Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 576
________________ ४७९ कुछ स्फुट वचन' १. इस जगतमें अनेक जीव ऐसे हैं जो धर्म, पुण्य, पाप, व्यवहार, विवेक कुछ नहीं समझते। ___ उन्हें पशु समान जानना। २. धर्मको नहीं समझा, पहचान नहीं हुई तो वह मनुष्य होकर भी पशु समान है। ३. ओहो! लौकिकमें निकाल दिया है। मनुष्यभव फिर कहाँ मिलेगा? ४. मेहमान हैं, परदेशी हैं। पक्षियोंका मेला है। पवनसे भटकी कोयल जैसा है अतः कुछ कर लेना। ५. जगत अंधा है, बहरा है; जगत देखता है वह मिथ्या है, सुनता है वह भी मिथ्या है। ६. जगतमें गुरु अनेक हैं, साधु अनेक हैं, पर चाबी तो सद्गुरुके हाथमें है। ७. जिसको सत्पुरुषका बोध सुननेको मिला उसे नौ निधान मिल गये। ८. ज्ञानीको क्या कमी है? समकित देते हैं, मोक्ष देते हैं पर जीवका ही दोष है। ९. जीव चार प्रकारसे धर्म प्राप्त करता है : नमस्कारसे, विनयसे, दानसे और बोधसे । १०. सत्पुरुषका बोध सुने पर समझे नहीं, तो भी अनंत भवका क्षय करता है। पापके दल नष्ट होते हैं और पुण्यका बंध होता है। ११. पतिव्रता स्त्री अपने पतिमें चित्त लगाती है, इसी प्रकार मुमुक्षु सत्पुरुषमें, उनके बोधमें चित्त लगाये तो दालके साथ ढोकली सीझती है, गाड़ेके पीछे गाड़ी जाती है। १२. आत्मा कैसा होगा? वह कैसे ज्ञात हो ? गुरुगमसे । मैं कुछ नहीं समझता, पर ज्ञानीने जिसे जाना है वह मुझे मान्य है ऐसा रहे तो वह तिलक हुआ। १३. दो अक्षरमें मार्ग निहित है, वह क्या? ज्ञान । ज्ञान अर्थात् ज्ञानीने ज्ञानमें जैसा देखा हो वह मुझे मान्य है। १४. मनको बाहर पाप बाँधनेमें जोड़ रखा है, पर उसे आत्मामें जोड़े तो देर क्या लगेगी? १५. आत्माको पहचाननेसे ही छुटकारा है। मुझे या आपको पहचान हुए बिना मुक्ति नहीं है। १६. आत्मा पर दृष्टि करते ही समकित, समकितके बाद केवलज्ञान है। + एक मुमुक्षु द्वारा स्मृतिके अनुसार नोंधमें लिये गये स्फुट वचनोंमेंसे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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