Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 539
________________ ४४२ उपदेशामृत ता. १-९-३४ सबकी सावधानी रखी है, सबको सँभाला है, सबकी चिंता की है, पर आत्माकी सावधानी नहीं रखी, चिंता, संभाल नहीं की। चारों गतिमें सब ओर दुःख ही दुःख है। ऋषभदेव भगवानके पास अट्ठानवें पुत्र गये थे, उन्होंने पूछा उसके उत्तरमें एक ही बात कही “संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं, दटुं भयं बालिसेणं अलंभो। एगंतदुःक्खे जरि एव लोए, सक्कम्मणा विप्परियासु वेई ।।" एक ही कार्य करना है-समकित, श्रद्धा। वह हो जाय, तो काम बन जाय। रुपये हों तो दिखाये जा सकते हैं, पर यह दिखाया जाय ऐसा नहीं है। धर्म, आत्मा यहाँ है। इसके अतिरिक्त अन्यत्र धर्म नहीं है। धर्मके नाम पर भले ही गंगा नहाये, कथाएँ पढ़े, पर धर्म तो आत्मा है। हम जो कहते हैं उसे हाँ, हाँ तो कहते हैं, पर गले नहीं उतरता (मान्य नहीं होता)। तब सुना न सुना बराबर हैं । तूंबीमें कंकर-स्पष्ट नहीं कहा जाता। 'चाबी गुरुके हाथ ।' मुमुक्षु-आप माननेको कहते हैं, पर सभी महावीरको मानते ही हैं। प्रभुश्री-कहाँ माना है? साथमें पंद्रह सौ जंजाल लगा रखे हैं। यदि एकको मानें तो काम बन जाता है, पर यहाँ तो अन्य कुछ माना है जिससे झगड़े, विरोध, गच्छ खड़े हुए हैं। यदि संसारको आत्माके रूपमें देखा जाय तो सबको नमस्कार किये जा सकते हैं या नहीं? पर लोग तो नमस्कार करनेमें ही भड़क उठते हैं ! कहाँ एकको माना है? एकको माने तो कुछ भी करना शेष नहीं रहता। देखो, दृष्टिमें अंतर है या नहीं? एक मनुष्य स्त्रीको हाड-माँसके रूपमें देखता है और एक ऊपरकी चमड़ीको देखता है। दोनोंकी दृष्टिमें कितना अंतर है? एक नरक गतिमें जाये ऐसा विकार करता है और दूसरा पुण्योपार्जन करता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टिसे महावीरको माने तो काम बन जाय । दृष्टिमें अंतर है। __ यह जीव मायाके स्वरूपमें किस प्रकार फँस रहा है! मायाके स्वरूपसे वापस लौट । सबका विचार किया किन्तु मृत्यु कब आयेगी इसका विचार किया है? यह जीव घड़ी भर भी बेकार नहीं बैठता है। संकल्प-विकल्पमेंसे अवकाश ही नहीं मिलता। आत्माको सँभालता ही नहीं। सर्वत्र आत्मा ही आत्मा है। आत्मा दिखायी नहीं देता, किन्तु भावना कर। उसमें कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ता। उसे ढूँढना प्रारंभ कर। उसीकी श्रद्धा करनी है। सत् और शील : सत् अर्थात् आत्मा, शील अर्थात् त्याग। सब छोड़कर अब यह लक्ष्य रखो। मायाके स्वरूपमें उलझनेसे क्या होता है यह देखा? यह मनुष्यभव बीत जायेगा, फिर क्या करोगे? अब अन्य सब छोड़ दो। इसका विचार करो। राजा मरकर कीड़ा बनता है, कीड़ा इन्द्र बनता है, इन्द्र वनस्पतिमें भी उत्पन्न होता है। सब दुःख ही दुःख है। आत्माकी मान्यता करने में कुछ देना नहीं पड़ता। अब भी चेत जाओ, जाग्रत हो जाओ। कहनेमें कमी नहीं है, सावधान किया है। जो बुद्धिमान होंगे वे चेत जायेंगे। ता.२-९-३४ प्रभुश्री-पापक्रिया मोहसे चली आ रही है, पर मोह कैसे जाये? मुमुक्षु-ज्ञानसे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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