Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 573
________________ ४७६ उपदेशामृत "अनुं स्वप्ने जो दर्शन पामे रे तेनुं मन न चढे बीजे भामे रे; थाये सद्गुरुनो लेश प्रसंग रे, तेने न गमे संसारीनो संग रे." सब धोखा है । अतः आत्माके बन जायें। एक सुई भी साथमें नहीं जायेगी । हरिण शिकारीके वाद्यमें लीन हो जाते हैं, तब शिकारी उन्हें तीरसे मार देता है । ऐसे ही यह जीव संसारमें लीन होकर मरणको प्राप्त होता है । आबू, ता. १०-६-३५ परदेश जाता है तब साथमें पाथेय हो तो खा सकता है, नहीं तो क्या खायेगा ? ऐसे ही मनुष्यभव प्राप्त कर पूर्व जन्मका पाथेय खा रहा है। वह समाप्त हो जायेगा तब क्या खायेगा ? अतः कुछ कर लेना चाहिये। किया हुआ व्यर्थ नहीं जायेगा। अवसर आया है । प्रतिसमय मर रहा है । मात्र अज्ञानकी भूलको निकालना है । क्षण क्षण जाग्रत रहनेकी आवश्यकता है । सत्संगमें भक्तिमें कोई भोला-भाला व्यक्ति ज्ञानीके वचन बोलता हो या पत्र परावर्तन करता हो तो उसे कान देकर सुनना चाहिये। ऐसे धन्यभाग्य कहाँ है कि उनके वचन हमारे कानमें पड़ें? वह सुनना महालाभका कारण है। पर यह जीव अन्य बाहरकी बातें कान देकर सुनता है तथा रागद्वेष कर कषायके निमित्त खड़े कर पाप बाँधता है । स्त्रियाँ पानी भरने जाती हैं, तब सिर पर घड़े रखकर अन्य बातोंमें एक घंटा निकाल देती हैं, किन्तु सत्संगमें आये तो बैठना अच्छा नहीं लगता और अरुचि होने लगती है। पढ़नेमें, सीखनेमें आलस्य, प्रमाद आये या व्याकुलता हो, उस समय कैसे भी प्रमाद, आलस्य नहीं होने देना चाहिये । मनुष्यभवका एक क्षण भी रत्नचिंतामणिसे अधिक मूल्यवान है । ज्ञानीपुरुषसे जो कुछ स्मरण या साधन थोड़ा भी मिला हो, उतना श्रद्धापूर्वक किया करे तो उसका फल कुछ और ही आयेगा, वह अंत तक ले जायेगा । 'बहु पुण्यकेरा पुंजथी' इस पद पर जीवको विचार करना चाहिये । ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार किया तो मनुष्यभव सफल है । यह व्रत लेकर किसीके साथ प्रतिबंध, दृष्टिराग या प्रसंग नहीं करना चाहिये, जाग्रत रहना चाहिये । यदि कभी इस व्रतको भंग करनेका प्रसंग आ जाये तो पेटमें छुरी भोंककर या विषका प्याला पीकर मर जायें, पर व्रत भंग नहीं करे - इतनी दृढ़ता रखें। व्रत लेकर भंग करनेसे नरकगति होती है। इस व्रतका पालन करनेसे पात्रता, समकित आदि प्राप्त होंगे; क्योंकि आपको पता नहीं है पर जिसकी साक्षीसे व्रत लिया है वह पुरुष सच्चा है, अतः दुष्प्रत्याख्यान नहीं है, किन्तु सुप्रत्याख्यान है, समझकर दिया गया है । लक्ष्य मात्र एक आत्मार्थका रखना चाहिये । 1 कृपालुदेवका वचन है कि जीवको सत्संग ही मोक्षका परम साधन है । उपदेश, सत्संगके समान संसारसे पार उतरनेका अन्य कोई साधन नहीं । सत्संगके योगसे तिर्यंचगतिके जीव भी सत्पुरुषके बोध द्वारा देवगति प्राप्त कर, समकित प्राप्त कर मोक्ष गये हैं, ऐसी शास्त्रमें कथाएँ हैं । अतः जीवको सत्संग ही करना चाहिये। इससे समकित आता है और मोक्ष भी प्राप्त होता है। सत्संग प्राप्त होने पर भी जीवको उस सत्संगकी पहचान नहीं हुई है । जीवने इस पर विचार नहीं किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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