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उपदेशामृत शील महान तप है। जिसने शीलव्रत धारण किया है वह संसारसमुद्रके किनारे पहुँच गया है। सत्य, शील, त्याग, वैराग्य धारण करने योग्य है।
मुमुक्षु-मोक्ष किसे कहते हैं? प्रभुश्री-मूर्तिमान मोक्ष तो सत्पुरुष हैं। मुमुक्षु-सत्पुरुष कौन हैं? प्रभुश्री-जिसे निशदिन आत्माका उपयोग है वही सत्पुरुष है।
आत्मामें परिणमित होनेपर मोक्ष है। बनिया-पटेल, युवक वृद्ध, स्त्री-पुरुष आदि रूपमें परिणत होकर यहाँ बैठे हो, उन सबसे ऊँचे उठकर, एक आत्मा हूँ ऐसा कहनेमात्रसे नहीं, पर ऐसे परिणाम प्राप्त हों तब मोक्ष है। वृत्तिको सबमेंसे उठाकर आत्मामें मोडें । जो आत्मामें परिणमित हुए हैं, ऐसे ज्ञानीकी श्रद्धा ही समकित है, यह मोक्षका बीज है।
अज्ञानीको व्याधि या रोग हो जाने पर 'मैं बीमार हूँ, मर रहा हूँ, दुःखी हो रहा हूँ," यों घबरा जाता है। समकितीको व्याधि या दुःख हो तो यह रोगादि शरीरमें होते हैं, मैं तो उसे जाननेवाला केवल उससे भिन्न हूँ, यों ज्ञाताद्रष्टा रहता है।
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सुरत, ता. १३-६-३४ सद्गुरु किसे कहते हैं ? 'आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरु होय' । आत्मज्ञान कैसे हो? आत्मज्ञानीके परिचयसे । सत्संग सद्बोधकी कमी है। सच्चेकी श्रद्धा होना व्यवहार समकित है।
'जगतजीव है कर्माधीना।' सब कोई उदयको भोगते हैं। भरतजी तथा गाँधीजी दोनोंको उदय था। परंतु जिसे समता-समकित है, उसका उदय नवीन बंधका हेतु नहीं होता। दूसरेका उदय संसार बढ़ानेवाला होता है। स्त्रीसे कहा कि अमुक बोहराके यहाँसे दो पैसेका ताजा तिलका तेल ले आओ। वह स्त्री उस बोहरेके यहाँ गयी। रातके अंधेरेमें पीला हुआ तेल डब्बेसे निकाला तो वह लाल दिखायी दिया। जिससे उसने कहा कि कोई रांड जल्दी उठकर गाती हुई जा रही थी जिससे मैंने समझा कि सुबह हो गयी है। मैने शीघ्रतामें बिना देखे घानी जोत दी। उसमें कुछ पिल गया लगता है। ऐसा कहकर खलीकी जाँच की तो उसमें हड्डियाँ दिखायी दी। पास ही बिल्ली बैठी-बैठी रो रही थी। अतः बोहरा खेदपूर्वक बोला “अरेरे! इस बेचारी बिल्लीके बच्चे पिल गये!"
___ वह स्त्री समझ गयी कि मुझे यह पाप भी लगा है, अतः मुनिके पास जाकर बोहरेकी कही हुई सब बात बतायी और उसका भी प्रायश्चित्त माँगा। मुनिने दया कर प्रायश्चित्त बताते हुए कहा कि ऐसे स्नानमें धर्म नहीं है । महाभारतमें भी कहा है कि___"आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा ।।" संयमरूपी जलसे भरपूर, सत्यमय प्रवाहवाली, शीलरूपी तटवाली, दयारूपी लहरोंवाली आत्मारूप नदीमें हे पाण्डुपुत्र (युधिष्ठिर), तू स्नान कर। बाकी पानीसे तो आत्माकी अंतरंग शुद्धि नहीं होती।
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