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उपदेशसंग्रह-४
४२१ वहाँ भी आत्मा ही देखें । अर्थात् घर, शरीर, आकाश आदि जो दिखाई देते हैं वे आत्माके ज्ञान गुणके द्वारा दिखाई देते हैं। यदि आत्मा न हो तो हाथ नीचेसे ऊपर नहीं हो सकता। सारी सत्ता आत्माकी ही है। आत्मा तो है ही, पर जो नाशवान है उसमें मैं और मेरापन करता है, उसे छोड़ दें। और मेरा स्वरूप ज्ञानीने देखा वैसा है ऐसी श्रद्धा करें।
ता. २-२-३५ मुमुक्षुने पहले कुछ ग्रहण कर रखा हो, फिर सत्पुरुष कहें कि यों नहीं पर यों मान । परंतु वह अपना प्रथम माना हुआ-आग्रह न छोड़ें और सत्पुरुषका कहना भी न मानें और कहें कि वे तो ऐसे ही कहते हैं; मैं तो उन्हें ही मानूँगा और उनकी ही भक्ति करूँगा। ऐसा स्वयं भी करे और अन्यको भी वैसा करनेको कहे। ___एक महात्मा थे। उनके पास कोई भोजन लेकर आया। महात्माने कहा कि कुत्तोंको डाल दें। उसने कहा कि पहले आप भोजन करिये। तब महात्माने कहा कि चला जा, तेरा काम नहीं है। यों जो आज्ञा आराधनके बदले अपना सयानापन लगाये वह काम नहीं आता।
गौतमस्वामीने पंद्रह सौ तापसोंको ज्ञान प्राप्त करवाया तब वे गौतमस्वामीको गुरु मानने लगे, पर गौतमस्वामी उन्हें महावीर प्रभुके पास ले गये और उन्हें ही माननेको कहा। इस प्रकार जो सत्पुरुष उपकारी हैं, उनके कहनेका आशय समझना चाहिये और उनकी आज्ञाका आराधन करना चाहिये, क्योंकि इस जीवकी समझ अल्प है। अतः अपनी मतिकल्पनाको न दौड़ाकर जो सत्पुरुष सच्चे हैं और जिन पर श्रद्धा है वे कहें वैसा मानना चाहिये और वे कहें वैसा करना चाहिये।
वेदना आने पर घबराना नहीं चाहिये। 'इससे तो देह छूट जाय तो अच्छा' यों आकुल-व्याकुल नहीं होना चाहिये। दःखमें समता रखकर. सदगरु पर श्रद्धा रखकर आत्माका चिंतन दृढ करनेका पुरुषार्थ करे तो वैसे हो सकता है। केवल झूठी कल्पनाएँ करनेसे कुछ नहीं होगा। अनेक भवोंमें आधि, व्याधि, उपाधि और जन्म-जरा-मरण इस जीवने भोगे हैं। उन सबसे छूटनेका उपाय समता-समभाव है और ज्ञानीपुरुषकी आज्ञाका आराधन है। जिसे छूटनेकी कामना मुख्य हो, वह दुःखमें समताको नहीं भूलता। मेरा आत्मा शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप है, उसे ज्ञानीने देखा है; वैसा ही आत्मा सब जीवोंका है। पर्याय विनाशी है, द्रव्य अविनाशी है। अतः द्रव्यको लक्ष्यमें रखकर समता धारण करनी चाहिये ।
ता. २-२-३५ बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा-इन तीन प्रकारसे आत्मा परिणमन करता है। आत्मा कहाँ रहता है? निश्चयनयसे वह आत्मामें ही अथवा निर्वाणमें रहता है। व्यवहारसे वह शरीरी कहलाता है, पर निश्चयनयसे वह अशरीरी है, असंग है।
उस आत्माको स्वयंने जाना नहीं है। ज्ञानी द्वारा समझमें आने पर उस रूपमें परिणमन हो सकता है, जैसे दूधमें जामन पड़े तब दही होता है और जम जाता है, वैसे ही जब ज्ञानी ज्ञानरूपी
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