Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 528
________________ उपदेशसंग्रह - ५ ✩ मुनि मो० – ज्ञानीको देहके संबंध में कैसे भाव होते हैं यह ज्ञानीके घरकी बात है, हमें तुलना नहीं करनी चाहिये | ४३१ प्रभुश्री - ऐसा नहीं । जो कहने योग्य हो उसे कहा जा सकता है, उसे कहना चाहिये । जो कहने योग्य नहीं है, उसे नहीं कहा जा सकता । भाव और श्रद्धा ये दो मुख्य हैं । लड्डु बनानेके लिये सभी सामग्री हो, पर अग्नि न हो तो काम नहीं बनता, वैसे ही सब कारण होने चाहिये । रस्सी बाँधकर कोई कूएमें गिरे और तैरना न जानता हो तो भी डूबे नहीं । इस प्रकार श्रद्धासे तैरा जा सकता है। एक व्यक्ति युवान हो और उसके पास तीक्ष्ण कुल्हाड़ा हो तो उसे गाँठ (लकड़ीका कुंदा) काटनेमें देर नहीं लगती । पर कोई वृद्ध हो, कुल्हाड़ा भोथरा हो और गाँठ कठोर हो तो चाहे जितनी चोटें करे, पर कुछ नहीं हो पाता। वैसे ही शरीर अच्छा हो, क्षयोपशम अच्छा हो, इन्द्रियाँ काम करती हों, ऐसे समयमें आत्मसाधन कर लेना चाहिये । वृद्धावस्थामें कठिनता होगी । समकितीका लक्षण यही कि उलटेका सुलटा करे । नवसारी, ता. १५-५-३३ प्रभुश्री - एक में सब आ जाता है ऐसा क्या है ? मुमुक्षु- समभाव । दो व्यक्ति लड़ रहे हों तब उन्हें शांत करनेके लिये कहा जाता है न कि 'भाई, समता रखो' । प्रभुश्री - समभावका स्वरूप बहुत गहन है । सच्चा समभाव तो गजसुकुमार जैसोंका कहा जा सकता है। देवको* ढोलकी चिपकी थी, वैसे ही कर्म हैं वे छूटते नहीं । तुम देहको देखते हो, पर ज्ञानी आत्माको देखते हैं - ऐसा भेद पड़ना चाहिये। जब तक भेद न पड़े तब तक विश्वास रखना चाहिये । व्यवहारमें आत्माको जड़ भी कहा जाता है, चेतन भी कहा जाता है, पर निश्चयको लक्ष्यमें * एक सुनारके पाँचसौ स्त्रियाँ थी, फिर भी उसकी विषयासक्ति कम नहीं होती थी। हासा, प्रहासा नामक दो देवियोंके देवका च्यवन होनेसे भविष्यमें उनके पति बननेवाले सुनारको उन देवियोंने दर्शन दिये। उन्हें देखकर सुनारको मोह हुआ । अतः उन्हें प्राप्त करनेके लिये उनके कथनानुसार लकड़ियोंमें जल मरा और अकाम निर्जरासे देव बनकर उन देवियोंका पति बना । एक बार उस देवको इन्द्रकी सभामें बाजा बजाने जाना था । अतः उसके गलेमें विक्रियासे ढोलकी लग गयी। वह उसे लेकर इन्द्रकी सभामें गया । वहाँ उसने अपने पूर्व भवके श्रावकमित्रको महर्द्धिक देवके रूपमें देखा, जिससे उसे ढोलकीसे शर्म आने लगी। उसने ढोलकीको गलेसे निकालनेका प्रयत्न किया, पर वह वापस गलेमें पड़ जाती। तब उस महर्द्धिक देवने कहा कि अब पूर्वकर्मको भोगो । पहले तुमने वीतराग मार्गकी आराधना करनेकी हमारी सीखको नहीं माना, जिससे तुच्छ देव बने हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594