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उपदेशामृत जगतमें जो दिखायी दे रहा है उसे जरूप देखें, पुद्गलरूप देखें-उसके पर्यायोंको जाने। पुद्गलको पुद्गलरूपसे देखनेसे आत्मा पर दृष्टि जायेगी। पुद्गल आत्मा नहीं है, पुद्गल अपना नहीं है। आत्माकी ही रटन रातदिन निरंतर रखें।
“परिणति सब जीवनकी, तीन भात बरनी;
__ एक पुण्य, एक पाप, एक राग-हरनी." शुभ परिणति, अशुभ परिणति और शुद्ध परिणति । वीतराग परिणतिमें आना चाहिये।
ता.३०-६-३४ एक बार पढ़कर, फिर याद रहे हुएका विस्तारसे कथन करें। ऐसा अभ्यास डालें। यह स्वाध्याय है। यह तप है। इससे वाक्यलब्धि बढ़ती है।
जो व्रत सम्यग्दृष्टि करता है वही व्रत मिथ्यादृष्टि भी करता है। प्रथमको निर्जरा होती है, दूसरेको बंध होता है।
सम्यग्दृष्टि ऐसा क्या करता है? सम्यग्दृष्टि उलटेको सुलटा कर देता है। योग्यताकी कमी है। सबसे पहले मार्गके ज्ञाता ज्ञानीके समागम द्वारा श्रद्धा-प्रतीति करें। नौ पूर्व पढ़ा फिर भी मिथ्यात्व । तो सम्यग्दृष्टिमें ऐसी क्या विशेषता है?
सम्यग्दृष्टि आत्मामें परिणमित हुए हैं; मिथ्यात्वी परिणमित नहीं हुए, परमें परिणमन हुआ है-बोलने मात्रका ज्ञान है।
योग्यता अर्थात् परिणाम-परिणमन होने पर ही योग्यता कही है। खिचड़ी चूल्हे पर चढ़कर तैयार हुई, वैसे ही परिणमन होने पर ही योग्यता होती है। तब तक कचास है।
मुमुक्षु-परिणमन कैसे हो?
प्रभुश्री-दृष्टि बदलनेसे । समकितीकी दृष्टि बदल गई है। यह जो छोटा, बड़ा, बनिया, ब्राह्मण, स्त्री, पुरुष आदि दिखायी देता है, वह सब दृष्टि बदलने पर आत्मा दिखायी देता है कि यह तो आत्मा है। वह सबसे अलग है। यों दृष्टि बदलनेसे परिणाम आत्मामें हुए हैं। खाते-पीते, चलतेफिरते जहाँ दृष्टि पड़े वहाँ पहले आत्मा दिखायी देता है। यों दृष्टि बदलनेकी आवश्यकता है। तब फिर परिणमन होना अनिवार्य ही है। व्याधि आये, रोग आये, मृत्यु आये तो भी समकितीको महोत्सव है।
ता. १-७-३४ "जगत आत्मारूप माननेमें आये"-दृष्टि बदले तो विकारके स्थानोंमें वैराग्य होता है। स्वच्छंद और प्रमाद बाधक हैं।
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