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उपदेशसंग्रह-६
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आत्माका नाश नहीं है। अतः आत्माकी पहचान करें। अन्य सब तो अनंत बार देखा है। सारमें सार क्या है? राजा हो या रंक हो, पर सारमें सार भक्ति है। यही साथ जायेगी। अन्य सब तो पक्षियोंके मेले जैसा है। अतः अन्यको न देखें। जब तक आत्माको नहीं जाना तब तक सब साधना झूठी है। लाखों करोडों रुपये मिलेंगे, पर यह नहीं मिलेगा। राजा हो या रंक हो, पर सब आत्मा समान हैं। अंतमें सबको शरीर छोड़ना पड़ेगा, किसीका नहीं रहा। अतः ज्ञानीका एक वचन भी पकड़ लेंगे तो काम बन जायेगा। वृद्ध, युवान, छोटा, बड़ा यह सब तो पर्याय है। मोह और अज्ञान दुःख देते हैं। वही मेरा धन, मेरी स्त्री, माँ, घर आदि ममत्वभाव कराता है । यह तो माया है, इससे सावचेत रहें। अवसर आया है। जो पकड़ेगा उसके बापका है। जो हृदयमें होगा वही होठों पर आयेगा। अतः आत्माकी भावना रखेंगे तो कोटि कर्म क्षय हो जायेंगे। ये ज्ञानीके वचन हैं । ज्ञानी ऐसी इच्छा नहीं करते कि इसका भला हो, उसका बुरा हो, वे तो सबका भला ही चाहते हैं।
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आबू, ता. ५-६-३५ जीवको दुःख, दुःख और दुःख है। सुख कहीं नहीं है। पाँव रखते पाप है, देखते विष है, सब टेढामेढ़ा है, कुछ भी सीधा नहीं, विघ्न बहुत हैं । विश्वामित्रने यज्ञ किया तब राक्षसोंने बारबार विघ्न कर यज्ञ निष्फल किया। पर जब राम आये तब सब सफल हो गया। यही राम है। जब तक दिन नहीं निकलता तब तक अँधेरा ही रहेगा। जब दिन निकलेगा तब उजाला होगा। जीवको स्त्री-पुत्र, धन-संपत्ति, कुटुंब-परिवार मिले जिससे उन्हें सुख मान बैठा कि बस, सब मिल गया। पर यह तो दुःख, दुःख और दुःख ही है। श्रेणिक राजा घोड़े पर बैठकर जंगलमें घूमने गये। वहाँ एक मुनिके वचन सुने जिससे सब कुछ बदल गया। दिनका उदय हुआ, अँधेरा मिटकर उजाला हो गया, समकित हो गया। किसे कहें ? और किसे सुनायें ? ।
'आत्मसिद्धि' भक्ति-भजन तो किये पर क्यारीमें पानी नहीं गया, बाहर चला गया। यह अब कैसे कहें ? कानेको काना कहे तो बुरा लगता है। श्रद्धा, प्रतीति करनी चाहिये । इसी मार्गसे सबका कल्याण है। भिखारीकी भाँति ठीकरा (टूटा मिट्टीका बर्तन) लेकर घूम रहा है। पर इसे फेंक देना पड़ेगा। अच्छा पात्र हो तो उसमें अच्छी वस्तु रहती है। बुरे पात्रमें अच्छी वस्तु डाले तो वह भी खराब हो जाती है। अतः पात्र अच्छा रखें। बालकके हाथमें हीरेका हार आ जाये तो वह उसे मसलेगा, तोड़ेगा, खेलेगा, क्योंकि उसकी दृष्टिमें उसका कोई मूल्य नहीं है। वैसे ही 'आत्मसिद्धि में महान चमत्कार है, पर जीवने उसे सामान्य बना दिया है। पढ़े न हों तो पढ़ना तो पड़ेगा ही। स्वच्छंदसे जो हुआ है वही जीवको बंधन है; उसे छोड़ना पड़ेगा; सत्पुरुषार्थ करना पड़ेगा। जब दाल गलती नहीं, तब उसमें कुछ डाले तो दाल गल जाती है, वैसे ही अंदर कुछ डालना होगा। करनेसे होगा। खायेगा तभी पेट भरेगा, न खाये तो कैसे भरेगा? 'भक्ति भक्ति' करता है, पर उसमें अंतर है। समझकर भक्ति करनी चाहिये। अपनी समझसे करेंगे तो कुछ लाभ नहीं, अतः सत्पुरुषकी समझसे करेंगे तो अवश्य फल मिलेगा। अन्य सब बंधन है, माया है, यह करने योग्य नहीं है। यह कुछ पोपा बाईका राज्य नहीं है।'
+ यहाँ अंधेरखाता नहीं है।
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