Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 521
________________ ४२४ उपदेशामृत सम्राट बना। अपनी पहलेकी स्थिति और बादकी महान स्थितिमें वह तो एक ही था। जैसे एक बालक हो, फिर बड़ा हो, फिर वृद्ध हो, यो अवस्था बदलती है, पर वहाँ आत्मा तो वही है। इसी प्रकार जीव समकिती अर्थात् दृढ़ निश्चयवाला बनता है और आत्मजागृति प्राप्त करता है। फिर वह ज्ञान निरंतर बढ़ता है और पन्द्रह भवमें तो वह अवश्य मोक्ष जाता है। ऐसा बननेके लिये पहले विचार, ध्यान चाहिये। पर वहाँ प्रमाद बाधक बनता है। अन्य परिणाममें जितनी तादात्म्यवृत्ति है उतना ही मोक्ष जीवसे दूर है। जब बोध द्वारा भावको बदलकर आत्महितमें लगाये तब सद्विचार जाग्रत होते हैं। पासमें पैसा हो तो मेवा मिष्टान्न खरीदे जा सकते हैं। दुकानमें तो बहुत माल भरा होता है पर वह मुफ्तमें तो कैसे मिलेगा? इसी प्रकार ज्ञानीके पास भंडार भरा है, पर जीवके भाव जाग्रत होने चाहिये कि मुझे तो संसारमें किसीके साथ कुछ संबंध नहीं है, किसी पदार्थकी इच्छा नहीं है, देह रहे या जाये, चाहे जो हो वह मुझे नहीं होता; पर मेरा आत्मा है उसे ही मुझे प्राप्त करना है, उसे अनंत दुःखसे छुड़ाना है। ता.६-२-३५ प्रभुश्री-नमस्कार किसे करते हो? १. मुमुक्षु-आत्माको नमस्कार करना है। २. मुमुक्षु-मैंने आत्माको नहीं जाना है, सत्पुरुषने जाना है इसलिये उनकी विनय करनेके लिये नमस्कार करना चाहिये। प्रभुश्री-विनय तो अवश्य करनी चाहिये। इसके द्वारा ही धर्मकी प्राप्ति है। अतः सबकी विनय करनी चाहिये । इसीके लिये नमस्कार किया जाता है। पर इसमें समझना यह है कि मेरा आत्मा सिद्धके समान है, उसे याद करके, आगे करके नमस्कार करें। फिर चाहे जिसे नमन करें, परंतु उपयोग अपने शुद्ध आत्माको याद करनेकी ओर होना चाहिये। आत्मा द्वारा आत्माको नमस्कार करना चाहिये। पहले अपने आत्माको याद कर, फिर नमस्कार करें। सिद्ध स्वरूप मेरे आत्माको मैंने जाना नहीं, पर ज्ञानीने कहा वह मुझे मान्य है, ऐसा अवश्य स्मरण करना चाहिये। नमस्कार विधि अपने आत्मस्वरूपको याद करनेके लिये है। ता.६-२-३५ इस संसारमें प्रेम महान वस्तु है। पर वह शुद्ध आत्मा द्वारा आत्माके लिये हो वही उत्तम है। ऐसा प्रेम ज्ञानीको अपने आत्माके प्रति होता है। इसलिये वे आत्माका ध्यान छोड़कर बाहर नहीं जाते। सब पदार्थों को जाननेके पहले वे आत्माको याद करते हैं। प्रथम आत्मदर्शन, फिर उसके द्वारा पदार्थ देखनेका उनका क्रम होता है। परंतु वह तो यथार्थ दर्शनके प्राप्त होने पर ही संभव है। ज्ञानीको आत्मदर्शन पहले होता है, आगे होता है। इसीलिये वे किसीमें तल्लीन नहीं होते और बँधते नहीं। उनको आत्मा स्पष्ट भिन्न भास्यमान होता है। नींदमें भी उसे नहीं भूलते। ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594