Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 568
________________ उपदेशसंग्रह-६ ४७१ मृत्युके समय यह आज्ञा ही मानूँगा, अन्य कुछ नहीं मानूँगा। यह माननेसे ही, यह मान्यता रहनेसे ही उसके साथ जो मरण है वह समाधिमरण है। ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय सहजात्मस्वरूप आत्मा ही अपना है, ऐसा मानें। जीव स्वेच्छासे श्रद्धा, भावना करे उसकी अपेक्षा यह तो साक्षी हुई, हमारी साक्षीयुक्त हुआ। ____एक चक्रवर्ती राजा हो तो उसे जीत सकना कठिन है, तब ये तो चार चक्रवर्ती-क्रोध, मान, माया, लोभरूप-राज चला रहे हैं। उन कषाय और विषयरूपी कर्मराजाकी अनीतिके विरुद्ध सही सत्याग्रह करना है। उस विषय-कषायसे भिन्न मेरा स्वरूप तो परमकृपालुदेवने जो आज्ञा दी है उस सहजात्मस्वरूप ही है। यों प्रतिसमय दृढ़ श्रद्धापूर्वक व्यवहार करें और वैसा करते हुए जो भी आये उसे सहन करें। सहनशीलताका मार्ग है और इस प्रकारका सत्याग्रह ही सही सत्याग्रह है और यही करना है। अपनेको इस सत्याग्रहमें स्वयंसेवकके रूपमें नाम लिखवाना है। वास्तविक आत्मकल्याणरूप यह सत्याग्रह करें। परमकृपालुदेव द्वारा प्रबोधित आज्ञा सहजात्मस्वरूप ही आत्मा है और वही मेरा है, यों भावना, दृढ़ श्रद्धा, परिणाम करें। पाँच 'समवाय कारण मिले तब कार्यनिष्पत्ति होती है और उसमें पुरुषार्थ श्रेष्ठ है। अतः पुरुषार्थ ही कर्तव्यरूप है। आज्ञाकी उपासना करें और ऐसा करते हुए सदा आनंदमें रहें। मेरा स्वरूप तो ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय आत्मा ही है। उससे अन्य जो कुछ है वह विनाशी है, फिर उसका खेद क्यों? अतः खेद न करते हुए सदैव आज्ञामें लक्ष्य-उपयोग रखकर प्रवृत्ति करते हुए आनंदमें रहें । यही करना है, ऐसा निश्चय करें और यही सच्चा व्रत है। आज्ञामें उपयोग, उसकी उपासना यही आराधन करने योग्य सच्चा व्रत है। अनंतज्ञानी जो हो गये हैं उन सबका यही मार्ग है, यही आज्ञा है, और यही प्रत्यक्षरूपमें परमकृपालुदेवने बतायी है। अतः परमकृपालुदेवकी आज्ञाका आराधन करनेमें सर्व ज्ञानियोंकी उपासना आ जाती है। ____ यह बराबर स्मरणमें रखें, उपयोगमें रखें और इसी मान्यताको ऐसा दृढ़ करना है कि मृत्युके समय वही हमको हो! यही लक्ष्य रखें। इसे नित्य स्मरण करें, विचार करें। हमारी यही आपको सूचना है और यही करना है। यह किसी पुराणपुरुषकी अत्यंत कृपा है। श्रावण सुदी १४,सं. १९८८, सायं साढ़े सात बजे (मुनिश्री मोहनलालजीकी बीमारीके समय) 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' आत्मा है, भिन्न है, टंकोत्कीर्ण है, असंग है। जड़ जड़ है, चेतन चेतन है। +“काल स्वभाव उद्यम नसीब, तथा भावि बलवान; पांचों कारण जब मिले, तब कार्यसिद्धि निदान." Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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