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उपदेशामृत लेगा। ऐसे ही सबके भाव होते हैं। जिसे जैसी पकड़ होती है उसे वैसे ही भाव होते हैं। बात सुनते ही भाव होते हैं। अतः आत्माकी बात सुननी चाहिये। अन्य बातोंमें आत्मा नहीं है। ज्ञानीकी वाणी ही अलग होती है। सुननेसे भाव होते हैं। फिर श्रद्धा होने पर परिणमन होता है। कहा है
"आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे।"
ता. २८-८-३५ मानो आत्मा है ही नहीं, इस प्रकार उसे भुला दिया गया है। सच माने, आत्मा है। वह न हो तो ये सब मुर्दे हैं। उसीको याद करें। लोग कहते हैं न कि यह मनुष्य मर गया, पर हमारा उससे कोई संबंध नहीं, हमें स्नानसूतक नहीं लगता। ऐसा ही परभावके लिये हो जाना चाहिये। देहको कुछ भी हो उससे मुझे क्या है ? यह तो संयोग है, संबंध है । वह आत्मा नहीं है।
__ ता.३१-८-३५ त्याग, तप ही भक्ति है। अनादिकालसे क्या बाधक है ? विषय, और उसके कारण कषाय। सत् और शील-सत् अर्थात् आत्मभावना, शील अर्थात् त्याग । त्यागकी आवश्यकता है, वह भक्ति है।
ता.४-९-३५ आत्मा है । आत्माकी रिद्धिका वर्णन नहीं हो सकता। बात अपूर्व है! उसीके गीत गाने हैं। चलते-फिरते, उठते-बैठते उसीका भाव करना है। उसके सुखका वर्णन नहीं हो सकता। जिसने उसे जान लिया है उसकी हमें प्रतीति हो जाय, उसकी मान्यताके अनुसार हमारी मान्यता हो जाय तो दीपक प्रज्वलित हो जायेगा। इसमें भी ब्रह्मचर्य तो बहुत पात्रता प्रदायक साधन है, इससे देवगति प्राप्त होती है। सत् श्रद्धा करना ही मुख्य बात है। ऐसी आस्था ही हितकारी है। अन्य वस्तुओं पर जो प्रेम है उसे वहाँसे हटाकर एक आत्मा पर प्रेम लावें तो कल्याण होता है। इस पर लक्ष्य देने जैसा है। यह अपूर्व अवसर आया है। आत्मा है, यही भावना करनी है। अनेक जीवोंके कल्याणका कारण होगा। त्यागकी बलिहारी है! यथाशक्ति त्याग करना चाहिये । जीवके अनंत दोष हैं। जितना त्याग किया जाय उतना ही हितकारी है। द्रव्य प्रत्याख्यान, भाव प्रत्याख्यान, आत्माके लिये करनेसे विशेष हितकारी हैं। भावके अनुसार फल प्राप्त होता है, भगवानके इस वचनको सब ध्यानमें रखें।
__ अनेकोंका कल्याण होगा, काम बन जायेगा। आत्माके लिये सब करना चाहिये। विकल्पका त्याग ही अमृत है, आत्माका हित है। भोलेभाले जीव बहुतसे आये हैं, अनेकोंको लाभ हुआ है। कहनेका तात्पर्य यह है कि आत्मार्थके लिये करना चाहिये, देहके लिये नहीं। तीन योग बंधन हैं। ज्ञानीने जाना है वह आत्मा मान्य हो जाय तो कल्याण है। योग्यताकी कमी है। जीवको करना चाहिये। किये बिना छुटकारा नहीं है। स्वभावको बदलना चाहिये । हँसीको बढ़ानेसे बढ़ती है और घटानेसे घटती है। जीवको सत्पुरुषार्थ करना पड़ेगा। पकाना तो पड़ेगा। पूर्वकृत कुछ चाहिये।
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