Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 571
________________ ४७४ उपदेशामृत कहाँ मिलेगी? सत्संगमें ही आत्माकी बात होती है। रुपये-पैसेकी भांति इस बोधका लाभ दिखायी नहीं देता, ज्ञात नहीं होता, पर ज्ञानी तो जान रहे हैं। रुपया तो मिट्टी है। यहीं पड़े रहेंगे। पर आत्माका धर्म आत्माके साथ जायेगा, अतः उसे बहुत सावधानीपूर्वक सुनते रहना चाहिये । सुनते सुनते आत्मस्वरूपका भान होगा। कुछ घबराने जैसा नहीं है। 'कुछ अच्छा नहीं लगता। चलो, उठ चलें, जाये यहाँसे ।' ऐसा करना योग्य नहीं है। चाहे जितने कष्ट पड़ें तो भी तत्संबंधी बात सुननी चाहिये । साता असाता तो कर्म है, इसने बिलकुल घबराना नहीं चाहिये । यह तो अपना है ही नहीं, सब जानेवाला है, आत्माका कभी नाश नहीं होगा। उसकी पहचान कर लेनी चाहिये, वह सत्संगमें होती है। “सहज मिला सो दूध बराबर, माँग लिया सो पानी; खींच लिया सो रक्त बराबर, गोरख बोले वाणी." आबू रोड, सं. १९३५ अब योग आया है। अतः आत्माका विचार करें। मैं आत्मा हूँ। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, यह सब आत्मामें है। आत्मा अजर, अमर, अविनाशी, शाश्वत है। आत्मा स्त्री, पुरुष, नपुंसक कोई नहीं, इनसे भिन्न है। ऐसा योग मिलना दुर्लभ है। यदि जीव चेतें और चाहें तो आत्माको भी प्राप्त कर सकता है। बहुत पुण्यके पुंजसे यह मनुष्यदेह मिली है। जन्म, जरा और मरण, जन्म जरा मरणरूप संसार है। इसमें राग-द्वेष होता रहता है। धन, रुपया, स्त्री, कोई रहनेवाले नहीं है। इस भवचक्रका चक्कर कैसे मिटे? आशा तृष्णा मिटे या नहीं? इस मनुष्यभवमें जन्ममरण बढ़ानेसे बढ़ेंगे और घटानेसे घटेंगे। कैसे? भावसे । जैसे भाव वैसा फल मिलता है। किसी बातसे घबराना नहीं चाहिये। समझकी आवश्यकता है। अपूर्व सामग्री मिली है। अतः लाभ उठा लें, चूकें नहीं। सारा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। उससे बचना हो तो सत्संग और सद्बोध चाहिये। अधिकारीत्व (योग्यता) हो और भेदी मिल जाये तो मार्ग बता देते हैं। “जाण आगळ अजाण थईओ, तत्त्व लईओ ताणी; ___ आगलो थाय आग, तो आपणे थइओ पाणी." आत्माकी बात चलायी हो तो वह निकलती है और अन्य बात करनी हो तो वह निकलती है। अतः जितनी चिंता संसारकी रखता है उतनी चिन्ता आत्माकी रखे तो जन्ममरण टल जाते हैं। आबू, ता. ४-६-३५ कर्मरूपी बादल जब तक घनघोर छाये हुए हैं, तब तक अंधेरा है, पर बादल हट गये तो प्रकाश । सत्समागम होने पर कर्मरूपी बादल हट जाते हैं और प्रकाश होता है। ज्ञानीपुरुष कहते हैं कि आत्मा सबसे मुक्त है, बँधा हुआ नहीं है। पर जैसा अन्न वैसी डकार आती है। ठाली बैठे बैठे कल्पना करता रहता है। कल्पनाका कोथला है। सब मिथ्या है, वह मान्य करने योग्य नहीं है। ज्ञानी जो कहते हैं वह मान्य, प्रमाण है। जो मिला उससे संतोष रखें। शरीरका नाश होगा पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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