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पत्रांक ८१० का वाचन
"जो अनित्य है, जो असार है और जो अशरणरूप है वह इस जीवको प्रीतिका कारण क्यों होता है यह बात रात-दिन विचार करने योग्य है ।"
उपदेशामृत
यदि आत्माको सुखी करना हो, अनंतभवका क्षय करना हो और सच्चा सुख प्राप्त करना हो तो यह मार्ग है । अन्यथा चौरासीके चक्कर में फिरते रहें और मायाके बंधन में सुख मानें।
ता. ४-१-३५
बोध सबको एक समान मिलता है, परंतु कोई उसे अंतरमें गहरा उतारकर विचार करता है और कोई उसे ग्रहण तो करता है पर विचार नहीं करता अथवा ग्रहण ही नहीं करता । यों सभी अपनी अपनी योग्यतानुसार लाभ प्राप्त करते हैं । कृपालुदेवने महादुर्लभ बोध दिया है, पर उसे समझना चाहिये ।
दो भाई दुकानमेंसे इकट्ठा मिला हुआ अनाज आधा-आधा बाँट लेते। उसमेंसे एककी स्त्री भडीता और रोट बनाती, दूसरेकी स्त्री दाल, भात, साग और रोटी बनाती। “प्रतिदिन भडीता और रोट क्यों बनाती है ? भाईके घर तो प्रतिदिन दाल, भात, रोटी बनती है ।" ऐसा पतिके उलाहना देने पर उस स्त्रीने पतिसे कहा “उसे आपके भाई सब लाकर देते होंगे।" जाँच करने पर पता लगा कि वह तो परिश्रम कर सब अलग-अलग छाँटकर सुंदर रसोई बनाती थी, जबकि फूहड स्त्री इधरउधर बातोंमें समय बिता, दलकर राँध देती थी ।
यों ज्ञानी जो बोध दें उस पर योग्य विचार करना चाहिये और आत्माको सबसे अलग कर परिणमन करना चाहिये ।
पात्र के अनुसार बोध ग्रहण हो सकता है । हाथी दो घड़े पानी पियेगा तो हमसे एक प्याला पिया जायेगा । इसी प्रकार कोई अधिक ग्रहण करता है कोई कम, फिर भी सबको स्वाद तो एक ही आता है।
ता. ५-१-३५
आत्माका मूल स्वभाव स्थिरता है । पानीका स्वभाव स्थिर रहनेका है, परंतु पवन चलनेसे लहरें उठती हैं और उछलता दिखायी देता है । इसी प्रकार आत्मामें मोहरूपी पवन बहता है तो अस्थिर दिखायी देता है । आत्मा स्वयं वैसा नहीं है, परंतु संयोगके कारण वैसा हो जाता है। कपड़ा स्थिर है, पर पवनसे हिलता है, वैसे ही अज्ञानजनित मोहसे आत्मा अन्यरूपसे परिणमित होता है और स्वयंको तद्रूप मानता है। अज्ञान और मोह मिटे तो आत्मा स्थिर होता है ।
ता. ८-१-३५
I
देहाभिमान घटायें । जीवने नरक, तिर्यंच आदि अनेक नीच योनियोंमें जन्म लेकर दुःख भोगे हैं, उसे भूल गया है। ज्ञानीके कहने पर भी मानता नहीं ! क्योंकि अभिमान बाधक बनता है । इस जन्मकी बाल्यावस्थाकी स्थितिको भी भूल गया है और वर्तमान अवस्थाका अभिमान करता है । यह
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