यथा खलु द्वयोश्चतुर्णा वा पदार्थाना सम्मेलनात् प्रत्येक प्रति मादकशक्त्यभावेऽपि, सम्मिश्रणे सति मादकशक्तिरुत्पद्यते तथैव भूतानामपि (पृथिप्यप्तेजोवायूनापि) सम्मिश्रण, प्रत्येक प्रति चैतन्यस्याभावेऽपि यदृच्छया चैतन्यमुत्पद्यते । यथा हि-वृष्टौ मण्डूकादय. कीटपतङ्गादयश्च स्वत एव भूतेभ्यः समुत्पद्यन्ते, तथैव मनुष्यादिजीवेष्वपि चैतन्यमनायासमेवोत्पद्यते । एतन्मतानुसारमात्मैक. स्वतन्त्र , प्रियतम.. चैतन्ययुक्त , कर्मणा कर्त्ता चेत्यादिगुणविशिष्टः प्रत्यक्षगम्यश्चास्ति, यतश्चाय भूताना सम्मिश्रणादुत्पद्यते । देहात्मवाद लोके दृश्यते यदग्निना गृहे दग्धे सति तत्र पुत्र-भार्यादीन्नपि परित्यज्य स्वकमेव तस्मादपसारयन्ति जनाः। अनेन ज्ञायते यत्पुत्रादिभ्योऽप्यधिक देह. प्रिया, तदेवोक्तम्- 'आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रिय भवति' इत्यादि । चैतन्यं, सर्वा. क्रियाश्चापि देह एव सन्ति, अतएव चार्वाकसिद्धान्ते स्वीकृतम् 'चैतन्यविशिष्टः काय पुरुष' । एतदनुसारं शरीरस्य मृते सति न तु चैतन्यं, नापि क्रियास्तवाशिष्यन्ते, एतदेवावलोक्यते तैत्तिरीयोपनिषदि-'स वा एष अन्नरसमय पुरुष । 'स्थूलोऽहम्' 'कृशोऽहम्' 'कृष्णोऽहम्' इत्याद्यनुभवैश्चापि देह एवात्मेति निश्चीयते, अयमेव 'देहात्मवादः' इत्युच्यते। प्रात्ममनोवादः केचन च चार्वाकाचार्या इत्थमभिदधति-यत् शरीरस्य सर्वाण्यपि कार्याणि २५२ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनसः परायत्तानि । मनसोऽनवस्थानात् शरीरं न कार्यकरणक्षमं भवति, मनस्तु स्वतन्त्रं जानदञ्चास्ति । अतो मनस एवात्मरूपेण स्वीकरणं 'आत्ममनोवादः' इत्यभिधीयते । उपनिषद्यप्येतदेवोक्तम्-'अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः। इन्द्रियात्मवादः शरीरं त्विन्द्रियाधानम्, इन्द्रियाण्येव सर्वकार्यकर्तृ णि, यथा च श्रुतावपि प्रतिपादितम्-'ते ह प्राणाः पितरं प्रेत्य ऊचु.' इति । अथ 'चान्धोऽहम्' 'बधिरोऽहम्' इत्याद्यनुभवोऽपि जायते। एषु सर्वत्र 'अहम्' इतिपदमात्मार्थमेवाभिदधाति । एवमिन्द्रियाण्येवात्मेति चार्वाकेष्वेकतरसम्प्रदायेन स्वीकृतम् । किञ्चात्रापिएकेन्द्रियात्मवादो मिलितेन्द्रियात्मवादश्चेति द्वैविध्यमवलोक्यते । तत्रैकस्मिन् देहे एकमेवेन्द्रियमात्मेति स्वीकरणमेकेन्द्रियात्मवादोऽथ चेन्द्रियाणां समूह एवात्मेति मिलितेन्द्रियात्मवाद' इत्युच्यते । प्राणात्मवादः देहे खल्विन्द्रियाणां प्राणाधीनत्वं, प्राणानाञ्च प्राधान्यमस्ति । प्राणवायौ नि मृते सति शरीरमिन्द्रियाण्यपि च म्रियन्ते। प्राणाना स्थितौ तु शरीरमपि जीवति, इन्द्रियाण्यपि च कार्य कुर्वन्ति । तथा च बुभुक्षा-पिपासादीना प्राणधर्मत्वादेव 'बुभुक्षितोऽहं' 'पिपासितोऽहम्' इत्यादिव्यवहारो जायते । अतएव कश्चिदाचार्यः 'प्राणा एवात्मा' इत्युक्तम् । अयमपि प्राणात्मवाद उपनिषदा समर्थितोऽनेन वाक्येन-'अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमय.' । पुत्र एवात्मा अन्ये चेत्थमभिदधति-यत् 'पुत्र एवात्मा'इति । यतो हि, पुत्रसुखात् पिता सुखी भवति, दु.खाच्च दुखी भवति, पुत्रस्य च मृते सति तद्विरहजन्यशोकात् सोऽपि म्रियते, जगति यत्र कुत्रचित् साक्षात्परिलक्ष्यतेऽपि । अतएव 'पुत्र एवात्मा' इत्यस्य पुष्टि. कौषीतक्युपनिषत्कृता विहितानेन वाक्येन-'आत्मा व जायते पुत्र."। अर्थ एवात्मा केचन चात्र 'लौकिकोऽर्थ एवात्मेति स्वीकुर्वन्ति । तेषां कृतेऽर्थ एव प्रियतमः, यतो हि, अर्थस्य विनाशे सति तेऽपि शोकस्ता भूत्वा म्रियन्ते । जीवा अपि नेतरदर्शनहष्ट्याऽस्मद्रव्यस्य समालोचनात्मक विवेचनम् २५३ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थस्य सद्भावे सुखिनोऽभावे तु दुखिनः सजायन्ते । यस्य च पार्थों विद्यते, स एव स्वतन्त्रः, महान्, सर्वकार्यकरणक्षमः ज्ञानी चेत्युच्यते। अस्मात्कारणात् 'अर्थ एवात्मा' इति स्वीकृतम् । चार्वाकाणामेतेष्वात्मसिद्धान्तेषु सर्वत्र व भूतानां प्राधान्यादयं सिद्धान्तः 'भौतिकवादः' इत्येवोच्यते । नेते भूतेभ्योऽपि परं किञ्चिद्विमर्शयितुं क्षमाः । भौतिकवादित्वादेतैराकाश-प्राण-मनसामपि पदार्थत्वं स्वीकृतम्। प्राणास्तावत् जलीयपदार्था', मनश्चान्नमयोऽस्मात्कारणात् एतयोरपि भौतिकत्वं छान्दोग्योपनिषदि' सुम्पष्टमभिहितम् ---- 'अन्नमशितं धा विधीयते । तस्य यः स्थविष्ठो धातुस्तत्पुरोष भवति, यो मध्यस्तन्मांसं, योऽणिष्ठस्तन्मनः' । 'प्रापः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते । तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं, यो मध्यमस्तल्लोहितं, योऽरिणष्ठः स प्राणः ॥ बौद्धदर्शनीयात्मविचाराः भगवन्तं बुद्धं यदा तत्त्वज्ञानमभूत्तदाऽऽत्मसाक्षात्कारोऽपि सञ्जातः । परन्त्वास्मसाक्षात्कारो जीवस्य परम लक्ष्यमिति जानन्नपि तैरात्मनो विषये न किञ्चिदप्युक्तम् । यतो ह्यत्र तेषामियं धारणासीत्, यत् कर्तव्यनिष्ठानामुपासनेन तपसा चान्त करणशुद्धिजन्यमात्मज्ञान स्वत एव भविष्यति । अतएव ते कर्मसम्बन्ध्युपदेशं प्रागेव प्रदत्तम् । आत्मनो विषये च 'आत्मा शरीराद्भिन्नोऽभिन्नो वा ? मूर्तोऽमूतॊ वा ? मरणानन्तरमप्यय तिष्ठति न वा' ? इत्यादिप्रश्नानामुत्तरे मौनमेव स्वीकृतम् । अतो बौद्धदर्शने आत्मविषयकचर्चाणामभाव एव प्रायशोऽवलोक्यते । किञ्चात्र यद्र प-वेदना-सज्ञा-संस्कार-विज्ञानपञ्चकस्य सघात (सयोग)रूपत्वेनात्मनः स्वीकृतिरवलोक्यते । तद्विषये रीजडेविड्स"महोदयैरभिहितम्-- यन्नतेषा संयोगाद् ऋते जीवात्मा तिष्ठति, सय गश्च क्रियमाणाद् ऋतेऽसम्भव , क्रियमाणञ्चैकस्मात् भिन्नक्रियमाणाद् ऋतेऽसम्भवम्, विभागं विना चेद भिन्न क्रियमाणमप्यसम्भवम्, अतोऽयमस्त्येकस्तिरोभावो यः खलु पूर्व पश्चाद्वा कस्मिश्चित्काले पूर्ति गमिष्यत्येवेति' । एवमियमेका शाश्वता:विच्छिन्ना च प्रक्रियैव, यस्या नाम रूपञ्च किञ्चिदपि स्थायि" न विद्यते । अस्यात्मनो विषये प्रकृतेरनात्मविषये च वच्चगोत्तभिक्ष भिर्यदा बुद्धैः पृष्टं तदा तैर्मोनमेव धतम् । ततश्चास्य मौनस्य, प्रश्नानामुत्तरस्य च विषये यदा२५४ जनवर्भन आत्म-भाव्यविवेचन Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चात् ब्रह्मणो देवोत्पत्तिरूपेण ब्रह्मतत्त्वस्य व्यापकं रूपमवलोक्यते । अत्र च 'आत्मा' 'ब्रह्म' चेत्युभावपि पृथक्पृथगेवाभिहिते । ब्रह्मणो देवानामुत्पादकत्वेऽपि तेभ्योऽभिन्नत्वम्, आत्मनश्च देवेभ्यः पृथक्त्वं स्वीकृतम् । एवं ब्राह्मणारण्यकग्रन्थेषु देवोत्पत्तिहेतुभूतब्रह्मस्वरूपातिरिक्तमेवात्मस्वरूपं जन स्वीकृतम् स्वस्वबुद्ध्या । तथाहि - शतपथब्राह्मणे तु शरीरस्य मध्यमभागमेवात्मत्वेनाभिहितम्। पुनश्च त्वक्-‍ -शोणित-मांसाऽस्थिभ्य आत्मशब्दस्य " प्रयोगो विहित. । पश्चाच्च मन. बुद्ध्यहङ्कारचित्तेभ्योऽपि एष शब्दः " प्रयुक्तः । तथा च जाग्रत्स्वप्न सुषुप्ति-तुरीयावस्थाभ्योऽप्यात्मशब्दप्रयोगो" दृश्यते । ततश्चाकाशादभिन्न स्वीकृत्यात्मन पृथक्सत्ता" दृष्टिगोचरीभवति । आरण्यक ग्रन्थे पूक्तात्मस्वरूपातिरिक्तं प्राणैरभिन्नमात्मस्वरूप " 'विज्ञानमयः' 'आनन्दमय'श्चेति स्वीकृतम्, अन्ते चैतस्यैव स्वरूपस्य परिचयः प्रदत्तः " । ऐतरेय ब्राह्मणेऽस्यात्मन. स्वरूपं 'द्यावापृथिव्योर्मध्यवत्तिन आकाशादभिन्नमुक्तम्, यदा हि, ऐतरेयारण्यके आत्मन एव लोकसृष्टिरभिहिता, तथा चैतस्य निरुपाधि-सोपाधिस्वरूपाणा वर्णनं प्रस्तूय चित्स्वरूपेण पुरुषेण ब्रह्मणा " वैक्यं स्वीकृतम् । अन्यत्रापि च सुस्पष्टमभिहितम्, यत् शुद्धचैतन्यव्यतिरिक्तो न कश्चनाप्यन्य पदार्थो जगति विद्यते, देवाः, जङ्गमा. स्थावरा वा जीवाः, यत्किञ्चिद्वा जगति विद्यन्ते, तत्सर्वमप्यात्मैव एतस्मादेव सर्वेषां सृष्टि: स्थितेर्लयश्चात्रं व" । एवमात्मनो स्थूलतमात्परिच्छिन्नस्वरूपात्समारभ्य सर्वव्यापकसूक्ष्मतमस्वरूपस्य वर्णनमारण्यकेषु प्राप्यते । उपनिषत्स्वात्मा उपनिषदां प्रमुख प्रतिपाद्यमात्मैवास्ति । सहितात. समारभ्यारण्यकं यावत् यद्ब्रह्मात्मनः पृथक् प्रतिपादितम् विद्यते, तदेवात्र तदभिन्नं" स्वीकृतम् । तथा चानयोरैक्यं स्वीकृत्य नात्मातिरिक्तः कश्चनापि सत्पदार्थ - जगति स्वीकृत । अर्थाद् दृष्टृदृश्ययोश्चाभेदत्वादात्मनः सर्वव्यापित्वम् सम्पन्नम्, अतएव बृहदारण्यकोपनिषद्युक्तम्" 'सवा श्रयमात्मा ब्रह्मविज्ञानमयो मनोमयः प्राणमयश्चक्ष मंयः श्रोत्रमयः पृथिवीमय: श्रापोमय:-- धर्ममयोऽधर्ममयः सर्वमयः' इत्यादि । अयमेवात्मा ब्रह्मति वा प्राणापान- व्यानोदानवायुरूपेणास्मत्-शरीरं रक्षति, अयमेवात्मा बुभुक्षा- पिपासा-शोक-मोह जरामरणेभ्योऽस्मानुद्धारयति । अस्यैव ज्ञानात् सुतार्थस्वर्गादिप्राप्त्यभिलाषतो विरक्तो भूत्वा जीवः संन्यस्तो " जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनपु २५६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति । अथ चायमेवात्माखण्डत्वात् पूर्णत्वाच्च सदसतो, दीर्घलघ्वोः, दूरान्तिकयोश्चेत्यादिपरस्परविरुद्धधर्माणामाधारः, अतएव विभिन्नैर्दार्शनिकविविधापेक्षयाऽनेकविधमस्य विवेचन कृतम् । अस्य ब्रह्मणो ज्ञानं प्रथमं क्षत्रियेष्वेवासीत्, तत एव विप्रेरधिगतमिति बृहदारण्यकोपनिषदि प्रतीयते । अतएवाग्रेऽभिहितम् - यद्य. कोऽपि स्वीयेन तपसा ब्रह्माधिगन्तु पार्यते । यतो हि न त्वयमात्मा वेदाध्ययनेन, नापि च बुद्ध्या श्रुतेन वा प्राप्यतेऽपितु यमात्मानमात्मा वृणुते तेनैवात्मना स्वमात्मानमधिगच्छति । एतदेव कठोपनिषद्यभिहितम् - ६० १३१ 'नामात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवं वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष श्रात्मा विवृणुते तन्न स्वाम् ॥ जीवात्मनः स्वरूपम् मर्त्या मर्त्य, स्थिरमस्थिर वा स्वरूपं ब्रह्म परमात्मा वा अविद्यया संश्लिष्ट: सन् जीवात्मेत्युच्यते" । पूर्वजन्मनः कर्मानुसारञ्च सुखदुःखोपभोगात् जगति जन्ममरणयुक्तो भूत्वाऽत्रागमनात्पूर्वमेव स्वीय भोग्यं सर्वाङ्गपूर्ण स्थूलं शरीरं गृह्णाति । ततश्चेह - परलोकयोभ्रं मणं विधास्यन् स्वप्नेष्वपि द्वयोरपि लोकयोरेककालमेव ज्ञानमाप्नोत्ययम्, तथा च तस्मात् सुखदुःखमप्यनुभवति । जन्मान्तरव्यवस्था यथा खलु स्थूलशरीरशक्ते सति जाग्रदवस्थात स्वप्नावस्थायां जीवः प्रविशति, तथैव स्वीयं जर्जरितं स्थूलं शरीरं परित्यज्याविद्याया प्रभावादन्यं नूतन शरीरं गृह्णाति । अयमेव शरीरपरित्यागः 'मरणमित्युच्यते । अस्यामवस्थायां जीवो दुर्बलोऽसंज्ञिहृदयेऽवस्थितश्च भवति । तत्र प्रथमं रूपज्ञानयोविनष्टे सति, अन्यरिन्द्रियैः सहान्तःकरणमपि तस्य शिथिलं भवति । तदा च हृदयोर्ध्वभागे समुत्थितेन प्रकाशेन सहैव तस्य जीवनशक्तिरपि स्वकर्मानुसारं शरीरछिद्र ेभ्य. शरीराद्बहिर्निःसरति । तदापि तस्मिन् 'वासना' स्पष्ट परिलक्ष्यते, यस्याः प्रभावाज्जीवस्य जन्मान्तरस्वरूपस्य" निर्णयो भवति । परमपदप्राप्तिः अत्रानेन यत्कृतमासीत्तदनुसारमेवान्यज्जन्मोपलभ्यतेऽतएवैनमन्यज्जन्म सम्यग् नर्मातुं शुभकर्माणि ज्ञानाप्तये योगाभ्यासः, सद्ग्रन्थानामध्ययनञ्च विधेयम् । यस्मात् शुभकरणात् " शुभदेह स्वरूप- देशमवाप्नोति । जेनेत रदर्शन दृष्ट्याऽऽत्मद्रव्यस्य समालोचनात्मकं विवेचनम् २५७ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषस्य जन्मना सर्वेषामेव जन्मभिर्भाव्यम् ? एकस्य च नियमारणे सर्वैरपि मरणीयम् ? एकस्य चान्ये बधिरे वा जाते सर्वेरेवान्धत्वेन बधिरत्वेन बा योज्यम् ? एकस्व कार्ये संलग्ने सति सर्वैरपि कार्य-संलग्नेर्भाव्यम् ? न चेत्वं दरीहश्यतेऽतो शायते-यदिदं बहुत्वमिति विशेषणं न शुवस्वरूपस्य शस्म कथमपि भवितुमर्हति, अपितु बनपुरुषस्यैवास्ति, येन जगति स्थितस्यास्य बहुत्वमुपयुज्यते। जस्य बहुत्वे विप्रतिपतयः किञ्चात्र बहुत्वमिति कैश्चित् ज्ञस्यैव (शुद्धस्वरूपस्यैव) हठात् विशेषणं स्वीक्रियते तत्तरत्रेदमवश्यं विचारणीयम्, यत्-शस्तु तावत् शुद्धस्वरूपः सन् न कदाप्युत्पद्यते, जन्म वा गृह्णाति, नापि म्रियते, नैव चान्ध-बधिरत्वमुपगच्छति, नापि च कस्मिश्चिदपि कार्ये संलग्नो भवति, नापि तस्मिन् सत्वरजस्तमसादयो गुणाः विद्यन्ते, तत्कथमेषामभावेऽपि केवलं 'बहुत्व'मेव तत्र संघटते ? अतोऽत्रायमेवार्थो ग्राह्यः, यद्बद्धः पुरुष एव जन्ममरणाद्यपेक्षया, गुण्य विपर्ययापेक्षया च बहुत्वमधिगच्छति । अथ च सांख्यदर्शनेऽयं ज्ञः-पुरुषः, अनाद्यविद्यायाः संसर्गादनादिकालाबद्धोऽतएव शरीरस्थितो भवति, एतस्यैव (संसारस्थितस्यव) अत्र 'पुरुषः' इति सज्ञा, 'बहुत्वमस्यैव विशेषणत्वेन प्रयुक्तः' अस्यैव च प्रत्यक्षगम्यत्वादनुमानेन ग्रहणे संघातपरार्थत्वादयः पञ्चहेतवोऽभिहिताः, न तु प्रत्यक्षागम्यस्य शुद्धस्वरूपस्य ज्ञस्य ग्रहणेऽतएवात्र बद्धपुरुषयस्व बहुत्वमीश्वरकृष्णस्याभिप्रायभूत विद्यते। जस्य वैविध्यम् श्रीमद्भगवद्गीतावदत्रापि पुरुषस्य विध्यं विद्यते, तद्यथा१. निलिप्तः-ज्ञः, २. बद्धः पुरुषः (जीवात्मा) ३. मुक्तश्चेति । एतदेव तत्त्वकौमुद्याः मङ्गलाचरणे वाचस्पतिमित्रैरभिहितम् 'प्रजा ये तां जुषमाणा भजन्ते, जहत्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान्' अत्र मिश्रमहादययोरपि बहुवचनप्रयोगात् बहुत्वमुक्तम् । जगति बद्धा जीवात्मानोऽनादिकालादेव विद्यन्ते, यदि सर्वेऽपि पुरुषाः बद्धा एव स्युस्तदा 'निर्लिप्तः, त्रिगुणातीतः' इत्यादिविशेषणवाचकाः शब्दाः किमर्थम् ? मुक्ताএলিললিকায় শালীজনাশক বিকাল २६३ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्थायामपि पुरुषो न सत्त्वगुणात्सर्वथा मुक्तो भवति, अतएव मुक्तेष्वपि परस्पर वैभिन्यं विद्यते । अस्मात्कारणादेव बद्धमुक्तश्च पृथक् कश्चिदन्यः निलिप्तः, त्रिगुणातीतस्वभावो ज्ञः-शद्धस्वरूपः, पुरुषोऽवश्यमेव स्वीकरणीयः स्यात् । इत्थमत्र साख्यदर्शने एकः खलु ज्ञः पुरुषः, बद्धा मुक्ताश्च बहवः पुरुषा. । एतेषां सर्वेषामपि स्वतन्त्रमस्तित्त्वं विद्यते, येन साख्यदर्शने पुरुषस्य विध्य बद्ध-मुक्त-शुद्धस्वरूपेण सिध्यति । अत्र यः खलु शुद्धो ज्ञः पुरुष., तस्मिन् आश्रितत्वाऽलिङ्गत्व-निरवयवत्वस्वतन्त्रत्व-अत्रिगुणत्व-विवेकित्व-अविषयत्व-असामान्यत्व - चेतनत्व - अप्रसवधर्मित्व-साक्षित्व-कैवल्य-माध्यस्थ-औदासीनद्रष्ट्रत्व-अकर्तृत्वप्रभृतयः सर्वेऽपि धर्माः निलिप्तत्वादेव भवन्ति । पुरुषस्य बन्धः साख्यीय-पुरुष स्वभावात् निलिप्त., निस्सङ्ग , त्रिगुणातीत., नित्यश्चास्ति, अथ चाविद्यापि नित्यास्ति, अनयोविद्या-पुरुषयो. सयोगोऽप्यनादिरस्ति । प्रकृतिस्तु (अविद्या) जड़स्वभावापि नित्याऽनादिकालात् स्थिता च । अस्या यदा पुरुषस्य प्रतिबिम्ब बिम्बते, तदेय चेतनवत् स्वमनुभवति । व्युरक्रमेण च प्रकृतेराभासः पुरुषेऽपि प्रतिभासते, येन स निष्क्रिय , निलिप्तः, निस्त्रं गुण्योऽपि सन कर्ता, भोक्ता, आसक्तश्च प्रतिभाति । प्रकृते पुरुषस्य चेदमेवारोपित स्वरूप बन्धत्वेन स्वीकुर्वन्ति साख्या. । पुरुषस्य बन्ध-विच्छेदः अस्य पूर्वोक्तस्य बन्धस्याभाव.---प्रकृतिपुरुषयोर्द्वयोरपि स्व-स्वरूपस्य ज्ञानमेव साख्यदर्शने विवेकबुद्धिपदेनोच्यते । इयमेव पुरुषस्य मुक्तिः । तद्यथा-ज्ञानेनाविद्याया. विनाशे सति प्रकृति. पुरुषश्च स्व स्वरूपमभिजानत , इद ज्ञानमेव विवेकबुद्धिमुत्पादयति । विवेकबुद्धौ प्राप्तायां सत्या पुरुष स्वस्य निलिप्त निस्सङ्गञ्च स्वरूपमनुभवितु शक्तो भवति । ततश्च ज्ञानातिरिक्ताना धर्माधर्मादिसप्तभावाना प्रभावो यदा विनश्यति, न तदा सष्टे. किञ्चित् प्रयोजनमवशिष्यते । प्रकृतिस्तूद्देश्यास्यास्य पूर्णे सति विरता भवति, पुरुषश्च कैवल्यमधिगच्छति । परमत्र प्रारब्धकर्मणा पूर्व जन्मोपार्जितसस्काराणाञ्च स्थितित्वात् न तस्मिन्नेव काले शरीर विनश्यति, अतस्तेषा कर्मणा समुपभोगानन्तरमेव सस्काराणां विनाशात् शरीरमपि विनप्टं भवति, तदा च पुरुषस्य २६४ जनदर्शन आत्म-द्रव्यविवेचनम् Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्वैतदर्शने जीवात्मनः परमात्मना तादात्म्यं स्वीकृतम् । उपाधिवलात् भेदस्तु कल्पित एव । एतस्या उपायेविनाशे सत्येव जीवः स्वस्वरूपमधिगच्छति । इदमेव स्वरूपं ब्रह्मणः परमात्मनो वास्ति । एतदेवात्र 'तत्त्वमसि' इति महावाक्येन सम्यगुपदिष्टम् । आत्मसिद्धान्तानां समालोचनम् चार्वाकसिद्धान्तसमीक्षा चार्वाकाचार्या मूलतः प्रत्यक्षवादिन एवासन् । तदनुसारं पृथिव्यप्तेजोवायुभ्य एव सृष्टे संरचनं सम्पन्नम् । अस्माद्भूतचतुष्टयादेव देहस्योत्पत्तिस्तत्र च चैतन्यस्य समावेशोऽपि सञ्जायते । यदाय देहो विनश्यति तदा तच्चैतन्यमपि नाशमुपगच्छति अतस्तदनुसारं चैतन्यविशिष्टो देह एवात्मा, न तदतिरिक्तमात्मनः कञ्चनास्तित्व विद्यते। स्त्री-पुत्र-धन-सपत्तिजन्यं सुखमेव स्वर्गरूपम, लोकप्रसिद्ध राजैव परमेश्वरः, देहस्य विनाश एव मोक्ष इति । एवमत्र चार्वाकदृष्ट्या 'अवलोकनमेव विश्वासः' इत्यनुसारं जड़पदार्था एव विश्वसनीया. सन्ति, तेषामेव दृश्यत्वात् । आत्मा-ईश्वर-पुनर्जन्मादीनि आस्तिकदर्शनतत्त्वानि तु नेन्द्रियगम्यानि, अतएवादृश्यात्मकत्वात् न तानि विश्वसनीयानि । अतस्तानि प्रति जिज्ञासा कपोलकल्पन मौर्यमेव वास्ति । अयमेवास्य भूतवाद इति, जड़वादोऽप्यस्यैव नामान्तरम् ।। जड़वादज्ञानुसार प्रत्येकमपि वस्तु पूर्व जड़ावस्थायामचेतनावस्थायामेव वा तिष्ठति, ततस्तस्यान्यावस्था चेतनावस्था, जीवितावस्था वा भवति । एवं पदार्थस्येद चेतनस्वरूपं नैसर्गिकस्य जड़रूपस्यैव परिणामोऽतो य एव पदार्थः जड़रूपः, स एव चेतनः, जीवो वा भवितुमर्हति । अत्र यच्चैतन्यं वस्तु, तत्त्व वा, तज्ज्ञान-बुद्धि-अनुभूतियुक्तम् । अनया दृष्ट्याद्यतनीय चेतनसृष्टौ मनुष्य एव महत्तमस्तथापि न स शाश्वत:, व्यापी वेति वक्तु शक्यते, तस्य सीमित-देश-कालपरिवेष्टितत्वमेवास्त्यतएवायं एकदेशीयो नश्वरश्चास्ति, तादृशेभ्य एव तत्त्वेभ्यः (भूतेभ्यः) समुत्पन्नत्वादिति । अत्र देहात्मवादविषये शङ्कराचार्येरप्युक्तम्", यत् 'देह एवात्मा' इयमेव प्रतीतिः समस्तेष्वपि जीवव्यापारेषु मूलतः 'कार्यकरणक्षमा' । ते तु इदमप्यभिदधति,यत्-'आत्मानं देहात्पृथक् गृहीतारस्तत्त्ववेत्तारोऽपि व्यवहारेण २६६ जनदर्शन मात्म-अन्यविवेचन Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहात्मवादिन एवेति स्वतः सिध्यति' । परमत्र यदवलोक्यते तदनुसारं तु चार्वाकाचार्यातिरिक्तं रम्यंस्तत्त्वशं सर्वेरपि देहाद्भिन्नमेवात्मनः स्वरूपं + स्वीकृतमिति । बौद्धसिद्धान्तसमीक्षा अत्र तावत् जीवात्मजगज्जन्मनां विषये 'प्रतीत्यसमुत्पादाऽऽधारेणैव विचार: कृत इत्यवलोक्यते । प्रतीत्यसमुत्पादोऽयं मध्यममार्गीयः सिद्धान्तस्तदनुसारचैकतो न वस्तूनामस्तित्वे कश्चनापि सन्देहः, परं 'तानि वस्तूनि नित्यानि ' इति वक्तुं न शक्यते, तेषामुत्पत्तेरन्याश्रितत्वात् । अन्यतश्च न वस्तूनां पूर्णो विनाशोऽपि भाव्यः, अपितु तेषामस्तित्वं जगति तिष्ठत्येव । एवं वस्तु न तु पूर्णतया नित्यम्, नापि पूर्णतया (सर्वथा ) विनाशशीलमिति" । बुद्धस्यास्मिन् सिद्धान्ते नात्मनः किञ्चिदपि स्थानम्, उपनिषद्वदेषामप्यात्मा न तु नित्यः, ध्रुवो दा, नाण्यविनाश्येव । अथ चैषां दृष्ट्या तु 'आत्मवादः' महाविद्यारूप एव, अनयैवाविद्यया जीवो द्वादशावस्थाषु ( भवचक्रे) परिभ्रमंस्तिष्ठति । यच्चात्र रूप - वेदना - संज्ञा-संस्कार- विज्ञानपञ्चकस्य संघात एवात्मा, इत्यात्मकस्यापि सिद्धान्तस्य न वास्तविकत्वं प्रतिभाति, यतो हि बुद्धमतानुसारं पञ्चस्कन्धानां जगत्सारभूतानामप्यनित्यात्मकत्वात् दु खस्वरूपात्मकत्वाच्च तद्विषये 'इद मदीयम्' 'अयमहम्' 'अयं ममात्मा' इत्यादिक कल्पनमपि सर्वथानुचितम् यतो हि, ते रोगग्रस्ताः, बाधाग्रस्ताः अथ च क्षणिका अपि सन्ति, अतो नेते आत्मपदवाच्या, अपि तु दुःखपदवाच्या एव । एवमग्रे बौद्धः सुस्पष्टमभिहितम् - 'यदेभिर्यदा मानवजातेनं कथमपि कल्याण सम्भाव्यते, तत्कथमेतेषामूहापोहस्यावश्यकता ?" एवं तैः सर्वत्रैव पञ्चस्कन्धसमुद्भूतं शरीरं, तत्र स्थितमात्मानञ्चाप्यवास्तविकमिति स्वीकृतम् । बुद्धात्पूर्ववति यदात्मनः स्थानमासी सत्सम्बद्धेषु सिद्धान्तेषु परम्परागतेषु सुबहु मननं विधायान्तेऽयमेव निष्कर्ष: स्थापितः - यत् 'शरीरमेवात्मा', अयमेक एकान्त, 'शरीराद्भिन्न एवात्मा' इत्यन्यश्चैकान्तः, अनयोर्द्वयोरपि परो मध्यमार्गरूपोऽयं सिद्धान्तो यत्-नामरूपात् षडायतनानि षडायतनेभ्यः स्पर्शः, स्पर्शात् वेदना, वेदनायास्तृष्णा, तृष्णाया उपादानम्, उपादानात् भवः, भवाज्जाति: (जन्म ), जातेर्जरामरणे इति समुत्पत्तिक्रमः । आत्मसिद्धान्तानां समालोचनम् २६७ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 एवं बौद्ध:, शाश्वतवादस्योच्छेदवादस्य चातिवादितां परित्यज्याभिहितम् - यत् जगति दुःख-सुख - जन्म-मरण-बन्ध-मोक्षादयः सर्वेऽपि सन्ति परं नैषामाधारभूतः कश्चनात्मा विद्यते । इमा सर्वा अप्यवस्था. नूतनामन्यामेवावस्थामुत्पाद्य विनश्यन्ति, न पूर्वस्याः कस्याश्चित् सर्वथोच्छेदो भवति, नापि ता नित्या एव सन्ति । एवं पूर्वस्या एवास्तित्वमुत्तरत्र जायते इति । वैदिकात्मसिद्धान्तविमर्शः येन विधानेन प्रकृतेनियमा शासितास्तदेव धर्मविधानमिति । यत्रायं तत्रास्य नियामकस्य कस्यचिच्चेतनस्यापि स्वीकार आवश्यक. स्यात् । यश्चास्य जड़प्रवाहरूपस्य जगद्व्यापारस्य सञ्चालकः श्रेयबुद्धिसम्पन्नश्चेतनपुरुषस्तस्यैव विचारशीलस्य धर्मप्रवणस्याधीनमिद कर्म जगत् । स एवास्य जगतो नियन्ता, शास्ता, अधिष्ठाता वास्ति । वेदेष्वस्यैव चेतनपुरुषस्य साक्षात्कारो निर्दिष्ट । स चात्र 'देवता' इत्याख्यस्तिष्ठति । वेदिका इमाः देवता एवास्या अदृष्टशक्तेः (चैतन्यस्य) विभिन्नरूपा विद्यमाना आसन् । अतः ता एव विश्वनियन्तृरूपेण स्वीकृताः । एवमत्र बहुदेववादस्य, एकेश्वरवादस्य चेति द्विविधदेववादस्य विद्यमानेऽपि याशं जीवात्मन. परमात्मनश्चैक्यमद्वैतवेदान्ते प्रतिपादितं विद्यते, तस्य मूलस्वरूपस्य दर्शनमपि यत्रकुत्रचिज्जायते । ऋग्वेदे त्वनेक त्रैवास्य तथैव विश्लेपणमवलोक्यते यथाऽद्वैत वेदान्ते, तथाहि अद्वैतवेदान्ते यद्ब्रह्ममाययोद्वैतं कल्पित, तस्यैव सुदर्शनमत्रास्या श्रुतावपि सञ्जायते 'रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव, तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय । इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शतादश' ॥ * अर्थात् 'सर्वव्यापकश्चिद्रपः परमात्मा प्रत्येकशरीरनिहितबुद्धी प्रतिबिम्बितः सन् जीवभाव तथैवाधिगच्छति यथा घटस्थिते जले आकाशस्य प्रतिबिम्ब: घटाकार (घटभावम् ) अधिगच्छतीति । श्रौपनिषत्कात्म सिद्धान्त विमर्शः उपनिषत्स्वात्माऽजन्मा, नित्य, शाश्वत, पुरातनश्चोक्त. । जन्म-मरणविरहितोऽय शरीरस्य विनाशे सत्यपि तिष्ठति, न कश्चनापि विकारस्तस्मि न्नुत्पद्यते - एतदेव यमराजेनापि " नचिकेतोपदेशकालेऽभिहितम् । २६८ जनदर्शन आत्म- द्रव्यविवेचनम् Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमस्ति । अत्र प्रभाकरीयं विवेचनं श्रेष्ठतमं बुद्धियुक्तञ्च प्रतिभाति भट्टापेक्षया । मुक्तावस्थायामपि मीमांसकस्यात्मा (जीवात्मा) स्वतन्त्रः, परस्परं भिन्नश्च तिष्ठति । न्याय-वैशेषिकवदेभिरपि आत्मबहुत्वं स्वीकृतम् । सांस्यपुरुषसिद्धान्तविमर्शः सांख्यदर्शने चैतन्ययुक्तमेकं तत्त्वं-'पुरुषः', तथा चाचेतनमेकम्----प्रकृतिः' । अनादिकालादेवाविद्याया: संसर्गादनयोदयोश्चेतनाचेतनयोः परस्परं सम्बन्धाच्च पुरुष-प्रतिबिम्ब निरन्तरं प्रकृती बिम्बंस्तिष्ठति । प्रकृतिश्च तच्चेतनप्रतिबिम्बसम्पर्कात् चैतन्यवदेव कार्य कर्तुं सक्षमा जायते। तथा च पुरुषबिम्बेण प्रभावितायाः प्रकृतेर्गुणानामारोप. पुरुषेऽपि जायते, येन पुरुषः स्वभावतोऽनिर्लिप्तस्त्रं गुण्यरहितोऽसङ्गयुक्तोऽपि सन् स्वकमपि कर्ता, भोक्तादिरूपेणानुभवति । ज्ञानेन च यदानयोर्द्वयोः परस्परमध्यासिता आरोपा विनश्यन्ति तदा पुरुष स्वं प्रकृतेभिन्नमनुभवति, प्रकृतिश्च पुरुषं परित्यज्य न पुनस्तदर्थ सर्जनं विदधाति । इयमेव विवेकबुद्धि. (भेदबुद्धि ) कैवल्यस्य प्राप्तिर्वोच्यते । अनयवाशेषदु.खानामात्यन्तिकी निवृत्तिर्भवतीति । पश्चाच्च विवेकबुद्धेरधिगतत्वात् पुरुषः स्वरूपस्थित एव प्रकृति पश्यति, तस्या बन्धने च न पुनः समागच्छति । इयमेवास्य पुरुषस्य मोक्षावस्थेत्युच्यते।। मुक्तावस्थाया निरपेक्षस्य पुरुषस्य प्रकृतेर्दर्शकत्वाज्ज्ञायते यत्तस्य न तत्र प्रकृतेः सत्त्वगुणाद्वा सर्वथा पृथक्त्वं जायतेऽपि तु तत्रापि सत्त्वगुणस्य कश्चन सम्बन्धस्तिष्ठत्येवान्यथा तदर्शनासमर्थत्वात् ।" अथ च तत्र दर्शने रतस्य तमोगुणस्याप्यभिभव." (गुणानां परस्परमन्योन्याभिभवाश्रयजननमिथुनवृत्तित्वात्) तिष्ठति, तथा चानयोर्द्वयोरपि पुनरप्यभिभवस्याशङ्कापि तिष्ठत्येव । तत्कथं तत्र दु.खानामात्यन्तिक्यकान्तिकी वा निवृत्तिर्भवितु शक्नोति ? अय प्रश्नः समुदेत्यत्र, किन्तु सांख्यदर्शने न कस्यचिदपि वस्तुनो सर्वथाऽभावः स्वीकृतो विद्यतेऽपि तु पदार्थस्यैकरूपादन्यमेव रूप परिणममानमवलोक्यते । एवमेवात्रापि यस्यां कस्यामप्यवस्थायां न रजसादिगुणानामभावो भवितुमर्हतीति । वाचस्पतिमिश्रेणापीदमेवोक्तम् तत्त्वकौमुद्याम् ।" अथ चात्र सांख्यदर्शनानुसारं मुक्तावस्थायां पुरुषस्य 'विवेकख्यातेः' विवेकबुद्धेः प्राप्तिरेव मुक्तित्वेन स्वीकृता। तत्र 'ख्यातिः' 'बुद्धि'र्वा सत्त्वगुणस्वरूमात्ममिवान्ताना समालोचनम् २७१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतश्वासद पत्वात् ताभ्यां संश्लिष्टे सति न काचिदहानिर्भाव्या? किन्तु नैतत् बास्तविक प्रतिभाति, यत् जगदिदं ब्रह्मरूपमेव । यदीदं ब्रह्मरूपमेध स्यासदा ब्रह्मणः (जीवात्मनः) कथं ब्रह्मरूपस्य (जगतः, मायायाः वा) अभावः (विनाशो वा) शक्यः स्यात्तदभावे तु ब्रह्मण एव स्वरूपाभावावभावः स्यात् । एवमेतानि सर्वाण्यपि दर्शनान्यात्मनो मोक्षस्य च स्वरूपस्यांशिकत्वेनैव विबेचकानि सन्ति । अतएव नैतेषु कस्मिंश्चिदपि दर्शने पूर्णत्वं सम्पन्नम् । उपसंहार: भारतीयदशनसाहित्यस्यावलोकनादिदं परिज्ञायते यद्यः खल्वात्मा वैदिककाले केवलं देवात्मरूपेण सीमित आसीत्तस्यैव क्रमशो विकासे सति, उपनिषत्सु तत्सम्बद्धानि सर्वाण्यपि सम्मतानि बीजरूपेणोपलभ्यन्ते येषामाधारेणाद्य यावदनेकानि दर्शनानि विकसितानि समृद्धानि वावलोक्यन्ते, स एव क्रमशोऽनुसन्धानविषयत्व समधिगच्छन् यामवस्थामुपगतस्तत्र प्रायशः सर्वस्तस्यव स्वरूपस्य विश्लेषितत्वात् तेस्तैराचार्यैरधिगतान्यस्य विभिन्नानि स्वरूपाणि अवलोक्यन्ते। किन्तु तेषु प्रत्येकमपि स्वरूपं सम्पूर्णस्वरूपस्यानभिव्यञ्जकत्वात् न पूर्णत्वयुक्तमतोऽत्र भारतीयेषु समग्रेष्वपि दर्शनेषु सामञ्जस्यस्य समन्वयस्य वा कृते सत्येवात्मनो वास्तविक स्वरूपं निश्चेतुं शक्यते । यच्चषु दर्शनेष्वास्तिकनास्तिकविभागार्थं ये खलु हेतवः स्वीकृतास्तेषामपि निर्णयाक्षमत्वमेवावलोक्यते, यदि नेहक तहि जैनदर्शन नास्तिकपदेन व्यवहाँ केवलं 'नास्तिको वेदनिन्दकः' नायं हेतुः निष्पक्षतया स्वीकरणीयः स्यात् । यतो हि, जैनदर्शनस्य कर्मव्यवस्थाया पुनर्जन्मनि धर्मादिशुभाचरणेषु च प्रायो वेदोपनिषत्सिद्धान्तानामेव विस्तृतेन विश्लेषणेन न वेदनिन्दकत्वं समर्थ्यतेऽपितु वेदसिद्धान्तानामेव समर्थनमवलोक्यते । यच्चतैः वेदानामपौरुषेयत्वस्य विरोधः कृतस्तत्र तत्समर्थककारणाभावाद् न कोऽपि तेषामपौरुषेयत्वं बुद्ध्या स्वीकतुं शक्नोति । किञ्चात्र जैनागमेषु यत्तत्त्वविश्लेषणं भगवता महावीरेण प्रतिपादितं विद्यते, तद्विषये जनानुश्रुत्या वक्तुं शक्यते यत् न महावीरेण कस्यचिन्नूत्नतत्त्वविश्लेषणस्य प्रतिपादनमागमेषु विहितमपितु स्वस्मादपि सार्धद्विशताब्द (२५० वर्ष) पूर्व जातः पार्श्वनाथतीर्थङ्करविश्लेषितस्यैव प्रचारः प्रसारश्च कृत आसीत् । उपसंहारः २७५ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्मग्रन्थसङ केतानुक्रर्माणका अपु अवे अकमा अरा अनुसू अभिको अचिम अष्टा आप आमी इशो उसू ऋवे औपसू अग्निपुराणम् अथर्ववेदः अध्यात्मकमलमार्तण्डः अनर्घराघवम् अनुयोगद्वारसूत्रम् (शाह वेणीचन्द्र सुरचन्द्र, बम्बई) अभिधम्मकोश अभिधानचिन्तामणि अष्टाध्यायी आप्तपरीक्षा आप्तमीमासा ईशोपनिषद् उत्तराध्ययनसूत्रम् ऋग्वेद औपपातिकदशाङ्गसूत्रम् कर्मप्रकृति कठोपनिषद् कूर्मपुराणम् केनोपनिषद् कौषीतक्युपनिषद् गोम्मटसार. (कर्मकाण्डम्) गोम्मटसारः (जीवकाण्डम्) छान्दोग्योपनिषद् जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति. जाबालोपनिषद् जीवाभिगमप्रज्ञप्ति कप्र कठो कूप केनो कोउ गोसाक गोसाजी छान्दो जप्र जाउ जीवाप्र सन्दर्भमन्यसाकेतानुक्रमणिका २७१ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चाता पसं पपवि पप्र पाम पायोद पुपं पूसि प्रपञ्चि प्रवा प्रनत प्रसा प्ररप्र पञ्चास्तिकायः-तत्त्वप्रदीपिका पञ्चास्तिकाय:-तात्पर्यवृत्तिः पदार्थसंग्रहः पद्मपुराणम् पद्मनदिपञ्चविशतिका परमात्मप्रकाश: पातञ्जलमहाभाष्यम पातञ्जलयोगदर्शनम् पुग्गलपञ्चत्ति पुरुषार्थसिद्धयुपायः प्रकरणपञ्चिका (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, प्र० सं० १९६१) प्रमाणवार्तिकम् प्रमाणनयतत्वालोकालकारः प्रवचनसार. प्रशमरतिप्रकरणम् प्रज्ञापनासूत्रम् बगाल का आदिधर्म (श्रीबल्लभसूरि जैन ग्रन्थमाला प्र० स० १६५६) बाल्मीकिरामायणम् बृहदारण्यकोपनिषद् बृहद्रव्यसग्रह बृहद्रव्यसंग्रहवृत्ति. ब्रह्मसूत्रम्-शाङ्करभाष्यम् ब्रह्माण्डपुराणम् भगवतीसूत्रम् भारतीयदर्शन (डॉ० उमेशमिश्र:) भारतीयदर्शन (डा० राधाकृष्णन्) १९६६ ई. भारतीय दर्शन के मूलतत्त्व (डा० रामनाथ शर्मा, प्र० स० १९६० ई०) भारतीय संस्कृति मे जैन धर्म का योगदान (डा० हीरालाल जैन, प्र० सं० १९६२) बंआध बारा बृको बृद्रस बृद्रस (वृत्ति) अशाभा भसू भादउ भादरा भादमू भासंयो सम्बपन्यसलेतानुक्रमणिका २८१ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JOURNAL ASSI. 1840, No 696 OXHISY Oxford History of India (Smith) RECO Relativity & Commen sense (C.F.M. Denton) REUNI Restless Universe (Maxoborn) SEBOJA Seered Books of Jainas TJSM-IN The Jain Stoop Mathura-Introduction. TNAPHYWO The Nature Of The Physical World. (Eddington) BUDDHA Olden verg. 258 japin -rframan