Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 520
________________ उपदेशसंग्रह-४ ४२३ अपनेको तद्रूप मानता है, जिससे स्त्री, पुरुष, वृद्ध, युवान, काला, गोरारूप देखता है और रागद्वेष करता है। स्वयंने आत्माको नहीं देखा है, परंतु ज्ञानीने निश्चयनयसे कहा वैसा ही है। इसे ही याद करें और मोक्षकी, सिद्धिकी भावना करें। सबसे छूटनेकी भावना करें । ज्ञानी कृपालुदेवकी श्रद्धा कर लें। इस कलियुगमें तारणहार एकमात्र उन्हींकी शरण है, अतः दृढ़तासे पकड़ लें। तिलक लग जाय तो फिर चिंता नहीं। समकित अर्थात् आत्माकी श्रद्धा इतनी दृढ़ करनी चाहिये कि कभी विचलित न हो। मैं आत्मा ही हूँ, यह देहादि कुछ भी मेरा नहीं है, मैं सर्व द्रव्यसे भिन्न हूँ, ऐसी दृढ़ता प्राप्त करनेके लिये सदैव उसी विचारमें और ज्ञानीके स्मरणमें रहना चाहिये। संसारमें धन, अधिकार, भोगविलास, घूमना-फिरना सुख लगता है पर यह सच्चा सुख नहीं है, आत्माको बंधनमें डालनेवाला है। अपने स्वरूपको भूलाकर परमें रागद्वेष कराकर वह बंध कराता है। जिसे छूटना है, उसके लिये यह मार्ग नहीं है। कर्मोदय होने पर भी उसके प्रति उदासीन रहना तथा आत्माके स्वरूपका विचार करना वही सच्चा सुख है, इस श्रद्धाको न भूलें। यह सब तो विनाशी है। सुखके बाद दुःख, रोग, मृत्यु आदि आयेंगे ही। अतः इसे सच्चा सुख मानना मिथ्यात्व है। समकिती तो आत्माको ही सुखरूप मानता है। सम्यग्दर्शन आत्मा ही है। एकमात्र उसे ही प्राप्त कर लें। एक आत्मा ही सच्चा है। इसे ही मानें। और जो सत्पुरुष उसे प्राप्त करावें उन्हें ही माने, अन्यको नहीं। ब्रह्मचर्यसे पुण्यबंध होता है। अन्य क्रियाके समान इससे भी शुभबंधके द्वारा फलप्राप्ति होती है। पर हमें वह फल नहीं चाहिये । हमें तो मात्र छूटनेके लिये ही सब कुछ करना है। इसका वास्तविक अर्थ तो ब्रह्म अर्थात् आत्मा, उसमें चर्या अर्थात् रहना, और उसे ही ब्रह्मचर्य मानना चाहिये। इसीकी तीव्र इच्छा करें, आत्मामें निवासकी। आत्माकी ओर ही चित्त रखें। कोई मेरा नहीं है। तू मर जायेगा। व्याधि आयेगी उसे स्वयं ही भोगेगा, ऐसा सोचकर उत्कृष्ट भाव, आत्मभाव स्वीकार करनेका पुरुषार्थ करें। उसीका चिंतन मनन करें। ___ जीवको अपना ही विचार नहीं आता। अन्य सब विचार आते हैं, परंतु आत्मा संबंधी विचार नहीं करता । समकिती तो बाहरसे सब करते हैं, पर उन्हें आत्माका ही उपयोग रहता है, जिससे वे बँधते नहीं। यह आत्मज्ञान ही मुनित्व है। उनका आत्मज्ञान-उपयोग जाग्रत है अतः उनको बंध नहीं है। मात्र पूर्वबद्ध उदयमें आता है जो फल देकर छूट जाता है। क्योंकि वे उनसे अपनेको भिन्न जानते हैं, देखते हैं। पर अज्ञानी जो कुछ करता है उसमें अपनेको तद्रूप मानता है। ज्ञानीके भावपरिणाम आत्मामें है, आत्माके लिये है। अज्ञानीके भाव-परिणाम परपदार्थमें रहते हैं। जैसे परिणाम होते हैं वैसा ही बंध होता है। ज्ञानी छूटते हैं, अज्ञानी बँधता है। भव्य और अभव्यसे क्या तात्पर्य है ? यह किसी किसीको ही समझमें आता है। जिसके भाव पुण्य और पाप दोनों प्रकारके बंधसे छूटनेके हैं वह प्राणी छूटता है, उसे ही भव्य समझना चाहिये, क्योंकि उसे छूटनेका मार्ग हाथ लग गया है जिससे वह मुक्तिकी ओर प्रयाण करता है, मुक्त होनेवाला है, ऐसा कहा जा सकता है। एक पंद्रह रुपये वेतन पानेवाला सिपाही सब राजाओंको कँपा देनेवाला महान नेपोलियन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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