________________
उपदेशसंग्रह-३
३६५ सत्संग और बोध ये दो महान बातें हैं। उसकी इच्छा रखें। इससे समझ आती है, सच्ची पकड़ होती है। समभावसे मोक्ष होता है। सत्संग, बोधसे समभाव आता है।
आबू, ता. ५-६-३५ जिसने समेट लिया है, उसे देहसे निकलते देर नहीं लगेगी। जिसने जहाँ तहाँ प्रेम, प्रीति, वासनाका विस्तार किया है वह पीड़ित हो होकर देहसे निकलेगा।
योग्यताका वर्णन नहीं हो सकता। सत्पुरुषार्थ करते रहें और धैर्य रखें।
संसारमें दुःख ही दुःख है। आप यह नहीं हैं। आप इन सबसे अलग ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा हैं। उसे मानें । इस राखकी पुडिया (देह) पर प्रेम, प्रीति, मोह न करें। प्रेमको जहाँ तहाँ बिखेर रखा है, उसे उन सब स्थानोंसे उठाकर एक मात्र आत्मा पर लावें । आप अकेले ही हैं। सुई भी आपके साथ नहीं आयेगी। अतः परवस्तुओंको पर समझकर उनका मोह मिटायें। विकारके स्थानोंमें वैराग्य हो ऐसी पुरुषार्थदृष्टि करें।
आबू, ता.६-६-३५ आत्माको देखना हो तो सबमें आत्मा देख सकते हैं। अन्यथा यह बनिया, ब्राह्मण, पटेल, बूढ़ा, जुवान, सुखी, दुःखी, राजा, रंक, स्त्री, पुरुष, अच्छा, बुरा ऐसा समझा जाय तो कर्म बँधते हैं। आत्माको देखनेकी दृष्टि होनेपर अबंधदशा प्राप्त होती है। ‘मात्र दृष्टिकी भूल है।' ___ यह दृष्टि आये कहाँसे? सत्पुरुषके बोधसे । पुरुषार्थ किये बिना कुछ भी नहीं हो सकता। अतः दृष्टि बदलनेका पुरुषार्थ करें। थोड़ेसे सत्संगका भी माहात्म्य अलौकिक है। सत्संगसे, सद्बोधसे दृष्टि बदलती है; हड्डी, चमड़ी, खून, पीप आदिसे भरे हुए दुर्गंधमय देहादि पर वैराग्य आता है। वैराग्य ही आत्मा है। मुमुक्षुके हृदयमें वैराग्य, उपशम सदैव जागृत रहते हैं।
स्थान-स्थानपर आत्मा देखें । आस्रवके काममें संवर हो, यदि दृष्टि बदल जाय तो।
आबू, ता.७-६-३५ दृष्टि बदलनेकी आवश्यकता है। दृष्टि बदले तो तदनुसार परिणमन होता है। 'कथा सुन सुनकर फूटे कान', 'पढ़ा पर गुना नहीं' । बोला पर न बोलने जैसा किया। विचार नहीं किया। कमी है योग्यताकी, भाव बदलनेकी । भाव बदल दे तो कमाईके ढेर लग जाते हैं। कदम आगे बढ़ायें तो लक्ष्य पर पहुँच सकता हैं। बैठा रहे और उस स्थानकी बातें करता रहे तो लक्ष्य पर पहुँचा नहीं जा सकता। चलनेको कदम बढ़ाये तो ठिकाने पर पहुँचता है। 'शक्कर शक्कर' करनेसे स्वाद नहीं आता। मुँहमें रखने पर स्वाद आता है। वैसे ही सिद्ध समान हूँ, अजर हूँ, ऐसा बोलने मात्रसे काम नहीं होगा। स्थान स्थान पर दृष्टि पड़ते ही भेद प्रतीत हो, भेदज्ञान हो तभी परमें परिणमन नहीं होता। भेदज्ञानसे भेद करनेका पुरुषार्थ न करे तब तक आत्मामें परिणमन नहीं हो सकता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org