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उपदेशामृत
'ऊंधिया, पोंक आदिमें इलिका आदि भप जाते होंगे ! अतः वह माँसके समान अभक्ष्य है । आश्रमके स्थानमें ऐसे पापके काम कभी नहीं करने चाहिये। किसीको यहाँ ऊंधिया नहीं लाना चाहिये, न बनाना ही चाहिये। मिठाई, पतासे जैसा प्रसाद बाँटना हो तो बाँटना चाहिये । पर अमरूद जैसे अधिक बीजोंवाले फल और जिसमें जीव हों ऐसी वस्तुओंका प्रसाद नहीं करना चाहिये । श्रावक तो जीवन पर्यंत ऊंधिया न खानेका प्रत्याख्यान ही ले लेते हैं कि 'हे भगवन् ! जब तक जीवित रहूँ तब तक अभक्ष्य वस्तु मुँहमें नहीं डालूँगा ।' उसके बिना कहाँ मर जायेंगे ? खानेकी अन्य वस्तुएँ कहाँ कम हैं ?
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आजकल पचास-सौ वर्षका अल्प आयुष्य! उसमें धर्म कर लेना चाहिये और चाहे जैसे हो तो भी जो व्रत-नियम लिये हों उनका कभी भंग न हो ऐसा ध्यान रखना चाहिये। बड़ी बात भावकी है। बाहरसे ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करता हो और मन तो भटकता हो ! 'सेठ कहाँ गये हैं ? तो कहे कि ढेढवाडे ।' ऐसा नहीं होना चाहिये। बाहरसे बड़ा ब्रह्मचारी होकर घूमता हो तो क्या हुआ ? यदि अंतरंगमें दया न हो तो क्या कामका ? ब्रह्मचर्यव्रत लेनेवालेको बहुत सँभालना है । स्वाद नहीं करना चाहिये, शरीरका श्रृंगार नहीं करना चाहिये, स्निग्ध- भारी भोजन नहीं करना चाहिये, बुरी बातें नहीं सुननी चाहिये। नौ बाड़ोंका रक्षण करना चाहिये, नहीं तो जैसे खेतकी बाड़ द्वारा रक्षा न की जाय तो वह नष्ट हो जाता है, वैसे ही व्रत भंग हो जाता है। जब तक नहीं जानते थे तब तक जो हुआ सो हुआ; पर अब तो जिन कारणोंसे व्रतभंग होनेकी संभावना हो उन्हें विष समान समझना चाहिये । कौरमें मक्खी आ जाय तो उल्टी द्वारा उसे निकालनी पड़ती है, वैसे ही आत्माका घात करनेवाले बुरे परिणामोंका वमन कर देना चाहिये । ब्रह्मचर्यको आप कैसा जानते हैं ? ब्रह्मचारी तो भगवानके समान है ! 'ब्रह्म' ही आत्मा है । इतना भव लक्ष्यपूर्वक समतासे सहन करके बिताये और संपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे तो बेड़ा पार हो जाये । यह व्रत ऐसा वैसा नहीं है । सत्पुरुषके आश्रयसे प्राप्त हुए व्रतको ऐसा-वैसा नहीं समझना चाहिये । अन्य सब कामोंके लिये अनंत भव बिताये, तब इसके लिये इतना सा भव बिताकर देखूँ कि क्या होता है ? यों सोचकर त्याग और वैराग्यमें प्रवृत्ति करनी चाहिये । दिन-दिन त्याग बढ़ना चाहिये । श्रीकृष्ण और श्रेणिक महाराजसे कुछ व्रत नियम नहीं होते थे, पर सत्पुरुषके बोधसे समझ आ गयी थी, अतः परिणाम कैसे रहते होंगे ? 'हे भगवन्! मुझसे कुछ पालन नहीं होता, पर आत्माके सिवाय अन्य किसीको अब मैं अपना नहीं मानूँगा, किसीमें अपना मन नहीं लगाऊँगा ।' ऐसा करनेकी आवश्यकता है । देवके उपसर्गसे एक मुनिको एक ओर काँटे और एक ओर कीड़े तथा जलयुक्त स्थानको पार किये बिना जानेका कोई मार्ग नहीं था । तब काँटेवाले रास्तेसे जाते हुए मुनिको देवमायासे उत्पन्न राज्य-कर्मचारियोंने कीड़ेवाले स्थानकी ओर धक्का मारा, पर उन्होंने गिरते-गिरते भी जीवोंको बचानेके लिये स्थान स्वच्छ करनेका प्रयत्न किया। उस समय उनके परिणाम जैसे अहिंसक थे वैसे परिणाम रखने चाहिये ।
हमसे जो पालन नहीं होता उसका हमें खेद रहता है, वैसे ही सब जीवमात्रको भी करना
१. कंदमिश्रित भोजन २. चिडवा, होले ।
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