Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 557
________________ ४६० उपदेशामृत I मात्र यह बनिया, यह छोटा, यह बड़ा ऐसी बात हुई है और होती है । 'आत्मा है, आत्मा है' ऐसा निश्चय नहीं हुआ है । “सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो, आ वचनने हृदये लखो ।” कौन बुरा करता है ? राग और द्वेष । सारा जगत इसीसे दुःख सहन करता है । समभाव करके देखो! देखो तो सही ! अब इस पर थोड़ा विचार करो । समभावसे क्या हुआ ? आश्चर्यजनक हुआ ! हजारों भव टल गये । केवलज्ञान हुआ। समभाव कर मोक्ष गये । यह तो ताली पर ताली ! कुछ आश्चर्यजनक है ! चमत्कार है! भेदी नहीं मिले। “सुनते सुनते फूटे कान, तो भी न आया ब्रह्मज्ञान । " जिसे गिनना है उसे ही छोड़ दिया है। पढ़ा है पर गुना नहीं । ठीक बात की। सम क्या वस्तु है ? इसे किसमें लोगे ? यह किसमें रहती है? जरा विचार तो करो, तूंबीमें कंकर ! विचार नहीं किया, समझा नहीं । उपालंभ देने जैसी बात कर रहा हूँ, पर सत्य है । 'समता रसका प्याला रे, पीवे सो जाने ।' - ऐसे गायेंगे, बातें करेंगे, पर बातोंसे काम होगा ? मनुष्यभव चमत्कार है, महान कमाई है । पैसे मिले दो-चारसौ रुपये, उससे क्या हुआ? साढ़े तीन हाथकी भूमि पर जला देंगे । क्षमा क्या है ? मात्र बोलना आया है, उसका नाम लेना आया है, पर उसका भान नहीं है । I ता. १६-२-३६ मनुष्यभव दुर्लभ है । महान पुण्यसे यह प्राप्त हुआ है। संबंधसे सब मिल गया है - शरीर, पैसा, सुख आदि । हमारा कथन कुछ भिन्न ही है । यह सिर कट जाय, शरीर रहे या न रहे, पर अन्य मेरा नहीं। हमें तो आत्माकी ही बात कहनी है । कोई शिक्षा देंगे तो एक आत्माकी ही, अन्य नहीं । 1 अभी जो बात हो रही है वह केवल आत्माकी है । आपको उसकी कुछ पहचान नहीं है । यह मेरा हाथ, पाँव, मुँह; मुझे दुःख हुआ, सुख हुआ ऐसा मानता है, पर यह तो सब जड़ है, आत्मा नहीं। यह बात आत्माके हितकी है। कौवे, कुत्ते सुनेंगे ? घूँट भरकर उतार दें। अनंत भव किये और भटका । पर वहाँ सुख नहीं है । मात्र एक बात है - 'सत् और शील' । सत् अर्थात् आत्मा । शील अर्थात् ब्रह्मचर्य । मेरा आत्मा ही मेरा गुरु है । उसे ज्ञानीने जाना है, वही सत्य है । जिसने जाना है, वे मेरे गुरु हैं और उनके द्वारा दी गयी भक्ति-छह पदका पत्र, बीस दोहे आदिको चिंतामणि मानकर संग्रह कर रखें। अन्य सब चला जानेवाला है, वह मेरा नहीं है । मेरा तो आत्मा है । उन्होंने जो कहा है वह करें। जीवनपर्यंत, साता हो, भान हो तब तक करना चाहिये । फिर कुछ नहीं हो सकेगा । यह बात सुनायी दे रही है ? झटके देकर बात कर रहा हूँ सो क्षमा करियेगा । मेरा तो आत्मा है। आत्माका यह निश्चय और यही मेरा गुरु और यही मुझे मान्य । दबाकर कह रहा हूँ । ब्राह्मण, बनिया, पटेलका भेद न रखें । आत्मभावना करनेसे जन्ममरणका चक्कर छूट जाता है। मैं बनिया, मैं स्त्री, मैं पुरुष, नाक, हाथ आदिमें 'मेरा मेरा' मानता है, पर कुछ तेरा नहीं है। तू तो एक मात्र आत्मा और उसे तो ज्ञानीने देखा है, वही मान्य कर। इसकी पकड़ रख। यह तो मेरा आत्मा ही है । कमी बोधकी है । उसे सुने तो दृढ़ता होती है । अनजान और अंधा बराबर । समझकी आवश्यकता है । Jain Education International ⭑ ✰✰ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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