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उपदेशामृत "अनादि स्वप्नदशाके कारण उत्पन्न जीवका अहंभाव, ममत्वभाव ।" . अहंभाव और ममत्वभाव, अहंभाव और ममत्वभाव! बस इसमें सब आ गया-पशु-पक्षी, वृक्षपहाड़, इंद्र-चंद्र आदि सभी । मैंने जाना, मैंने खाया, मैंने पिया, सबमें 'मैं और मेरा' यही मिथ्यात्वका मूल है।
छह पदका पत्र अमृतवाणी है। पत्र तो सभी अच्छे हैं, पर यह तो लब्धिवाक्य जैसा है! छह मास तक इसका पाठ करे तो प्रभु! कुछसे कुछ हो जाता है! चाहे जैसी बाधा विघ्न आयें, उन्हें भगा देना चाहिये। दिनमें एक बार इस पर विचार करनेका रखें, फिर देखें । यह समकितका कारण है।
"इस स्वप्नदशासे रहित मात्र अपना स्वरूप है, यदि जीव ऐसा परिणाम करे तो सहज मात्रमें जागृत होकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर स्वस्वभावरूप मोक्षको प्राप्त करता है।"
यही मोक्षमार्ग है! अब मुझे अन्य क्या मानना है? यदि ऐसी पकड़ हो जाय तो देर-सबेर उसरूप अवश्य होना ही है।
“जन्म, जरा, मरण, रोग आदि बाधारहित संपूर्ण माहात्म्यका स्थान, ऐसे निजस्वरूपको जानकर, अनुभवकर वह कृतार्थ होता है।"
कुछ बाकी रहा? जन्ममें कम दुःख है क्या? जरा, इस बुढ़ापेके (अपनी ओर अंगुलिनिर्देश कर) दुःख कम नहीं है-चला फिरा नहीं जाता, खाना-पीना अच्छा नहीं लगता और रोग, दुःख, दुःख और दुःख, हिला न जाय, बोला न जाय, इच्छानुसार न हो, सुख चैन न आये-इन सब बाधा पीड़ासे रहित, संपूर्ण माहात्म्यका स्थान ऐसा निज स्वरूप', हाश! अन्य चाहे जो हो, पर इसमें अन्य क्या होनेवाला है?
"जिन-जिन पुरुषोंको इन छह पदोंसे सप्रमाण ऐसे परमपुरुषके वचनसे आत्माका निश्चय हुआ है, वे वे पुरुष सर्व स्वरूपको प्राप्त हुए हैं, आधि, व्याधि, उपाधि सर्व संगसे रहित हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्यकालमें भी वैसे ही होंगे।"
ठप्पा लगाया है ठप्पा! श्रद्धाकी आवश्यकता है, निश्चयकी आवश्यकता है। 'सद्धा परम दुल्लहा' कहा गया है प्रभु! सच्चे पुरुषकी श्रद्धा, प्रत्यक्ष ज्ञानीकी आज्ञा, यही 'सनातन धर्म' ।
['तत्त्वज्ञान मेंसे 'वचनावली'का वाचन] “शास्त्र में कही हुई आज्ञायें परोक्ष हैं और वे जीवको योग्य बनानेके लिये कही गयी है। मोक्षप्राप्तिके लिये प्रत्यक्ष ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करना चाहिये।" प्रभुश्री-यही, यही। मुमुक्षु-प्रत्यक्षसे क्या अभिप्राय है?
प्रभुश्री-इतना स्पष्ट होने पर भी समझमें न आये तो यह इस कालका एक विशिष्ट अछेरा माना जायेगा। प्रत्यक्ष अर्थात् जिसने आत्माको प्राप्त किया है, वह। शास्त्रसे प्राप्त ज्ञानमें और प्रत्यक्ष ज्ञानी द्वारा प्राप्त धर्ममें बड़ा भेद है। शास्त्रमें तो मार्ग बताया गया है, मर्म तो ज्ञानीके हृदयमें
१. आश्चर्य, अघटित घटना। शास्त्रमें चौथे कालमें दश अछेरे कहे गये हैं वैसा ही यह एक ।
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