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उपदेशामृत
आश्विन सुदी २, रवि, सं.१९९१, ता.२९-९-१९३५ संजोग सब छोड़ने है। आत्माको देखें । एकांतमें कहने योग्य कह रहा हूँ। संयोगोंको मानकर जीव भूला है। बीस दोहें, क्षमापनाका पाठ, आलोचना, छह पदका पत्र, आत्मसिद्धि, देववंदन-ये अपूर्व वचन हैं! इन्हें कण्ठस्थ कर लें । प्रमाद न करें। देववंदनके श्लोकोंका अर्थ समझें।
सब आत्मा हैं, स्त्री-पुरुष, छोटा-बड़ा नहीं देखना है। सत्पुरुषकी प्रवृत्ति छूटनेके लिये होती है। वे करें वैसा न करें, कहें वैसा करें। एक दिन सबको मरना है। अतः प्रमादका त्याग करें। जो करेंगे उनके बापका है। सत्पुरुषके वचन मुँहसे बोलते रहेंगे तो भी हितकारी है। भाव और परिणाम ही अभी हाथमें हैं। उन्हें अशुभमें लगायेंगे तो पाप बँधेगा और शुभमें लगायेंगे तो पुण्य बँधेगा, शुभगति होगी; और आत्मभावमें लगायेंगे तो जन्म-मरण टलेंगे। यह अवसर चुकने योग्य नहीं है। सबका कल्याण होगा। सम्यक्त्वके सिवाय किसीकी इच्छा न करें।
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कार्तिक वदी ९,सं.१९९२, ता.१९-११-१९३५ अब बयासी वर्ष हो गये हैं। अंतिम सीख । मघा नक्षत्रका पानी टंकियोंमें भरकर रखते हैं, वैसे ही ज्ञानीका कथन जो मैं कह रहा हूँ, उसे लक्ष्यमें रखेंगे तो काम बन जायेगा। वह ज्ञानी और यह ज्ञानी ऐसा न करें। किसीकी निंदा न करें। पर एकमात्र परमकृपालुदेवकी श्रद्धा रखें । उनके द्वारा बताये गये स्मरणको मृत्युके समय जब तक भान रहे तब तक हृदयमें रखें। यह असंग, अप्रतिबंध होनेका मार्ग है। मार्ग दो अक्षरमें समाया हुआ है। 'ज्ञान' ये ही वे दो अक्षर हैं। ज्ञानमें सब समाया हुआ है। पत्र ४३० अमृततुल्य है। जो कुछ करना है वह आत्मार्थके लिये करना है। “मैंने आत्माको नहीं जाना है, पर ज्ञानी परमकृपालुदेवने निःशंकतासे आत्माको जाना है वैसा ही मेरा आत्मा है । मुझे उसकी पहचान नहीं हुई है, पर उसकी मैं भावना करता हूँ।" ज्ञानीने देखा है वैसे आत्माकी भावना करते-करते केवलज्ञान प्राप्त होता है। छोटा-बड़ा, स्त्री-पुरुष, वृद्ध-युवान, रोगी-नीरोगी दिखायी देते हैं वे तो शरीर हैं, उसे नहीं देखना चाहिये । ज्ञानीने देखा है वैसा आत्मा है। उसीके लिये मैं धर्म आदि करता हूँ, देवलोक आदि इंद्रियसुखके लिये कुछ नहीं करना है। आज तक धर्मके नाम पर जो कुछ किया हो वह सब व्यर्थ हो जाओ! अब तो आत्माके लिये करना है।
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