Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 533
________________ ४३६ उपदेशामृत दिया है । ऐसा है, फिर भी अहंभाव - ममत्वभाव होनेसे अंत समयमें रोता- चिल्लाता है, 'मेरा' मान कर दुःखी होता है । ज्ञानी अहंभाव छोड़नेके लिये कहते हैं उस पर विश्वास रख। व्यवहारमें बनिया, माँ-बाप मान, किन्तु मनमें निश्चय कर ले कि यह स्वप्न है, सत्य नहीं । ऐसा माननेसे तुम्हें कोई रोक सकता है ? हमें मनमेंसे यह मान्यता निकलवा देनी है । स्वप्न है - देखता रह, नहीं तो भटकता रह । जो आया है वह जायेगा ही, उसकी चिंता क्या ? देखनेवाला और जाननेवाला तो अलग है। उसे ज्ञानीने जाना है, उसे मान और अन्य सबकी होली जला दे । * ✰✰ ता. २९-२-३४ स्वरूपकी श्रद्धा कर डालो । अन्य सब विकल्प जाने दो। कुछ नहीं है । ज्ञानीने जाना वह मुझे मान्य है, ऐसी मान्यता रखो। 'मैं जानता हूँ' ऐसा न होने दो। सब झूठ है। ये यात्रा कर आये और मानते हैं कि पुण्य किया, यह सब धूल है । उपरोक्त मान्यता हो जाय तो सब निधि आ मिली। अब कुछ नहीं चाहिये ऐसा भाव हो जाना चाहिये । देवलोक आदि कुछ भी नहीं चाहिये। मान्यताका काम है । पंडित रह जाय और कोई दूर बैठा हो और सच्ची मान्यता कर ले तो पा 1 जाये । शक्कर जो खायेगा उसे मीठी लगेगी । I सोभागभाई, अंबालालभाई आदिकी मान्यता भिन्न थी । वैसा ही होना चाहिये । ग्रहण करनेवाले मुमुक्षु कहाँ है ? वैसे हों तो बात करें। * बड़ा जैसे चारों ओरसे तेल चूस लेता है वैसे आतुरतासे बोध ग्रहण करनेवालेसे समागम हो तो बात निकलती है । मनुष्यभव चिंतामणि है। मान्यता हुई, प्रतीति हुई कि काम बना । सच मानें, मान्यता हुई ही नहीं है, दृष्टि बदली ही नहीं है। मान्यता हो जाय तो यह सब जंजाल छूट जाय । फिर गाली लगे ही कैसे ? शरीरत्यागसे दुःख क्यों हो ? रोगमें चिल्लाये फिर भी दृष्टि दूसरी है । सबका कल्याण होगा । सत्पुरुष भले ही न बोलते हों, पर उनके दर्शन भी कहाँ मिलते है ? उसे ऐसा-वैसा न समझें। ऐसा निश्चय हो जाना चाहिये कि अब तो मुझे कुछ नहीं चाहिये। 'आत्मसिद्धि' मिल गयी तो सब मिल गया, कुछ शेष नहीं रहा । "सद्गुरुना उपदेशथी, आव्युं अपूर्व भान; निजपद निजमांही लघुं, दूर थयुं अज्ञान. भास्युं निज स्वरूप ते, शुद्ध चेतनारूप; अजर अमर अविनाशी ने, देहातीत स्वरूप. " अहा ! कैसा चमत्कार है! मनुष्यभव चिंतामणि है । सावधान हो जाना चाहिये । काल सिर पर मँडरा रहा है। मान्यता, मान्यता कहनेसे मान्यता नहीं होती । दृढ़तासे ग्रहण होना चाहिये। दृष्टि बदलनी चाहिये । Jain Education International ता. ४-३-३४ शोध किसकी करें ? आत्माकी । पर उसमें भी मार्गदर्शक ( भूमिया) चाहिये । भयानक वनमें जाना हो और मार्गदर्शक हो तो कठिनाई नहीं होती । उसकी पहचान कैसे हो? मुझे सच्चा मार्गदर्शक मिले ऐसा भाव रखेंगे तो मिल जायेगा । सत्संगमें आत्माकी बात होती है । जानकार मूँग या उडदकी दालका बड़ा । * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594