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उपदेशामृत अन्य सब जो करना पड़े वह ऊपर ऊपरसे करे, पर अंतरसे तो आत्महित करनेकी ओर लक्ष्य रखें। धन, सत्ता, देह आदि किसीकी भी ममता न करें। ममता ही बंधन है और वह आत्माके लिये महा दुःखमय है, अतः क्षण क्षण बहुत ध्यान रखें। सब पर समभाव रखकर सबके पारमार्थिक शुभकी इच्छा करें।
ता. १२-५-३३ 'सद्धा परम दुल्लहा' अनंतकालसे भ्रमण किया, बोध भी सुना, फिर भी निबेड़ा क्यों नहीं आया? क्या भूल रही? यही कि वासना नहीं गयी। किसकी? मनकी। मन क्या है? आत्मा विचारमें परिणमन करता है वह मन है। उसे वशमें करना चाहिये। वह कैसे वशमें हो? सत्पुरुषके बोधमें श्रद्धा आये और तदनुसार प्रवृत्ति करे, मनको अन्यत्र जाते रोके और आत्मामें स्थिर करे तब । उसके लिये श्रद्धा ही चाहिये, और उसीका रंग लगे तो मन वशमें होता है।
ता. १३-५-३३ अनंतकालसे जीवने जन्ममरण किये हैं। उसमें हर वक्त सगे-स्नेही, धन-संपत्तिको प्राप्त किया है और उन्हें अपना माना है, उनके लिये दुःख भोगनेमें कुछ कमी नहीं रखी, परंतु कुछ साथ नहीं आया, फिर भी 'मेरा मेरा' कर रहा है। स्वप्नको सच्चा माना है। अपना आत्मा जो अकेला आया है उसकी शोध नहीं की, उसकी कुछ चिंता नहीं की। यह एक जो सच्चा है, उसे छोड़कर अन्यकी पंचायत की है। यह कितनी बड़ी भूल है! और अब भी नहीं चेतता है। चेत जाय तो सबको पर माने, ममत्वको छोड़कर निजस्वरूपका विचार करे; पर आत्माको पहचानना सरल नहीं है। स्वच्छंदसे चाहे जो करे तो भी भ्रांतिमें पड़ता है। सरल होता तो अनेक विद्वान हो गये उनके हाथ लग जाता। परंतु वह यों ही प्राप्त नहीं होता। उसके लिये सब छोड़कर एक ज्ञानीकी शरण लेनी चाहिये।
ता. १५-५-३३ जीव इस देहमें ममत्व करता है वह महा बंधनरूप है। यह देह सुंदर है, देहको सुखदुःख होता है वह मुझे होता है ऐसा मानना ममता है, इसका त्याग करें।
मुमुक्षु-तो क्या इसको सुखा डालें ? ।
प्रभुश्री-ऐसा नहीं है। इससे आत्माका सार्थक करना है। अतः जब वह स्वस्थ हो तब उसके द्वारा भक्तिभजन करें। जब निर्बल या असातामें हो तब अन्यसे भक्तिभजन सुनें या आत्मचिंतन करें। व्यर्थ सुखा डालनेसे तो यह भक्तिभजन भी नहीं करने देगा। अतः उसे आवश्यक पोषण देकर योग्य संभाल रखें, जैसे बैलको घास डालकर उससे काम लेते हैं वैसे । परंतु उसमें मोह मूर्छा तो करें ही नहीं। शरीर अपना है नहीं और होगा भी नहीं, ऐसा निश्चय कर लें। यह सड़ जायेगा, पड़ जायेगा, रोग आयेगा, वृद्ध होगा, कुरूप होगा; पर उससे घबरायें नहीं, क्योंकि हमारा हेतु तो किसी भी प्रकार उससे आत्मार्थ साधनेका है, न कि उसे शाश्वत करनेका । खाना-पीना, पहनना
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