Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 494
________________ उपदेशसंग्रह-४ ३९७ शरणरहित दुःखी है। अंतमें किसी अपूर्व पुण्यसे सत्य आश्रय आ मिला है, उसे ही पकड़ लें। उसे घडी भर भी न भूलें। यही पूरे संसारका सार है। ऐसा सत्य त्रिकालमें नहीं मिलेगा। किसी प्रकारकी इच्छा न रखें । एकमात्र जन्ममरणसे मुक्त होना है। उसके लिये त्याग, वैराग्य और तप करें। कोई परिषह करे तो उसका उपकार मानें। इससे कर्म क्षय होते हैं। वर्तमानकालमें बहुत समझनेका है। ज्ञानकी प्राप्ति दुर्लभ है। प्रत्येक काममें वृत्ति आकर्षित हो जाती है। पूरे दिनके दिन परवृत्तिमें बीत जायें, यह धर्म नहीं है। आत्माका स्मरण, चिंतन, आत्मार्थके लिये किया हुआ वाचन-मनन ही यथार्थ है। अन्य तो मात्र उदयानुसार वचन, कायाकी प्रवृत्ति करें, पर इसमें मनको नहीं पिरोयें। चिंता करना यह धोखा है। जितना समय धर्ममें बितायेंगे उतना ही जीवन है, शेषकाल वृथा जा रहा है वह पछतानेका कारण है। मृत्यु आते देर नहीं लगेगी। यदि ढील करेंगे तो फिर क्या हाथ लगेगा? । यह आत्माकी गुप्त बात है। आत्मस्वरूपका ध्यान । अन्यसे वृत्तिको खींचकर 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे' का जाप चुपचाप करते रहें। अन्य भले ही समझें कि यह कुछ नहीं समझता। पागल और अज्ञानीमें गिने जायें। किसीको कुछ कहने जैसा नहीं है। कोई हमारे लिये अच्छा मत बनाये इसकी भी आवश्यकता नहीं है। प्रारब्धके अनुसार सब मिलता है, यह दृढ़ श्रद्धा रखें । फिर किसी प्रकारकी चिंता इस दुनियाके संबंधमें किसलिये? अंतरसे त्याग करें। बाहरसे भले ही संसारमें रहें, पर अंतरमें एकांत शीतल रहें। सद्गुरुमें एक सती स्त्रीके समान श्रद्धा रखें। वृत्तिको अन्य किसीमें जरा भी न जाने दें।यह श्रद्धा, यह प्रतीति ही आत्माके परम सुखका कारण है। यह सुख तो अनंत आनंदरूप है। इसके आगे इस दुनियाका, स्वर्गका सुख भी बहुत तुच्छ है। अतः सब प्रकारकी तुच्छ इच्छाओंका त्याग करें। किसी भी प्रकारकी आत्मप्रशंसा सुनकर बहुत सावधान रहें क्योंकि यह महा हानिकारक है। प्रतिदिन यह हिसाब रखें कि आत्मभावमें और परभावमें कितनी प्रवृत्ति की? ता. १८-११-३० एक जीव था। वह घोड़ेका रक्षक था। अपनेको उसमें ही संपूर्ण कृतकृत्य मानता और प्रमाद करता। फिर वह ऊँट हुआ। इस भवमें भी वह ऐसा ही व्यवहार करता। इस प्रकार प्रत्येक जन्ममें आत्मा प्राप्त हुए शरीरमें तद्रूप होकर रहता है, जिससे ज्ञान प्राप्त करना महा दुर्लभ है। यह भव तो अत्यंत बलपूर्वक सार्थक करना चाहिये, अन्यथा अनंत भव तक पछतावा रहेगा। अनंतकालसे आत्मा भूलकर भटक रहा है। किसीमें राग या मोह करने जैसा नहीं है। सगेस्नेही तो क्या, एक सुई भी साथमें नहीं आयेगी। जब आत्मा ही बंधनमें है तब उसके हाथमें क्या है ? अतः सुषुप्त न रहकर जाग्रत हो जाना चाहिये। जितने भव किये उन सबमें आत्माने ममत्व किया है। अतः इस भवमें प्रत्येक बाहरकी वस्तुसे ममत्व दूरकर श्री सत्पुरुषकी आज्ञासे प्रवृत्ति करें। सबको रोग आयेगा, व्याधि आयेगी, मनोव्यथा होगी तब आत्मशांति रहेगी तो काम आयेगी। अंतमें आत्मा तो फू करके उड़ जायेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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