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उपदेशामृत पुण्य और पाप दोनों सुलटे पड़ते हैं, छूटनेके लिये हो जाते हैं। देव-गुरुकी अवज्ञा पाप कराती है, नरक-तिर्यंच गति दिलाती है। पुण्य और पाप दोनों हो तो मनुष्यगति होती है। यदि जीव पुण्य और पापमेंसे एकका भी बंध नहीं करता तो उसका मोक्ष होता है। अतः पुण्य और पाप दोनोंको छोड़ना चाहिये और प्रीतिको आत्मामें लगानेके लिये सत्पुरुषमें जोड़ना चाहिये।
स्वभावमें रहनेसे मोक्ष होता है और विभावरूप पुण्य-पापसे संसारमें सुख दुःखकी प्राप्ति होती है। अतः स्वभावको प्राप्त करनेके लिये रागद्वेषको मूलसे निकाल देना चाहिये।
पुण्यबंधसे सुख-सामग्री प्राप्त होती है। फिर उसमें मोह होता है, मोहसे मद होता है और मदसे पापबंध होकर नीच गतिमें जाता है और अनंतकाल भ्रमण करता है। ऐसे पुण्यकी इच्छा करना समकितीका लक्षण नहीं है।
अंतरंग त्याग ही वास्तविक त्याग है। अकेला बाह्य त्याग मोक्षके लिये नहीं होता।
ता. ११-२-३५ कृपालुदेवकी शक्ति अनंत थी और हम उन्हें पकड़ बैठे थे। परंतु उन्होंने कहा कि स्वयं ही बल करना पड़ेगा। अन्यके आधारसे कुछ नहीं होगा। अपना आत्मा ही आधाररूप है। वही सर्व सुख-दुःख प्राप्त करानेवाला है। अन्य पर आधार रखकर बैठे रहनेसे कुछ नहीं होगा। 'आप समान बल नहीं, मेघ समान जल नहीं।' 'जो इच्छा परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ' ऐसा कहा गया है वह बहुत समझने योग्य है। बल, पुरुषार्थ, विचार, समझपूर्वक स्वयं ही स्वयंको छुड़वाना है। संसारके सुख भी, आत्मा कुछ पुरुषार्थ करता है तब प्राप्त होते हैं, किसी अन्यके बल पर नहीं मिलते। ऐसे ही मोक्षके लिये भी स्वयं पुरुषार्थ करना है। कृपालुदेवने स्वयं कैसा पुरुषार्थ किया था! अन्य ज्ञानियोंने भी क्या क्या किया था?
जैसे उन्होंने किया वैसे देहाध्यास छोड़ो। मन, वचन, कायाके योगसे निवृत्त हो जाओ। संकल्प-विकल्प रहित बनो। राग-द्वेष, इष्ट-अनिष्ट छोड़ो।
ता. १५-२-३५ ज्ञानी मिले और उपदेश भी सुना। फिर भी भटकना पड़ा, क्योंकि वह उपदेश अपने आत्मामें यथार्थ परिणत नहीं हुआ। अर्थात् प्रतिबोध होना चाहिये वह नहीं हुआ। परिणमन हो तब बोध प्राप्त हुआ कहा जा सकता है। यथार्थ ज्ञानीके मिलने पर जीव सन्मुख हो तब यह संभव होता है और मोक्षमार्गमें प्रवेश होता है।।
पहले हम संसारमें थे तब उपन्यास, रास आदि पढ़ते थे। फिर दीक्षा ली तब राजाओं आदिकी धार्मिक कथाएँ पढ़नेमें आनंद आता था। कृपालुदेवने उन्हें पढ़नेसे भी मना कर दिया और मात्र आत्मा संबंधी एवं तत्त्व संबंधी पढ़नेको कहा। पहले उसमें रस नहीं आया, पर धीरे धीरे वह समझमें आने पर रस आने लगा। अब तो निरंतर वही अच्छा लगता है, और अन्य सब करते हुए भी आत्मा किसी अपूर्व आनंदमें रमण करता है। यह तो अनुभवसे ही समझमें आता है।
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