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उपदेशामृत अलग ही लहर और प्रसन्नता आती है। 'आप समान बल नहीं और मेघ समान जल नहीं।' अतः स्वयं ही करना पड़ेगा, इस बातको पकड़ा तो पकड़ ही लिया, वह अब किसी प्रकार छूटनेवाला नहीं है। आत्मज्ञान पर जायेंगे तो काम बन जायेगा और पासे सीधे पड़ेंगे। “विचारकी निर्मलता द्वारा यदि यह जीव अन्य परिचयसे पीछे हटे तो सहजमें अभी ही उसे आत्मयोग प्रकट हो।" आश्चर्यजनक बात! एकदम हितकी शिक्षा । मात्र हृदयमें आत्माके लिये रोयें। तैयार हो जायें। अमृत है, किन्तु बाहरकी विकृतदृष्टि निकालनी पड़ेगी, दृष्टि बदलनी पड़ेगी। आत्मार्थ देखेंगे तो आत्माका हित होगा। वाणी अपूर्व है। जितना न हो उतना थोड़ा। कर्तव्य है। जो किया सो सही। लक्ष्य लेना जरूरी है।
ता.५-२-३६ बुरे भाव करनेसे अच्छा होगा? अच्छे भाव करेंगे तो बुरा होगा?
"भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान;
भावे भावना भाविये, भावे केवलज्ञान." इससे कोई संक्षिप्तमार्ग बतायेंगे? मार्ग तो यही है, पता नहीं लगा। इसी कारण दुःख, फिकर, चिंता है। और कहाँ जाये? आत्मभाव रखें। घूमने निकला है तो घूम, अन्यथा ठिकाने बैठ जा। ___कर विचार तो पाम' इसका क्या परिणाम आता है, वह देख लेना। सुख दुःख, रुपया-पैसा, मेरा तेरा सब राख है। आत्माके सिवाय अन्य कोई भी वस्तु वास्तवमें अच्छी लग सकती है क्या? गुत्थी पड़ी है, वह सुलझ नहीं रही है। हमने क्या किया है ? छोड़ना पड़ा है। ज्ञानीने कहा है, सब छोड़ना पड़ेगा। कुछ है नहीं, किन्तु यदि साथमें लिया तो अड़चन करेगा। नहीं लेगा तो अड़चन करेगा? अतः छोड़ना पड़ेगा। छोड़ दिया तो अड़चन नहीं होगी।
आत्मा, आत्मा-सर्वत्र आत्मा देखो। अन्य कुछ नहीं। आत्माको देखा नहीं और नहीं जाननेका जान लिया। जो देखना है उसे नहीं देखा और नहीं देखना है उसे देखा। कोई कहेगा कि हाथी, घोड़े, स्त्री दिखायी देते हैं, यह झूठ है क्या? यही देखना हो तो चौरासीके चक्करमें घूम आ। यह सब मर्मकी बात है। कोई समझता नहीं। सब उलझन है। वापस लौटना पड़ेगा, छोड़ना पड़ेगा, करना पड़ेगा, अन्यथा कुछ होनेवाला नहीं। यही बात है। यह भाव करते हुए अन्य कुछ हो तो कहना । शक्कर खानेसे शक्करका फल, विष खानेसे विषका फल । तेरे हाथमें है। तेरी ओरसे देरी है। भरत चेत! भरत चेत! बस इतना ही है। जाना नहीं है। बोध सुना नहीं है। तूंबीमें कंकर। तेरा रोना, तेरा दुःख-परवस्तु ही देखनी है? भ्रम है। परदा नहीं हटा जिससे देखा नहीं है। तो अब क्या कहना? इन सबमें ढूँढो । आत्मा कहीं नहीं है। तो अब किसको मानना है? किसको पहचानना है? पंचायत किसकी है? खाने-पीनेकी? वास्तविक पंचायत तो यही हो रही है किन्तु मार्ग तो अलग ही है, गहन है-त्यागका मार्ग है।
स्त्री, बच्चे, हाथ, पाँव सबका त्याग । फिर क्या बचा? आत्मा। अभी समझमें नहीं आया है।
ता. ६-२-३६ आप सबके पास क्या है? भाव । आत्मा है तो भाव है। बात किसके हाथमें है? जीव अच्छे भाव करे तो अच्छा फल मिलता है, बुरे भाव करे तो बुरा फल मिलता है। आत्मा कहाँ नहीं है? Jain Education International
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