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उपदेशामृत
कारण होता है । भेदज्ञानके प्रभावसे दुःखको समभावपूर्वक भोगते हैं, जिससे बँधे हुए कर्मोंसे छूटते हैं और निर्जरा होती है । जो विषमभाव लाते हैं, खेद, मोह और देहबुद्धिमें रहते हैं वे नये कर्म बाँधकर असाता उत्पन्न करते हैं ।
ता. ३०-१-३५
सारा संसार सुख-दुःखकी कल्पनामें पड़ा है । अनंतकालका परिभ्रमण चालू है । इसमें यह मार्ग हाथ लगना सामान्य बात नहीं है । जिसका महाभाग्य हो उसे ही मिलता है ! तब दूसरोंकी पंचायतमें पड़े, दूसरोंको इस धर्मका लाभ दिलानेकी चिंता करे तो अपना भी गुमा बैठे। कूएमें गिरे हुएके हाथमें रस्सी आ जाये, उसे वह जैसे पकड़े रखता है, वैसे ही पकड़ कर लें कि मेरा आत्मा ही सच्चा है । मुझे अन्य किसीसे कोई संबंध नहीं । ऐसे भोगादि अनंतकाल तक भोगे पर तृष्णा, इच्छा घटी नहीं । अतः दूसरोंकी चिंता न कर मुझे जो मिला है वह मेरे लिये वृथा न हो जाय, इसकी अखंड चिंता रखनी चाहिये । यह अच्छा, यह बुरा यों इष्ट-अनिष्टभाव किसी भी जगह नहीं करना चाहिये। उसके बदले स्वयं अनंत दोषोंसे भरा हुआ है ऐसा मानना चाहिये। हे भगवान! मेरे जैसा कोई पापी नहीं, यों अज्ञान दूर करनेके लिये सोचना चाहिये ।
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ता. १-२-३५
ज्ञानीका स्वरूप कैसा है ? बाहर दिखायी देता है वैसा नहीं है । परंतु उस स्वरूपकी पहचान तो आत्माको पहचाने तभी होती है। आत्मा ही आत्माको पहचानता है । ज्ञानी कैसे हैं ? वे सब कुछ करते हैं, पर उनके वज्रकी भींत पड़ी है । वे चेतन और जड़के बीच स्पष्ट भेद रखते हैं । वे कभी भूल नहीं होते, पर अज्ञानीका तो कुछ भी सच्चा नहीं है । ज्ञानीकी शरणमें कैसे जायें ? सब छोड़े - सिर काटे वह माल निकाले । इतना कर सके तो सरल है, सुगम मार्ग है ।
तब
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ज्ञानीने आत्माको देखा है । वे यह बात गुप्त रखते हैं। योग्य जीव हो तो बुलाकर भी बता देते हैं।
शामको
श्रेणिक राजा शिकार पर गये थे । वहाँ मुनिका समागम होने से ज्ञान प्राप्त हुआ । गजसुकुमारको एक हजार भव जितने कर्म थे वे भगवान नेमिनाथके समागममें प्राप्त आज्ञाकी आराधना करनेसे निर्जरा होकर नाशको प्राप्त हुए और तत्काल मोक्ष गये । अतः मार्ग प्राप्त होनेमें तो जीवकी योग्यता, पुरुषार्थ मुख्य है । वह हो तो पूर्व पुण्यके उदयसे ज्ञानी तो ज्ञान देनेके लिये तैयार है । तेरी देरमें देर है ! परंतु पात्रता, भाजनके बिना क्या दें? अपना पहलेसे ग्रहण किया हुआ, माना हुआ जो मिथ्यात्व है उसे छोड़ दे और मैं कुछ भी नहीं जानता ऐसा समझे तो बोधका यथार्थ परिणमन होता है, किन्तु मलिन पात्रमें विपरीत परिणमन होता है ।
आत्मा तो सबके पास है परंतु वह बाहर देख रहा है। मैं बनिया, ब्राह्मण, स्त्री आदि हूँ, और धन आदि जो दिखायी देते हैं वे मेरे हैं ऐसा मानकर परिणत हो रहा है। जब अंतरात्मा बने तब बाह्य वस्तुओंसे अपनेको भिन्न माने और देखे । कृपालुदेवने हमें कहा था कि बाहर जो दीखता है
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