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[५५] भूमिमें भ्रमणकर समा जाऊँ...आपश्रीके दिव्य दर्शन कब किस क्षेत्रमें हो सकेंगे और दर्शनलाभ मिलनेके बाद चरणमूलमें निवास करनेका स्थान मिलेगा या नहीं?
आप परमकृपालुदेवका मार्ग जयवंत हो इसी इच्छाके साथ पत्र समाप्त करता हूँ।"
१३ 'पूजक परिषह दई रह्या, आप रह्या समभाव; धन्य संत लघुराजजी, लघुमां लघु बनी साव. ग्रीष्म तणी गरमी घणी, गणी हितकारी इष्ट,
केरी अमृत फळ बने, तेम महात्मा मिष्ट. श्री लल्लजी स्वामीके पाँवमें गठियाका दर्द बढ़ जानेसे किसी एकान्त स्थानमें असंग भावनासे रहनेकी इच्छा थी और यह बात अपने साधुमण्डलको भी बतायी थी, तथा किसीको साथमें नहीं रखा था। श्री रत्नराज, विरोधी बलोंको जानते थे इसलिए उनसे श्री लल्लजी स्वामीकी आधाररहित एकाकी स्थिति देखी नहीं जाती थी। अतः सं.१९७० के पौष मासके पत्रमें वे विनती करते हैं
"हे नाथ! इस क्षुल्लक दासकी प्रार्थना है कि प्रथम तो निकट ही कोई वर्तमान जैन देशी विक्षेपी वर्गका अभाव हो ऐसे क्षेत्र में स्वतंत्र स्थिति हो तो अच्छा..." सप्ताह बाद लिखते हैं कि “आप अकेले, गम्य क्षेत्रमें अर्थात् परिचित क्षेत्रमें कष्ट उठाकर विचरें, यह हम सुनते रहें, इसमें हमारा कल्याण है क्या? अतः आप कृतयोगी सत्पुरुषको विशेष क्या लिखें? संयमियोंकी सहायता मुख्यरूपसे संयमी ही कर सकते हैं..."
श्री लघुराज स्वामी नडियादमें 'नाना कुंभनाथ में ठहरे हुए थे। उनकी सेवामें एक भाई रहते थे। स्वामीजीको पाँवमें गठियाके दर्दके कारण चलना कठिन हो गया था अतः श्री रत्नराज आदि भक्तिभाववाले मुमुक्षुओंके मनमें ऐसी योजना इस अरसेमें बनी थी कि कोई स्थान आश्रम जैसा छोटा-सा भी कामचलाऊ बनाकर स्वामीजीके लिए अनुकूल व्यवस्था करनी चाहिये । सं.१९७०के पौष कृष्ण १२ के पत्रमें श्री रत्नराज, श्री स्वामीजीको लिखते हैं___“पवित्र मुनिश्री मोहनलालजी...को नरोडाकी ओर पधारनेकी सामान्य प्रेरणा की है...आश्रम निर्माणकी संभावना हुई है वह सिद्ध होनी ही चाहिए और इस शुभ काममें जो विघ्न-विकल्प उठते हैं उनकी शान्तिके लिए श्री मोहनलालजी...आदिमेंसे किसीकी भी वहाँ उपस्थिति होनी चाहिए..."
चैत्र मासके अन्य पत्रमें दूसरे पत्र संलग्न करते हुए लिखते हैं-“यथाशक्ति जैसे भी हो कामचलाऊ कार्य करना है। ऊँची ऊँची अभिलाषा भविष्यमें पूर्ण होती रहेंगी। फिर भी अभी तक वे बहानेपर बहाना बनाते जा रहे हैं...।" इसी मासमें तीसरे पत्रमें लिखते हैं-"नरोडा क्षेत्रमें साधुसमाधिके लिए 'सनातन जैन आश्रम' बनानेके...संबंधमें कालीदास काकाका पत्र अभी आया है कि पू०...तथा
१. भावार्थ-पूजक ही परिषह दे रहे हैं किन्तु आप समभावसे सहन करते हैं और सबसे लघुभाव धारणकर रह रहे हैं ऐसे संत लघुराजजी धन्य है। जैसे ग्रीष्म ऋतुमें गर्मी बहुत पड़ती है किन्तु उसीसे आम पककर अमृतफल बनता है, उसी तरह परिषह-उपसर्गसे तपने पर महात्माकी दशा वृद्धिंगत होती है, उनके लिये परिषह-उपसर्ग इष्ट (प्रिय) ही होते हैं।
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