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उपदेशामृत कारण इतना-इतना सहन करना पड़ा, परिभ्रमण करना पड़ा!' 'हे प्रभो! आत्मार्थके सिवाय किसी भी काममें मेरा चित्त न लगो।' यों सर्व प्रकारकी अभिलाषाओंसे रहित होकर उठना यह आसिका। 'हे भगवान् ! अनिवार्य होनेसे मुझे जबरजस्ती उठना पड़ रहा है।' आसिका (आवस्सहि) अर्थात् उठना पड़ रहा है, जाना पड़ रहा है, पर जिस कामके लिये उठे उस काममें कितनी सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करें उसका स्वरूप कितना सुंदर प्रस्तुत किया है! पाँच इंद्रियाँ और चार कषाय मिलकर इन नौके वश न हो, उन्हें रोके तथा चित्तके परिणामोंकी विशुद्धता टिकाकर संसारके काम उदासीन भावसे करके वापस लौटे और कहे कि हे भगवन्! मैं प्रवेश करूँ?-यह निषिद्यका । आचारांगसूत्र आदिमें इसका विशेष वर्णन है।
आज्ञामूल धर्म कहा गया है। ‘आणाए धम्मो आणाए तवो' अतः किसी भी कार्यमें प्रवृत्ति करनी पड़े तो गुरुकी आज्ञा लेकर, उपरोक्त कथनानुसार परिणामकी चंचलता न हो और विषयकषायमें लुब्ध न हो जाय ऐसी उदासीनता रखकर प्रवृत्ति करनेका उपदेश इसमें है। महामुनियोंके आचारकी ये बातें हैं। इन महापुरुषोंके आचारसे हमें भी सीखना है। छोटे बच्चेको किसीने भी कन्धे पर बिठाया हो किन्तु यदि वह माँको पहचानने जितना बड़ा हो तो उसकी दृष्टि माँकी ओर रहती है। वैसे ही सद्गुरुकी आज्ञासे, सद्गुरु द्वारा जानकर, उनके बताये अनुसार (स्वच्छंदसे नहीं) आत्माका लक्ष्य रहे, उसकी दृष्टि निर्दिष्ट पदार्थ पर ही रहे तो कल्याण होता है। स्थानस्थान पर जीव परिणत होता है, तो यदि जीव सत्पुरुषके बताये मार्ग पर प्रवृत्ति करे तो इसमें उसका क्या बिगड़ जायेगा? इसमें किसीकी कुछ सिफारिश चलनेवाली है? जीवने जितनी अंतराय प्रकृति बाँधी है उतनी उसे विघ्न करेगी ही न? अभी ही किसीको नींद आ रही हो या चित्त कहीं भटक रहा हो तो कुछ लक्ष्यमें रहेगा क्या? ।
प्रभु! अनमोल क्षण बीत रहा है। हमें तो अब ऐसा लग रहा है कि कालने लिया या ले लेगा। आयुष्यका कुछ भरोसा है? कल क्या होगा कौन जानता है? अपना धन्यभाग्य समझना चाहिये कि कृपालुदेवकी कृपासे ये बोल हमारे कानमें पड़े ! इतना समय तो इसमें बीता! और करना भी क्या है ? 'जागृत हो जाओ, जागृत हो जाओ।' 'हे गौतम! समयमात्रका भी प्रमाद कर्तव्य नहीं है।' ऐसा महापुरुषोंने कहा है, क्या वह व्यर्थ कहा है? इसीके चिंतनमें, इसीके विचारमें, इसीके लिये जितना समय बीतेगा वह सार्थक होगा। शेष समय तो व्यर्थ गया। कुछ व्याधियाँ और दुःख हों तो अच्छा है कि वे हमें सावचेत करते रहते हैं। आग लगी है उसमेंसे जितना बचा लिया जाय वह हमारा है। अंतमें तो धोखा ही है-ठगोंके नगरमें जैसे धोखा ही धोखा होता है वैसा ही यहाँ है, कहीं भी खड़े रहने जैसा नहीं है। संसार राखकी पुड़िया या स्वप्नके समान है। उसमें धर्मसाधनाका यह अवसर आया है उसे भूलना नहीं चाहिये । महापुरुषोंकी बातें हैं। विचार करें तो उसमें कुछ अंतर नहीं है। आचारांग हो या मूलाचार हो-महापुरुषोंने उसमें आत्महितकी गहन बातें कही है। उसमें मूल बातमें कुछ आपत्ति, झगड़ा या विवाद जैसा हो सकता है? बादमें छोटी छोटी बातें उठाकर तर्क द्वारा मतभेद उत्पन्न करनेमें क्या सार है? इससे आत्माका कल्याण होगा? वीतरागके मार्गमेंआत्मकल्याणके मार्गमें कुछ भेद हो सकता है? “एक होय त्रण कालमां, परमारथनो पंथ ।' यदि
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