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उपदेशामृत ज्ञानीको महोत्सव है। योग्यता प्राप्त होने पर चाबी मिले तो आत्मा दिखायी देता है। "मात्र दृष्टिकी भूल है।" आत्मा सँभाला जाये, स्मरण, भक्ति, एक शब्द 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे' यों उपयोग स्मरणमें जुड़े तो कोटि कर्म क्षय हो जाते हैं। सत्संगमें एक शब्द सुननेसे दस हजार वर्षका नरकका आयुष्य टूटता है और दस हजार वर्षका देवका आयुष्य बँधता है।
"रचना जिन उपदेशकी, परमोत्तम तीनु काल;
इनमें सब मत रहत है, करते निज संभाल.'' परायी पंचायतको छोड़कर जिन अर्थात् आत्माका उपदेश जो तीनों लोकमें उत्तम है उसे सुन और अपनी संभाल कर ले।
"जिन सो ही है आतमा, अन्य होई सो कर्म,
कर्म कटे सो जिनबचन, तत्त्वज्ञानीको मर्म." जिन ही आत्मा है। अन्य सब जो जगतमें दिखायी देता है वह पुद्गल है, कर्म है। जिनवचन, ज्ञानीके वचन कर्म काटनेमें समर्थ हैं। यह तत्त्वज्ञानीका मर्म है।
"जब जान्यो निजरूपको, तब जान्यो सब लोक;
नहि जान्यो निजरूपको, सब जान्यो सो फोक." 'पूरे गाँवकी बुआ', 'पंचायतियोंके बच्चे भूखों मरते हैं।' यों विकथामें समय बिता देनेमें स्वयंके स्वरूपको नहीं जाना। अतः जो जाना वह सब व्यर्थ हो गया। अब तो अपने आत्माको सँभालो। परवस्तुका संग्रह कर बैठे हो, अतः चोर हो। अपनी वस्तुको सँभालो। सर्व जीवके प्रति मैत्रीभाव, प्रमोदभाव, मध्यस्थभाव, करुणाभाव रखो । चलते-फिरते आत्मा देखो, स्मरण करो।
"एहि दिशाकी मूढ़ता, है नहि जिनमें भाव
जिनसें भाव बिनु कबू, नहि छूटत दुःखदाव." भाव संसारमें है उसे उठाकर जिन, शुद्ध आत्मापर करो। जिनेन्द्र पर भाव नहीं है, आत्माको देखनेका लक्ष्य नहीं है, यही दिशाकी मूढ़ता है। आत्माको सँभालो। उस पर भाव हुए बिना दुःख कभी दूर नहीं होगा।
"व्यवहारसें देव जिन. निह–से है आप:
ये हि बचनसे समझ ले, जिन-प्रवचनकी छाप." व्यवहारसे जिनेन्द्र ही देव हैं। निश्चयसे 'आप'-अपना शुद्ध आत्मा ही देव है। इन वचनोंसे जिन-प्रवचनकी छापको समझ लो।
परमकृपालुदेवके ऐसे छोटे छोटे वाक्योंमें ऐसा-ऐसा मर्म भरा है, पर घोलकर पिया नहीं गया। फिर भी जो विश्वास और प्रतीति रखेंगे उन हजारों जीवोंका भी काम बन जायेगा।
चलते-फिरते, घूमते-भागते, एक पाँव भी बढ़ाते, चाहे तो आस्रवमें भी यदि आत्मा देखोगे तो समाधिमरण होगा। देखने और जाननेवाला आत्मा तो सबसे न्यारा ही न्यारा रहता है, वह अजर है, अमर है, अविनाशी है। ज्ञानीने उसे जाना है, वैसा ही मेरा आत्मा है वह मुझे मान्य है। उसे संभालो।
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