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उपदेशामृत राख कर देंगे। व्याधि हो तब सोचें कि दुःख देहको होता है, उसको जाननेवाला ही मैं हूँ, किंतु मुझे उसका पता नहीं है । ज्ञानीने आत्मा देखा है, वैसा मेरा आत्मा है, मुझे वह मान्य है। चाहे जैसा दुःख आये तो भी श्रद्धा रखें कि जाननेवाला तो भिन्न ही है। दुःख तो शरीरको होता है। पृथ्वी पर सूर्यका प्रकाश पड़ता है, प्रकाश सूर्य नहीं है, सूर्य भिन्न है। ‘बात माननेकी है।' श्री वीतराग भगवानने कहा है, 'सद्धा परम दुल्लहा' । श्रद्धा रखनी है।
आपसे हमें कुछ लेना नहीं है, हमारे बनाना नहीं है, कंठी बाँधनी नहीं है या अन्य धर्म मनवाना नहीं है। जो आपका है वही आपको मानना है। विश्वास है इसलिये कह रहे हैं। विश्वास न हो तो सामान्य हो जाता है-ऐसा होता है कि इसमें क्या कहा? ऐसा तो अनेक बार सुना है, ऐसा न करें। यहाँ आत्माकी बात है। यह बात भिन्न ही है। जिसका चिंतन किया हो वही दिखायी देता है। आत्माका जैसा चिंतन किया हो वैसा दिखायी देता है। किन्तु वह अरूपी है, आँखसे दिखायी नहीं दे सकता। ज्ञानदृष्टिसे ही दिखायी देता है। वह प्राप्त न हो तब तक श्रद्धा रखनी चाहिये कि मुझे मेरा आत्मा दिखायी नहीं देता है, पर वह है; ज्ञानीने देखा वैसा मेरा आत्मा है।
“दर्शनमोह व्यतीत थई ऊपज्यो बोध जे।" 'अपूर्व अवसर में अपूर्व बात है! उसमें बताया है वैसी भावना करनी है। देखते ही रूप दिखाई देता है; पर आत्मा है तो आँखें देख सकती हैं, अतः पहले आत्मा देखें । दिखाई देता है, वह तो जड़ है, आत्मा नहीं है। ___ "जगत आत्मारूप देखा जाय।" वह कैसे देखें? क्या बदलना है? समझ । जनकविदेहीने क्या बदला था? समझ । झोंपड़े जलते देखकर सभी संन्यासी तूंबी आदि लेने दौड़े, पर जनक विदेहीने सोचा कि नगर जलनेसे मेरा कुछ नहीं जलता । “दर्शनमोह व्यतीत थई ऊपज्यो बोध जे ।" समझ बदलनेकी आवश्यकता है। अन्य सब यहीं पड़ा रहेगा।
__ श्रेणिक राजाको अनाथी मुनिसे बोध हुआ, समझ बदली । जो ‘मेरा' माना जाता था वह 'मेरापन' मिट गया। शेष सब राजपाट, वैभव, स्त्री आदि जो प्रारब्धानुसार विद्यमान था वह वैसा ही रहा।
पहले विश्वास चाहिये, प्रतीति चाहिये। सभी मंत्र ले जाते हैं वह पुण्यका कारण है, किन्तु कल्याण होनेके लिये सच्चे बननेकी भावना होनी चाहिये।
अकाल पड़ा हो तब दयालु सेठ गरीबोंको भोजन देनेका प्रबंध करते हैं। वैसे ही यह काल कलियुग है। परमार्थका दुष्काल जैसा है। ऐसे कालमें ज्ञानीपुरुषोंका बोध सदाव्रत समान है। वही
* जनकविदेहीके गुरु जनकके राज्यसभामें आने पर व्याख्यान प्रारंभ करते थे। श्रोताओंमें अनेक संन्यासी भी थे। वे नदी किनारे झोंपड़े बनाकर रहते थे। उन्हें ईर्ष्या हुई, कि हम त्यागी हैं और यह जनकराजा तो गृहस्थ है, फिर भी गुरु इनका सन्मान क्यों करते हैं ?
___ यह बात गुरुने जानी, तब उन्हें समझानेके लिये एक दिन गुरुने ऐसा चमत्कार दिखाया कि मानो नदी किनारेके झोंपड़े जल रहे हों। यह देखकर सब संन्यासी अपनी तूंबियाँ, कपड़े, माला, आसन आदि लेने दौड़ पड़े। दूसरे दिन जनकराजा सभामें आये तब मिथिलानगरी जलती दिखायी, पर जनक राजाने कहा कि मेरा कुछ नहीं जल रहा है। ऐसा कहकर वे व्याख्यानमें शांतिसे बैठे रहे ।
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