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उपदेशसंग्रह-५
४५५ करता है। अन्यके घर मरण, उसमें मुझे क्या? जिसकी गिनती करनी चाहिये उसकी गिनती तो करता नहीं और दूसरोंके लिये रोता है। बच्चा हुआ उसे खिलानेमें सुख मानता है! यदि कोई उसे कहे कि यह तो तेरा वैरी है तो हाँ कहकर पुनः उसे खिलाने लगता है। इसी प्रकार जीव कहता तो है, पर मानता नहीं। समझकर समा जाना है। किसीको कुछ कहना नहीं है।
वेदनाको दो मिनिट रुकनेके लिये कहा हो तो वह नहीं रुकेगी। पैसेको दो मिनिट रहनेको कहा हो तो वह नहीं रहेगा। जो जानेके लिये ही आया है उसके लिये तू क्यों व्यर्थ माथापच्ची करता है ? समझ प्राप्त करनी है। समझसे ही छुटकारा है, अन्य कोई उपाय नहीं। अनेक मर गये, तुझे भी मरना है। पर आत्मा मरा क्या? नहीं। तो फिर तू किसके लिये रोता है ? किसके लिये विलाप करता है? यही भूल है। भूल तो निकालनी ही पड़ेगी। 'धिंग धणी माथे किया।' वह कर ले।
"नहि बनवानुं नहि बने, बनवं व्यर्थ न थाय;
कां ए औषध न पीजिये, जेथी चिंता जाय." यह औषधि पी ले। अमुक भाई नहीं आये तो इसकी चिंता क्यों करता है? किसलिये विलाप करता है? सब मानना छोड़ दे, आत्माको मान। कुछ रहनेवाला नहीं है, तब फिर वह तेरा कैसे
होगा?
ता. १७-१२-३५ मुमुक्षु-जड़ और चेतन ये दो वस्तु हैं ऐसा सुनते हैं, फिर भी देहाध्यासके कारण आत्माकी ओर लक्ष्य नहीं रहता। तब देहाध्यास कम कैसे हो?
प्रभुश्री-अनादिकालसे जीवने देहको ही सँभाला है, आत्माको नहीं सँभाला। वह तो मानो है ही नहीं ऐसा समझ लिया है। वास्तवमें यदि वह न हो तो सब मुर्दे हैं। भाव करें। जैसे कोई महामंत्र हो वैसे ही 'बीस दोहे' विष उतारनेके लिये महामंत्र है। यह अमृत है। विश्वास और प्रतीति चाहिये।
ता. २७-१२-३५ भ्रांतिसे आत्मा परभावका कर्ता है, यह ज्ञानी पुरुषका वचन है। मिथ्यात्व और मोहके कारण अज्ञान है। इन्हें हटानेसे ज्ञान होता है। पर उसे हटानेके लिये ज्ञानीपुरुष, सत्पुरुषकी आज्ञा, सद्बोध निमित्तकारण हैं। औषध तो ले किन्तु पथ्यका पालन न करे तो रोग नहीं मिटता। यद्यपि औषधि विक्रिया नहीं करती, पर रोग नहीं मिटता। इसी प्रकार मंत्रके साथ सत् शीलके व्यवहाररूप पथ्यका पालन न करे तो कर्मरूप रोग मिटता नहीं। इच्छाका निरोध करें। विषय, कषाय अर्थात् क्रोधादि, रागद्वेष कम करनेकी प्रवृत्ति न हो तो मंत्ररूपी औषधिसे अन्य विक्रिया तो नहीं होती, पर कर्मरूपी रोग नहीं मिटता।
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