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उपदेशामृत पर यह मीठी कुईका पानी है। इनके (परमकृपालुदेवके) वचन स्मृतिमें हैं, उन्हें कहना है। यदि कुछ शास्त्र या सत्पुरुषकी वाणीके विरुद्ध कहा जाता हो तो आप कहियेगा। इसमें तो सर्वधर्ममान्य कथन है। कहाँ बाड़ा बाँधना था? जहाँ आत्माकी ही बात हो वहाँ भेद कैसा? वेदांत हो या जैन हो, सत्-चित्-आनंद कहो या ज्ञान-दर्शन-चारित्र कहो, भात कहो या चावल कहो-इससे मूल वस्तुमें कहाँ कुछ फर्क पड़नेवाला है? ।
चाहे जैसे करके शुभ निमित्तमें रहना है और समय बिताना है। और क्या करना है? इनकी शरणसे पुस्तक, स्थान, मकान, चेला-चेली-इन सबमें अप्रियता हो गई है। इनके समागमसे पहले इनमें ही प्रवृत्ति थी। पर इनका कोई ऐसा योगबल कि कहीं भी खड़े रहने नहीं दिया! प्रभु! धोखा, धोखा और धोखा ही निकला है। अंत समयमें यदि किसी स्थानमें जीव (मोह) रह जाये तो छिपकली या ऐसे जीव-जंतु होना पड़ता है; स्त्रीपुत्र या चेला-चेलीमें जीव रहे तो उनके पेटसे अवतार लेना पड़ता है; महल-मकान या उद्यान आदिमें जीव रहे तो मेंढक या अलसिया बनना पड़ता है और खेत या जमीनमें वृत्ति (मन) रहे तो धातु या पत्थरमें उत्पन्न होना पड़ता है। "पैर रखते पाप है, देखनेमें जहर है और मृत्यु सिर पर है।" 'चरण धरण नहीं ठाय' यों महापुरुष कह गये हैं। हमने तो यह सब विष जैसा मान रखा है तब इसकी इच्छा कैसे हो सकती है? जब तक इसमें मीठास है तब तक, जैसे निष्पुण्यकका रोग नहीं मिटता था वैसे ही, यह सब बंधनरूप होता है।
जीव परीक्षा किस प्रकार कर सकता है? परीक्षा-प्रधानता, योग्यता होनी चाहिये न? यहाँ तो आत्माकी ही बात है। इसमें भेद नहीं है। हमें तो अब मौतके विचार आया करते हैं; और सबको उसकी स्मृति करना योग्य है। फिर जाकर खड़े कहाँ रहेंगे? कुछ निश्चित तो करना होगा न? घर देख रखा हो तो वहाँ जा सकते हैं, पर भान न हो तो कहाँ जायेंगे? इतना भव तो इसीके लिये बिताना योग्य है । इतना पुण्य एकत्रित हुआ है, मनुष्यभव मिला है तब कहना होता है। यदि किसी पशु या बैलको बुलाकर कहेंगे तो वह कुछ समझेगा? अवसर आया है उसे चूकना नहीं है। अंतमें सब यहींका यहीं पड़ा रह जायेगा । सब ऐसाका ऐसा रहनेवाला नहीं है । मृत्यु न हो तो कुछ कहना नहीं है, पर वह तो है ही। तो अब क्यों न जाग्रत हुआ जाय? नौकरी, व्यापार आदिकी चिंता करते हैं तो इस आत्माकी चिंता क्यों नहीं? अब तो यह निश्चय करना है कि इतना जीवन इसके लिये ही बिताना है। एक शरण ग्रहण कर कुछ भी करे तो विघ्न नहीं आता ऐसी चमरेन्द्र और शक्रेन्द्रकी कथा है। चमरेन्द्रने अभिमानसे शक्रेन्द्रके स्वर्गमें जानेका विचार किया, तब समझदार मंत्रियोंने किसीकी शरण लेकर जानेकी सलाह दी। अतः वह महावीरस्वामीकी शरण लेकर वहाँ गया और जोरसे गर्जना की कि शक्रेन्द्रने वज्र फेंका। पर तुरत ही उसे विचार आया कि कदाचित् किसी महापुरुषकी शरण लेकर आया होगा, और यदि वज्र उसे लगेगा तो असातना होगी, यह सोचकर पीछे दौड़कर वज्रको पकड़ लिया। इसी बीच वह चमरेन्द्र महावीर स्वामीके पैरोंके नीचे छोटा जन्तु बनकर छिप गया था। वहाँ आकर शक्रेन्द्रने महावीरस्वामीसे क्षमायाचना की और चमरेन्द्रसे कहा कि अब निकल । उसने निकलकर क्षमा माँगी। यों शरण था इसलिये बच गया।
१. मूल शब्द मीठी वीरडी है जिसका अर्थ है पानीके लिये खोदा गया गड्डा ।
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