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उपदेशसंग्रह - २
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पता ही नहीं है। महान पुण्यके उदयसे किसी संतका योग मिलता है । स्थान-स्थान पर भुलावे में फँसने के संयोग हैं। वह भिखारी कितनी ही बार सुस्थित राजाके महलके पास आया, पर द्वारपाल उसे प्रवेश करने ही नहीं देता । जब स्वकर्मविवर नामक द्वारपालको दया आई और अंदर प्रवेशकी आज्ञा प्राप्त हुई, तब अंदर जाकर देखता है कि अहा ! वहाँ कितने ही तपस्वी, योगी और महात्मा मुक्तिके लिये प्रयत्नशील हैं, धर्मध्यान- शुक्लध्यानमें लीन हैं। उनके आत्मवैभवको देखकर वह तो दिग्मूढ हो गया । फिर भी उसके पास टूटे हुए मिट्टीके घड़ेका जो टुकड़ा (ठीकरा ) था, उस पर उसको बहुत मोह था। ‘मैं यहाँ आया हूँ, कोई मेरे इस ठीकरेको ले लेगा तो ? यहाँसे चला जाऊँ या क्या करूँ ?' यों सोचकर आँखें बन्द कर जा रहा था, पर सुस्थित राजाकी दृष्टि उस पर पड़ गई, जिससे धर्मबोधकर गुरु उसे विमलालोक नामक अंजन लगाते हैं, तब सिर हिलाता है और आँखें खोलता ही नहीं है । फिर भी आँखमें थोड़ी दवा लगने पर उसे ठीक लगता है और सब देखकर आनंदित होता है । पर उसे पुनः अपने ठीकरेकी याद आती है और उसे छुपाता फिरता है ।
यों जीव अनेकानेक पुण्यके योग प्राप्तकर भी सावधान न हो तो यह मनुष्यभव गुमा बैठने जैसा है। चाहे कितनी ही साहबी क्यों न हो, पर क्या कुछ भी साथमें आनेवाला है? इस देहको छोड़नेके बाद इनमेंसे क्या काम आयेगा ?
मुनि मोहनलालजी - भावनगरका एक राजा बहुत ही दान देता था । सयाजीविजयमें उसकी आलोचना हुई कि राजाको इतना अधिक खर्च नहीं करना चाहिये । पर उसने पर्वाह नहीं की। थोड़े दिनों बाद वह राजा मर गया। उसने जो दान दिया वह उसके साथ गया न ? पीछे जो पड़ा रहा उसमेंसे कुछ भी अब उसके काम आयेगा ? दान पुण्यमें भी दो भेद हैं- एकसे तो पुण्यके योगमें नये पुण्यका बंध होता है और एक पुण्य पूरा होकर नया पाप बँधता है। जिसके योगसे नया पुण्य बँधे वही पुण्यानुबंधी पुण्य है और वही कामका है।
प्रभुश्री - उस गद्दी पर दूसरा राजा आया। वह शिकारी और पापी था । वह नींदमें भी हरिण देखता और भय ही भयका अनुभव करता । उसने सभामें सयाने लोगोंके समक्ष यह बात कही तब चर्चा करने पर उसे विश्वास हुआ कि जो पाप किये हैं वे सब उसे घेर लेते हैं ।
एक धनवान बनिया गरीब होने पर गाँवमें जा बसा और वहाँ अनीति से पैसा एकत्रित कर लोगोंको दुःख देता जिससे मरकर बकरा हुआ । उस गाँवके लोगोंमेंसे एक मरकर कसाई हुआ । वह कसाई उस बकरेको ले जा रहा था तब एक मुनिकी दृष्टि पड़ी तब उन्हें हँसी आई। यह देखकर इस बातका स्पष्टीकरण करने लोग उपाश्रयमें गये । उन्हें मुनिने बताया कि इसी गाँवका बनिया जो परगाँवसे आकर यहाँ रहा था वही बकरा बना है । यह तो अभी उसका पहला भव है । ऐसे तो अनेक भव उसे लेने पड़ेंगे, तब लोगोंका जो खून चूसा है उसका बदला चुकेगा । ऐसे पापसे त्रास आना चाहिये ।
पूनामें एक नारणजीभाईने मुझसे पूछा - " महाराज साहब! इस माणेकजीको आपने क्या कर दिया है? पहले तो ये नित्य हजामत करवाते थे अब सप्ताहमें भी नहीं कराते ।' मैंने कहा - 'प्रभु ! उन्हें मृत्युका भय लगा है ।' दूसरा क्या कहें ? उनका भी यहाँ आनेका विचार रहता है, पर अंतरायके कारण नहीं आ सकते। यह सब कुछ करनेसे आ मिलता है न ?
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