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उपदेशसंग्रह - ३
विचार करें । इसीकी भावना भायें । इसी पर प्रेम, प्रीति, भाव करें ।
१" अहो ! अहो ! हुं मुजने कहुं, नमो मुज नमो मुज रे; अमित फळ- दान दातारनी, जेहनी भेट थई तुज रे. शांति०'
आत्माके कारण सब है। वह न हो तो कोई पूजा - सत्कार, मान, बड़ाई नहीं देगा, पर साढ़े तीन हाथ भूमिमें जलाकर भस्म कर देगा । जिसका ऐसा अचिंत्य तो माहात्म्य है ! और जो सबको जाननेमें, माननेमें प्रथम है, ऐसे अपने आत्माको छोड़ दिया, उसे सँभाला नहीं, उस पर भाव, प्रेम, प्रीति नहीं की और मिथ्या मायाके प्रसंगोंमें प्रेम किया ।
नवपरिणीत वर-वधू मनमें एक दूसरेके प्रति प्रेम बढ़ता जाता है, प्रेमकी ऊर्मियाँ उभरती हैं । यह तो मायाका स्वरूप है, बंधनका कारण है । पर ऐसा प्रेम, ऐसी रुचि, ऐसी ऊर्मियाँ आत्मा पर नहीं आयीं ।
" जैसी प्रीति हरामकी, तैसी हर पर होय; चल्यो जाय वैकुंठमें, पल्लो न पकड़े कोय. "
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जहाँ प्रेम प्रीति करनी है उसे छोड़कर मायामें समय खो रहा है। काचकी शीशी फूट जाय, वैसे ही यह तुंबी (देह) फूट जायेगी । आत्माकी पहचानके बिना परिभ्रमणके दुःख मिटेंगे नहीं । जहाँ भी हो वहाँ आत्मा देखना सीखें तो रागद्वेष कर्म नहीं बँधेंगे। कर्मके कचरेको न देखें। वह आत्मा दिव्य चक्षुसे दीखता है, ज्ञानी दिव्य चक्षुसे देखते हैं ।
२" प्रवचन- अंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान, जिनेश्वर; हृदयनयन निहाळे जगधणी, महिमा मेरु समान, जिनेश्वर. "
हृदयनेत्रसे देखें तो जगह जगह निधान, आत्मा दिखायी देगा। बड़े व्रत प्रत्याख्यान लेकर बैठे हैं, पर ऊर्मि जाग्रत नहीं हुई । उत्कंठा, भाव, प्रेम, रुचि नहीं हुई ।
"जे पद श्री सर्वज्ञे दीठु ज्ञानमां, कही शक्या नहि पण ते श्री भगवान जो. "
ऐसा परम सुखधाम आत्माका स्वरूप है, तो हमें अब क्या करना चाहिये ?
श्रद्धा । 'सद्धा परम दुल्लहा ' - भगवानका वचन है । कमर कसकर तैयार हो जाओ, नाच कूदकर भी एक श्रद्धा- पकड़ कर लो। फिर जप, तप, त्याग, वैराग्य सब हो जायेगा। सबसे पहले श्रद्धा करो। यह बहुत बड़ी बात है। जिसका महाभाग्य होगा उसे ही यह प्राप्त होगी ।
वर्षा तो बहुत होती है पर मघाका पानी जब बरसता है तब लोग टंकियाँ भरकर रखते हैं कि जिससे वह पानी बारह माह उपयोगमें आ सके। वैसे ही यहाँ भी पात्रानुसार पानी भर लो । जितना पानी भर लोगे उतना ही भविष्यमें बहुत काम आयेगा ।
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१. अमित फल देनेवाले श्री शांतिनाथ भगवान मुझे मिल गये है अतः मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य हो गया हूँ अतः मैं स्वयंको नमस्कार करता हूँ । २. यदि सद्गुरु प्रवचन ( आगम) रूपी अंजन मेरी आँखमें लगा दे तो दृष्टिरोग जानेसे मुझे परम निधान दिखाई देगा अर्थात् आत्मज्ञान संप्राप्त होगा और अंतर्दृष्टि खुलने से जगनाथ ऐसे प्रभुकी मेरु सम महिमा भासित होगी। जंबूद्वीपके मध्यमें एक लाख योजन ऊँचा मेरु पर्वत है। इतनी प्रभुकी महानता श्रद्धानमें आयेगी ।
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