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उपदेशामृत
ता. १४-४-३६ (ब्रह्मचारीजीको) भाइयोंको कह दें कि दर्शन करके चले जायें। तुम ध्यान रखना : बीस दोहे, क्षमापनाका पाठ, आठ त्रोटक छंद, स्मरण तुम देना। समता है। आत्मा है। आत्मा देखें, अन्य कुछ न देखें। परमकृपालुदेव मान्य है, वे स्तंभ हैं।
शामको
बुढ़ापा आया है। वेदनीय कर्म भोगना पड़ेगा। उदयकाल । शक्रेन्द्रने कहा कि भस्मग्रह है इसलिये ‘मात्र दो घड़ीका आयुष्य वीर बढ़ायेंगे रे!' वीरने उत्तरमें कहा, "यह मेरी शक्ति नहीं है, ऐसा कभी हुआ नहीं और होगा भी नहीं।" (सबके सामने अंगुलि करके) सभी भोगेंगे। क्या नहीं भोगेंगे? नहीं भोगेंगे ऐसा हो सकता है?
__ 'कडाणं कम्माणं न मुक्ख अत्थि ।' नरककी वेदना भोगी हैं।
_ 'कडाणं कम्माणं न मुक्ख अत्थि।' किये हुए कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं है। बाप करेगा तो बाप भोगेगा। बेटा करेगा तो बेटा भोगेगा।
कर्म पुद्गल है, वह आत्मा नहीं है, नहीं है।
चैत्र वदी ८,सं. १९९२, ता. १५-४-३६ 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे', वह है। मृत्यु महोत्सव, उत्सव!
पुद्गल बाँधे हैं बोलने जैसे, संबंध है, कर्म है। जो जो पुद्गल-फरसना है वह निश्चय स्पर्शती है। अन्नजल जो बाँधा है वह लिया जाता है। एक समभाव ।
"ते ते भोग्य विशेषनां, स्थानक द्रव्य स्वभाव;
गहन वात छे शिष्य आ, कही संक्षेपे साव." "शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम;
बीजुं कहीओ केटलुं? कर विचार तो पाम." कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं है। कर्म सबको होते हैं, उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं है।
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