Book Title: Updeshamrut
Author(s): Shrimad Rajchandra Ashram Agas
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 499
________________ ४०२ उपदेशामृत आत्मा है तब मानता है। उनके कथनानुसार समझे तो दृढ़ प्रतीति होती है और यही समकित है जिससे बाह्यात्मा मिटकर अंतरात्मा बनता है और अपनेको सबसे भिन्न जानता है। इस संसारमें मेरा कुछ नहीं है, सब स्वप्नके समान है ऐसा मानता है। एक ब्राह्मणका पुत्र कोरीके यहाँ पला और अपनेको कोरी (जुलाहा) मानता था; फिर उसके पिताने उसे समझाया तब समझकर साधु बन गया, वैसे ही हमें भी चेत जाता है । ढीला छोड़ा तो सत्यानाश कर देगा। क्षण-क्षण ‘सहजात्मस्वरूप परमगुरु' अर्थात् अपना जो आत्मस्वरूप है, उसे याद करें और परमें जाती हुई वृत्तिको रोकें । नहीं तो दृष्टि पड़ते ही मोह होता है और वह महा बंधनमें ले जाता है। * एक ब्राह्मण था। वह बहुत दरिद्र था। उसे विद्याभ्यास करनेकी इच्छा थी, परंतु पूरे दिन भीख माँगने पर कठिनतासे पति-पत्नीका निर्वाह होता था। - एक रात वह जल्दी उठ गया तब उसे विचार आया कि आधा जीवन तो यों ही बीत गया, कितनी आयु शेष है कुछ पता नहीं। यदि नहीं चेतूंगा तो विद्याभ्यासकी अभिलाषा अधूरी रह जायेगी। अतः घरसे भाग जाना अच्छा है। इस विचारसे उसे नींद नहीं आयी। फिर उसने सोचा कि स्त्रीको कहकर जाऊँ तो ठीक रहेगा। अतः प्रातः उसने अपना विचार अपनी पत्नीसे कहा वह सुशील थी, इसलिये उसने भी उसके विचारका अनुमोदन किया। पर उसने कहा कि मुझे प्रसव होनेमें दो माह ही शेष हैं, अतः दो माह बाद जाओ तो ठीक रहेगा। उसकी सहमति मिलनेसे ब्राह्मण प्रसन्न हो गया और दो माह रुकनेका स्वीकार किया। दो माह बाद उसकी पत्नीने पुत्रको जन्म दिया, पर अचानक उसकी पत्नीका देहावसान हो गया। अब बालकके पालनेका काम ब्राह्मणके सिर पर पड़ गया। एक तो वैराग्य था और इस बालकके पालनका कठिन काम सिर पर आ पड़ा जिससे उसका वैराग्य बढ़ गया। एक दिन वह बालकको खिला रहा था। उस समय छिपकलीके अंडेमेंसे एक बच्चा निकलकर नीचे गिरा। यह देख ब्राह्मणको दया आयी कि इतना छोटा बच्चा क्या खायेगा? इतनेमें बच्चेके मुँह पर एक मक्खी बैठी, जिसे उसने पकड़ ली। यह देख ब्राह्मणको लगा कि मैं व्यर्थ उसकी चिंता करता था। उसे तो उसके भाग्यानुसार खानेको मिल ही गया। तो क्या इस बालकका भाग्य नहीं होगा? मुझे भी इसे इसके भाग्यके भरोसे छोड़कर अपना निश्चय पूरा करने निकल जाना चाहिये। पर अपने गाँवमें बालकको छोड़कर जाना ठीक नहीं। यों सोचकर यात्राके बहाने बालकको लेकर दूसरे गाँव चला गया। वहाँ रातमें एक चबूतरे पर सोया, सबेरे जल्दी उठकर बालकको कपड़ेसे ढंककर स्वयं चला गया। प्रातःकाल में बालक रोने लगा अतः कोई शौच जानेवाला व्यक्ति वहाँ किसी अन्य आदमीको न देखकर वहाँ खड़ा रहा। थोड़ी देरमें वहाँ बहुतसे लोग इकट्ठे हो गये। बिना माता-पिताके बालकको देखकर उसे किसीको सौंपनेका विचार किया। एक कोरीने उस बालकका पालन स्वीकार किया। उसकी मदद के लिये महाजनने उसे कुछ रकम दी, जिससे वह बालक उस कोरीके यहाँ पलकर बड़ा होने लगा। ब्राह्मण वहाँसे चलकर काशी गया। वहाँ विद्याभ्यास कर आचार्य बना। विहार करते करते वह फिर उस गाँवमें आया जहाँ बालकको छोड़कर गया था। किसी वृद्धको पूछा कि थोड़े दिन पहले चबूतरे पर एक बिना माता-पिताका बालक था, वह अभी जीवित है क्या? वृद्धने कहा-हाँ, उसे बुलाऊँ क्या? आचार्यके हाँ कहने पर वृद्ध उस बच्चेको बुला लाया। आचार्यने बच्चेको सब बात समझायी कि तू कोरी नहीं, ब्राह्मण है। तब पूर्वसंस्कार जाग्रत होनेसे वह भी आचार्यके साथ साधु बनकर वहाँसे चला गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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