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उपदेशसंग्रह-२
३३१ आतमा, तब लागेंगे रंग।' अपना आत्मा ही बोधको भी ग्रहण करनेवाला है। जब वह पुरुषार्थमें जुट जायेगा, तभी काम बनेगा। “आप ही तारिये, आप ही सब करेंगे' ऐसा हमने कृपालुदेवसे कहा । उत्तरमें उन्होंने कहा कि इतना तो आपको स्वयं करना पड़ेगा-वासना, रागद्वेष छोड़ने पड़ेंगे। इसे और कोई नहीं कर देगा। स्वयं ही पुरुषार्थ करना पड़ेगा।
माघ सुदी १२-१३ मंगल बुध, सं.१९८९ आज्ञा अर्थात् क्या?
सत्पुरुष पर ऐसी श्रद्धा कि जो वे कहते हैं वह सत्य है। उन पर प्रेम हो, उनके वचनका श्रवण हो, सुनकर उसे सत्य माने और तदनुसार प्रवर्तनके भाव हो-इस प्रकार भावका पलटना ही आज्ञा है।
चैत्र वदी ४,सं.१९८९ 'जगत आत्मारूप माननेमें आये'| परको पुद्गल समझकर आत्माको देखना। देखनेवाला (आत्मा) हो तो देखा जाता है। उसे भूलकर देखनेका अभ्यास है उसे बदल डाले । दृष्टिपरिवर्तन करना होगा।
ज्येष्ठ वदी १३, सं.१९८९ ता.२०-६-३३ ___ 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' मंत्रका स्मरण निरंतर करना चाहिये। अभी यह तो हो सकता है। फिर जो बाकी रहता है वह भी अवश्य प्राप्त होगा।
श्रावण वदी ३०, सोम,सं.१९८९, ता.२१-८-३३ ['समयसार के आस्रव अधिकारके वाचनमें 'ज्ञानी किस कारणसे कहे जाते हैं?' इस प्रश्नके प्रसंग पर] - इसका क्या मर्म है? क्या रहस्य छिपा है?
सत्पुरुष पर श्रद्धा हो, शास्त्रके वाचनसे वह श्रद्धा पुष्ट हो और आत्माको पहचाननेकी जीवको उत्सुकता हो, तब सत्पुरुषके बोधसे ऐसी श्रद्धा होती है कि यह आत्माका स्वरूप है। अर्थात् ज्ञानीको आत्माकी श्रद्धा है, वैसी श्रद्धा होना ही सम्यक्त्व है। इसी कारणसे वे ज्ञानी कहलाते हैं और उन्हें निरास्रव कहा गया है।
__ भाद्रपद सुदी १३,सं.१९८९, ता.१-९-१९३३ ['समयसार के बंध अधिकारके वाचनमें 'अभव्यको ग्यारह अंग पढ़ने पर भी
सम्यक्त्व नहीं होता' इस प्रसंग पर] दुःख आदि प्रसंगोंमें देखनेवाला मैं हूँ, कर्मफलरूप दुःख तो शरीरमें है-ऐसा भेदज्ञान सद्गुरु द्वारा नहीं हुआ जिससे ग्यारह अंगका अभ्यास निष्फल हुआ। दु:ख आदिके समय देखनेवाला अलग रहे तो समकित है।
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