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उपदेशसंग्रह-३
३८१ सद्गुरुकी शरण सिरपर है। सद्गुरु अपना आत्मा है जो प्रत्येकके पास है। मैंने आत्माको नहीं जाना है, पर सद्गुरुने आत्माको यथार्थ जाना है, वैसा ही आत्मा मेरा है, उसके सिवाय अन्य कुछ भी मेरा नहीं है। 'सहजात्मस्वरूप' महामंत्र है। भान रहे तब तक उसमें उपयोग रखें, उसका स्मरण करें । भान जानेके बाद चिंता नहीं। पर भान रहे तब तक सद्गुरुकी शरण, उसका ध्यान रखें। यह समकित होनेका कारण है। चलते-फिरते, खाते-पीते, बैठते-उठते जगह जगह आत्मा है।
"जैसी प्रीति हरामकी, तैसी हर पर होय;
चल्यो जाय वैकुंठमें, पल्लो न पकड़े कोय." आत्मा पर प्रेम, प्रीति भाव नहीं हुआ है, वह कर्तव्य है।
"धरम धरम करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म जिनेश्वर; धर्म जिनेश्वर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बांधे हो कर्म जिनेश्वर. धर्म जिनेश्वर०" “समकित साथे सगाई कीधी, सपरिवारशुं गाढी,
मिथ्यामति अपराधण जाणी, घरथी बाहिर काढी." आत्माकी पहचान कर लें। उसके साथ सगाई कर लें। अन्य सगाई छोड़ दें। जो जड़को छोड़कर आत्माके साथ सगाई करेंगे, उनका काम बन जायेगा।
ता. १९-११-३५ इन सबको मरण तो एक दिन अवश्य आयेगा। उस समय क्या करना चाहिये वह बताता हूँ। जिसे सुनना हो वह सुने, ग्रहण करना हो वह ग्रहण करे, पकड़ना हो वह पकड़ ले। कहनेवाला कह देता है, जानेवाला चला जाता है।
'प्रीति अनंती परथकी जे तोडे ते जोडे एह।' । सगे-संबंधी, रुपया-पैसा, घरबार, स्त्री बच्चे-इन सबसे प्रीति उठाकर, अहंभाव-ममत्वभाव उठाकर, देह आदि सर्वसे मोह-मूर्छाभाव जलाकर, भस्म कर, स्नानसूतक मनाकर चला जाना है। तो मैं स्त्री हूँ, पुरुष हूँ, छोटा हूँ, बड़ा हूँ-यह सब पर्यायदृष्टि छोड़कर श्री सद्गुरुने जाना है ऐसा एक शुद्ध आत्मा मैं हूँ, ऐसी आत्मभावना रखें। जब तक भान रहे तब तक 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' महामंत्रका स्मरण करें। सबसे उपयोग उठाकर उसमें रखें। इसके समान अन्य कोई शरण नहीं है। तभी कल्याण होगा। सबसे प्रीति उठाकर जितनी प्रीति आत्मा पर की होगी उतना ही कल्याण होगा। सद्गुरुने आत्माको जाना है। अतः सद्गुरुकी शरण, श्रद्धा, उन पर भक्ति, भाव, रुचि, प्रीति बढ़ायी होगी, वही काम करेगी।
ता. १२-१-३६ मनुष्यभव महा दुर्लभ है। जब तक शरीर व्याधिसे नहीं घिरा है तब तक चेत जायें, धर्म कर लें, पीछे कुछ नहीं होगा। लूटमलूट लाभ लेनेका अवसर आया है।
सयाने न बनें। देखते रहें। अंदर सिर फँसाने न जायें। ‘एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी।'
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