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उपदेशसंग्रह-४
४२५ सम्यग्ज्ञान उन्हें है और उस ज्ञान सहित चारित्र है। ऐसे ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप सत्पुरुष हैं। अतः उन्हें पहचान कर नमस्कार करना है। अपना आत्मा भी वैसा ही ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप है।
ता.७-२-३५ पात्रता चाहिये। बीज हो, उगने योग्य हो, फिर उसे मिट्टी-पानीका संयोग मिले तो अंकुर निकलता है और वृक्ष होता है। दियासलाईको डब्बी पर घिसा जाय तो सुलगती है। कहाँसे घिसना यह पता न हो और उलटी घिसे तो कैसे सुलगे? इसी प्रकार ज्ञानीकी आराधना जैसे करनी चाहिये वैसे ही आज्ञाको समझकर करे तो आत्मज्ञान प्रकट होता है। किन्तु बिना समझे अपनी मान्यतानुसार करता रहे तो फल प्राप्त नहीं होता। बंदूकमें सामग्री मिलने पर धड़ाका होता है। सत्पुरुषके योगसे पात्रता आने पर ही मान्यता और परिणाम होते हैं।
मुमुक्षु-मान्यता और परिणाममें क्या अंतर है?
प्रभुश्री-'साकर, साकर' कहनेसे मुँह मीठा होता है? 'रवि, रवि' करनेसे रातका अंधेरा नष्ट होता है? इसी प्रकार परिणाम है सो अंतरंग अनुभव है, मान्यतामें अनुभव नहीं है। परंतु यथार्थ मान्यता होनेपर उस अनुभवको प्रकट करनेका पुरुषार्थ होता है। अतः वह परिणामका निमित्त हैं।
परिणाम होनेमें बाधक क्या है? ध्यानमें बैठे और एकाग्रता होनेको हो तब संकल्प-विकल्प बाधक होते ही हैं। एक ओरसे निकालो तो दूसरी ओरसे आ जाते हैं, रुकते ही नहीं। लकड़ी लेकर बैठे और कुत्तोंको भगाये फिर भी वापस आ जाते हैं, वैसा ही होता है। पर यदि द्वार बंध कर दिये जायें तो नहीं आते।
मुमुक्षु-साहब, यहाँ तो द्वार ही नहीं है फिर वे कैसे रुकें ? नहीं रुकेंगे, चले ही आयेंगे।
प्रभुश्री-ठीक है, द्वार नहीं है; पर आत्माका उपयोग बाहर जाता है उसे वहाँसे हटाकर आत्मामें जोड़े तो, एक समयमें दो उपयोग नहीं होते इससे बाहर जाते रुक जाय । यह उपयोग मन है, उसे आत्मामें लगाना है, बाहरसे हटा लेना है। *'मनहूं किम हि न बाझे'-इस स्तवनमें कहा है कि यह बहुत कठिन है, घोड़े जैसा है। उसे ज्ञानियोंने ज्ञानरूपी लगामसे वशमें किया है। अतः आत्मज्ञान प्रकट होने पर ही मन वशमें होता है। जितनी मात्रामें आत्मज्ञान होता है, उतनी ही मात्रामें उपयोग बाहरसे भीतर आता है। सभी योगियोंको यही साधना करनी होती है। सब तप, जप, क्रिया इसीलिये हैं। जीवसे शिव इसी प्रकार बनता है। जड़को ऐसा नहीं होता। परंतु जीव यदि उपयोग लगाये तो अपनी अनंत सिद्धियोंको प्रकट कर कृतकृत्य हो सकता है। यही साधना है। शेष तो सर्वत्र पुद्गल, पुद्गल और पुद्गलकी ही दृष्टि है! उससे वापस लौटकर यहाँ (आत्मामें) आना है। यह महान गूढ़ बात है।
ता.७-२-३५ देव-गुरुकी भक्तिसे पुण्य प्राप्त होता है। पर यदि वह आत्मार्थके लिये हो तो उत्तम है, अन्यथा मिथ्यात्व सहित पुण्य तो भ्रमण कराता है। अतः यदि समकित प्राप्त कर लिया जाय तो
* मन कैसे भी नहीं मानता।
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