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उपदेशामृत ['गोमट्टसार मेंसे पर्याय, समास, ज्ञान और अर्थाक्षर इन श्रुतज्ञानके भेदोंके पुनरावर्तनके प्रसंगमें]
शास्त्रवाचन मृत्युके समय याद रहे भी और न भी रहे। पर सम्यग्दृष्टि, सत्पुरुषके प्रति सन्मुखदृष्टि, उनके मंत्रका स्मरण और भावना ही काम करती है। जिसका क्षयोपशम अधिक हो उसके पास उतना ही विशेष परिग्रह है। किसीको शास्त्रका ज्ञान न हो, क्षयोपशम कच्चा हो, बहुत बार सुनने पर याद होता हो, पर यदि श्रद्धा दृढ़ हो तो वह काम बना देती है। जिसके पास विशेष सामग्री हो वह उसका उपयोग कर सकता है, वह दृढ़ताका कारण है। पर उसका गर्व हो तो अधिक पैसेवाले सट्टेमें गुमा देते हैं, वैसा हो जाता है। छोटे गाँवमें थोड़ी पूंजी हो तो भी बड़ा धनवान माना जाता है। पर कुएके मेंढक ! तुझे कहाँ पता है कि कृपालुदेव और ऐसे समर्थ ज्ञानीके आगे इस क्षयोपशमका क्या हिसाब? कुछ गर्व करने जैसा नहीं है। सम्यक्त्वके स्पर्शसे लोहेके पाटकी दूकान हो तो वह सौ टचके शुद्ध सोनेके पाटवाली दूकान हो जाय।
मुमुक्षु-कोई शास्त्र आदिका वाचन न करे और मात्र जो स्मरणमंत्र मिला हो उसका ही आराधन किया करे तो ज्ञान हो या नहीं?
मुनि मोहन०-'मा रुष मा तुष' इतना सा मंत्र याद रखनेका भी जिसका क्षयोपशम न था, फिर भी उसकी श्रद्धा दृढ़ थी तो उसे ज्ञान हुआ। गौतम गणधरदेव जैसे शास्त्रकर्ता रह गये और भिखारी जैसेको केवलज्ञान हो गया। प्रभुश्री-स्याद्वाद रखिये।
__ "ज्यां ज्यां जे जे योग्य छ, तहां समजवू तेह;
__ त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह." (आत्मसिद्धि) मुनि मोहन०-'ज्ञानमें कुछ न्यून चौदह पूर्वधारी' के प्रश्नकी चर्चा कृपालुदेवने की है। उसमें निश्चित उत्तर स्याद्वाद सहित है।
प्रभुश्री-मार्ग कोई अपूर्व है, मोक्ष पहुँचाये ऐसा मार्ग कृपालुदेवने बना दिया है। उस दृष्टिको प्राप्त होना ही पूर्ण भाग्य है। _ 'प्रभु, प्रभु' शब्द बोलनेकी टेव मुझे है। इस विषयमें एक भाईने मुझे कहा कि आप ऐसा क्यों बोलते हैं? पर उनकी आज्ञासे दीनता स्वीकार कर प्रवर्तन करना है, इसलिये यह शब्द उपयोगपूर्वक बोला जाय तो अच्छा। इसमें कुछ आपत्ति जैसा है? 'अबे' और ऐसा ही कुछ बोला जाय उसकी अपेक्षा *चूड़ियोंके व्यापारीकी तरह अभ्यास कर रखा हो तो मुँहसे अच्छी ही वाणी निकले । कुछ नहीं तो पुण्यबंध तो होगा ही। 'प्रभु' तो बहुत सुंदर शब्द है। हमें तो उनकी आज्ञासे यह शब्द
___ * एक चूड़ियोंका व्यापारी गधी पर पाटले, चूड़ियाँ आदि लादकर बेचनेके लिये गाँवोंमें जाता। उस गधीको हाँकते हुए लकड़ी मारकर बोलता-“माँजी चलो, बहिन चलो, फूफीमाँ तेज चलो।" यों मानभरे शब्दोंका प्रयोगकर लकड़ी मारता । मार्गमें उसे कोई व्यक्ति मिला, उसको ऐसा लगा कि 'यह ऐसा क्यों बोलता है?' अतः उसने उससे पूछा तब चूड़ियोंका व्यापारी बोला कि “मुझे गाँवोंमें गरासिया (राजपूत) आदिकी स्त्रियोंके साथ चूड़ियोंका व्यापार करना होता है, अतः ऐसा अच्छा बोलनेकी आदत डाल रखी हो तो अपशब्द मुँहसे निकले ही नहीं। यदि भूलचूकसे भी 'गधी' जैसा शब्द मुँहसे निकल जाय तो गरासिये लोग हमारा सिर काट डालें। अतः अच्छा बोलनेका अभ्यास करनेके लिये मैं ऐसा बोलता हूँ।"
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