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उपदेशसंग्रह-३
३८३ नहीं है। आत्माके प्रति भाव हों, ज्ञानीने आत्मा जाना है वैसा मान्य हो तो काम बनता है। बात मान्यताकी है। स्वयं ही अपने आप मान्यता करेंगे तब होगा। अन्य तो कहकर छूट जायेंगे। करना तो आपके हाथमें है। ज्ञानीकी 'हाँ' में 'हाँ' और 'ना' में 'ना' करनेवालेका काम बनेगा।
मुमुक्षु-'हाँ' में 'हाँ' और 'ना' में 'ना' करनेका ही निश्चय है। अन्य कुछ नहीं करना है। वह करनेके लिये ही बैठे हैं। __प्रभुश्री-ऐसा करनेके लिये बैठे हैं उनका तो भला ही होगा। पर जो ऐसा करने बैठे होंगे वे ऐसे आत्मा देखेंगे? यह स्त्री, यह पुरुष, यह अच्छा, यह बुरा ऐसे देखेंगे? या ज्ञानीने देखा है ऐसे शुद्ध आत्मा सभी हैं ऐसा देखेंगे?
'पर्यायदृष्टि न दीजीये, एक ज कनक अभंग रे।'
ता. १७-१-३६ लौकिक दृष्टिमें ले लिया है, अलौकिक दृष्टि करनी चाहिये। योगदृष्टि बोलते हैं, उसे अलौकिक दृष्टिसे बोला जाय तो एक एक गाथा बोलते लाभके ढेर लगते हैं। भक्तिके बीस दोहे हैं, एक एक दोहा बोलते कोटि कर्म क्षय हो जाते हैं, पुण्यके ढेर लग जाते हैं। उसमें भाव, भक्ति, प्रेम चाहिये। कोई भी गाथा, कोई भी पद, चाहे एक ही जानते हों, तो एकको ही अलौकिक दृष्टिसे याद करो, गाओ, बोलो।
मनुष्यभव महादुर्लभ है। मेहमान हो । देखते देखते देह छूट जायेगी। अभी अपूर्व कमाई कर लेनेका अवसर बीत रहा है। अतः जागृत हो जाओ, प्रमाद न करो। बुरा किया है तो लौकिक दृष्टिने ही किया है। 'जे लोकोत्तर देव नमूं लौकिकथी।"
केवलज्ञान होगा तो इस दीवारको तो नहीं होगा, जीवको ही होगा। समकित भी जीवको ही होगा। यहाँ बैठे हैं उनमेंसे किसके पास वह नहीं है? सबके पास है। मात्र आवरण है जिससे प्रकट नहीं होता। उस आवरणको दूर करनेके लिये पुरुषार्थ करो। 'धिंग धणी माथे किया रे'। सद्गुरु भगवानने आत्माको जैसा जाना है, देखा है, अनुभव किया है, वैसा शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी मैं आत्मा हूँ, ऐसी श्रद्धा करो। उस शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करने तथा आवरणको दूर करनेके लिये ज्ञानी सद्गुरुकी आज्ञानुसार पुरुषार्थ करो। आप ऐसे वैसे नहीं हैं, आत्मा हैं; ऐसे नहीं हैं, ज्ञानियोंने देखा वैसे हैं-ऐसी श्रद्धा करो। भाव और परिणाम ज्ञानीकी आज्ञानुसार करो। 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।' आत्मभावनाका पुरुषार्थ करना चाहिये।
यहाँ बैठे हैं उन सबको सबसे पहले क्या करना चाहिये? शास्त्रमें भी वही करनेको कहा है, वह क्या है ? विनय । बुरा किया हो उसका भी भला हो । सभीके प्रति विनय, नम्रता, लघुता रखो। विनय करनेवालेका ही भला होगा। मान न होता तो यहीं मोक्ष होता।
ता. १८-१-३६ ___ सारा संसार दुःखसे भरा हुआ है। उसे पार करनेके लिये हमें क्या करना चाहिये? उसकी उपेक्षा की है। उसका माहात्म्य नहीं जाना है। पर एक आभूषण समझकर साथ रखने योग्य है कि
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