Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 574
________________ उपदेशसंग्रह-६ है । विचारपूर्वक निश्चय नहीं किया है कि यही आत्मा है । जीवने सुनकर उन वचनोंको परिणमित नहीं किया है, अन्यथा फल प्राप्त हुए बिना नहीं रहता । योग्यताकी कमी है । ता. ९-२-३६ आत्माका घात करनेवाले आरंभ और परिग्रह हैं । इस जगतमें कुछ नहीं है । एक आत्माकी पहचान करनी है। बच्चे न हो तो उनकी इच्छा, धन न हो तो उसकी इच्छा, पति न हो तो पतिकी इच्छा रखते हैं । सुख दुःखको जाननेवाला आत्मा है । बंध और मोक्ष भी उसीसे होता है । आरंभ और परिग्रहसे जीवका बुरा हुआ है। जीव मात्र इसीसे रुका हुआ है। इसकी इच्छा है, माया (प्रेम) है वह त्याज्य है । वह बहुत हानिकारक है । जिसे आरंभ और परिग्रह पर ममता और मूर्छा है, वह बहुत दुःखी है। इस मनुष्यभवमें सावधान हो जाना चाहिये । पवनसे भटकी कोयल है । पक्षियोंका मेला है। 'मेरे पिता, मेरी माँ, मेरा धन, मेरा कुटुंब' यह माया है। बुरीसे बुरी तृष्णा है । 1 "क्या इच्छत? खोवत सबै, है इच्छा दुःखमूल; जब इच्छाका नाश तब मिटे अनादि भूल." इच्छाका नाश करना है। समझ हो तो भवका नाश होता है। इसका भान नहीं है । जिसके लिये स्वयं मोह-मूर्छा कर दौड़भाग कर रहा है वह तो जानेवाला है, इसका भान नहीं है । यह सब बात ना समझीकी है। जन्म - जरा - मरणके दुःख अधिक हैं । सारा जगत त्रिविध तापसे जल रहा है । जो दूसरोंसे लेना चाहता है वह भिखारी है। एक संतने राजासे कहा कि तू भिखारी है। अपने राज्यको छोड़कर दूसरेका राज्य लेने जा रहा है इसलिये भिखारी है। ऐसे ही इस जीवको भी इच्छा, इच्छा और इच्छा ही है । आत्माका व्यापार किया होता तो लाभ होता, पर चमड़ेका व्यापार किया है । 'यह मेरी नाक है, मेरे हाथ है' ऐसी भावना करता है। जो अपना नहीं है उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करता है । ४७७ "जहाँ कलपना - जलपना, तहाँ मानूं दुःख छांई; मिटे कलपना - जलपना, तब वस्तू तिन पाई. " Jain Education International ऐसा कृपालुदेवने पुकार -पुकार कर कहा है । इस संसारमें किसीकी इच्छाकी भूख मिटी है ? यह किसीके हाथमें है ? इच्छाके विषयमें गहन चिंतन करना चाहिये, अंदर कुछ नहीं है। विचार करे तो उसका - इच्छाका, तृष्णाका - नाश होता है । ये सब बैठे हैं, पर किसीने आत्माको देखा है ? इसका किसीको पता है ? किसीको इसका भेदी मिला है ? यह बनिया, ब्राह्मण, बड़ा, छोटा, रोगी है? यह भी आत्मा है, यह भी आत्मा है । 'सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो, आ वचनने हृदये लखो ।' कौन बुरा करता है ? संपूर्ण जगत राग और द्वेषको घरमें निमंत्रण देता है, यदि समभावको निमंत्रण दे तो ? इस पर विचार करें। क्या हुआ ? आश्चर्यजनक हुआ ! हजारों भवका नाश हो गया । समभावके आते ही कुछ और हो गया । भेदी मिलना चाहिये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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