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उपदेशामृत समता, धैर्य, शांत मनसे वचन बोलना, बुलवाना, सन्मान करना यह विनय है। उसके स्थान पर तुच्छता, उद्धतता, उच्च स्वरसे बोलना योग्य नहीं है। यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये । किसीकी भी अविनय नहीं होनी चाहिये। विशेषकर सत्संगमें तो अधिक उपयोग रखना चाहिये । बोलनेमें विनय सीखनेकी बहुत आवश्यकता है। हमें सबसे छोटे, नम्र बन जाना चाहिये और झुककर चलना चाहिये।
ता. ११-१-३५ सदाचारका सेवन करना, भगवानका नाम लेना, कुसंगसे दूर रहना आदि कुछ बुरा नहीं है।
बीस दोहे, क्षमापना सीखे और नित्य पाठ करे तो बहुत कल्याण होता है। मनमें स्मरण रखें तो कोई मना करनेवाला नहीं है, अतः वह करना चाहिये। इससे भव कम होते हैं और अंतमें जन्म-मरणसे छुटकारा होता है। तब आत्महितका इतना-सा काम क्यों नहीं करें? व्यवहारके काममें कोई ढील नहीं करता, परंतु परमार्थके काममें प्रमाद करता है कि पीछे करूँगा, आज समय नहीं है; परंतु ऐसा न कर उलटा परमार्थका काम तो जैसे भी हो शीघ्रतासे करना चाहिये, क्योंकि मनुष्यभव प्राप्त कर यही करना योग्य है। अन्य कुछ साथ आनेवाला नहीं है। अतः सत्संगमें आत्मार्थकी साधना करनी चाहिये।
ता. १३-१-३५ अयथार्थ आत्मज्ञ आत्माकी बातें करते हैं, कहते हैं कि इसका छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, वह बँधता नहीं, भोगता नहीं आदि; फिर भी बँधता है। उसने अंतरसे त्याग नहीं किया इसलिये वह शुष्कज्ञानी है। परंतु यथार्थ ज्ञानी मात्र बात ही नहीं करते पर उन्हें आत्मामें रमण करना प्रिय है । वे आत्माके सुखको जानते हैं और उसमें रमण करते हैं। शुष्कज्ञानीको यह अनुभव नहीं होनेसे अध्यात्ममें कुछ रस नहीं आता, फिर भी अपनेको संसारसुखका त्यागी मानता है । ज्ञानी तो अन्य सबकी अपेक्षा अधिक आनंद भोगता है, जिससे अत्यंत सुखी है।
ता. १३-१-३५ ज्ञानी और अज्ञानीकी वाणी अलग पड़ती है। मुमुक्षु अर्थात् जिज्ञासु उसकी परीक्षा कर सकता है। सच्ची मुमुक्षुता तो सत्पुरुषके योगसे प्रकट होती है। सत्पुरुषकी प्राप्तिमें पुरुषार्थ और प्रारब्ध दोनों कारण होते हैं। ज्ञानी तो अज्ञानीकी वाणीकी परीक्षा तुरत ही कर लेता है। अज्ञानी ज्ञानीके वचन उद्धृत कर बोलता हो फिर भी उसका आशय तुरत समझमें आ जाता है, क्योंकि ज्ञानीका आशय सदैव आत्मज्ञान होता है। उन्हें आत्माका ज्ञान होनेसे सदैव उसको लक्ष्यमें रखकर ही उनका बोध होता है अतः ज्ञानीकी वाणी पूर्वापर अविरोध कहलाती है। पर अज्ञानी वही बात करता हो फिर भी उसका लक्ष्य निरंतर आत्मा पर नहीं रहता या होता ही नहीं है। वह तो मानादि कषायोंकी पुष्टिके लिये बोलता है, पर ज्ञानी कुछ मानादि कषायके पोषणके लिये नहीं बोलते । ज्ञानी तो उसे एक शब्दमें पहचान लेते हैं। ज्ञानी बोलें नहीं, पर सामनेवालेके परिणाम बदल सकते हैं, यहाँ तक कि ज्ञान प्राप्त करा सकते हैं। कोई ध्यानमें बैठा हो और कोई मात्र देखता हो तो
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