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उपदेशसंग्रह-२
३२७ जाता है। नींदमें भी फटाफट बोल सकें ऐसे इन छह बोलोंको मौखिक याद कर लें। अन्य कुछ भी समझमें न आये तो हे भगवान! 'ताहरी गति तुं जाणे हो देव!' ऐसा महापुरुषोंने भी कहा है, तो मेरी क्या शक्ति है? पर तूने जो आत्मस्वरूप जाना है वह मुझे मान्य है; और मुझे भी जो यह दिखाई देता है, इष्टानिष्टपना क्षण क्षणमें लगता है, उसे अब मैं नहीं मानूँगा। हे प्रभु! तेरा मान्य किया हुआ मुझे प्राप्त हो, मुझे कुछ समझमें नहीं आता, पर तूने जाना है वह सत् है।" ऐसा आश्रयभाव रखना चाहिये । यह समकितका कारण है।
पहले हमने अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अगुरुलघु, गुण-गुणी, अव्याबाध आदि बोल याद किये थे, पर कुछ भी समझमें नहीं आता था। किन्तु वे आत्माके गुण हैं, बीजरूप हैं। सद्गुरुकी शरणसे जैसे जैसे समय बीता वैसे-वैसे इन पर विचार होता गया! द्रव्यत्व क्या? अगुरुलघुत्व किसे कहते हैं ? उसके भेद? उन्हें न मानें तो क्या? ऐसे कई विचार उस परसे आते हैं और भवस्थिति आदि कारण प्राप्त होकर सम्यक्त्वका कारण बनता है। अतः इन बोलोंको याद कर रखें और इनके चिंतनमें रहें।
ये विचार लिख लेने योग्य हैं, क्योंकि ये आत्माके घरके हैं, आत्महितकारक हैं। अब इसी वस्तुकी शोधमें, विचारमें रहें। कर्मके उदयके कारण चित्तवृत्ति स्थिर न रहे और खिसक जाये, फिर भी उसे वापस उसमें लगायें। भावना यही रखें। भावना महान वस्तु है। जाग्रत रहनेकी आवश्यकता है। लोभको छोड़नेकी वृत्ति हुई तो ये पुद्गल कानमें पड़े।
कार्तिक सुदी ७, मंगल, सं.१९८४ __ परमकृपालुदेवकी कृपासे आनंद है! अहा! उनका उपकार कि उन्होंने सच्चे मार्ग पर आरूढ किया।
“मारग साचा मिल गया, छूट गये संदेह; होता सो तो जल गया, भिन्न किया निज देह. समज, पिछे सब सरल है, बिनू समज मुशकील; ये मुशकीली क्या कहुं ? ..... खोज पिंड ब्रह्मांडका, पत्ता तो लग जाय; येहि ब्रह्मांडि वासना, जब जावे तब ........... आप आपकुं भुल गया, इनसें क्या अंधेर? समर समर अब हसत है, नहि भूलेंगे फेर. जहां कलपना-जलपना, तहां मानु दुःख छांई; मिटे कलपना-जलपना, तब वस्तू तिन पाई. हे जीव ! क्या इच्छत हवे? है इच्छा दुःखमूल;
जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल." इसमें क्या मर्म छिपा हुआ है? किसी विरलेको ही वह समझमें आयेगा। उनके आश्रयसे रहनेवालेका भी कल्याण है । जो कोई उनको माननेवाला हो उसके तो हम दास हैं। अब तो बुढ़ापा
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