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उपदेशामृत वस्तुओंके पीछे लगनेवाली दौड़ छोड़नी पड़ेगी। दो द्रव्य अलग-अलग हैं। झूठी मान्यतासे ही फैंस गया है, अंदर धंसता जा रहा है।
ता. १०-३-३४ ज्ञानीको भेदज्ञान, है। उन्हें भी रागद्वेष हो जाता है पर इससे वे वहाँ एकरूप नहीं हो जाते। उनकी वैसी मान्यता मिट गयी है। पाप और पुण्यको दियासलाई लगाकर सुलगा दें। अच्छा लगता है इसलिये जीव अपनेको सुखी मानता है, पर वह कहाँ रहनेवाला है? फिर उसमें क्यों मग्न होता है? ऐसा करनेसे आशामें बह जाता है। ज्ञानीको आशा नहीं होती। सुख-दुःखके समय भेदज्ञानकी स्मृति होनी चाहिये । युद्धमें शस्त्रप्रयोग याद रहे तो जीत हो जाय । इसी प्रकार आत्माकी स्मृति होनी चाहिये । समझ ही समकित है। समझ बोधसे प्राप्त होती है। ___कोई कहेंगे कि नित्य एक ही बात करते हैं। हाँ, ऐसा ही है। हमें तो सत्की पकड़ करवानी है, उससे चिपकाना है। अनादिका अभ्यास है जिससे विस्मृत हो जाता है, पर समझ दूसरी हुई हो तो काम हो जाय।
मुमुक्षु-वैसी समझकी स्मृति नहीं रहती।
प्रभुश्री-बोध चाहिये। बोध होगा तो शस्त्र मूठ परसे पकड़ना आयेगा, अन्यथा हाथ कट जायेगा। संवरसे आस्रव रुकता है। संवर ही आत्मा है। परायी पंचायतमें पड़ेंगे तो भूखों मरेंगे। अतः परायी पंचायतमें न पड़े। श्रद्धा होनी चाहिये। प्रतीति आनी चाहिये । 'आत्मा सत्, जगत मिथ्या' । जहाँ आत्माकी यथार्थ बात होती हो वहाँ कैसे भी करके जाना चाहिये। कौड़ीके लिये रतनको नहीं खोना चाहिये।
ता. १२-३-३४ भेदज्ञान होनेके बाद आनंदघनजीकी भाँति कहा जा सकता है कि 'अब हम अमर भये, न मरेंगे' इसमें ज्ञानीका स्वरूप वर्णित है। ज्ञानीने शरीर, रोग आदिको अपना नहीं माना है, तब काल किसको पकड़ेगा? काल भाग जाता है। जो ज्ञानी जगतको आत्मारूप मानते हैं, उनका काल क्या कर सकता है? कृपालुदेवने हमारे हाथमें लिखकर बताया था कि यह भ्रम और यह ब्रह्म । भेदज्ञान हुआ, फिर रागद्वेष कैसे होंगे? जड़को चेतन कैसे माना जायेगा? मान्यता बदल गयी। बनिया, ब्राह्मण, कुछ नहीं, आत्मा है। उसे ही मानना है।
पहचान करनेके लिये सुनना चाहिये। पहचानके बिना पता नहीं लगेगा। जड़-चेतनकी बात की, उससे कोई लाभ नहीं है, पर पहचान होनी चाहिये। एक व्यक्तिने दूधमें नीलम (रत्न) देख लिया। उसके संयोगसे दूधका रंग नीला दिखायी देता है, फिर भी दूधको नीला नहीं मानता। इसी प्रकार जिसे आत्माकी मान्यता हो गयी है वह फिर रोगको, देहको अपना नहीं मानता। भेदके भेदको समझना चाहिये।
"सद्गुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप; समज्या वण उपकार शो? समज्ये जिनस्वरूप."
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