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पत्रावलि-२
११९ जीवको सत्संगकी और बोधकी कमी है।
महान पुण्यके उदयसे मनुष्यभव मिला है, यदि जीव उसे हार जायेगा तो फिर कौनसे भवमें धर्मसाधन समझ सकेगा? कौवे, कुत्तेके भवमें जीव क्या कर सकेगा? यों सोचकर सत्पुरुष श्रीमद् राजचंद्र परमात्मा पर अचल श्रद्धा रख उनके वचनामृतका पान करते रहनेकी विनती है जी। यदि इस भवमें इस परमपुरुष श्रीमद् राजचंद्र देव पर सर्वोपरि प्रेम प्रकट हो, उन्हें ही इस भवमें आत्मज्ञानी, आत्मदाता मानकर उपासना की जाये, तो इस जीवने बहुत बड़ी कमाई कर ली है ऐसा माना जायेगा। उनके वचनमें उल्लास भाव लाकर, उन्होंने जिस दशाको प्राप्त किया है उसके प्रति आदरभाव रखकर यह जीव उसीकी इच्छा रखे, तो इस भवबंधनसे छुड़ानेवाला समकित इस कालमें भी प्राप्त हो सकता है। यह अवसर छूट न जाय इसलिये परमपुरुषके आश्रितके समागममें उनके मुखसे सुनी हुई बातें जानकर, उसमें उल्लास रखकर, भाव-परिणामको निर्मलकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति करना ही इस मनुष्यभव-प्राप्तिकी सफलता है।
जो होनहार है वह बदलनेवाला नहीं और जो बदलनेवाला है वह होनेवाला नहीं, ऐसा प्रायः है, तो फिर संसारी प्रसंगोंमें फँसकर धर्ममें प्रमाद क्यों किया जाय? सर्व कर्मोदय मिथ्या ही है ऐसा जिसने जाना है, अनुभव किया है, वैसे प्रवर्तनकी वृत्ति रहती है और प्रवृत्ति करते हैं, ऐसे समभावी महात्माको नमस्कार! भूतकालमें होने योग्य हुआ, हो गया, अब उसका शोक क्यों? क्योंकि अब तो उसमेंका कुछ भी नहीं है। वर्तमान समयमें जो हो रहा है, वह पूर्वसंस्कार कर्मके फलस्वरूप है। जीवने जैसे भाव अज्ञानवश किये हैं, वे वे भाव कर्मरूपमें उदयमें आकर जीवको घबराते हैं, उसमें घबराना क्यों ? जो माँगा सो मिला, इच्छित प्राप्त हुआ; मोहाधीन होकर माँगा, इच्छा की, वह मिला भी सही; किन्तु अब उससे घबराहट होने लगी, तो इसमें दोष किसे दिया जाय? हर्ष-शोक क्यों? उचित हो रहा है और वह भी हो जानेके बाद कुछ नहीं रहेगा, ऐसा होना ही है। उदयमें आकर कर्मोंकी निर्जरा हो जाने पर वे नहींवत् हो जाते हैं तो फिर चिंता किस बातकी? होनहार तो होगा ही। भविष्यमें जो होनेवाला है वह भी वर्तमानमें जैसे भाव होंगे वैसा ही होगा। भविष्यको सुधारना जीवके हाथमें है। सम्यक्भाव ग्रहणकर जीव सम्यक् स्थिति प्राप्त करेगा, अतः सम्यक् भाव उत्तम हैं। असम्यक्प्रकार-परपदार्थ, परभाव-की भावना करना योग्य नहीं है। ऐसा समझते हुए भी यह जीव जगत तथा असत्संग-वासियोंके समूहमें (जो समूह पूर्वकर्माधीन उसने एकत्रित किया है और अभी भी मोहवश आँख मूंदकर कड़वा लगने पर भी मधुलिप्त तलवारको चाटनेकी अपेक्षासे इच्छा करता है) रहकर जगत तथा असत्संगियोंको अच्छा मनवानेमें लोकलाज-लोकदष्टिमें रहकर अपना बुरा कर रहा है, करता है; उस पर विचार करे तो जीव निस्संदेह वैराग्यको प्राप्त होगा। किन्तु पूर्व संस्कारकी शक्ति प्रबल होनेके कारण अथवा जीवकी शिथिलताके कारण लोकलाज एवं लोकदृष्टि तथा विषय-कषाय आदिमें मधुलिप्त तलवारके स्वादमें पड़ा रहना योग्य नहीं है, यों जानते हुए भी आँखे मूंदकर पड़ा रहता है, वह किसलिये? इसका जीव विचार करे तो उपशम-रस चखे बिना कैसे रह सकता है? सद्गुरुकी पहचान सत्संग-संतसमागममें बोध द्वारा करके यदि जीव उसमें दृढ़ विश्वास रखे तो यह भव सार्थक हो सकता है। यह लक्ष्य चूकने योग्य नहीं है।
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