Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 536
________________ ४३९ उपदेशसंग्रह-५ जिसकी यह मान्यता हो कि वह आत्मा है फिर वह अपनेको वृद्ध मानेगा? अवस्था परिवर्तन हुआ। बालक था, युवान हुआ, वृद्ध हुआ, पर जाननेवाला तो वही रहा। इस जीवको पता नहीं है, इसलिये घबरा जाता है; पर श्रद्धा है तो सब कुछ है, श्रद्धा है तो तप है, श्रद्धा है तो संयम है। आत्मा अरूपी है अतः दिखायी नहीं देता, पर है तो अवश्य । मेरा स्वरूप ऐसा नहीं है। मेरा स्वरूप ज्ञानीने देखा वैसा है, ऐसी श्रद्धा रखें। जीवको पता नहीं है। रोगसे बहुत निर्जरा होती है। पर श्रद्धाके भाव नहीं बदलने चाहिये। ये तो सब अवस्थाएँ हैं। एक समय शरीर कैसा हृष्टपुष्ट था? अब कैसा क्षीण हो गया है? अवस्था तो बदलती ही रहती है, पर जाननेवाला तो वहीका वही रहता है। 'शरीर रहे' अथवा 'चला जाय' ऐसी इच्छा न करें। मनुष्यभव दुर्लभ है। वह होगा तो भाव हो सकेंगे, फिर कुछ नहीं होगा। अतः जब तक रोग नहीं • आया तब तक जो करना है उसे कर लेना चाहिये। ता. २९-५-३४ सत्पुरुषको ढूँढो, इसका क्या अर्थ है? सत् अर्थात् आत्मा, उसकी भावना करें। आत्माको देखें। मायाका स्वरूप न देखें। अनधिकारीपन क्या है? वासना अन्य हो रही है, यही अन्-अधिकारीपन है। आत्मामें भाव होंगे तो अधिकारीपन आयेगा, तब तक उसकी भावना रखें। जिसका अभ्यास हो गया होता है वह नींदमें भी याद आता है, अतः अभ्यास कर डालें। समझमें नहीं आता इसका क्या कारण? मन भटक रहा है जिससे समझमें नहीं आता। अभ्यास होगा तब समझमें आयेगा। मनको वशमें करनेसे परिणमन होगा। परिणमन होने पर समझमें आयेगा। इस जीवको सत्संग और बोधकी आवश्यकता है। अन्यत्र आत्माकी बात सुननेको नहीं मिलेगी। उसे सुननेसे मन अन्यत्र भटकते रुक जाता है, पापका संक्रमण होकर पुण्य हो जाता है । इन सबका कारण भावोंका परिवर्तन है। मन अन्यत्र भटकते रुक जाता है अर्थात् हजारों भव अटक जाते हैं। ___ तन, मन, धन अर्पण करना अर्थात् उन्हें अपना नहीं मानना। गुरुके स्वरूपको समझना चाहिये । गुरु कुछ लेते नहीं, पर उसमेंसे अपनापन छुड़वाते हैं। 'वीतरागका कहा हुआ परम शांत रसमय धर्म पूर्ण सत्य है।' जो वीतरागने कहा उसमें किसी प्रकारका विरोध नहीं आ सकता। राग नहीं करना, द्वेष नहीं करना, यह सबको मान्य है, तब अन्य वैर-विरोध कहाँ रहा? धर्मके नाम पर जो लड़ते हैं, वह धर्म नहीं है। धर्म तो राग-द्वेषसे रहित होना है। हमें कंठी नहीं बँधवानी है, न अन्य कुछ मनवाना है, आत्माको ही मनवाना है। उदयानुसार यह सब आ मिला है, वह कुछ छूटे ऐसा नहीं है, पर 'मेरेपन'की मान्यता छुड़वानी है। आत्मा अरूपी है, वह दिखायी नहीं देता, पर ज्ञानीके कहनेसे यह बात मान्य है, यही मान्यता करवानी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaipelibrary.org

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