________________
३६६
उपदेशामृत दिव्य दृष्टि चाहिये। चर्म-चक्षुसे मार्ग दिखायी नहीं देता। दिव्यचक्षुसे मार्ग दिखायी देता है, भेदज्ञान होता है। विचार ही वह दिव्यचक्षु है। उसकी आवश्यकता है। सत्पुरुषका बोध प्राप्त होता है, उसका गहन चिंतन करें, विचार करें। भाव बदल डालें । स्थान-स्थान पर भेदज्ञानसे भिन्नताका अनुभव करें। शत्रु, मित्र, स्त्री, पुरुष, सगे, संबंधी, रोग, शोक, क्रोध, मान, संकल्प-विकल्प आदि जो कुछ आते हैं उस सबको जाननेवाले, उनसे भिन्न ऐसे आत्माको ज्ञानी सद्गुरुने जाना है, वैसा ही मैं हूँ। जो आता है वह सब जाता है। रोग आये, वेदना हो, मृत्यु आये तो भी सब जाता है, उसे देखनेवाला मैं अलग हूँ। मात्र उसे देखा करें। संयोग सर्व आते हैं वे जायेंगे। आत्मा कुछ जानेवाला है? वह आत्मा मेरा है। "चंद्र भूमिको प्रकाशित करता है, उसकी किरणोंकी कांतिके प्रभावसे समस्त भूमि श्वेत हो जाती है, पर चंद्र कभी भी भूमिरूप नहीं होता। ऐसे ही, समस्त विश्वको प्रकाशित करनेवाला यह आत्मा, कभी भी विश्वरूप नहीं होता, सदा सर्वदा चैतन्यस्वरूप ही रहता है।" ___यों भेदज्ञानरूप दिव्यदृष्टिसे देखने पर कर्म नहीं बँधते और आत्मिक सुख प्राप्त होता है। अतः करने योग्य तो एक ही है। वह क्या? पुरुषार्थ । पुरुषार्थ करते रहो, उद्यम करते रहो, काम होगा ही। भरत भरी हो तो वह जितनी भरी गयी उतना काम तो हुआ ही न? ऐसे ही किया गया पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं जायेगा। धैर्य रखनेकी आवश्यकता है। अंतिम बात, केवल पुरुषार्थ ही कर्तव्य है।
समझकर समा जाओ। परायी पंचायतमें समय खोया है। तू अपनी पंचायतमें पड़ । मन, वचन, काया तेरे पास है, उनसे जैसा काम कराया जाय वैसा करेंगे।
अब तेरी देरमें देर है, ऐसा ज्ञानी कहते हैं। एक सत्पुरुषको ढूँढो, उसमें सब आ गया।
जैसे व्यापारी कहते हैं कि माल भरा हुआ है अब उसका भाव आया है तो बेच डालना चाहिये। वैसे ही जैसे भाव होंगे वैसा फल प्राप्त होगा। तीव्र पुरुषार्थकी आवश्यकता है।
आबू, ता.८-६-३५ 'श्रीमद् राजचंद्र में से वाचन
"भाई, इतना तो तुझे अवश्य करने जैसा है।" आत्माकी बात है। इसके सिवाय अन्य बात नहीं। बाह्यात्मा है, अंतरात्मा है और परमात्मा है। उसकी पहचान करनी चाहिये। आत्माको सावधान किया है। अंतरात्मासे विचार करना है। परमात्माकी भावना करनी है। जड़का भाव चेतन नहीं और चेतनका भाव जड़ नहीं।
संयोग छूटते हैं पर जीवत्व नहीं छूटता। अज्ञान क्या है? अपने शुद्धस्वरूपका भान नहीं है वही अज्ञान है। पर वह भी आत्मा है। अज्ञान भी आत्मा, जीव भी आत्मा, भाव भी आत्मा। पर जड़का भाव आत्मामें है क्या?
"भाई, इतना तो तुझे अवश्य करने जैसा है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org