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स्कन्धपुराण में श्री जिनेन्द्र-भक्ति
अरिहंतप्रसादेन सर्वत्र, कुशलं मम । सा जिह्वा या जिनस्तौति तौ करौ यौ जिनार्चनौ ॥७॥ सादृष्टिर्या जिने लीना तन्मनो यज्जिनेरतम् । दया सर्वत्र कर्तव्या जीवात्मा पूज्यते सदा ॥ ८ ॥
-स्कन्ध पुराण', तीसरा खण्ड, (धर्म खण्ड) अ०३८.
श्री 'अर्हन्त देव.२ के प्रसाद से मेरे हर समय कुशल है । वह ही जबान है जिससे जिनेन्द्रदेव' का स्तोत्र पढ़ा जाय और वह ही हाथ है जिन से जिनेन्द्रदेव की पूजा की जाय, वह ही दृष्टि है जो जिनेन्द्र के दर्शनों में तल्लीन हो और वही मन है जो जिनेन्द्र में रत हो।
१. स्कन्ध पराण में अहिंसा धर्म की प्रशंसा, जैन तीर्थंकरों का वर्णन और जैन
व्रतादि पालने की शिक्षा के अनेक श्लोक जानने के लिए देखिए, "जैन धर्म और हिन्दू धर्म' खन्ड ३।
२. See foot-note No. 1. P 45.
३. i जिनेन्द्र = जिन (जीतने वाला) इन्द्र (राजा) कर्म रूपी शत्रुओं तथा मन
को जीतने वालों का सम्राट ।
ii जिन, जिनेन्द्र, जिनेश्वर, सर्वज्ञ, सब का अर्थ अर्हन्त अथवा जैनियों के
पूज्य देव जानने के लिए फुटनोंट पृष्ट ४५ पर देखिये ।
iii जिन तथा जिनेन्द्र का अर्थ अधिक विशेषता से जानने के लिए देखिए ___ "श्री रामचन्द्र जी की जिनेन्द्र भक्ति" पृ० ५० ।
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